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  • 30 Jul 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्था

    दिवस 20: शून्य बजट प्राकृतिक खेती जैविक खेती से किस प्रकार भिन्न है? ZBNF के पारिस्थितिक और आर्थिक लाभों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण

    • जैविक खेती और प्राकृतिक खेती में अंतर लिखिये।
    • शून्य बजट प्राकृतिक खेती के पारिस्थितिक और आर्थिक लाभों का उल्लेख कीजिये।
    • उपयुक्त रूप से निष्कर्ष निकालें।

    शून्य बजट प्राकृतिक खेती मूल रूप से महाराष्ट्र के एक किसान सुभाष पालेकर द्वारा विकसित रसायन मुक्त कृषि (Chemical-Free Farming) का एक रूप है। इसे 1990 के दशक के मध्य में हरित क्रांति के तरीकों के विकल्प के रूप में विकसित किया था। यह विधि कृषि की पारंपरिक भारतीय प्रथाओं पर आधारित है। यह एक अनूठा मॉडल है जो कृषि पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है। इसका उद्देश्य उत्पादन लागत को लगभग शून्य पर लाना और खेती की पूर्व-हरित क्रांति शैली में लौटना है। इस विधि में कृषि लागत जैसे कि उर्वरक (Fertilisers), कीटनाशक (Pesticides) और गहन सिंचाई (Intensive Irrigation) की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

    प्राकृतिक खेती और जैविक खेती के बीच अंतर

                  जैविक खेती

               शून्य बजट प्राकृतिक खेती

    जैविक खेती में जैविक उर्वरक और खाद जैसे- कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, गाय के गोबर की खाद आदि का उपयोग किया जाता है और बाहरी उर्वरक  का खेतो में प्रयोग किया जाता है।

    प्राकृतिक खेती में मृदा में न तो रासायनिक और न ही जैविक खाद डाली जाती है। वास्तव में बाहरी उर्वरक का प्रयोग न तो मृदा में और न ही पौधों में किया जाता है।

    जैविक खेती के लिये अभी भी बुनियादी कृषि पद्धतियों जैसे- जुताई, गुड़ाई, खाद का मिश्रण, निराई आदि की आवश्यकता होती है।

    प्राकृतिक खेती में मृदा की सतह पर ही रोगाणुओं और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के अपघटन को प्रोत्साहित किया जाता है, इससे धीरे-धीरे मृदा में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होती है।

    व्यापक स्तर पर खाद की आवश्यकता के कारण जैविक खेती अभी भी महँगी है और इस पर  आसपास के वातावरण व पारिस्थितिक का प्रभाव पड़ता है; जबकि प्राकृतिक कृषि एक अत्यंत कम लागत वाली कृषि पद्धति है, जो स्थानीय जैव विविधता के साथ पूरी तरह से अनुकूलित हो जाती है।

    प्राकृतिक खेती में न जुताई होती है, न मृदा को पलटा जाता है और न ही उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है तथा किसी भी पद्धति का ठीक उसी तरह नहीं अपनाया जाता है जैसे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में होता है।

    शून्य बजट प्राकृतिक खेती  (ZBNF) के पारिस्थितिक और आर्थिक लाभ:

    • उत्पादन की न्यूनतम लागत: इसे रोज़गार बढ़ाने और ग्रामीण विकास की गुंजाइश के साथ एक लागत-प्रभावी कृषि पद्धति/प्रथा माना जाता है।
    • बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करना: चूँकि प्राकृतिक खेती में किसी भी सिंथेटिक रसायन का उपयोग नहीं किया जाता है, इसलिये स्वास्थ्य जोखिम और खतरे समाप्त हो जाते हैं। साथ ही भोजन में उच्च पोषक तत्त्व होने से यह बेहतर स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।
    • रोज़गार सृजन: प्राकृतिक खेती नए उद्यमों, मूल्यवर्द्धन, स्थानीय क्षेत्रों में विपणन आदि में रोज़गार के सृजन में सहायक है। प्राकृतिक खेती से प्राप्त अधिशेष का निवेश गाँव में ही किया जा सकता है। चूँकि इसमें रोज़गार सृजन की क्षमता है, जिससे ग्रामीण युवाओं का पलायन रुकेगा।
    • पर्यावरण संरक्षण: यह बेहतर मृदा जीव विज्ञान, बेहतर कृषि जैव विविधता और बहुत छोटे कार्बन एवं नाइट्रोजन पदचिह्नों के साथ जल का अधिक न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करती है।
    • जल की कम खपत: विभिन्न फसलों के साथ प्रतिकिया करके यह एक-दूसरे की मदद करते हैं और वाष्पीकरण के माध्यम से अनावश्यक जल के नुकसान को रोकने के लिये मृदा को कवर करते हैं, प्राकृतिक खेती 'प्रति बूँद फसल' की मात्रा को अनुकूलित करती है।
    • मृदा स्वास्थ्य को पुनर्जीवित करना: प्राकृतिक खेती का सबसे तात्कालिक प्रभाव मृदा के जीव विज्ञान- रोगाणुओं और अन्य जीवित जीवों जैसे केंचुओं पर पड़ता है। मृदा स्वास्थ्य पूरी तरह से उसमें रहने वाले जीवों पर निर्भर करता है।
    • पशुधन स्थिरता: कृषि प्रणाली में पशुधन का एकीकरण प्राकृतिक खेती में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और पारिस्थितिकी तंत्र के पुनर्चक्रण में मदद करता है। जीवामृत और बीजामृत जैसे इको-फ्रेंडली बायो-इनपुट गाय के गोबर और मूत्र तथा अन्य प्राकृतिक उत्पादों से तैयार किये जाते हैं।
    • लचीलापन: जैविक कार्बन, कम/न्यून जुताई और पौधों की विविधता की मदद से मृदा की संरचना में परिवर्तन गंभीर सूखे जैसी चरम स्थितियों में भी पौधों की वृद्धि में सहायक हो सकता है एवं चक्रवात के दौरान गंभीर बाढ़ तथा वायु द्वारा होने वाली क्षति को कम किया जा सकता हैं। मौसम की चरम सीमाओं के खिलाफ फसलों को लचीलापन प्रदान कर प्राकृतिक खेती किसानों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है।

    विश्व की जनसंख्या वर्ष 2050 तक लगभग 10 बिलियन तक बढ़ने का अनुमान है। संभावना है कि वर्ष 2013 की तुलना में कृषि मांग 50% तक बढ़ जाएगी, ऐसी स्थिति में कृषि-पारिस्थितिकी जैसे 'समग्र' दृष्टिकोण की ओर एक परिवर्तनकारी प्रक्रिया, कृषि वानिकी, जलवायु-स्मार्ट कृषि और संरक्षण कृषि की आवश्यकता है। कृषि बाज़ार के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने और सभी राज्यों में खाद्यान्न और गैर-खाद्यान्न फसलों के लिये खरीद तंत्र का विस्तार करने की आवश्यकता है। चयनित फसलों के लिये प्राइस डेफिसिएंसी पेमेंट सिस्टम का कार्यान्वयन करना। 'एमएसपी पर बेचने का अधिकार' पर कानून बनाने या तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है।

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