लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



डेली न्यूज़

जैव विविधता और पर्यावरण

IPCC की नई रिपोर्ट

  • 26 Sep 2019
  • 5 min read

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राज्य अमेरिका में हो रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (United Nations Climate Summit) के दौरान अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) ने ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों पर आधारित एक विशेष रिपोर्ट जारी की है।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल

(Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC):

  • IPCC की स्थापना संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम संगठन द्वारा वर्ष 1988 में की गई थी।
  • यह जलवायु परिवर्तन पर नियमित वैज्ञानिक आकलन, इसके निहितार्थ और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा शमन के विकल्प भी उपलब्ध कराता है।
  • इसका मुख्यालय ज़िनेवा में स्थित है।

1.5°C ग्लोबल वार्मिंग (1.5°C Global Warming):

  • मानव गतिविधियांँ, पूर्व-औद्योगिक स्तर से वर्तमान में 1.0°C ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने का प्रमुख कारण रही हैं। अगर यह ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान दर से लगातार बढ़ती रही तो वर्ष 2030 से वर्ष 2052 के बीच 1.5°C हो जाएगी।
  • मानवजनित कार्बन उत्सर्जन के कारण ग्लोबल वार्मिंग की लगातार बढ़ती दर के परिणामस्वरूप जलवायु प्रणाली में दीर्घकालिक परिवर्तन की संभावना बनी हुई है।

अनुमानित जलवायु परिवर्तन, संभावित प्रभाव और संबद्ध जोखिम:

  • 1.5°C से 2°C के बीच के बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग के स्तर के परिणामस्वरूप अधिकांश भूमि और महासागरों के औसत तापमान में वृद्धि होगी, सघन बसावट वाले क्षेत्रों के तापमान में तीव्र वृद्धि होगी, कई क्षेत्रों में भारी वर्षा तथा कुछ क्षेत्रों में सूखे जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से समुद्री जल का स्तर बढ़ेगा जिससे छोटे द्वीपीय देशों, निचले तटीय क्षेत्र और डेल्टाई क्षेत्र में रहने वाले लोग विशेष रूप से प्रभावित होंगे।
  • बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग की वजह से भूमि और इसके पारितंत्र पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। इससे पृथ्वी पर जैव-विविधता को हानि होगी, साथ ही कई प्रजातियों के नष्ट होने की भी संभावना बढ़ जाएगी।
  • इससे समुद्र की अम्लता में वृद्धि होगी और महासागर के ऑक्सीजन के स्तर में कमी आएगी। इसके परिणामस्वरूप समुद्री जैव-विविधता, पारिस्थितिक तंत्र तथा मत्स्य पालन को हानि होगी। इसके अतिरिक्त आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ तेज़ी से पिघल सकती है, साथ ही कोरल ब्लीचिंग की भी संभावना बढ़ गई है।
  • इससे मानव स्वास्थ्य, आजीविका, खाद्य सुरक्षा, जल आपूर्ति और आर्थिक विकास पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

1.5°C ग्लोबल वार्मिंग (1.5°C Global Warming) को कम करने हेतु प्रयास:

  • 1.5°C ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को रोकने या कम करने के लिये मानवजनित कार्बन उत्सर्जन गतिविधियों में वर्ष 2030 तक वर्ष 2010 के स्तर से 45% की कटौती करनी होगी साथ ही वर्ष 2050 तक कटौती को 100% के स्तर तक ले जाना होगा।
  • ऊर्जा संरक्षण एवं उपयोग, भूमि उपयोग, शहरी बुनियादी ढांँचा (परिवहन और भवन सहित) तथा औद्योगिक प्रणालियों में व्यापक परिवर्तन लाना होगा।
  • वर्ष 2100 तक 1.5°C ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिये 100 से 1000 गीगाटन के बीच के कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल (Carbon Dioxide Removal- CDR) को हटाना होगा।

कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल (Carbon Dioxide Removal- CDR):

  • CDR तकनीकों के एक समूह को संदर्भित करता है जिसका उद्देश्य वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को बड़े पैमाने पर हटाना है।
  • इस तरह की तकनीकों में कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के साथ जैव ऊर्जा (Bio-Energy), बायोचार (Biochar) और समुद्री निषेचन (Ocean Fertilization) आदि शामिल हैं।

स्रोत: द हिंदू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2