रणथंभौर में अवैध खनन पर प्रतिबंध | राजस्थान | 09 Jun 2025
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान सरकार को रणथंभौर टाइगर रिज़र्व के कोर क्षेत्र में तत्काल खनन पर प्रतिबंध लगाने तथा रिज़र्व के भीतर मंदिरों में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या को नियंत्रित करने के लिये एक समिति गठित करने का आदेश दिया है।
मुख्य बिंदु
- वन्य जीवन के लिये गंभीर ख़तरा:
- केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) द्वारा दायर आवेदन में कई मुद्दे उठाए गए:
- उलियाना गाँव के निकट भारी मशीनरी का उपयोग कर लगभग 150 हेक्टेयर भूमि पर अवैध खनन किया जा रहा है।
- अनधिकृत निर्माण, रिज़र्व के अंदर त्रिनेत्र गणेश मंदिर के आसपास वाहनों और मानव की अत्यधिक उपस्थिति।
- न्यायालय की टिप्पणियाँ:
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खनन पर कानूनी चिंताएँ:
- न्यायालय ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 का उल्लंघन करते हुए संरक्षित क्षेत्र में खनन की अनुमति देने के लिये राज्य प्राधिकारियों की आलोचना की।
- बाघ संरक्षण योजना बाघों के मुख्य आवासों के अंदर किसी भी प्रकार के खनन, निजी वाहनों की आवाजाही या निर्माण पर प्रतिबंध लगाती है।
- तीन सदस्यीय समिति का गठन:
- सरिस्का बाघ अभयारण्य में इसी तरह की स्थिति को देखते हुए, पीठ ने रणथंभौर में समस्याओं के समाधान के लिये तीन सदस्यीय समिति के गठन का आदेश दिया।
- सरिस्का के मॉडल के आधार पर न्यायालय का सुझाव:
- निर्दिष्ट प्रवेश बिंदुओं पर निजी वाहनों पर प्रतिबंध लगाया जाए,
- श्रद्धालुओं को त्रिनेत्र गणेश मंदिर तक ले जाने के लिये इलेक्ट्रिक शटल बसों का उपयोग किया जाए।
- रणथंभौर टाइगर रिज़र्व के बारे में:
- रणथम्भौर को वर्ष 1955 में वन्यजीव अभयारण्य, वर्ष 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर के तहत टाइगर रिज़र्व तथा वर्ष 1980 में राष्ट्रीय उद्यान के रूप में अधिसूचित किया गया।
- यह अरावली एवं विंध्य पर्वत शृंखलाओं के मिलन बिंदु पर तथा सात नदी प्रणालियों के संगम पर स्थित है, जो इसे पारिस्थितिक रूप से अद्वितीय और अत्यधिक जैवविविधतापूर्ण बनाता है।
- इसमें रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के साथ-साथ सवाई मानसिंह और कैलादेवी अभयारण्य (Kailadevi sanctuaries) भी शामिल हैं।
- रणथंभौर किला, जिसके नाम से जंगलों का नाम पड़ा है, के बारे में कहा जाता है कि इसका इतिहास 1000 वर्ष से भी ज़्यादा पुराना है। यह उद्यान के भीतर 700 फीट ऊँची पहाड़ी पर रणनीतिक रूप से स्थित है।
- विशेषताएँ:
- इस रिज़र्व में अत्यधिक खंडित वन क्षेत्र, खड्ड, नदी-नाले और कृषि भूमि शामिल हैं।
- यह कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य के कुछ हिस्सों, चंबल के खड्डों वाले आवासों और श्योपुर के वन क्षेत्रों के माध्यम से मध्य प्रदेश के कुनो-पालपुर परिदृश्य से जुड़ा हुआ है।
- चंबल नदी की सहायक नदियाँ बाघों को कुनो राष्ट्रीय उद्यान की ओर जाने के लिये आसान मार्ग प्रदान करती हैं।
सरिस्का बाघ अभयारण्य
- परिचय:
- सरिस्का बाघ अभयारण्य अरावली पर्वतमाला में स्थित है, जो राजस्थान के अलवर ज़िले का एक हिस्सा है।
- सरिस्का को वर्ष 1955 में एक वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया था और बाद में वर्ष 1978 में इसे बाघ अभयारण्य घोषित किया गया, जिसके बाद से यह भारत के प्रोजेक्ट टाइगर का हिस्सा बन गया।
- कंकरवाड़ी किला अभयारण्य के केंद्र में स्थित है और कहा जाता है कि मुगल सम्राट औरंगज़ेब ने सिंहासन के उत्तराधिकार के संघर्ष में अपने भाई दारा शिकोह को इस किले में कैद कर लिया था।
- इस अभयारण्य में खंडहर हो चुके मंदिर, किले, छत्र और एक महल स्थित हैं।इस अभयारण्य में पांडुपोल में पांडवों से संबंधित भगवान हनुमान का एक प्रसिद्ध मंदिर भी है।
- वनस्पति और जीव:
- इसके तहत चट्टानी रुपी आकृति के साथ अर्द्ध शुष्क काँटेदार वन, घास के मैदान, चट्टानें एवं अर्द्ध-पर्णपाती वन शामिल हैं।
- इसमें ढोक वृक्ष, सालार, कदया, गोल, बेर, बरगद, बाँस, कैर आदि प्रमुख हैं।
- यहाँ पर रॉयल बंगाल टाइगर, तेंदुए, साँभर, चीतल, नीलगाय, चार सींग वाले मृग, जंगली सुअर, लकड़बग्घे एवं जंगली बिल्लियों जैसे विभिन्न जीव-जंतु भी पाए जाते हैं।
चंडीगढ़ में ततैया की नई प्रजाति की खोज | हरियाणा | 09 Jun 2025
चर्चा में क्यों?
चंडीगढ़ में एक नए परजीवी ततैया की प्रजाति लॉसग्ना ऑक्सीडेंटलिस (Losgna occidentalis) की खोज की गई है, जो भारत में लॉसग्ना वंश की लगभग 60 के वर्षों बाद पुनः खोज को चिह्नित करती है।
मुख्य बिंदु
- यह ततैया परजीवी इक्नीमोनिडी (Ichneumonidae) कुल से संबंधित है, जो अन्य संधिपाद प्राणियों (आर्थोपोडा) के ऊपर या उनके भीतर अंडे देने के लिये जाना जाता है।
- हेनरिक के वर्ष 1965 के मोनोग्राफ के बाद से भारत में लॉसग्ना वंश को दर्ज नहीं किया गया था।
- वर्ष 1965 के बाद किसी भी भारतीय संस्था के पास लॉसग्ना से संबंधित अभिलेख, नमूने या साहित्य उपलब्ध नहीं था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह पूर्वोत्तर भारत में अपने ज्ञात क्षेत्र से लुप्त हो चुका था।
- इसे वर्ष 2023-24 की सर्दियों के दौरान चंडीगढ़ में एक खिड़की पर खोजा गया। पश्चिमी भारत में इसके स्थान को दर्शाने के लिये इस प्रजाति का नाम लॉसग्ना ऑक्सीडेंटलिस रखा गया।
- इससे पूर्व, यह प्रजाति केवल पूर्वी भारत एवं समीपवर्ती दक्षिण-पूर्व एशिया के उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों में ही देखी गई थी।
- ऐतिहासिक नमूने:
- इस खोज से पहले लॉसग्ना के एकमात्र ज्ञात नमूने निम्नलिखित स्थानों पर संरक्षित किये गये थे:
- प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय, लंदन
- द होप कलेक्शन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी
- जूलॉजिकल स्टेट कलेक्शन म्यूनिख (ZSM), म्यूनिख
- वैज्ञानिक एवं संरक्षण महत्त्व:
- वर्गीकरण पुनरुद्धार: विस्मृत लॉसग्ना वंश के अध्ययन को पुनर्जीवित करता है तथा जैवविविधता संरक्षण में वर्गीकरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर ज़ोर देता है।
- हाइमनोप्टेरा का महत्त्व: इस समूह के तितैया परागणकर्त्ता और जैविक नियंत्रण एजेंट के रूप में कार्य करते हैं तथा पारिस्थितिक संतुलन में योगदान देते हैं।
- शहरी जैवविविधता पर प्रकाश: यह खोज शहरी आवासों की समृद्ध जैवविविधता को उजागर करती है, यहाँ तक कि ऐसे आवासों की भी जिन्हें क्षीण माना जाता है, जैसे शुष्क झाड़ीदार वन।
हाइमनोप्टेरा
- हाइमेनोप्टेरा, कीट जिन्हें सामान्यतः चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, ततैया और सॉफ्लाई के नाम से जाना जाता है, अधिकांश स्थलीय आवासों में कशेरुकी जीवों की विविधता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
- यह कीड़ों के चार विशाल-विविध वर्गों में से एक है, जिनमें कोलेओप्टेरा (भृंग), डिप्टेरा (मक्खियाँ) और लेपिडोप्टेरा (पतंगे एवं तितलियाँ) भी शामिल हैं।
राजा भभूत सिंह | मध्य प्रदेश | 09 Jun 2025
चर्चा में क्यों?
मध्य प्रदेश सरकार ने 19वीं सदी के आदिवासी नेता राजा भभूत सिंह को सम्मान देने के लिये पचमढ़ी वन्यजीव अभयारण्य का नाम उनके नाम पर रख दिया है।
मुख्य बिंदु
- राजा भभूत सिंह के बारे में:
- 1857 के विद्रोह में योगदान: राजा भभूत सिंह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध 1857 के विद्रोह के दौरान एक प्रमुख किंतु कम प्रसिद्ध आदिवासी नेता थे।
- गुरिल्ला युद्ध के विशेषज्ञ: उन्होंने सतपुड़ा के जंगलों और भू-भाग का गहन ज्ञान रखते हुए प्रभावी गुरिल्ला हमले किये तथा वर्षों तक ब्रिटिश सेनाओं का प्रतिरोध किया।
- तात्या टोपे के सहयोगी: उन्होंने तात्या टोपे जैसे राष्ट्रीय नेताओं से घनिष्ठ संबंध बनाए रखे और स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन दिया।
- शहादत और विरासत: अंग्रेज़ो ने उन्हें पकड़ने के लिये मद्रास इन्फैंट्री को तैनात किया और अंततः वर्ष 1860 में उनकी हत्या कर दी। उनकी विरासत आज भी कोरकू लोक परंपराओं में जीवित है।
- मध्य प्रदेश में सम्मानित अन्य जनजातीय नेता:
- टंट्या भील: वर्ष 2021 में पातालपानी रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर टंट्या भील के नाम पर रखा गया।
- भीमा नायक: भील स्वतंत्रता सेनानी भीमा नायक के सम्मान में एक स्मारक की घोषणा की गई है।
- भीमा नायक स्मारक: नायक ने 1818–1850 के बीच खानदेश में भील प्रतिरोध का नेतृत्व किया।
- रानी कमलापति: भोपाल स्थित हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर गोंड रानी कमलापति के नाम पर रखा गया। वह गिन्नौर किले (वर्तमान सीहोर) के शासक निज़ाम शाह की सातवीं पत्नी थीं।
- शंकर शाह और रघुनाथ शाह: वर्ष 2021 में यह घोषणा की गई कि छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम गोंड राजघरानों के नाम पर रखा जाएगा।
- पचमढ़ी वन्यजीव अभयारण्य:
- परिचय:
- यह दक्कन प्रायद्वीप जैवभौगोलिक क्षेत्र में स्थित है तथा मध्य भारत के जैविक प्रांत के अंतर्गत आता है।
- यह सतपुड़ा पर्वत शृंखला के मध्य में स्थित है, जो भारत में पश्चिम से पूर्व तक फैली हुई है।
- इस रिज़र्व का सबसे ऊँचा स्थान धूपगढ़ है, जो समुद्र तल से 1,352 मीटर ऊँचा है.
- रिज़र्व के भीतर संरक्षित क्षेत्र:
- इस बायोस्फीयर रिज़र्व में तीन प्रमुख संरक्षित क्षेत्र शामिल हैं: बोरी वन्यजीव अभयारण्य, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, पचमढ़ी अभयारण्य।
- ये तीनों क्षेत्र मिलकर सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व का निर्माण करते हैं, जो मध्य भारत के लिये एक महत्त्वपूर्ण संरक्षण परिदृश्य है।
कोरकू जनजाति
- परिचय:
- कोरकू समुदाय मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र के मेलघाट क्षेत्र में निवास करता है।
- परंपरागत रूप से, कोरकू स्थायी कृषक तथा कुशल किसान रहे हैं। वे अपने क्षेत्रों में आलू और कॉफी जैसी फसलें उगाने में अग्रणी थे।
- हालाँकि आज अधिकांश कोरकू समुदाय के पास पर्याप्त कृषि भूमि है, लेकिन कुछ लोगों ने 19वीं सदी के अंत तक झूम खेती से हटकर वानिकी तथा खेतीहर मज़दूरी की ओर रुख किया।
- कोरकू गाँव आमतौर पर घास और लकड़ी से बनी छोटी-छोटी झोपड़ियों से बने होते हैं।
- वे वंशानुगत, पुरुष-वंश-आधारित समुदायों में रहते हैं, जिनका नेतृत्व परंपरागत मुखिया करते हैं।
- सांस्कृतिक प्रथाएँ और विश्वास:
- कोरकू जनजाति की एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है तथा परंपरागत चिकित्सा पद्धतियाँ आज भी सक्रिय रूप से उपयोग में हैं।
- वे अपने पूर्वजों को देवता के रूप में पूजते हैं तथा उनकी स्मृति में 'मुंडा' नामक स्मारक स्तंभ स्थापित करते हैं।
