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  • 09 Aug 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस 30: भारत में विचारधाराओं और मतों की संख्या ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कमज़ोर कर दिया था। क्या आप सहमत हैं? (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण

    • स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में विभिन्न विचारधाराओं और आवाजों का परिचय दीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि ये विचारधाराएँ किस प्रकार एक-दूसरे के विरुद्ध कार्य कर रही थीं साथ ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कमज़ोर कर रही थीं।
    • इन विचारधाराओं के सकारात्मक प्रभाव की भी चर्चा कीजिये जिससे भारतीय समाज और स्वतंत्रता संग्राम दोनों को लाभ हुआ।
    • उपयुक्त रूप से निष्कर्ष दीजिये।

    भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नरमपंथी, चरमपंथी, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट और गांधीवादी तथा और जाति एवं धर्म आधारित कई विचारधाराएँ शामिल थीं।

    इन हितों और विचारधाराओं का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर बहुत असमान प्रभाव पड़ा। आमतौर पर, ये विचारधाराएँ भारतीय समाज के व्यापक और समग्र हित का प्रतिनिधित्व करती थीं। लेकिन कई बार इन हितों और विचारधाराओं की परस्पर विरोधी प्रकृति ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक सुलहकारी स्वरूप प्रदान किया।

    इनमें से कुछ विचारधाराएँ व्यापक रूप से भारतीय हितों के साथ साथ अन्य किसी विशेष समूह, विचारधारा या समाज के एक वर्ग के लिये भी संघर्ष कर रही थीं।

    वे विचारधाराएँ जिन्होंने अपने परस्पर विरोधी स्वभाव के कारण भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कमज़ोर/बहिष्कृत किया था:

    • औपनिवेशिक शक्तियों के साथ संघर्ष के तरीकों के संबंध में शुरुआती क्रांतिकारियों और नरमपंथियों के विचारों के बीच संघर्ष तथा मतभेदों ने दोनों पक्षों के प्रयासों को विफल कर दिया जिसके कारण कोई महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल नहीं हुई।
    • ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन तथा उनके उद्देश्यों के प्रति अपने अलग अलग विचारों के कारण नरमपंथियों और चरमपंथियों के बीच वर्ष 1907 के सूरत विभाजन ने वर्ष 1916 (जब दोनों एकजूट हो गए) तब तक स्वतंत्रता संग्राम में एक लंबे समय तक एक अस्थिरता बनी रही।
    • द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कॉन्ग्रेस में स्वतंत्रता प्राप्त करने के तरीकों के संबंध में गांधीवादी विचारों और सुभाष बोस के विचारों के बीच संघर्ष, किसी भी तरह से समाप्त नहीं हुआ।
    • डॉ. अंबेडकर और गांधीजी जैसे नरमपंथियों के बीच के मतभेदों ने दोनों पक्षों के प्रयासों को कमज़ोर कर दिया। उदाहरण के लिये न तो डॉ अंबेडकर निम्न वर्ग के एकमात्र प्रतिनिधि बन सकते थे और न ही गांधी जी को उनके मतभेदों के कारण लंदन में दूसरे दौर की मेज सम्मेलन में पूरे भारत के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी गई।
    • वर्ष 1930 के दशक में इंडियन नेशनल कॉन्ग्रेस (आईएनसी) और मुस्लिम लीग की विचारधारा के बीच के अंतर ने लंबे समय तक गतिरोध पैदा कर दिया था और यहाँ तक कि दंगों और भारत के विभाजन जैसी गंभीर वास्तविकता भी सामने आई।

    हालाँकि इन विचारधाराओं के कार्यों में अंतर था, लेकिन एक संपूर्ण भारतीय समाज के रूप में इन विचारधाराओं ने विभिन्न लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को जन्म दिया जो एक समावेशी और लोकतांत्रिक समाज के रूप में विकसित हुए।

    विभिन्न विचारधाराओं ने एक समावेशी समाज को जन्म दिया:

    • शुरुआती उदारवादी भारतीय समाज के कुलीन वर्ग के विचारों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तथा बाद के उदारवादियों के पास ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के बारे में शहरी मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों का दृष्टिकोण था। शुरुआती और बाद के दोनों उदारवादियों ने एक लोकतांत्रिक और सहिष्णु वातावरण उत्पन्न किया जिसने विभिन्न और परस्पर विरोधी हितों के साथ कार्य करने को सक्षम बनाया।
    • शुरुआती क्रांतिकारी ज़्यादातर समाज के अभिजात वर्ग से थे, जैसे कि शुरुआती नरमपंथी थे, लेकिन बाद के क्रांतिकारियों में भगत सिंह, सूर्य सेन (एक स्कूल शिक्षक) जैसे मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों और प्रीतिलता वद्देदार (सूर्य सेन के साथ छापेमारी), बीना दास (गवर्नर पर गोली चलाई) जैसी महिलाओं की भागीदारी बढ़ गई। यह वर्ग भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) में सुभाषचंद्र बोस के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे जिसमें एक महिला रेजिमेंट भी थी।
    • जाति और धर्म आधारित समूह समाज के अभिजात वर्गों की आवाजें उठा रहे थे और यह न केवल स्वतंत्रता संग्राम को अधिक लोकतांत्रिक और समावेशी बना रहा था बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को राष्ट्र निर्माण आंदोलन भी बना रहा था।
    • गांधीवादी विचारधारा गरीबों से लेकर अमीर और उच्च जाति से लेकर समाज के दलित वर्ग तक की जनता का प्रतिनिधित्व कर रही थी। इसने भारतीयों के बीच "हम" की भावना के साथ उनके नेतृत्व में कई महान जन आंदोलनों को सक्षम बनाया।
    • एनी बेसेंट (भारत के लिये होमरूल की स्थापना) और हैरी वेरियर होल्मन एल्विन (महात्मा गांधी के साथ तथा उड़ीसा और म.प्र. के बैगा एवं गोंड के साथ और कई पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासियों के साथ कार्य किया) जैसे विदेशी लोगों ने एक अनूठा परिप्रेक्ष्य पेश किया और समाज के अज्ञात वर्ग की आवाज उठाई।

    भारतीय समाज की अपनी विविध और अनूठी प्रकृति के कारण विचारधाराओं की विभिन्नता में वृद्धि होना लाज़िमी है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम न केवल स्वतंत्रता के लिये संघर्ष था, बल्कि एक स्थायी और प्रगतिशील लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिये भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के बीच लोकतांत्रिक और प्रगतिशील उदार आदर्शों को विकसित करने हेतु एक राष्ट्र निर्माण अभियान भी था।

    हालाँकि स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न विचारधाराओं के तरीकों ने स्वतंत्रता आंदोलन को कमज़ोर कर दिया। लेकिन इन उतार-चढ़ावों के कारण, हम एक अद्वितीय समाज और विशाल विविधता वाले राष्ट्र के रूप में विकसित हुए, एक ऐसा राष्ट्र जिसके बारे में किसी ने नहीं सोचा था जहाँ तक की औपनिवेशिक बुद्धिजीवी भी भारत को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देख रहे थे।

    विभिन्न हितों वाले राष्ट्र के रूप में भारत का निर्माण उन विचारधाराओं के कारण संभव हुआ है।

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