प्रयागराज शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 10 जून से शुरू :   संपर्क करें
ध्यान दें:

Sambhav-2023

  • 03 Jan 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस- 48

    प्रश्न.1 उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान पड़ोसी देशों के साथ ब्रिटिश भारत के संबंधों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न.2 भारत में ब्रिटिश शासन के विस्तार और सुदृढ़ीकरण में योगदान देने वाले कारकों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    उत्तर 1:

    दृष्टिकोण:

    • ब्रिटिश भारत की नीति की अस्थिर प्रकृति का परिचय दीजिये।
    • उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान पड़ोसी देशों के साथ ब्रिटिश भारत के संबंधों पर चर्चा कीजिये। इसके साथ ही इस दौरान अफगान, म्यांमार आदि जैसे पड़ोसियों के साथ होने वाले ब्रिटिशों के युद्ध के बारे में भी बताइए।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा अपनी प्रशासनिक और राजनीतिक शक्ति को मजबूत करने के क्रम में, इसका भारत के पड़ोसी देशों के साथ संघर्ष का मार्ग प्रशस्त हुआ था।

    मुख्य भाग:

    • उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिश भारत के अपने पड़ोसी देशों के साथ जटिल संबंध थे। उत्तर पश्चिम में ब्रिटिश भारत और अफगानिस्तान की सीमा का विदेशी हमलों के प्रतिरोध में एक लंबा इतिहास था। भूटान, नेपाल, तिब्बत, म्यांमार जैसे देशों के साथ ब्रिटिश भारत के बहुत ही मधुर संबंध थे। इसका उल्लेख नीचे किया गया है:
    • आंग्ल-भूटान संबंध: वर्ष 1826 में असम पर कब्जे के बाद ब्रिटिशों की पर्वतीय राज्य भूटान तक पहुँच हो गई थी। वर्ष 1865 में वार्षिक सब्सिडी के बदले में भूटान को असम के लिये पास देने हेतु मजबूर किया गया था। यह चाय बागानों वाला उत्पादक क्षेत्र बन गया था।
    • आंग्ल-नेपाल संबंध: गोरखाओं ने नेपाल पर नियंत्रण कर पहाड़ों से परे अपने प्रभुत्व का विस्तार किया था। उत्तर में चीन के प्रभाव के कारण इन्हें दक्षिणी दिशा में विस्तार करना सुलभ था। वर्ष 1801 में गोरखाओं और कंपनी के सीमाक्षेत्र संलग्न हो गए थे। इनके बीच संघर्ष लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-23) के काल में शुरू हुआ था और सुगौली की संधि (1816) के साथ समाप्त हुआ था। इस संधि के अनुसार-
      • नेपाल ने ब्रिटिश रेजीडेंट को रखना स्वीकार किया था।
      • नेपाल ने गढ़वाल और कुमाऊँ जिलों को ब्रिटिश को सौंप दिया था और तराई पर अपने दावों को त्याग दिया था।
      • नेपाल को सिक्किम से अलग किया गया था।
    • इस समझौते से ब्रिटिशों को कई लाभ हुए जैसे:
      • ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार हिमालय तक हो गया था।
      • इसे मध्य एशिया के साथ व्यापार के लिये बेहतर सुविधाएँ मिली थी।
      • शिमला, मसूरी और नैनीताल जैसे हिल स्टेशनों तक पहुँच मिली थी।
      • बड़ी संख्या में गोरखा, ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल हुए थे।
    • आंग्ल-बर्मा संबंध: बर्मा, पश्चिम की ओर विस्तार करना चाहता था। बर्मा के वन संसाधनों के लालच, बर्मा में ब्रिटिश वस्तुओं के लिये बाजार और बर्मा एवं शेष दक्षिण-पूर्व एशिया में फ्रांसीसी महत्त्वाकांक्षाओं को रोकने के क्रम में ब्रिटिशों की विस्तारवादी नीति के परिणामस्वरूप तीन आंग्ल-बर्मा युद्ध हुए थे। इनमें अंत में वर्ष 1885 में बर्मा का ब्रिटिश भारत में विलय हो गया था।
      • प्रथम बर्मा युद्ध (1824-26): पश्चिम की ओर बर्मा का विस्तार और असम एवं ब्रह्मपुत्र घाटी के लिये इसके द्वारा खतरे की आशंका से यह युद्ध हुआ था। इसमें ब्रिटिश सेना ने रंगून पर कब्जा कर लिया था। वर्ष 1826 में याण्डबू की संधि के साथ शांति समझौता हुआ था। इस संधि में निम्नलिखित प्रावधान थे जैसे-
        • बर्मा, युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में एक करोड़ रुपये का भुगतान करे,अराकान और तेनास्सेरिम प्रांतों को ब्रिटिश को सौंपे, ब्रिटेन के साथ वाणिज्यिक संधि करे और ब्रिटिश रेजीडेंट को रखने की अनुमति दे।
      • द्वितीय बर्मा युद्ध (1852): यह लॉर्ड डलहौजी की विस्तारवादी नीति के अंतर्गत ब्रिटिश वाणिज्यिक (ऊपरी बर्मा के लकड़ी संसाधन और यहाँ के बाज़ार तक पहुँच प्राप्त करना) नीति का परिणाम था।
      • तीसरा बर्मा युद्ध (1885): इसका कारण बर्मा द्वारा फ्रांस, जर्मनी और इटली जैसी ब्रिटिश की प्रतिद्वंद्वी शक्तियों के साथ वाणिज्यिक संधियों की शुरुआत करना था।
        • डफरिन ने वर्ष 1885 में ऊपरी बर्मा पर आक्रमण और अंतिम रूप से कब्जा करने का आदेश दिया था। अंततः इसे 4 जनवरी, 1948 को स्वतंत्रता मिल पायी थी।
    • आंग्ल-तिब्बत संबंध: तिब्बत पर चीन के नाममात्र आधिपत्य के साथ बौद्ध भिक्षुओं (लामाओं) के धर्मतंत्र का शासन था। ब्रिटिशों ने तिब्बत के साथ मैत्रीपूर्ण और व्यापारिक संबंध स्थापित करने के प्रयास किये थे। तिब्बत पर चीनी आधिपत्य तो अप्रभावी था लेकिन ल्हासा में रूसी प्रभाव बढ़ रहा था।
      • कर्जन ने कर्नल यंगहसबैंड के नेतृत्व में एक विशेष दल को तिब्बत भेजा था। ल्हासा की संधि (1904) द्वारा यंगहसबैंड ने तिब्बती अधिकारियों के लिये कुछ शर्तें निर्धारित कीं जैसे- तिब्बत 75 लाख रुपये की क्षतिपूर्ति का भुगतान करेगा; चंबा घाटी पर भारत का अधिकार होगा; तिब्बत किसी भी विदेशी को रेलवे, सड़क, टेलीग्राफ आदि के संदर्भ में कोई रियायत नहीं देगा।
    • आंग्ल-अफगान संबंध: फारस में रूसी प्रभाव बढ़ने से ब्रिटिश चिंतित हो गए थे। अफगान में प्रभाव बढ़ाने की आवश्यकता के कारण आंग्ल-अफगान युद्ध हुआ था।
      • ऑकलैंड की विस्तारवादी नीति: इसके तहत ब्रिटिश भारत की सीमा को संभावित रूसी हमले से सुरक्षित रखने के लिये या तो पड़ोसी देशों के साथ संधियों या उनका पूरी तरह से अधिग्रहण करना शामिल था। इससे युद्ध को बढ़ावा मिला जैसे:

    प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (1839-42): इस युद्ध से ब्रिटिशों को आर्थिक और रणनीतिक नुकसान हुआ था।

    जॉन लॉरेंस और निष्क्रियता की नीति: यह नीति प्रथम अफगान युद्ध में मिली हार और स्वतंत्रता के लिये अफगान के जुनून की प्रतिक्रिया का परिणाम थी।

    लिटन की नीति: इसका उद्देश्य सीमाओं की सुरक्षा करने के साथ अफगानिस्तान के साथ संबंधों को स्पष्ट करना था। इससे युद्ध को बढ़ावा मिला जैसे:

    द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध (1870-80): लिटन ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था। इसके बाद गंडमक की संधि (मई 1879) हुई थी जिसमें निम्नलिखित प्रावधान शामिल थे:

    अफगान अपनी विदेश नीति का संचालन ब्रिटिश भारत की सलाह से करेगा।

    काबुल में स्थायी ब्रिटिश रेजीडेंट तैनात होगा।

    रिपन ने इस योजना को त्यागकर, अफगानिस्तान को बफर राज्य के रूप में रखने का निर्णय लिया था।

    निष्कर्ष:

    • बाद के शासकों ने सिंधु और अफगानिस्तान के बीच स्थित क्षेत्र में तार्किक सीमा के निर्धारण की कोशिश की थी। इस क्रम में अफगान और ब्रिटिश क्षेत्रों के बीच डूरंड रेखा का निर्धारण हुआ था।
    • कर्जन ने इस क्षेत्र के संबंध में वापसी की नीति का पालन किया था। जिसके तहत इस क्षेत्र से ब्रिटिश सैनिकों को हटाकर कबीलाई सेना को तैनात किया गया था। इसने उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (NWFP) का निर्धारण किया था। कर्जन की नीतियों के परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिम सीमांत में शांति स्थापित हुई थी।

    उत्तर 2:

    दृष्टिकोण:

    • साम्राज्य विस्तार और ब्रिटिश सर्वोच्चता के सुदृढ़ीकरण की नीतियों का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • उन विभिन्न कारकों के बारे में बताइए जिन्होंने ब्रिटिशों को भारत में अपनी शक्ति का विस्तार करने में सक्षम बनाया था। जिसमें उनकी सैन्य और तकनीकी श्रेष्ठता, स्थानीय शासकों के साथ सामरिक संबंध और आर्थिक नीतियाँ शामिल हैं।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    1757-1857 की अवधि के दौरान ब्रिटिश सर्वोच्चता के विस्तार और समेकन की प्रक्रिया में कंपनी द्वारा दो पद्धतियों को अपनाया गया था: पहला, विजय या युद्ध द्वारा विलय की नीति, और दूसरी कूटनीति और प्रशासनिक प्रणाली द्वारा विलय की नीति।

    कंपनी ने एक-एक करके बंगाल, मैसूर, मराठों और सिखों जैसी प्रमुख भारतीय शक्तियों को हराया और अपने अधीन किया था। इसमें मुख्य रूप से युद्ध और कूटनीति का सहारा लिया गया था। इसके साथ ही कई अन्य शक्तियों के मामले में ब्रिटिशों ने कूटनीतिक और प्रशासनिक नीतियों का सहारा लिया था।

    मुख्य भाग:

    ऐसे कई कारक हैं जिन्होंने भारत में ब्रिटिश शक्ति के विस्तार और सुदृढ़ीकरण में योगदान दिया था जैसे:

    • सैन्य श्रेष्ठता: ब्रिटिशों के पास भारत में स्थानीय शासकों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत सेना थी इसके कारण यह देश के बड़े हिस्से पर प्रभाव स्थापित करने में सफल हुए थे। इनके पास तोपों और राइफलों जैसे उन्नत हथियारों एवं प्रौद्योगिकी की उपलब्धता थी।
      • इनके द्वारा क्षेत्र, धर्म और नस्ल के आधार पर सेना की तैनाती की आधुनिक शैली को अपनाया गया था। जैसे मैदानी इलाकों में डोगरा और पहाड़ों में पंजाबी सैनिकों की नियुक्ति।
    • सामरिक गठबंधन: ब्रिटिशों ने स्थानीय शासकों को अन्य शक्तियों से सुरक्षा प्रदान करके या उन्हें कुछ विशेषाधिकार प्रदान करने वाली संधियों के माध्यम से उनके साथ रणनीतिक गठबंधन किये थे। इन गठबंधनों के कारण ब्रिटिशों को देश के विभिन्न हिस्सों में अपने प्रभाव का विस्तार करने में सहायता प्राप्त हुई थी।
      • उदाहरण के लिये वॉरेन हेस्टिंग्स की घेरे की नीति, वेलेज़ली की 'सहायक संधि की नीति और डलहौजी के व्यपगत सिद्धांत द्वारा क्षेत्र विस्तार किया गया था।
    • आर्थिक नीतियाँ: ब्रिटिशों ने कई ऐसी आर्थिक नीतियों को शुरु किया था जिनसे भारत में इनकी शक्ति मजबूत हुई थी। उदाहरण के लिये इनके द्वारा शुरु की गई भू-राजस्व (स्थायी, रैयतवाड़ी और महालवाड़ी) संग्रहण प्रणाली द्वारा कृषि से बड़ी मात्रा में धन प्राप्त हुआ था।
      • एकतरफा मुक्त व्यापार समझौता भी ब्रिटिशों के पक्ष में था।
      • इन्होंने अफीम और कपास जैसी नकदी फसलों के विकास को भी प्रोत्साहित किया था जिससे ब्रिटिशों को तो लाभ हुआ था लेकिन स्थानीय अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा था।
      • ब्रिटिशों ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के युद्ध प्रयासों को वित्तपोषित करने के लिये यूरोप के ऋण बाजार से लाभ उठाया था।
    • राजनीतिक अस्थिरता: भारत की राजनीतिक स्थिति ने भी ब्रिटिश सत्ता के विस्तार में भूमिका निभाई थी। जिस समय ब्रिटिश भारत में अपनी शक्ति का विस्तार करने में लगे थे उस समय देश, राजनीतिक रूप से अस्थिर था और कई छोटे राज्य सत्ता प्राप्त करने के लिये प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। इससे ब्रिटिशों को लाभ मिला था।
      • जैसे: मुगलों के पतन के दौरान कमजोर उत्तराधिकारी, दक्षिणी और पूर्वी भारत के कमजोर और अक्षम शासक यानी बंगाल के सिराज-उद-दौला, हैदराबाद के निज़ाम और दक्कन के मराठों के कारण इन्हें अपना प्रभाव बढ़ाने में सहायता मिली थी।
    • तकनीकी श्रेष्ठता: ब्रिटिशों की उन्नत तकनीकों तक पहुँच थी जिससे इन्हें भारत में स्थानीय शासकों पर प्रभाव स्थापित करने में लाभ हुआ था। उदाहरण के लिये इनके पास भाप संचालित जहाज होने के कारण यात्रा करना और संचार करना आसान हो गया था। रेलवे के विकास से भी भारत में इनके विस्तार को प्रोत्साहन मिला था।

    निष्कर्ष:

    कुल मिलाकर भारत में ब्रिटिश सत्ता के विस्तार और सुदृढ़ीकरण में सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक कारकों की भूमिका थी। इन कारकों से ब्रिटिश, भारत में स्वयं को प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित करने और देश के समाज और अर्थव्यवस्था पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने में सक्षम हुए थे।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2