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भारतीय अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था के प्रोत्साहन हेतु प्रयास

  • 06 Aug 2019
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

भारतीय रिज़र्व बैंक ने जून में मौद्रिक नीति समीक्षा में रेपो दर को घटाकर 5.75% कर दिया, ताकि विकास दर को प्रोत्साहित किया जा सके।

वर्तमान परिदृश्य:

  • जून में रेपो रेट पिछले नौ वर्षों में सबसे निचले स्तर पर रहा।
  • फरवरी माह से अब तक तीन दरों के माध्यम से समग्र रूप से 75 आधार अंकों की कटौती के बावजूद आर्थिक विकास को प्रोत्साहित नहीं किया जा सका है।
  • इसके बावजूद वर्तमान में आर्थिक गतिविधियों में कोई विशेष तेज़ी नहीं आ सकी है। इसलिये आगामी मौद्रिक नीति की घोषणा में RBI से एक और बड़ी कटौती की उम्मीद की जा रही है।
  • RBI द्वारा की गई कटौती का लाभ बैंकों के कर्ज़दारों को नहीं मिल पा रहा है। इसके कारण आर्थिक गतिविधियों में तेज़ी नहीं आ पा रही है।
  • RBI के आकलन के अनुसार, 75 अंकों की कटौती के लाभ में से बैंकों द्वारा इस वर्ष केवल 21 आधार अंकों की कटौती का लाभ ही उधारकर्त्ताओं को दिया जा सका है।

रेपो और रिवर्स रेपो रेट क्या हैं?

  • RBI अर्थव्यवस्था में ब्याज दर संरचना को प्रभावित करने और मुद्रास्फीति का प्रबंधन करने के लिये रेपो दर का उपयोग करता है।
  • तकनीकी रूप से, रेपो दर वह दर है जिस पर वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक से उधार लेते हैं, और रिवर्स रेपो ब्याज की दर वह दर होती है, जिस पर वाणिज्यिक बैंक, केंद्रीय बैंक में धन जमा करते हैं।

ब्याज दरों में कटौती पर वैश्विक रुख:

  • पारंपरिक दृष्टिकोण के हिसाब से कम ब्याज दर के माध्यम से निवेश लागत कम हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप निवेश अधिक आकर्षक होता है, जो व्यवसायों के लिये बेहतर है।
  • सरकार इस स्थिति के लिये प्रयासरत रहती है क्योंकि इससे उच्च विकास और अधिक रोज़गार सृजन के लिये उच्च निवेश आकर्षित होता है। इसके विपरीत केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक स्थिरता और वृद्धि के लिये कई बार ब्याज की उच्च दर का निर्धारण करता है।
  • केंद्रीय बैंक और सरकार के बीच इस प्रकार की असमंजस्य की स्थिति को कई बारगी देखा गया है; जैसे- 1992 के चुनावों के हार के बाद जार्ज बुश ने फेडरल बैंक की नीतियों को ज़िम्मेदार बताया। इसी प्रकार वर्तमान में भी अमेरिकी फेडरल बैंक अपने ऊपर डोनाल्ड ट्रंप के दबावों की बात कर रहा है।
  • भारत में भी इस प्रकार के मामले वित्त मंत्री चिदंबरम और RBI गवर्नर सुब्बाराव के बीच विवादों के रूप में संज्ञान में आए है।
  • सरकारें आमतौर उच्च ब्याज दरों से बचने का प्रयास करती हैं, क्योंकि इससे परियोजना लागत बढ़ती हैं जो निवेशक को हतोत्साहित करती है।
  • विकास दर और नाममात्र ब्याज दर ( Nominal Interest Rates) सकारात्मक रूप से सहसंबद्ध होती हैं। इस प्रकार का दृष्टिकोण इकोलॉजिकल इकोनॉमिक्स पत्रिका में प्रकाशित पुनर्विचारित मौद्रिक नीति: ब्याज दर और नाममात्र GDP विकास के USA, UK, जर्मनी और जापान की अनुभवजन्य परीक्षण 2018 (Reconsidering Monetary Policy: An Empirical Examination of the Relationship Between Interest Rates and Nominal GDP Growth) नामक शोध द्वारा समर्थित है।
  • केंद्रीय बैंक सरकार द्वारा निर्धारित राजकोषीय घाटे पर नज़र रखता है। उच्च राजकोषीय घाटे के समय केंद्रीय बैंक के लिये मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना कठिन कार्य हो जाता है। इसके बाद केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिये ब्याज दरों को बढ़ा देता हैं।

RBI के प्रयासों की कम प्रभावशीलता के कारण:

  • जनता द्वारा जमा धन के एक हिस्से का प्रयोग वाणिज्यिक बैंक उधारकर्त्ताओं को उधार देने के लिये करते हैं।
  • हाल ही में भारतीय स्टेट बैंक ने तरलता संबंधी सुधारों का हवाला देते हुए अपनी जमा दरों को कम कर दिया है। बैंक में जमाकर्त्ताओं के जमा पर उच्च ब्याज दिये जाने के चलते बैंक की लागत बढ़ जाती है।
  • लघु बचत योजनाओं की प्रतिस्पर्द्धात्मक उच्च ब्याज दर तथा सार्वजनिक भविष्य निधि और राष्ट्रीय बचत प्रमाणपत्र की उच्च ब्याज जमा दर के कारण वाणिज्यिक बैंकों को जमा दरें उच्च रखनी पड़ रही है।
  • गैर-बैंकिंग वित्त कंपनी IL&FS द्वारा ऋण भुगतान की असमर्थता से उत्पन्न तरलता की कमी के कारण जमा दरें उच्च स्तर पर बनी हुई हैं । RBI ने तरलता को नियंत्रित करने के लिये हस्तक्षेप किया लेकिन ये हस्तक्षेप पर्याप्त नहीं थे।
  • RBI नए गवर्नर शक्तिकांत दास द्वारा ओपन मार्केट ऑपरेशन (OMO) के माध्यम से पिछले दो महीनों में चलनिधि की स्थिति में सुधार के प्रयास किये हैं। इस प्रकार ओपन मार्केट ऑपरेशन का सहारा लेना सरकारी प्रतिभूतियों की गिरती यील्ड (Yield) को प्रदर्शित करता है।

इस प्रकार, बैंकों द्वारा उधारकर्त्ताओं को कम ब्याज दरों के लाभ वितरित करने के लिये परिस्थितियाँ अनुकूल हैं।

आर्थिक विकास दर को प्रोत्साहित करने की रणनीति:

  • उत्पादन के तीन मुख्य कारकों में पूंजी, भूमि और श्रम शामिल हैं; सभी कारक बराबर रूप से एक वाणिज्यिक इकाई के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण होते हैं।
  • पूंजी के साथ ही भूमि उपलब्धता और लागत भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।
  • इसी तरह पर्याप्त श्रम बल की उपलब्धता के बाद भी श्रम बल की दक्षता एक स्तर पर अर्थव्यवस्था के लिये चिंता की बात है।
  • इसके अलावा बाजार के माहौल और मांग को ध्यान में रखा जाना चाहिये। यदि उपयोगकर्त्ताओं के पास कम मुद्रा हो तो वह निश्चित रूप से मांग को भी प्रभावित करेगी।
  • इसलिये, ऐसे वातावरण में जहाँ उत्पादन के अन्य कारक एक निवेशक के लिये अनुकूल नहीं होते हैं, वहाँ केवल कम ब्याज दरें ही निवेशकों को पर्याप्त रूप से आकर्षित नही करेंगी।

सरकार की राजकोषीय नीतियों और RBI ब्याज दरों को कम रखने जैसे समन्वित प्रयासों के माध्यम से ही मांग को प्रोत्साहित करके अर्थव्यवस्था में विकास दर को तीव्र किया जा सकता है।

स्रोत: द हिंदू

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