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जैव विविधता और पर्यावरण

ई-वेस्ट

  • 27 Aug 2019
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट - ए न्यू सर्कुलर विज़न फॉर इलेक्ट्रॉनिक्स (A New Circular Vision for Electronics) इस बात पर प्रकाश डालती है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे की मात्रा वर्ष 2021 तक वैश्विक स्तर पर 52.2 मिलियन टन अथवा प्रति व्यक्ति 6.8 किलोग्राम तक पहुँचने की उम्मीद है।

प्रमुख बिंदु

  • इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हर साल 50 मिलियन टन इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिकल वेस्ट (ई-वेस्ट) का उत्पादन होता है, जिसका वज़न अब तक के सभी वाणिज्यिक एयरलाइनरों से अधिक है और इसका केवल 20% औपचारिक रूप से पुर्नचक्रित किया जाता है।
  • चीन, अमेरिका, जापान और जर्मनी की तुलना में भारत में सबसे अधिक ई-वेस्ट उत्पन्न होता है तथा इनमें अनुपयोगी हेडफ़ोन, डेस्कटॉप, कीबोर्ड, चार्जर, मदरबोर्ड, टेलीविज़न सेट, एयरकंडीशनर, रेफ्रिज़रेटर शामिल हैं। भारत द्वारा बड़ी मात्रा में ई-वेस्ट आयात किया जाता है जो इस समस्या को और भी भयावह बनाता है।
  • पुनर्चक्रण के लिये भेजे गए ई-कचरे में से केवल 20% औपचारिक रूप से पुनर्चक्रित किया जाता है, शेष 80% या तो लैंडफिल में डाला जाता है या अनौपचारिक तरीके से निस्तारित किया जाता है।
  • भारत में ई-कचरे का 95% से अधिक भाग असंगठित क्षेत्र और स्क्रैप डीलरों द्वारा प्रबंधित किया जाता है, जो कि उत्पादों को पुनर्चक्रित करने के बजाय नष्ट कर देते हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स खुले यार्डों में संग्रहित किये जाते हैं, जिससे इलेक्ट्रिसिटी लीकेज़ (Electric Leakage) खतरा बढ़ जाता है।

क्या है ई-वेस्ट?

  • देश में जैसे-जैसे डिजिटलाइज़ेशन बढ़ा है, उसी अनुपात में ई-वेस्ट भी बढ़ा है। इसकी उत्पत्ति के प्रमुख कारकों में तकनीक तथा मनुष्य की जीवन शैली में आने वाले बदलाव शामिल हैं।
  • कंप्यूटर तथा उससे संबंधित अन्य उपकरण और टी.वी., वाशिंग मशीन व फ्रिज़ जैसे घरेलू उपकरण (इन्हें White Goods कहा जाता है) और कैमरे, मोबाइल फोन तथा उनसे जुड़े अन्य उत्पाद जब अनुपयोगी हो जाते हैं तो इन्हें संयुक्त रूप से ई-कचरे की संज्ञा दी जाती है।
  • ट्यूबलाइट, बल्ब, सीएफएल जैसी वस्तुएँ जिन्हें हम रोज़मर्रा इस्तेमाल में लाते हैं, में भी पारे जैसे कई प्रकार के विषैले पदार्थ पाए जाते हैं, जो इनके बेकार हो जाने पर पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
  • इस कचरे के साथ स्वास्थ्य और प्रदूषण संबंधी चुनौतियाँ तो जुड़ी हैं ही, लेकिन साथ ही चिंता का एक बड़ा कारण यह भी है कि इसने घरेलू उद्योग का स्वरूप ले लिया है और घरों में इसके निस्तारण का काम बड़े पैमाने पर होने लगा है।

स्वास्थ्य और पर्यावरण पर ई-वेस्ट का प्रभाव

  • ई-वेस्ट में शामिल विषैले तत्त्व तथा उनके निस्तारण के असुरक्षित तौर-तरीकों से मानव स्वास्थ्य पर असर पड़ता है और तरह-तरह की बीमारियाँ होती हैं।
  • माना जाता है कि एक कंप्यूटर के निर्माण में 51 प्रकार के ऐसे संघटक होते हैं, जिन्हें ज़हरीला माना जा सकता है और जो पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य के लिये घातक होते हैं।
  • इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं को बनाने में काम आने वाली सामग्रियों में ज़्यादातर कैडमियम, निकेल, क्रोमियम, एंटीमोनी, आर्सेनिक, बेरिलियम और पारे का इस्तेमाल किया जाता है। ये सभी पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिये घातक हैं।
  • लैंडफिल में ई-वेस्ट, मिट्टी और भूजल को दूषित करता है, जिससे खाद्य आपूर्ति प्रणालियों और जल स्रोतों में प्रदूषकों का जोखिम बढ़ जाता है।
  • आज न केवल ई-वेस्ट प्रबंधन के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, बल्कि इससे होने वाले सोने, प्लेटिनम और कोबाल्ट जैसे मूल्यवान कच्चे माल के नुकसान पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया का 7% सोना ई-कचरे में शामिल हो सकता है।

निष्कर्ष

उपभोक्ताओं के लिये ‘बाई-बेक स्कीम’, ई-अपशिष्ट को एकत्र करने वाले लोगों को आर्थिक लाभ और अधिक समय तक चलने वाली वस्तुओं की कम कीमत रखकर, साथ ही, नगरपालिका व जनसमुदाय की भागीदारी के माध्यम से ई-कचरे का बेहतर निष्पादन किया जा सकता है। ई-अपशिष्ट के निपटान हेतु सबसे उपर्युक्त विधि में अनुपयोगी समानों का संग्रह व नियंत्रण है। इसके अतिरिक्त सामानों का रीफर्बिशिंग (Refurbishing) कर उसके उपयोग बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

स्रोत : द हिंदू

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