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  • 12 Jul 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस 2: उदाहरण दीजिये कि भारतीय राजनीतिक इतिहास में भारत के गवर्नर जनरल के रूप में रिपन की नीतियों को ऐतिहासिक घटना के रूप में क्यों देखा जाता है? (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण

    • भारत में एक अद्वितीय नीति कार्यान्वयनकर्त्ता के रूप में रिपन के व्यक्तित्व के बारे में संक्षेप में बताइये।
    • रिपन की कुछ नीतियों को सूचीबद्ध कीजिये जो उस समय ऐतिहासिक नीतियाँ थीं और भारतीयों के जीवन पर एक चिरस्थायी प्रभाव डालती थीं।
    • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    रिपन 1880 से 1884 के बीच गवर्नर जनरल रहे। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता से लेकर कारखानों के नियमन, स्थानीय स्वशासन और शैक्षिक क्षेत्र में कई नीतियों की शुरुआत की थी। वह एक प्रमुख पूर्व कॉन्ग्रेस गवर्नर जनरल थे, जिन्होंने विभिन्न नीतियों को लागू किया था जो बाद में भारतीयों के हित में काफी हद तक सही साबित हुईं।

    रिपन द्वारा शुरू की गई और लागू की गई वाटरशेड नीतियाँ निम्नलिखित थीं:

    श्रम की स्थिति में सुधार के लिये प्रथम भारतीय कारखाना अधिनियम 1881 का प्रख्यापन- यह मुख्य रूप से 7 से 12 वर्ष की आयु के बीच बाल श्रम की समस्या से संबंधित था।

    • अधिनियम के महत्त्वपूर्ण प्रावधान थे:
    • 7 वर्ष से कम आयु के बच्चों को रोज़गार निषिद्ध।
    • बच्चों के लिये काम के घंटे प्रतिदिन 9 घंटे तक सीमित थे।
    • बच्चों के लिये एक महीने में चार छुट्टियों का प्रावधान था।
    • खतरनाक मशीनरी के उपयोग में सावधानी बरतनी चाहिये।
    • यह पहला कारखाना अधिनियम था जिसने क्रमिक कारखाना विनियमन के लिये मार्ग प्रशस्त किया।
    • इसने शशिपाद बनर्जी (1870) और नारायण मेघाजी लोखंडे (1880) जैसे भारतीय बुद्धिजीवियों की मांग को भी पूरा किया, जिन्होंने श्रम कल्याण के लिये विभिन्न कदम उठाए थे।
    • महिलाओं और बच्चों के कार्यों को विनियमित करने के लिये लाया गया दूसरा भारतीय कारखाना अधिनियम 1891, पहले अधिनियम का प्रभाव था।

    रिपन द्वारा वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट 1882 का निरसन वर्ष 1908 तक भारत में प्रेस के महत्त्वपूर्ण विकास के रूप में चिह्नित किया गया था, जिस दौरान समाचार पत्र (अपराधों के लिये प्रोत्साहन) अधिनियम को लोगों की भाषण की स्वतंत्रता को कम करने के लिये प्रख्यापित किया गया था तथा जिसके तहत तिलक ने मुकदमा दायर किया था।

    रिपन द्वारा स्थानीय स्वशासन 1882 पर सरकारी प्रस्ताव ने उन्हें भारत में स्थानीय शासन के जनक का दर्जा दिया। इसके प्रावधानों के कारण यह एक वाटरशेड नीति थी:

    • राजनीतिक और लोकप्रिय शिक्षा के साधन के रूप में स्थानीय निकाय।
    • परिभाषित कर्तव्य और राजस्व के स्रोतों के साथ ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय निकाय।
    • न्यूनतम आधिकारिक हस्तक्षेप के साथ तथा आरक्षण के साथ अध्यक्ष की बहुमत में गैर-सरकारी सीट।
    • रिपन ने स्थानीय स्वशासन के लिये यह नवीन नीति प्रस्तुत की थी जो स्वाधीनता के बाद के भारत में पंचायती राज व्यवस्था और शहरी स्थानीय निकायों के रूप में विकसित हुई तथा ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को कायम करने में इसका अत्यधिक महत्त्व है।

    सर विलियम हंटर 1882 की अध्यक्षता में शिक्षा आयोग का गठन जिसे हंटर आयोग के नाम से भी जाना जाता है:

    • यह 1854 के प्रेषण के बाद से देश में शिक्षा की प्रगति की समीक्षा करने वाला पहला आयोग था।
    • हंटर आयोग ने ज़्यादातर अपनी सिफारिश को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा तक ही सीमित रखा क्योंकि पहले की योजनाओं में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा की उपेक्षा की गई थी।
    • इसने सिफारिश की कि प्राथमिक शिक्षा का नियंत्रण ज़िला और नगर पालिका बोर्डों को हस्तांतरित करने के साथ, वर्नाक्युलर के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के लिये राज्य की विशेष देखभाल की आवश्यकता है।
    • माध्यमिक शिक्षा को साहित्यिक और व्यावसायिक दो भागों में विभाजित करना होगा, इसने महिला शिक्षा के लिये अपर्याप्त सुविधाओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया
    • इस आयोग के प्रभाव से विभिन्न शिक्षण-सह-परीक्षा विश्वविद्यालय स्थापित किए गए जैसे 1882 में पंजाब विश्वविद्यालय और 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय।

    इल्बर्ट बिल विवाद (1883-84): यह विधेयक भारत की न्यायिक प्रणाली में एक बड़ा सुधार था जिसका उद्देश्य भारत की ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार में कानून के शासन को लागू करना था।

    • विधेयक ने भारतीय न्यायाधीशों द्वारा यूरोपीय लोगों को मुकदमे की सुविधा प्रदान की थी लेकिन गोरों और अश्वेतों के बीच नस्लीय भेदभाव के कारण विधेयक पारित नहीं हो सका।
    • न्यायपालिका में आदर्श मूल्यों के समावेश के लिये रिपन का यह एक महत्त्वपूर्ण प्रयास था।

    रिपन ने नवीन और प्रगतिशील विचारों के साथ विभिन्न नीतियों का निर्माण किया लेकिन अपने सहयोगियों द्वारा सहयोग की कमी और प्रभावी कार्यान्वयन की कमी के कारण उस समय की नीतियों की प्राप्ति के लक्ष्य में बाधा उत्पन्न हुई। लेकिन बाद में ये नीतियाँ आधुनिक भारत में विभिन्न कल्याणकारी, आदर्शवादी और लोकतांत्रिक नीतियों के निर्माण एवं कार्यान्वयन की आधारशिला बनीं।

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