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Sambhav-2023

  • 30 Dec 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस- 45

    प्रश्न.1 भक्ति और सूफी आंदोलन भारत के दो अलग-अलग क्षेत्रों से शुरू हुए सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन थे। इन आंदोलनों द्वारा होने वाले सुधारों का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न.2 क्षेत्रीय साहित्य के विकास में भक्ति आंदोलन के योगदान की विवेचना कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    उत्तर: 1

    दृष्टिकोण:

    • भक्ति और सूफी आंदोलन का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • इन आंदोलनों से होने वाले सुधारों का विश्लेषण कीजिये और इन सुधारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • भारत को विश्व के विभिन्न धर्मों, पंथों और विश्वासों के जन्म और संगम स्थल के रूप में जाना जाता है।
      • भक्ति आंदोलन की शुरुआत संभवतः तमिल क्षेत्र (दक्षिण भारत) में 6ठी और 7वीं शताब्दी के आसपास अलवरों और नयनारों की कविताओं से हुई थी। इसे वैष्णव और शैव कवियों के अंतर्गत उत्तर भारत में काफी लोकप्रियता हासिल हुई थी।
      • रहस्यवादी या सूफी, गहन समर्पण वाले व्यक्ति थे। कुछ प्रारंभिक सूफियों जैसे रहस्यवादी महिला राबिया (आठवीं शताब्दी) और मंसूर बिन हलाज (दसवीं शताब्दी) ने ईश्वर और आत्मा के मिलन के रूप में प्रेम पर बहुत जोर दिया था। सूफी 12 सिलसिला में संगठित थे।
        • इस आंदोलन के प्रतिपादक ऐसे मुस्लिम संत थे जिन्होंने भारत के वेदांतिक दर्शन और बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया था।

    मुख्य भाग:

    इन आंदोलनों द्वारा होने वाले सामाजिक-धार्मिक सुधार:

    • धार्मिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों को अंधविश्वास से बाहर निकालने हेतु प्रेरित किया गया था। दोनों ही धर्मों द्वारा अपने विचारों और प्रथाओं में कमियों को दूर करने की सराहना की गई थी। इस आंदोलन से कबीरपंथी जैसे विभिन्न संप्रदायों और सिख धर्म जैसे धर्मों का उदय हुआ था। इसके कारण दक्षिण भारत के लिंगायतों जैसे कुछ सबसे तर्कसंगत धार्मिक संप्रदायों का भी उदय हुआ था।
    • सामाजिक प्रभाव: विभिन्न सामाजिक प्रथाओं को जाति और वर्ण व्यवस्था जैसे आंदोलनों द्वारा उन्मूलित किया गया था और एक समतावादी समाज के विकास पर बल दिया गया था। इनके कारण महिलाओं, निम्न जाति एवं दमित लोगों को सामाजिक सम्मान प्राप्त हुआ था।
      • सामूहिक रसोई और भोजन जैसी प्रथाओं के परिणामस्वरूप उन्नत सामाजिक व्यवस्था स्थापित होने से भारतीय साहित्य का भी संवर्द्धन हुआ था।
      • इस प्रकार इन आंदोलनों से सकारात्मक बदलाव आए थे।
      • विभिन्न धर्मों के मूल्यों को अपनाकर इन आंदोलनों द्वारा भारत में समग्र संस्कृति के विकास को प्रोत्साहन दिया गया था जैसे- निजामुद्दीन औलिया और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने हिंदू धर्म के योग और नाम सुमिरन आदि प्रथाओं को अपनाया था।
    • राजनीतिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन का राजनीतिक क्षेत्र पर भी प्रभाव पड़ा था क्योंकि कई शासकों ने सामाजिक-धार्मिक भक्ति आंदोलन से प्रेरित होकर उदार धार्मिक नीतियों को अपनाया था। जैसे अकबर की सुलह-ए-कुल की नीति और विभिन्न धर्मों के संतों और विद्वानों को संरक्षण देना आदि।
    • नैतिक प्रभाव: इन आंदोलनों से लोगों को समर्पण, कड़ी मेहनत और ईमानदारी के माध्यम से अपनी संपत्ति अर्जित करने के लिये प्रोत्साहित किया गया था। इसके द्वारा लोगों को समाज सेवा करने और एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति विकसित करने के लिये भी प्रेरित किया गया था। इससे लोगों में धैर्य एवं आत्म-नियंत्रण के गुण भी विकसित हुए थे।
    • क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देना: क्षेत्रीय भाषाओं की उन्नति, भक्ति और सूफी आंदोलन का एक और प्रभाव रहा है। भक्ति संतों ने मराठी, गुजराती (नरसी मेहता ने), हिंदी (तुलसी और कबीर ने) जैसी स्थानीय भाषाओं का उपयोग किया था और सूफी संतों ने भारत में क्षेत्रीय भाषाओं के साथ फारसी एवं अरबी का भी उपयोग किया था।
      • इससे सभी के लिये सहज एवं सुलभ भाषाओं के उपयोग को बढ़ावा मिला था। उदाहरण के रुप में कबीर ने अपने संग्रह में कई भाषाओं का उपयोग किया था। दूसरी ओर सूरदास ने बृज भाषा का प्रयोग किया था और गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा का प्रयोग किया था।

    भक्ति और सूफी आंदोलन से रचनात्मक विकास के अलावा कुछ नकारात्मक परिणाम भी सामने आए जैसे:

    • मुसलमानों और तुर्क-अफगानों ने राधा-कृष्ण या सीता-राम भक्ति पंथ को आध्यात्मिक गतिविधि के रूप में अस्वीकार किया था।
    • इस दौरान तंत्र-मंत्र और काले जादू के उद्भव से लोग कड़ी मेहनत और सही तरीके के बजाय रहस्यमयी शक्तियों के माध्यम से इच्छाओं को प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित हुए थे।
    • भक्ति और सूफी गतिविधियों के प्रचार के कारण, दोनों पंथों में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये टकराव की स्थिति बनी थी।
      • एक-दूसरे पर श्रेष्ठता साबित करने के क्रम में रूढ़िवादी गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला था। जो सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों के लिये बाधक साबित हुईं।
    • हालाँकि इन आंदोलनों से उदारवादी विचारों का प्रचार हुआ था लेकिन ऐसे विचारों को व्यवहार में लाने के लिये बहुत कम प्रयास किये गए थे।
    • इन आंदोलनों द्वारा लोगों (मुख्य रूप से निम्न आर्थिक स्थिति वाले लोगों) की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने पर बहुत कम ध्यान दिया गया था और आर्थिक उत्थान के बिना, सामाजिक उत्थान अप्रभावी होता है।
    • इन आंदोलनों के नेतृत्वकर्ताओं के विचार समकालीन सामाजिक स्थिति से प्रेरित थे जैसे कबीर, तुलसी और निजामुद्दीन औलिया के विचार महिलाओं के बारे में बहुत उदार नहीं थे।

    निष्कर्ष:

    • भक्ति और सूफी आंदोलन को नागरिकों में प्रेम और भक्ति के भाव को शामिल करने एवं निम्न वर्ग के लोगों के प्रति नकारात्मक भाव को दूर करने के लिये शुरू किया गया था।
    • हालाँकि यह आंदोलन आंशिक रूप से विचारधारा में बदलाव लाने में सफल रहे थे क्योंकि यह धार्मिक सुधार और मुसलमानों एवं हिंदुओं के बीच सद्भाव विकसित करने हेतु प्रेरित थे।
    • इन आंदोलनों के प्रभाव से 18वीं शताब्दी में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ था जिससे न केवल हिंदू धर्म की विभिन्न कुरीतियाँ समाप्त हुईं थीं बल्कि आगे चलकर अन्य धर्मों में भी इसी तरह के सुधार आंदोलनों को अपनाया था।

    उत्तर: 2

    दृष्टिकोण:

    • भक्ति और सूफी आंदोलन एवं समाज पर इसके प्रभावों की चर्चा करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • इन आंदोलनों से होने वाले क्षेत्रीय भाषा और साहित्य के विकास की व्याख्या कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    सूफी और भक्ति आंदोलन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शुरु हुए थे। सूफी और भक्ति दोनों ही आंदोलनों में व्यक्तिगत आत्मा के साथ परमात्मा के मिलन पर बल दिया गया था। इस मिलन हेतु ‘प्रेम’ को अधिक महत्त्व दिया गया था। इन आंदोलनों द्वारा मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाने पर बल दिया गया था।

    मुख्य भाग:

    अपनी शिक्षाओं को लोगों तक अधिक सुलभता से पहुँचाने के लिये इन्होंने पारंपरिक भाषाओं जैसे- संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के उपयोग के स्थान पर स्थानीय भाषाओं जैसे हिंदी, बंगाली, मराठी और सिंधी आदि का उपयोग किया था। भक्ति और सूफी संतों द्वारा इन आम भाषाओं के उपयोग से निस्संदेह इन भाषाओं को लोकप्रियता हासिल हुई थी।

    • पूर्वी उत्तर प्रदेश में सूफी संत जैसे मुल्ला दाउद (चंदायन' के लेखक), मलिक मुहम्मद जायसी (पद्मावती' के लेखक) ने हिंदी में लिखा था और सूफी अवधारणाओं को ऐसे रूप में प्रस्तुत किया जिसे आम लोगों के लिये समझना सुलभ हो।
    • चैतन्य और कवि चंडीदास द्वारा बंगाली भाषा का उपयोग किया गया था। इन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंग पर विस्तार से लिखा था।
    • 15वीं शताब्दी में ब्रह्मपुत्र घाटी में शंकरदेव ने असमी भाषा के प्रयोग को लोकप्रिय बनाया था। इन्होंने अपने विचारों के प्रसार के लिये नए तरीके अपनाए थे।
    • वर्तमान के महाराष्ट्र में, एकनाथ और तुकाराम जैसे संतों द्वारा मराठी भाषा को चरम पर पहुँचाया गया था।
    • गुजरात में कृष्ण भक्ति के संत, नरशी मेहता ने अपनी कविताओं या पद को स्थानीय भाषा में गाकर गुजराती और हिंदी को लोकप्रिय बनाया था।
    • महात्मा गांधी का पसंदीदा भजन "वैष्णवजन तो तेने कहिये",नरशी मेहता की ही रचना है।
    • कबीर, नानक और तुलसीदास जैसे अन्य प्रमुख संतों ने अपने मनोरम छंदों के द्वारा क्षेत्रीय साहित्य और भाषा में बहुत योगदान दिया था।
    • साहित्यिक आंदोलन के रूप में इस दौरान केवल शासकों की स्तुति करने के विपरीत काव्य में आध्यात्मिक विषयों को शामिल किया गया था। शैली के दृष्टिकोण से देखें तो इस दौरान सरल और सुलभ शैलियों जैसे वचन (कन्नड़ में) एवं साखी, दोहा और अन्य रूपों को विभिन्न भाषाओं में प्रस्तुत कर संस्कृत के आधिपत्य को समाप्त किया गया था।

    निष्कर्ष:

    भक्ति और सूफी संतों के विचार उनके द्वारा विकसित साहित्य के माध्यम से समाज के सांस्कृतिक लोकाचार में शामिल हैं। इनके विचारों में समानता से न केवल आंतरिक संघर्षों की प्रवृत्ति में कमीं आई बल्कि समाज में सहिष्णुता की भावना का भी विकास हुआ। आम जनता तक संदेश पहुँचाने हेतु इन्होंने अपने आदर्शों को गीतों, कहावतों और कहानियों में शामिल किया था जिससे अवधी, भोजपुरी, मैथिली और कई अन्य भाषाओं के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।

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