भारत की परिवहन व्यवस्था
प्रिलिम्स के लिये: प्रधानमंत्री गति शक्ति – राष्ट्रीय मास्टर प्लान, राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन (NIP), राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन, कवच 5.0
मेन्स के लिये: भारत में बार-बार होने वाली परिवहन बाधाओं के कारण और नीतिगत निहितार्थ, शहरी और अंतर-शहरी गतिशीलता में सार्वजनिक निवेश बनाम बाज़ार-आधारित मॉडल की भूमिका, शहरी परिवहन में पहुँच।
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2025 में भारत के परिवहन क्षेत्र को गंभीर अव्यवस्थाओं का सामना करना पड़ा— चरम मौसम (पीक सीज़न) में ट्रेनों में अत्यधिक भीड़ से लेकर बड़ी संख्या में उड़ानों के रद्द होने तक। इन घटनाओं ने सीमित आपूर्ति के बीच बढ़ती मांग को संतुलित करने में मौजूद चुनौतियों को स्पष्ट रूप से उजागर किया।
- ये व्यवधान नवउदारवादी नीतियों और अल्पनिवेश के बीच भारत की परिवहन व्यवस्था पर बढ़ते दबाव को रेखांकित करते हैं।
भारत की परिवहन व्यवस्था में बाधा डालने वाली चुनौतियाँ क्या हैं?
- बुनियादी ढाँचे की कमियाँ: दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे प्रमुख शहरी केंद्रों में सड़कों पर भीषण भीड़भाड़ रहती है। कुशल सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों की कमी यातायात की समस्या को और भी बढ़ा देती है।
- शहरी क्षेत्रों में रेल सेवाओं की कमी, लगातार देरी और पीक आवर्स व त्योहारों के दौरान सीमित क्षमता के कारण भारी भीड़भाड़ उत्पन्न होती है।
- भारत की रेल और सड़क बुनियादी ढाँचे का अधिकांश हिस्सा पुराना हो चुका है, जिसके कारण यात्रा धीमी होती है, बार-बार खराबी आती है और सुरक्षा जोखिम बढ़ जाते हैं।
- नव-उदारवादी बाधाएँ: भारत का आर्थिक मॉडल राज्य की निवेश करने की क्षमता को सीमित करता है, जबकि न्यूनतम निगरानी के साथ निजी क्षेत्र के विस्तार को प्रोत्साहित करता है।
- इससे दोहरी समस्या उत्पन्न होती है:
- सार्वजनिक सेवाएँ भले ही किफायती हों, लेकिन सीमित वित्तपोषण के कारण वे भीड़भाड़, बार-बार खराबियों और लगातार संसाधनों की कमी जैसी समस्याओं का सामना करती रहती हैं।
- यद्यपि निजीकरण और विनियमन में ढील से दक्षता बढ़ाने की अपेक्षा की गई थी, लेकिन व्यावहारिक रूप से ये कदम अक्सर बाज़ार में एकाधिकार या अल्पाधिकार उत्पन्न कर देते हैं। परिणामस्वरूप, विमानन जैसे क्षेत्रों में इंडिगो जैसी कुछ बड़ी कंपनियाँ बाज़ार पर अत्यधिक नियंत्रण स्थापित कर लेती हैं, जिससे प्रतिस्पर्द्धा घटती है और किराए बढ़ जाते हैं।
- इसका परिणाम एक ऐसी व्यवस्था है जहाँ न तो सार्वजनिक परिवहन और न ही निजी परिवहन उपभोक्ता कल्याण की विश्वसनीय रूप से रक्षा करता है।
- इससे दोहरी समस्या उत्पन्न होती है:
- सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: भारत में सड़क दुर्घटनाओं की दर विश्व स्तर पर सबसे अधिक है।
- बुनियादी ढाँचे में सुरक्षा सुविधाओं की कमी के कारण पैदल यात्री और साइकिल चालक जैसे कमज़ोर सड़क उपयोगकर्त्ता विशेष रूप से जोखिम में हैं।
- रेलवे में किये गए सुधारों के बावजूद, दुर्घटनाएँ और पटरी से उतरने की घटनाएँ अब भी जारी हैं, जिससे न केवल जानमाल का नुकसान होता है बल्कि जनता में गहरा असंतोष भी फैलता है।
- वर्ष 2025 में अहमदाबाद में हुए एयर इंडिया विमान हादसे में 200 से अधिक लोगों की मौत हो गई, जिससे भारत की परिवहन प्रणालियों में सुरक्षा संबंधी खामियों को लेकर चिंताएँ और बढ़ गई हैं।
- पर्यावरणीय स्थिरता: परिवहन क्षेत्र भारत में वायु प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है और यह देश के ऊर्जा-संबंधित CO₂ उत्सर्जन में 14% का योगदान देता है।
- सतत विकल्पों जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) की ओर बदलाव हो रहा है, लेकिन इसकी गति अभी भी धीमी है।
- चरम मौसमी घटनाएँ, जैसे बाढ़ और तूफान, परिवहन अवसंरचना के लिये बढ़ते खतरे का कारण बन रहे हैं, जो जलवायु-सहनशील अवसंरचना की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
- डेटा-आधारित निर्णय-निर्माण का अभाव: यद्यपि डिजिटलीकरण में सुधार हुआ है, परिवहन क्षेत्र में अभी भी यातायात प्रबंधन, भीड़ कम करने और लॉजिस्टिक्स को अनुकूलित करने हेतु व्यापक डेटा-आधारित रणनीतियों का अभाव है।
- स्मार्ट ट्रैफिक लाइट्स, GPS-सक्षम बसें और डिजिटल टिकटिंग जैसे नवाचार देश के अनेक हिस्सों में अभी भी अपने प्रारंभिक चरण में हैं।
- लॉजिस्टिक्स एवं माल ढुलाई संबंधी चुनौतियाँ: लॉजिस्टिक्स क्षेत्र अल्प-प्रभावी वेयरहाउसिंग, पुरानी परिवहन प्रणालियों और सीमा शुल्क विलंब का सामना करता है, जिससे लागत बढ़ती है, प्रतिस्पर्द्धात्मकता कम होती है और कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि होती है।
- प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार प्रायः परियोजनाओं के खराब कार्यान्वयन, विलंब और बजट अधिव्यय का कारण बनता है। उदाहरण के लिये, निविदा और अनुबंध-प्रदान प्रक्रियाओं में कभी-कभी पारदर्शिता का अभाव होता है, जिससे परियोजना कार्यान्वयन अक्षम हो जाता है।
- सामाजिक न्याय और सुलभता: यद्यपि सार्वजनिक परिवहन के कम किराये सामर्थ्य सुनिश्चित करते हैं, परंतु वे प्रायः सेवाओं तक बेहतर सुलभता में परिवर्तित नहीं होते।
- अनेक शहरों में सार्वजनिक परिवहन प्रणालियाँ भीड़भाड़ वाली, अविश्वसनीय और वृद्धजनों, महिलाओं तथा दिव्यांगजनों सहित संवेदनशील वर्गों के लिये सुलभता में कठिन हैं।
भारत के परिवहन क्षेत्र का महत्त्व क्या है?
- परिवहन क्षेत्र राष्ट्रीय गतिशीलता का मुख्य आधार है, जो सड़क, रेल और विमानन नेटवर्कों के ज़रिये देशभर में लोगों और वस्तुओं की बड़े पैमाने पर आवाजाही सुनिश्चित करता है।
- यह लॉजिस्टिक्स लागत को कम करता है और बाज़ार दक्षता को बढ़ाता है, जिससे भारत के वैश्विक विनिर्माण और निर्यात केंद्र बनने के लक्ष्य को समर्थन मिलता है।
- यह दूरस्थ, ग्रामीण, सीमावर्ती और जनजातीय क्षेत्रों को शहरी एवं आर्थिक केंद्रों से जोड़कर राष्ट्रीय एकीकरण को मज़बूत करता है।
- विश्वसनीय बहु-मॉडल संपर्कता के माध्यम से यह कृषि, MSME, पर्यटन, व्यापार और उद्योग जैसे प्रमुख आर्थिक क्षेत्रों को सहायता प्रदान करता है।
- यह स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, सार्वजनिक सेवाओं और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच सुधार कर लाखों लोगों के लिये सामाजिक समावेशन को बढ़ाता है।
- यह आपदा प्रतिक्रिया और आपूर्ति-शृंखला सहनशीलता को बढ़ावा देता है, जिससे संकट और आपात स्थितियों के दौरान आवश्यक आवागमन सुनिश्चित होता है।
परिवहन क्षेत्र के विकास के लिये भारत की क्या पहलें हैं?
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पहल |
उद्देश्य |
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सड़क, रेल, हवाई और बंदरगाहों में अवसंरचना योजना को एकीकृत करना ताकि लॉजिस्टिक्स लागत कम हो। |
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प्रमुख परिवहन और संपर्कता परियोजनाओं के लिये दीर्घकालिक वित्तपोषण प्रदान करना। |
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राष्ट्रीय राजमार्गों को सुधारना, आर्थिक गलियारे बनाना और माल ढुलाई को बढ़ाना। |
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बंदरगाहों का आधुनिकीकरण करना, तटीय शिपिंग का विस्तार करना और बंदरगाह-नेतृत्व विकास को बढ़ावा देना। |
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मेट्रो रेल नीति 2017 |
मेट्रो विस्तार, सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) और पारगमन-उन्मुख विकास (TOD) को मार्गदर्शन प्रदान करना। |
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क्षेत्रीय हवाई संपर्कता का विस्तार करना और हवाई यात्रा को किफायती बनाना। |
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शहरों में इलेक्ट्रिक बसों की तैनाती कर सार्वजनिक परिवहन में सुधार करना, उत्सर्जन कम करना और इलेक्ट्रिक वाहनों व चार्जिंग अवसंरचना को बढ़ावा देना। |
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स्मार्ट यातायात प्रबंधन और वास्तविक-समय गतिशीलता डेटा प्रणालियों को सक्षम करना। |
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अमृत भारत एवं वंदे भारत पहल |
उन्नत सुविधाओं और अवसंरचना के साथ रेलवे स्टेशनों का आधुनिकीकरण करना। |
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NMT, स्मार्ट ट्रैफिक प्रणालियों और एकीकृत पारगमन समाधानों के माध्यम से शहरी गतिशीलता में सुधार करना। |
भारत की परिवहन प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिये कौन-से उपाय किये जा सकते हैं?
- सार्वजनिक परिवहन का आधुनिकीकरण: शहरी गतिशीलता, रेल उन्नयन और एकीकृत लॉजिस्टिक्स पार्कों को प्राथमिकता देने के लिये राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन (NIP) और गति शक्ति राष्ट्रीय मास्टर प्लान जैसे ढाँचों का उपयोग करना।
- एन. के. सिंह समीक्षा समिति (2016) ने एक अधिक अनुकूल राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (FRBM) रूपरेखा की सिफारिश की, जिससे राजकोषीय सीमाओं में लक्षित शिथिलता की अनुमति मिल सके ताकि सरकार मूल अवसंरचना में सार्वजनिक निवेश बढ़ा सके।
- यह अनुरूपता भारत की परिवहन प्रणाली के आधुनिकीकरण के लिये संसाधन-सृजन का अवसर प्रदान करती है।
- एन. के. सिंह समीक्षा समिति (2016) ने एक अधिक अनुकूल राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (FRBM) रूपरेखा की सिफारिश की, जिससे राजकोषीय सीमाओं में लक्षित शिथिलता की अनुमति मिल सके ताकि सरकार मूल अवसंरचना में सार्वजनिक निवेश बढ़ा सके।
- सुरक्षित परिवहन प्रणाली का निर्माण: शहरी परिवहन को राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा नीति (2010) और WHO ग्लोबल रोड सेफ्टी रिपोर्ट द्वारा सुझाए गए सेफ सिस्टम अप्रोच के अनुरूप विकसित करना।
- भारत की स्वदेशी ऑटोमैटिक ट्रेन प्रोटेक्शन प्रणाली को सभी अत्यधिक घनी आबादी वाले मार्गों पर कवच 5.0 को जल्द-से-जल्द लागू करना।
- MoHUA की शहरी परिवहन नीति (NUTP 2006) के तहत शहरी सुरक्षा ऑडिट को अनिवार्य बनाएं।
- सतत और कम-कार्बन मोबिलिटी को बढ़ावा देना: राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन योजना (NEMMP) का उपयोग करके शहरी यात्राओं को निजी वाहनों से EV-आधारित सार्वजनिक परिवहन की ओर स्थानांतरित करना।
- जलवायु-संधारणीयता अवसंरचना विकसित करना: जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) और सतत कृषि के लिये राष्ट्रीय मिशन का उपयोग करके ऐसी अवसंरचना का निर्माण करें जो बाढ़, हीटवेव और तूफानों का सामना कर सके।
- स्ट्रीट्स फॉर पीपल चैलेंज, Cycles4Change और स्मार्ट-सिटी पैदल यात्रीकरण मॉडल जैसी योजनाओं के माध्यम से NMT का विस्तार करना।
- डेटा-आधारित मोबिलिटी गवर्नेंस को तीव्र करना: इंटेलिजेंट ट्रांसपोर्ट सिस्टम्स (ITS) नीति 2022 के तहत रीयल-टाइम डेटा, पूर्वानुमान विश्लेषण और डिजिटल ट्रैफिक प्रबंधन की निगरानी को सुदृढ़ करना।
- सामाजिक समानता और सार्वभौमिक पहुँच को मज़बूत करना: दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के प्रावधानों के अनुरूप पहुँच-संबंधी मानकों को लागू करते हुए रैंप, टैक्टाइल मार्ग, लो-फ्लोर बसों और सुलभ मेट्रो जैसी सुविधाओं को सुनिश्चित करना।
- निर्भया कोष द्वारा समर्थित CCTV नेटवर्क, पैनिक बटन, लास्ट-माइल शटल और रोशनी वाले पैदल मार्गों के माध्यम से महिलाओं की सुरक्षा में सुधार करना।
निष्कर्ष
भारत में परिवहन संकट यह दिखाते हैं कि हमारी प्रणाली बढ़ती मांग और अपर्याप्त निवेश के कारण दबाव में है। अब सुरक्षा, क्षमता और सतत गतिशीलता को सुदृढ़ करना अत्यंत आवश्यक है। एक अनुकूल परिवहन नेटवर्क बनाने के लिये सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना और सभी नागरिकों हेतु न्यायसंगत व कुशल सेवाएँ सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण होगा।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में परिवहन व्यवधानों के कारण और परिणामों का विश्लेषण कीजिये। ये घटनाएँ नव-उदारवादी नीति मॉडल की ताकत और सीमाओं को कैसे दर्शाती हैं? |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. भारतीय शहरों में लगातार सड़क जाम क्यों होता है?
तेज़ शहरीकरण, पुराने सड़क नेटवर्क, कमज़ोर सार्वजनिक परिवहन और लास्ट-माइल कनेक्टिविटी की कमी मुख्य महानगरों में लगातार ट्रैफिक जाम की समस्याएँ उत्पन्न करती हैं।
2. PM गति शक्ति क्या है और यह परिवहन के लिये क्यों महत्त्वपूर्ण है?
PM गति शक्ति एक राष्ट्रीय मास्टर प्लान है जो मल्टीमॉडल अवसंरचना के समन्वय के लिये बनाया गया है। यह लॉजिस्टिक्स लागत कम करता है और सड़क, रेल, बंदरगाह और हवाई अड्डा परियोजनाओं को तेज़ और समन्वित ढंग से लागू करने में मदद करता है।
3. कौन-कौन से उपाय कमज़ोर उपयोगकर्त्ताओं के लिये परिवहन सुरक्षा और पहुँच को बेहतर बनाते हैं?
मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम की धाराओं का पालन, शहरी सुरक्षा ऑडिट अनिवार्य करना, ट्रेनों हेतु कवच प्रणाली और दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम का पालन सभी के लिये सुरक्षित और सुलभ परिवहन सुनिश्चित करते हैं।
सारांश
- भारत में 2025 के परिवहन व्यवधानों ने गहरी संरचनात्मक समस्याओं को उजागर किया, जिनमें भीड़भाड़ वाली रेलवे, पुरानी अवसंरचना और विमानन क्षेत्र में एकाधिकार शामिल हैं।
- नव-उदारवादी वित्तीय सीमाओं ने सार्वजनिक निवेश को प्रतिबंधित किया, जबकि नियमन में ढील ने निजी क्षेत्र को प्रभुत्व हासिल करने दिया, जिससे उपभोक्ता कल्याण कमज़ोर हुआ।
- सुरक्षा जोखिम, उच्च प्रदूषण, जलवायु संवेदनशीलता, कमज़ोर लॉजिस्टिक्स दक्षता और डेटा-आधारित शासन की कमी प्रणाली पर लगातार दबाव डालते हैं।
- एक लचीली और न्यायसंगत परिवहन नेटवर्क के लिये सार्वजनिक निवेश को मज़बूत करना, सुरक्षा मानकों को लागू करना, सतत गतिशीलता को बढ़ावा देना और पहुँच सुधारना आवश्यक है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
मेन्स
प्रश्न. गति शक्ति योजना के संयोजकता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये सरकार और निजी क्षेत्र के मध्य सतर्क समन्वय की आवश्यकता है। विवेचना कीजिये। (2022)
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को सुदृढ़ बनाना
प्रिलिम्स के लिये: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM), संवैधानिक निकाय, अर्द्ध-न्यायिक अधिकार, अल्पसंख्यक, जनगणना 2011, उच्च न्यायालय, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC), राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST)
मेन्स के लिये: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, इसके सामने आने वाली चुनौतियाँ और इसे सुदृढ़ करने के लिये आवश्यक कदम।
चर्चा में क्यों?
अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) में लंबित पदों को भरने के लिये कोई समय सीमा तय नहीं की है, भले ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस देरी पर सरकार से जवाब मांगा हो।
- अप्रैल 2025 से राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) में कोई अध्यक्ष नहीं है और अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा सभी सदस्य पद रिक्त पड़े हुए हैं।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) क्या है?
- परिचय: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) एक संवैधानिक निकाय है, जिसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के तहत स्थापित किया गया है। इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों और हितों की रक्षा करना तथा उनकी सुरक्षा एवं विकास सुनिश्चित करना है।
- पहला सांविधिक आयोग 17 मई, 1993 को गठित किया गया था।
- उत्पत्ति: अल्पसंख्यक आयोग (Minorities Commission- MC) की स्थापना वर्ष 1978 में गृह मंत्रालय के एक प्रस्ताव के माध्यम से की गई थी और वर्ष 1984 में इसे नवगठित कल्याण मंत्रालय के अधीन स्थानांतरित किया गया। वर्ष 1988 में कल्याण मंत्रालय ने आयोग के अधिकार क्षेत्र से भाषायी अल्पसंख्यकों को बाहर कर दिया।
- कम-से-कम पाँच सदस्य, जिनमें अध्यक्ष भी शामिल हों, अधिसूचित अल्पसंख्यक समुदायों (मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन) से से संबंधित होने चाहिये।
- संरचना: NCM में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पाँच सदस्य होते हैं। इन्हें केंद्र सरकार द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से नामित किया जाता है जो प्रतिष्ठा, क्षमता और ईमानदारी के लिये जाने जाते हों।
- कार्यादेश और अवधि: आयोग के पास अर्द्ध-न्यायिक अधिकार (Quasi-judicial powers) होते हैं और प्रत्येक सदस्य शामिल होने की तिथि से 3 वर्ष की अवधि के लिये कार्य करता है।
- पद से हटाना:
भारत में अल्पसंख्यक कौन हैं और उनके संवैधानिक सुरक्षा उपाय क्या हैं?
- अल्पसंख्यकों के संबंध में: भारत के संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी यह धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को मान्यता देता है।
- NCM अधिनियम, 1992 एक वैधानिक परिभाषा प्रदान करता है, जिसमें अल्पसंख्यक को उस समुदाय के रूप में परिभाषित किया गया है जिसे केंद्र सरकार द्वारा आधिकारिक रूप से अल्पसंख्यक घोषित किया गया हो।
- अल्पसंख्यक समुदाय: वर्ष 1993 में कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, भारत सरकार ने प्रारंभ में पाँच धार्मिक समुदायों—मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी (ज़रथुस्त्री) को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में मान्यता दी थी।
- इस सूची में बाद में 2014 में जैन को शामिल किया गया, जिससे वे छठे अधिसूचित अल्पसंख्यक समुदाय बने।
- अल्पसंख्यकों की जनसंख्या:
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धर्म |
संख्या (करोड़ में) |
% |
|
मुस्लिम |
17.22 |
14.2 |
|
ईसाई |
2.78 |
2.3 |
|
सिख |
2.08 |
1.7 |
|
बौद्ध |
0.84 |
0.7 |
|
जैन |
0.45 |
0.4 |
|
कुल |
23.37 |
19.30 |
स्रोत: जनगणना 2011
अल्पसंख्यकों के लिये संवैधानिक सुरक्षा उपाय:
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- दीर्घकालिक रिक्तियाँ: राष्ट्रीय मुख्यमंत्री परिषद काफी हद तक निष्क्रिय रही है क्योंकि दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा इन पदों को भरने के लिये बार-बार याद दिलाने के बावजूद अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य जैसे सभी प्रमुख पद रिक्त हैं।
- सीमित स्वायत्तता: नियुक्तियाँ केंद्र सरकार के विवेक पर की जाती हैं, जिससे NCM की स्वतंत्रता और राजनीतिक तटस्थता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं तथा एक निष्पक्ष निगरानी संस्था के रूप में इसकी भूमिका कमज़ोर होती है।
- अल्पसंख्यक की परिभाषा में अस्पष्टता: अल्पसंख्यक का दर्जा वर्तमान में केवल धर्म के आधार पर तय किया जाता है, जिसमें भाषाई और जातीय अल्पसंख्यक शामिल नहीं होते। इसका परिणाम यह होता है कि समान मान्यता की कमी और राज्य-स्तर पर अल्पसंख्यक निर्धारित करने को लेकर लगातार बहस बनी रहती है।
- सलाहकारी प्रकृति और प्रवर्तन शक्ति का अभाव: एक वैधानिक निकाय होने के नाते , आयोग केवल सरकार को कार्रवाई की सिफारिश कर सकता है, लेकिन उसके निर्णय बाध्यकारी नहीं होते हैं और वह प्रवर्तन या दंड नहीं दे सकता है , जिससे इसकी प्रभावशीलता सीमित हो जाती है।
- संस्थागत विश्वसनीयता का क्षरण: एक निष्क्रिय आयोग न्यायिक बोझ को बढ़ाता है, क्योंकि लोग अदालती हस्तक्षेप के लिए इसे दरकिनार कर देते हैं और भारत की अल्पसंख्यक संरक्षण प्रतिबद्धताओं पर अंतरराष्ट्रीय जच का सामना करना पड़ सकता है।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के कामकाज को सुदृढ़ करने के लिये कौन-से उपाय किये जा सकते हैं?
- विधायी और संस्थागत सुधार: NCM को संवैधानिक दर्जा (NCSC/NCST की तर्ज पर) देने या NCM अधिनियम, 1992 में संशोधन कर इसकी सिफारिशों को बाध्यकारी बनाने की आवश्यकता है। साथ ही इसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिये नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शी मानदंड तय किये जाने चाहिये।
- कार्यात्मक सशक्तीकरण: NCM को स्वतः संज्ञान लेने, अनुपालन न करने पर दंडात्मक कार्रवाई करने और स्वतंत्र जाँच करने की शक्ति प्रदान की जानी चाहिये। इसके लिये उसके जाँच तंत्र को एक समर्पित एवं प्रशिक्षित टीम के साथ मज़बूत किया जाना आवश्यक है।
- न्यायिक निगरानी और समीक्षा: अदालतों को NCM के आदेशों की निगरानी करने और जनहित याचिकाओं में इसकी रिपोर्टों का उपयोग करने में सक्षम बनाया जाना चाहिये। साथ ही सुनवाई, परामर्श और जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से जनसहभागिता को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- शासन प्रणाली में एकीकरण: अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं जैसे छात्रवृत्ति और कौशल विकास की निगरानी को NCM की सूचना एवं संचार प्रणाली के साथ जोड़कर ज़मीनी स्तर पर उनके क्रियान्वयन का आकलन बेहतर तरीके से किया जा सकता है।
- इसके अलावा, समन्वित नीतिगत कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिये गृह, शिक्षा, सामाजिक न्याय और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालयों की स्थायी अंतर-मंत्रालयी समिति बनाई जानी चाहिये।
- वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं से सीखना: सुदृढ़ प्रवर्तन तंत्र विकसित करने के लिये दक्षिण अफ्रीका के सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई समुदायों के आयोग तथा यूके के समानता एवं मानवाधिकार आयोग जैसे अंतर्राष्ट्रीय मॉडलों से प्रेरणा ली जा सकती है।
निष्कर्ष:
NCM में लंबे समय से खाली पदों और ढाँचागत कमज़ोरियों ने अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करने के इसके संवैधानिक कार्य को कमज़ोर कर दिया है। इसकी विश्वसनीयता को एक प्रभावी निगरानी संस्था के तौर पर बहाल करने और भारत की बहुलवादी संरचना की रक्षा के लिये तत्काल सुधार, जिसमें समय पर नियुक्तियाँ, विधायी सशक्तीकरण और बढ़ी हुई स्वायत्तता ज़रूरी हैं।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. "अल्पसंख्यक अधिकारों की सुरक्षा एक जीवंत लोकतंत्र की आधारशिला है।" इस कथन के आलोक में, भारत में अल्पसंख्यकों के लिये संवैधानिक सुरक्षा उपायों और उन्हें लागू करने में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की प्रभावशीलता का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) क्या है?
यह NCM अधिनियम, 1992 के तहत एक वैधानिक निकाय है, जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करता है, जिसमें एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और केंद्र सरकार द्वारा नामित पाँच सदस्य होते हैं।
2. NCM अधिनियम, 1992 के तहत किन समुदायों को आधिकारिक तौर पर अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी गई है?
छह धार्मिक समुदायों को अधिसूचित किया गया है: मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी (जोरोस्ट्रियन) और जैन। जैन समुदाय को 2014 में जोड़ा गया था।
3. भारत में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या का हिस्सा कितना है?
जनगणना 2011 के अनुसार, अल्पसंख्यक भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 19.3% हैं।
सारांश
- अल्पसंख्यक अधिकारों के लिये एक प्रमुख वैधानिक निगरानी संस्था, NCM, निष्क्रिय हो गई है क्योंकि अप्रैल 2025 से इसके सभी पद रिक्त हैं, जिससे इसका जनादेश कमज़ोर हो गया है।
- इसकी संरचनात्मक कमज़ोरियों में सलाहकार की भूमिका, सरकार द्वारा नियंत्रित नियुक्तियाँ और केवल धर्म पर आधारित अल्पसंख्यक परिभाषा शामिल हैं।
- यद्यपि संवैधानिक सुरक्षा उपाय (जैसे अनुच्छेद 30) मौज़ूद हैं, फिर भी प्रवर्तन एक कार्यात्मक राष्ट्रीय नियंत्रण प्रणाली पर निर्भर करता है, इसकी निष्क्रियता न्यायिक बोझ को बढ़ाती है तथा सामुदायिक विश्वास को कम करती है ।
- इसकी विश्वसनीयता और प्रभावशीलता को बहाल करने के लिये तत्काल सुधारों की आवश्यकता है —समय पर नियुक्तियाँ, संवैधानिक या बाध्यकारी वैधानिक दर्जा, स्वप्रेरित और दंडात्मक शक्तियाँ और पारदर्शी चयन।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:
प्रश्न. भारत में यदि किसी धार्मिक संप्रदाय/समुदाय को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है तो वह किस विशेष लाभ का हकदार है? (2011)
- यह विशिष्ट शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन कर सकता है।
- भारत का राष्ट्रपति स्वतः ही लोकसभा के लिये किसी समुदाय के एक प्रतिनिधि को नामित करता है।
- इसे प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम का लाभ मिल सकता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (c)
प्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक सांविधानिक स्थिति क्या थी? (2021)
(a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(b) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(c) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(d) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य
उत्तर: (b)
प्रश्न 2. भारत के संविधान की उद्देशिका है? (2020)
(a) संविधान का भाग है किंतु कोई विधिक प्रभाव नहीं रखती।
(b) संविधान का भाग नहीं है और कोई विधिक प्रभाव भी नहीं रखती।
(c) संविधान का भाग है और वैसा ही विधिक प्रभाव रखती है जैसा कि उसका कोई अन्य भाग।
(d) संविधान का भाग है किंतु उसके अन्य भागों से स्वतंत्र होकर उसका कोई विधिक प्रभाव नहीं है।
उत्तर: (d)मेन्स:
प्रश्न. क्या राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिये संवैधानिक आरक्षण के कार्यान्वयन को लागू कर सकता है? मूल्यांकन कीजिये। (2018)
एसिड अटैक पीड़ितों को राहत मिलने में हो रही देरी पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
चर्चा में क्यों?
शाहीन मलिक बनाम भारत संघ मामले (2025) में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह जाँचने का निर्णय लिया कि एसिड अटैक के उत्तरजीवियों के लिये दिये गए मुख्य निर्देश (लक्ष्मी बनाम भारत संघ मामला 2015) अधिकांशतः लागू क्यों नहीं हो पाए हैं, जिससे उत्तरजीवियों को वित्तीय सहायता और आवश्यक स्वास्थ्य सेवा दोनों के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है।
सारांश
- शाहीन मलिक मामला, 2025, वर्ष 2015 के लक्ष्मी निर्णय के लगातार अनुपालन न होने की स्थिति को उजागर करता है, जिससे एसिड अटैक उत्तरजीवी 3 लाख रुपये के मुआवज़े और निःशुल्क गंभीर स्वास्थ्य देखभाल के लिये संघर्षरत हैं।
- प्रमुख अनुपालन न किये गए निर्देशों में एसिड की खुली बिक्री पर प्रतिबंध, सभी अस्पतालों में अनिवार्य निःशुल्क उपचार और एसिड-संबंधी अपराधों को संज्ञेय व गैर-ज़मानती बनाना शामिल हैं।
- पीड़ितों को कानूनी विलंब, अपर्याप्त मुआवज़ा, चिकित्सीय देखभाल से वंचना, मनोवैज्ञानिक आघात और सामाजिक कलंक का सामना करते हैं, जो पुनर्वास में बड़ी बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।
- एक प्रभावी पारिस्थितिकी तंत्र के लिये कठोर कानून प्रवर्तन, जलने और पुनर्वास केंद्रों का राष्ट्रीय नेटवर्क, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-आर्थिक समर्थन तथा एसिड बिक्री ट्रैकिंग और निर्माता पुनर्वास उपकर जैसे निवारक उपाय आवश्यक हैं।
लक्ष्मी बनाम भारत संघ मामला 2015 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी प्रमुख निर्देश क्या थे?
- पीड़ित मुआवजा: एसिड अटैक के उत्तरजीवी न्यूनतम 3 लाख रुपये के मुआवज़े के हकदार हैं, जिसमें 15 दिनों के भीतर 1 लाख रुपये तत्काल चिकित्सा उपचार के लिये और शेष 2 लाख रुपये 2 माह के भीतर पुनर्निर्माण सर्जरी सहित अनुवर्ती देखभाल और पुनर्वास के लिये देय हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) को एसिड अटैक के पीड़ितों को दिये गए मुआवज़े पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों से आँकड़े एकत्र करने का निर्देश भी दिया।
- एसिड बिक्री का विनियमन: एसिड की खुली बिक्री पर प्रतिबंध है, सिवाय इसके कि विक्रेता खरीदार का विवरण सहित लॉग बनाए रखें, खरीदार सरकारी फोटो ID प्रदान करें और खरीद का उद्देश्य निर्दिष्ट करें।
- 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को बिक्री निषिद्ध है और उल्लंघन पर 50,000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
- कार्यान्वयन एवं निगरानी: मुख्य सचिवों और प्रशासकों को यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी निर्देशों का पालन हो तथा एसिड बिक्री विनियमों और मुआवज़ा योजनाओं से संबंधित नियमों को प्रचारित किया जाए।
- निःशुल्क उपचार और पुनर्वास: निजी अस्पतालों को एसिड अटैक पीड़ितों को निःशुल्क उपचार प्रदान करना अनिवार्य है, जिसमें दवाइयाँ, बेड, भोजन और पुनर्वास देखभाल शामिल है। उपचार देने से इंकार करने पर वे ज़िम्मेदार ठहराए जा सकते हैं।
- कानूनी प्रवर्तन: वर्ष 1919 के विष अधिनियम के तहत अपराधों को संज्ञेय और गैर-ज़मानती बनाया जाएगा। एसिड की बिक्री और भंडारण से संबंधित उल्लंघनों के खिलाफ कार्रवाई करने की ज़िम्मेदारी SDM पर होगी।
भारत में एसिड अटैक मामलों से संबंधित न्यायिक घोषणाएँ
- परिवर्तन केंद्र बनाम भारत संघ, 2015: सर्वोच्च न्यायालय ने दो एसिड अटैक पीड़ितों को 13 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया और बिहार सरकार को उनका उपचार और पुनर्वास सुनिश्चित करने का आदेश भी दिया। इसके अलावा सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को एसिड अटैक पीड़ितों को दिव्यांगता की सूची में शामिल करने का निर्देश दिया।
- बेंगई मंडल उर्फ़ बेगई मंडल बनाम बिहार राज्य, 2010: पटना उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, जिसमें अभियुक्त को एसिड फेंकने के जुर्म में दोषी ठहराकर आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी, जिससे पीड़िता की मृत्यु हुई थी।
एसिड अटैक पीड़ितों को सहायता और न्याय प्राप्त करने में मुख्य बाधाएँ क्या हैं:
- कानूनी और न्यायिक बाधाएँ: सर्वोच्च न्यायालय के 3 लाख रुपये मुआवज़े के आदेश के बावजूद, पीड़ितों को अक्सर केवल 1 लाख रुपये ही मिलते हैं और भुगतान में देरी या अव्यवस्था रहती है, खासकर उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र में, जबकि एसिड बिक्री पर प्रतिबंध भी ठीक से लागू नहीं होता।
- वे लंबी न्यायिक प्रक्रियाओं, कम सज़ा वाले फैसलों और अदालत में असंवेदनशील सवालों के कारण बार-बार मानसिक पीड़ा जैसी समस्याओं का भी सामना करते हैं।
- सिस्टम और संस्थागत असफलताएँ: भारत में एसिड हमले के पीड़ितों के लिये एक केंद्रीकृत डेटाबेस के अभाव के कारण नीतियों की योजना बनाना कठिन हो जाता है, वहीं आश्रय गृह, हाफवे होम और समर्पित संकट केंद्र भी व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं हैं।
- चिकित्सीय और शारीरिक आघात: सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद, पीड़ितों को अक्सर महॅंगे चिकित्सा खर्चों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उन्हें मुफ्त इलाज नहीं मिल पाता और ग्रामीण क्षेत्रों में जलने के विशेषज्ञ और प्लास्टिक सर्जनों की सीमित उपलब्धता इस कठिनाई को और बढ़ा देती है।
- मानसिक और सामाजिक कलंक: पीड़ित अक्सर अवसाद, चिंता तथा आत्मघाती विचार जैसी गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करते हैं। इसके अलावा उन्हें सामाजिक बहिष्कार, अलगाव एवं कई मामलों में परिवार द्वारा परित्याग का भी सामना करना पड़ता है, जिससे वे बिना किसी समर्थन के रह जाते हैं।
एसिड हमले के पीड़ितों हेतु एक मज़बूत पुनर्वास व्यवस्था बनाने के लिये किन हस्तक्षेपों की आवश्यकता है?
- कानूनी और मुआवज़ा ढाँचा: एसिड हमले के मामलों के लिये फास्ट-ट्रैक कोर्ट के साथ स्वचालित, समयबद्ध मुआवज़ा (मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित) लागू किया जाना चाहिये, जिसमें इन-कैमरा कार्यवाही और गवाह सुरक्षा की व्यवस्था भी हो।
- चिकित्सा पुनर्वास: सभी अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा देखभाल के लिये सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का शीघ्र पालन सुनिश्चित करना, साथ ही विशेष बर्न सेंटरों का राष्ट्रीय नेटवर्क स्थापित करना तथा पीड़ितों के पुनर्वास के लिये आयुष्मान भारत के तहत जीवनभर कवरेज प्रदान करना।
- रोकथाम उपाय: औद्योगिक अम्ल की बिक्री पर सख्त नियंत्रण लागू करना—जिसमें डेकोय ऑपरेशन्स, GST-आधारित ट्रैकिंग जैसी व्यवस्थाएँ शामिल हों—साथ ही निर्माताओं और विक्रेताओं पर पुनर्वास उपकर (cess) अनिवार्य करना, ताकि पीड़ितों के समर्थन सेवाओं के लिये वित्त उपलब्ध कराया जा सके।
- मनोवैज्ञानिक सहायता: अलगाव को कम करने और अनुकूल वातावरण विकसित करने के लिये पीड़ितों के नेतृत्व वाले समूहों को सहायता और वित्त पोषण प्रदान करना तथा मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को अम्ल-अटैक के विशिष्ट आघात से निपटने के लिये विशेष प्रशिक्षण देना।
- सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास: ब्याज मुक्त ऋण, छोटे व्यवसायों के लिये प्रारंभिक वित्तपोषण और PMEGP जैसी योजनाओं तक प्राथमिकता के आधार पर पहुँच जैसी वित्तीय सहायता द्वारा समर्थित, अनुकूलित व्यावसायिक प्रशिक्षण, रोज़गार कोटा, छात्रवृत्ति और सुलभ शिक्षा के माध्यम से आर्थिक सशक्तीकरण सुनिश्चित करना।
निष्कर्ष:
एसिड अटैक पीड़ितों की दुर्दशा न्यायालय के निर्देशों और वास्तविक स्थिति के बीच मौजूद गंभीर कार्यान्वयन अंतर को उजागर करती है। न्याय, सम्मान और प्रभावी रोकथाम सुनिश्चित करने के लिये पीड़ित-केंद्रित, बहुआयामी पुनर्वास प्रणाली का निर्माण अत्यावश्यक है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. लक्ष्मी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश एसिड अटैक पीड़ितों के लिये एक मज़बूत ढाँचा प्रदान करते हैं। उनके प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा डालने वाली प्रणालीगत और संस्थागत विफलताओं की गंभीर समीक्षा कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. एसिड अटैक पीड़ितों के लिये भारत में कौन-सी क्षतिपूर्ति निर्धारित है?
सर्वोच्च न्यायालय ने 3 लाख रुपये की क्षतिपूर्ति निर्धारित की है, जिसमें से 1 लाख रुपये तत्काल उपचार के लिये 15 दिनों के भीतर और 2 लाख रुपये पुनर्वास के लिये दो महीने के भीतर दिये जाने हैं।
2. क्या निजी अस्पतालों को एसिड अटैक पीड़ितों का मुफ्त इलाज करना अनिवार्य है?
हाँ, अस्पतालों को मुफ्त इलाज़, दवाइयाँ, बेड, भोजन और पुनर्वास संबंधी देखभाल प्रदान करनी होगी, इनकार करने पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।
3. एसिड बिक्री पर सर्वोच्च न्यायलय द्वारा जारी मुख्य नियम क्या हैं?
सर्वोच्च न्यायलय ने एसिड की काउंटर बिक्री पर रोक लगाई, खरीदार की फोटो आईडी सहित रिकॉर्ड रखने का निर्देश दिया, 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को बिक्री से प्रतिबंधित किया तथा नियमों के उल्लंघन पर 50,000 रुपये तक का जुर्माना लगाया।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न
मेन्स:
प्रश्न. हम देश में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में वृद्धि देख रहे हैं। इसके खिलाफ मौजूदा कानूनी प्रावधानों के बावजूद ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस खतरे से निपटने के लिये कुछ अभिनव उपाय सुझाइये। (2014)

