भारत और न्यूज़ीलैंड मुक्त व्यापार समझौता
प्रिलिम्स के लिये: मुक्त व्यापार समझौता (FTA), प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI), भौगोलिक संकेत (GI), यूरोपीय संघ, फाइव आइज़, आसियान, MSME, व्यापार घाटा, व्यापार में तकनीकी बाधाएँ (TBT), बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR), एंटी-डंपिंग, कार्बन क्रेडिट, फ्रेंड शोरिंग।
मेन्स के लिये: भारत और न्यूज़ीलैंड (NZ) के मुक्त व्यापार समझौते (FTA) की प्रमुख विशेषताएँ और इसका महत्त्व, FTA से भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियाँ और भारत द्वारा FTA का पूरी तरह से उपयोग करने का मार्ग।
चर्चा में क्यों?
भारत और न्यूज़ीलैंड (NZ) ने मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर वार्ता के सफल समापन की घोषणा की है। इसके तहत न्यूज़ीलैंड भारत के 100% निर्यात को शून्य शुल्क (ज़ीरो-ड्यूटी) पहुँच प्रदान करेगा और अगले 15 वर्षों में 20 अरब अमेरिकी डॉलर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) का निवेश करने की प्रतिबद्धता जताएगा।
सारांश
- यह मुक्त व्यापार समझौता भारतीय निर्यात को शून्य शुल्क पर पहुँच प्रदान करता है, न्यूज़ीलैंड की लगभग 70% टैरिफ लाइनों का उदारीकरण करता है तथा डेयरी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
- इसके माध्यम से 118 क्षेत्रों में 20 अरब अमेरिकी डॉलर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI), कौशल गतिशीलता और सेवा व्यापार को बढ़ावा मिलता है, जिससे आर्थिक विकास और रोज़गार के नए अवसर सृजित होते हैं।
- रणनीतिक दृष्टि से यह समझौता भारत के वैश्विक व्यापार के विविधीकरण, क्षेत्रीय प्रभाव के विस्तार और विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ दीर्घकालिक आर्थिक सहयोग को सुदृढ़ करता है।
भारत-न्यूज़ीलैंड मुक्त व्यापार समझौते की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
- व्यापार उदारीकरण: न्यूज़ीलैंड की प्रतिबद्धताओं में भारतीय निर्यात के 100% पर शून्य शुल्क पहुँच प्रदान करना और वर्तमान औसत टैरिफ 2.2% को पूरी तरह से समाप्त करना शामिल है।
- भारत की प्रतिबद्धताएँ: 70% टैरिफ लाइनों पर शुल्क उदारीकरण (मूल्य के हिसाब से न्यूज़ीलैंड के 95% निर्यात को कवर करते हुए)। लकड़ी, ऊन और भेड़ के मांस सहित उत्पादों के लिये 30% टैरिफ लाइनों पर तत्काल शुल्क समाप्ति।
- औसत सीमा शुल्क दर वर्तमान 16.2% से घटकर प्रारंभ में 13.18% हो जाएगी, इसके बाद 5 वर्षों में 10.3% और 10वें वर्ष तक 9.06% तक आ जाएगी।
- भारत के डेयरी क्षेत्र को संरक्षित करने के लिये लगभग 30% टैरिफ मदों (डेयरी, कुछ पशु उत्पाद, सब्जियाँ, बादाम, चीनी) को बाहर रखा गया है।
- निवेश प्रतिबद्धता: न्यूज़ीलैंड ने भारत में 15 वर्षों में 20 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश को सुविधाजनक बनाने की प्रतिबद्धता जताई है, जिसके लिये एक पुनर्संतुलन तंत्र का प्रावधान है जो भारत को निर्धारित अवधि के भीतर निवेश न होने की स्थिति में मुक्त व्यापार समझौते (FTA) के लाभों को निलंबित करने की अनुमति देता है।
- भारत की प्रतिबद्धताएँ: 70% टैरिफ लाइनों पर शुल्क उदारीकरण (मूल्य के हिसाब से न्यूज़ीलैंड के 95% निर्यात को कवर करते हुए)। लकड़ी, ऊन और भेड़ के मांस सहित उत्पादों के लिये 30% टैरिफ लाइनों पर तत्काल शुल्क समाप्ति।
- आवागमन संबंधी प्रावधान: न्यूज़ीलैंड में भारतीय छात्रों की संख्या पर कोई सीमा नहीं है। अध्ययन के दौरान प्रति सप्ताह कम-से-कम 20 घंटे कार्य की गारंटी। अध्ययन के बाद कार्य वीज़ा की अवधि बढ़ाई जाती है (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) स्नातकों के लिये 3 वर्ष तक, पीएचडी धारकों के लिये 4 वर्ष तक)।
- एक नया अस्थायी रोज़गार प्रवेश वीज़ा मार्ग, जिसके तहत एक समय में अधिकतम 5,000 भारतीय पेशेवरों को (अधिकतम 3 वर्ष की अवधि के लिये) प्रवेश दिया जा सकता है। इसमें आयुष, योग, भारतीय रसोइये, आईटी, इंजीनियरिंग, स्वास्थ्य सेवा आदि शामिल हैं।
- युवा भारतीयों के लिये प्रतिवर्ष 1,000 वर्किंग हॉलिडे वीज़ा।
- महत्त्वाकांक्षी सेवा उदारीकरण: इस समझौते में भारत की अब तक की सबसे महत्त्वाकांक्षी सेवा पेशकश शामिल है, जिसमें 118 सेवा क्षेत्र शामिल हैं, जिससे सेवा व्यापार और पेशेवर गतिशीलता को बढ़ावा मिलेगा।
- व्यापार विस्तार का लक्ष्य: मुक्त व्यापार समझौते (FTA) का उद्देश्य 5 वर्षों के भीतर द्विपक्षीय व्यापार को 2.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर लगभग 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर करना है, जिससे आर्थिक एकीकरण मज़बूत होगा।
- भारत के बौद्धिक संपदा अधिकारों की मान्यता: न्यूज़ीलैंड का वर्तमान भौगोलिक संकेत (GI) कानून केवल भारत की वाइन और स्पिरिट के पंजीकरण की अनुमति प्रदान करता है, लेकिन उसने यूरोपीय संघ को दिये गए लाभों के बराबर भारत की वाइन, स्पिरिट और अन्य वस्तुओं के पंजीकरण को सक्षम करने के लिये अपने कानून में संशोधन करने की प्रतिबद्धता जताई है।
- भारत के बौद्धिक संपदा अधिकारों (IPR) की मान्यता: न्यूज़ीलैंड का वर्तमान भौगोलिक संकेतक (GI) कानून केवल भारत की वाइन और स्पिरिट्स के पंजीकरण की अनुमति प्रदान करता है। अब उसने अपने कानून में संशोधन कर भारत की वाइन, स्पिरिट्स और अन्य उत्पादों के पंजीकरण को संभव बनाने की प्रतिबद्धता जताई है, जिससे भारत को यूरोपीय संघ को दिये गए लाभों के समान अधिकार प्राप्त होंगे।
भारत और न्यूज़ीलैंड के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते (FTA) का क्या महत्त्व है?
- रणनीतिक आर्थिक पुनर्संतुलन: यह समझौता 2021 के बाद से भारत का 7वाँ व्यापार समझौता और फाइव आइज़ एलायंस (ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के बाद) के साथ तीसरा समझौता है, जो संरक्षणवादी नीतियों से प्रेरित वैश्विक पुनर्गठन के बीच व्यापार संबंधों में विविधता लाने की दिशा में नई दिल्ली के रणनीतिक बदलाव को दर्शाता है।
- द्विपक्षीय लाभों से आगे बढ़कर, यह मुक्त व्यापार समझौता भारतीय कंपनियों को प्रशांत द्वीप समूह की अर्थव्यवस्थाओं में अपनी उपस्थिति स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है।
- संवेदनशील क्षेत्रों का संरक्षण: भारत ने अपने राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण डेयरी क्षेत्र के साथ-साथ अन्य संवेदनशील कृषि उत्पादों (जैसे प्याज, बादाम) को सफलतापूर्वक पूरी तरह से बाहर कर दिया , जिससे कमज़ोर घरेलू उद्योगों की रक्षा के प्रति एक दृढ़ रुख प्रदर्शित हुआ।
- निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता: वस्त्र, परिधान, चमड़ा, कालीन और ऑटो कंपोनेंट जैसे क्षेत्रों को न्यूज़ीलैंड में तत्काल शुल्क-मुक्त पहुँच प्राप्त होती है, जिन्हें पहले 10% तक के शुल्क का सामना करना पड़ता था।
- 118 सेवा क्षेत्रों तक पहुँच भारतीय IIT, इंजीनियरिंग, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा कंपनियों को नए अवसर प्रदान करती है।
- सुरक्षा उपायों के साथ नियंत्रित उदारीकरण: भारत के टैरिफ 10 वर्षों में धीरे-धीरे कम होंगे, जिससे घरेलू उद्योगों को समायोजन के लिये समय मिलेगा।
- सेब, कीवी और शराब जैसे संवेदनशील आयातों के मामले में भारत पूर्ण उदारीकरण के स्थान पर टैरिफ-रेट कोटा (TRQ) और मौसमी पहुँच जैसी व्यवस्थाएँ अपनाता है, ताकि बाज़ार तक पहुँच और घरेलू उत्पादकों के संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखा जा सके।
- गहन सहयोग के लिये ढाँचा: यह समझौता व्यापारिक क्षेत्र में एक बड़ी सफलता से कहीं अधिक गहन सहयोग के लिये एक ढाँचा है। इसका महत्त्व तत्काल व्यापार की मात्रा बढ़ाने के बजाय एकीकृत आपूर्ति शृंखलाओं के लिये बुनियादी ढाँचा तैयार करने, सेवाओं के व्यापार का विस्तार करने, शिक्षा और कौशल साझेदारी को मज़बूत करने और प्रवासी भारतीयों के संबंधों का लाभ उठाने में निहित है।
मुक्त व्यापार समझौते (FTAs) क्या हैं?
- परिचय: FTA दो या दो से अधिक देशों के बीच एक समझौता है, जिसके तहत उनके बीच व्यापार किये जाने वाले लगभग सभी सामानों पर लगने वाले टैरिफ और अन्य बाधाओं को हटाया या कम किया जाता है।
- प्राथमिकता व्यापार समझौतों के विपरीत, जो केवल सीमित उत्पादों पर शुल्क कम करते हैं, मुक्त व्यापार समझौते का उद्देश्य लगभग पूर्ण और व्यापक शुल्क उन्मूलन करना होता है।
- उद्देश्य:
- टैरिफ में कमी: अधिकांश (90–95%) वस्तुओं पर सीमा शुल्क को समाप्त या कम करना।
- सुगम नियमावली (Streamlined Regulations): प्रतिबंधात्मक नियमों को समान या सरल बनाकर गैर-टैरिफ बाधाओं को कम करना।
- बाज़ार पहुँच: सेवाओं के व्यापार को सुविधाजनक बनाना और द्विपक्षीय निवेश प्रवाह को बढ़ावा देना।
- व्यापार समझौतों के प्रकार:
भारत के FTA से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- घरेलू विनिर्माण के लिये खतरा: एक प्रमुख चिंता यह है कि उन्नत साझेदारों (जैसे ASEAN, ऑस्ट्रेलिया) से सस्ते आयात भारत के MSME और प्रमुख क्षेत्रों जैसे वस्त्र, डेयरी तथा कृषि को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
- आलोचक बताते हैं कि वर्ष 2017–2022 के बीच भारत का व्यापार घाटा FTA के कारण बढ़ा है तथा FTA साझेदारों से आयात 82% बढ़ा जबकि निर्यात केवल 31% बढ़ा।
- सेवाओं और गतिशीलता में सीमित लाभ: भारत के मज़बूत सेवा क्षेत्र के बावजूद, उसके FTA अक्सर सार्थक बाज़ार पहुँच सुनिश्चित करने में विफल रहते हैं।
- मुख्य बाधाएँ जैसे कड़े वीज़ा नियम, लाइसेंसिंग अड़चनें और पेशेवरों की आवाजाही में रुकावटें, अवसरों को सीमित करती हैं, क्योंकि साझेदार अपने घरेलू श्रम बाज़ार की रक्षा को प्राथमिकता देते हैं।
- गैर-टैरिफ बाधाएँ (NTB) और मानक: टैरिफ हटाए जाने के बावजूद, भारतीय निर्यात को प्राय: साझेदार देशों में तकनीकी व्यापार बाधाओं (TBT), कड़े मानक, जटिल प्रमाणन आवश्यकताओं और अस्पष्ट नियमों का सामना करना पड़ता है, जिससे FTA के लाभ समाप्त हो जाते हैं।
- नीतिगत संप्रभुता पर प्रभाव: नई पीढ़ी के FTA में निवेश, बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR), सरकारी खरीद और पर्यावरण/श्रम मानकों पर अध्याय शामिल होते हैं।
- चिंता यह है कि ये भारत के नीति क्षेत्र को सार्वजनिक हित के कानून (जैसे किफायती दवाएँ, स्थानीय खरीद प्राथमिकताएँ, पर्यावरणीय नियम) बनाने की क्षमता को सीमित कर सकते हैं।
भारत के FTA की प्रभावशीलता बढ़ाने हेतु प्रमुख रणनीतियाँ क्या हैं?
- रणनीतिक वार्ता और डिज़ाइन: भारत की सेवा और डिजिटल व्यापार क्षमताओं के लिये पारस्परिक बाज़ार पहुँच को प्राथमिकता देना तथा किसी भी उत्पाद पर दी जाने वाली छूट को इन लाभों के साथ समन्वित करना।
- डेयरी, कृषि और MSME जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को मज़बूत सुरक्षा उपायों से सुरक्षित रखना, जैसे कि टैरिफ-रेट कोटा, सीजनल टैरिफ तथा कठोर एंटी-डंपिंग उपाय।
- घरेलू प्रतिस्पर्द्धात्मकता को मज़बूत करना: व्यापार लागत को कम करने के लिये लॉजिस्टिक्स, बंदरगाहों और डिजिटल अवसंरचना में निवेश करके प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाना। PLI योजनाओं और लक्षित नीतियों के माध्यम से विनिर्माण के पैमाने तथा गुणवत्ता को बढ़ाना, ताकि उद्योग FTA के लाभों का पूरा लाभ उठा सकें।
- नए युग के व्यापार तत्त्वों का लाभ उठाना: सुरक्षा उपायों के साथ सीमा-पार डेटा प्रवाह सुनिश्चित करके तकनीकी निर्यात को बढ़ावा देना। हरित प्रौद्योगिकी साझेदारियों, सतत स्रोतों और कार्बन क्रेडिट बाज़ार तक पहुँच पर वार्ता करना।
- भारत-न्यूजीलैंड मॉडल के अनुसार, FTA को विनिर्माण, हरित ऊर्जा तथा अवसंरचना में बाध्यकारी निवेश से जोड़ना, ताकि रोज़गार सृजित हों और घरेलू क्षमता का निर्माण हो सके।
- रणनीतिक भू-अर्थिक संरेखण: मुख्य उपभोक्ता बाज़ारों (EU, कनाडा) और महत्त्वपूर्ण मूल्य शृंखला साझेदारों (महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिये अर्जेंटीना, चिली) के साथ FTA को लक्षित करके व्यापार निर्भरता को विविधतापूर्ण बनाना।
- इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा और खनिज जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में भरोसेमंद साझेदारों के साथ एकीकृत होकर अनुकूल फ्रेंड-शोरिंग को बढ़ावा देना।
- गैर-टैरिफ बाधाओं (NTBs) को संबोधित करना: तकनीकी मानक, सैनिटरी उपाय और पारस्परिक मान्यता समझौतों पर लागू होने वाले अध्याय शामिल करना, ताकि NTB टैरिफ छूट के लाभ को समाप्त न कर सकें।
निष्कर्ष
भारत–न्यूज़ीलैंड FTA द्विपक्षीय व्यापार, निवेश और सेवाओं की गतिशीलता को सुदृढ़ करता है, साथ ही डेयरी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की सुरक्षा भी करता है। यह विकसित अर्थव्यवस्थाओं की ओर भारत की रणनीतिक ओरिएंटेशन को दर्शाता है, आर्थिक सहयोग, कौशल गतिशीलता और क्षेत्रीय प्रभाव को बढ़ावा देता है। यह समझौता व्यापार उदारीकरण और सुरक्षा उपायों के बीच संतुलन स्थापित करता है, दीर्घकालीन सतत विकास तथा समेकन के लिये एक ढाँचा प्रदान करता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. घरेलू कृषि, विशेष रूप से डेयरी क्षेत्र की सुरक्षा, भारत के हालिया FTA का एक मूल स्तंभ रही है। इससे जुड़े आर्थिक और राजनीतिक तर्क पर चर्चा कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. भारत–न्यूज़ीलैंड FTA की प्रमुख निवेश विशेषता क्या है?
इसमें न्यूज़ीलैंड से 20 बिलियन USD का निवेश प्रतिबद्धता शामिल है, जिसे एक पुनर्संतुलन तंत्र द्वारा समर्थित किया गया है, जो भारत को यह अधिकार देता है कि यदि प्रतिबद्धताओं का पालन नहीं होता है तो वह लाभ निलंबित कर सकता है।
2. किन भारतीय क्षेत्रों को FTA से बाहर रखा गया है?
संवेदनशील क्षेत्रों जैसे डेयरी, प्याज़, बादाम और कुछ पशु उत्पादों को घरेलू उद्योगों की सुरक्षा के लिये FTA से बाहर रखा गया है।
3. द्विपक्षीय व्यापार पर अपेक्षित प्रभाव क्या है?
इस FTA का लक्ष्य पाँच वर्षों में द्विपक्षीय व्यापार को 2.4 बिलियन USD से बढ़ाकर 5 बिलियन USD करना है, जिससे आर्थिक समेकन को बढ़ावा मिलेगा।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रिलिम्स
प्रश्न. निम्नलिखित देशों पर विचार कीजिये: (2018)
- ऑस्ट्रेलिया
- कनाडा
- चीन
- भारत
- जापान
- यूएसए
उपर्युक्त में से कौन-से देश आसियान के 'मुक्त-व्यापार भागीदारों' में शामिल हैं?
(a) 1, 2, 4 और 5
(b) 3, 4, 5 और 6
(c) 1, 3, 4 और 5
(d) 2, 3, 4 और 6
उत्तर: (c)
प्रश्न. 'रीज़नल काम्प्रिहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (Regional Comprehensive Economic Partnership)' पद प्रायः समाचारों में देशों के एक समूह के मामलों के संदर्भ में आता है। देशों के उस समूह को क्या कहा जाता है? (2016)
(a) G- 20
(b) आसियान
(c) एस.सी.ओ.
(d) सार्क
उत्तर: (b)
मेन्स
प्रश्न. विश्व व्यापार में संरक्षणवाद और मुद्रा चालबाज़ियों की हाल की परिघटनाएँ भारत की समष्टि-आर्थिक स्थिरता को किस प्रकार से प्रभावित करेंगी? (2018)
प्रश्न. शीतयुद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के संदर्भ में, भारत की पूर्वोन्मुखी नीति के आर्थिक और सामरिक आयामों का मूल्याकंन कीजिये। (2016)
राज्य PSCs को मज़बूत करना
प्रिलिम्स के लिये: उपराष्ट्रपति, राज्य लोक सेवा आयोग (SPSCs), संवैधानिक निकाय, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC), भारत सरकार अधिनियम, 1919, राज्यपाल, सर्वोच्च न्यायालय, संसद, राष्ट्रपति, CAG।
मेन्स के लिये: SPSCs से संबंधित मुख्य प्रावधान, संबंधित चुनौतियाँ और SPSCs को मज़बूत करने के लिये आगे की राह।
चर्चा में क्यों?
उपराष्ट्रपति ने भर्ती प्रक्रियाओं में हो रही देरी और सत्यनिष्ठा से जुड़े मुद्दों पर बढ़ती जाँच के बीच सक्षम और नैतिक सिविल सेवा के निर्माण में राज्य लोक सेवा आयोगों (SPSCs) की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर बल दिया।
- उन्होंने भर्ती प्रक्रिया को राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप बनाने और अभ्यर्थियों का विश्वास पुनः स्थापित करने के लिये त्वरित सुधारों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
सारांश
- राज्य लोक सेवा आयोग (SPSC) संवैधानिक निकाय हैं, जो राज्य सेवाओं में योग्यता-आधारित भर्ती सुनिश्चित करते हैं।
- हालाँकि, इन्हें परीक्षा पत्र लीक, राजनीतिक हस्तक्षेप, देरी और पुरानी प्रणालियों जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- इन्हें सशक्त बनाने के लिये बाध्यकारी अनुशंसाएँ, डिजिटल आधुनिकीकरण, पारदर्शिता, क्षमता निर्माण और स्वतंत्र नियुक्तियाँ आवश्यक हैं, ताकि जनविश्वास को पुनः स्थापित किया जा सके।
राज्य लोक सेवा आयोग (SPSC) क्या है?
- परिचय: SPSC एक संवैधानिक निकाय है जिसकी स्थापना अनुच्छेद 315-323 (भाग XIV) के तहत राज्य सिविल सेवाओं में योग्यता-आधारित, निष्पक्ष और स्वतंत्र भर्ती सुनिश्चित करने के लिये की गई है।
- केंद्र में संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की तरह प्रत्येक राज्य का अपना विशेष सेवा आयोग (SPSC) होता है, जो राज्य सिविल सेवाओं में पारदर्शी और योग्यता-आधारित भर्ती सुनिश्चित करने के लिये योग्यता प्रणाली के संवैधानिक निगरानी निकाय के रूप में कार्य करता है।
- ऐतिहासिक संदर्भ: भारत सरकार अधिनियम, 1919 में केंद्रीय लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया गया था, जिसकी स्थापना वर्ष 1926 में सिविल सेवकों की भर्ती के लिये की गई थी।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 में संघीय PSC की स्थापना के साथ-साथ प्रांतीय PSC और दो या दो से अधिक प्रांतों के लिये संयुक्त PSC की स्थापना का भी प्रावधान किया गया था।
- संरचना: इसमें एक अध्यक्ष और राज्यपाल द्वारा नियुक्त सदस्य शामिल होते हैं।
- सदस्यों की संख्या: संविधान में सदस्यों की संख्या निर्दिष्ट नहीं है। यह राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है।
- कार्यकाल: सदस्य 6 वर्ष के लिये या 62 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक, जो भी पहले हो, सेवा करते हैं (UPSC सदस्य 65 वर्ष तक सेवा करते हैं)।
- योग्यता संबंधी आवश्यकताएँ: आधे सदस्यों के पास भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन कम-से-कम 10 वर्ष की सेवा होनी चाहिये, इसके अलावा कोई अन्य योग्यता निर्धारित नहीं है।
- सेवा शर्तें: राज्यपाल द्वारा निर्धारित की जाती हैं, जो रोज़गार की शर्तें भी तय करते हैं। राज्यपाल किसी सदस्य को कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में नियुक्त कर सकते हैं जब पद रिक्त हो जाता है या अध्यक्ष अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में असमर्थ होते हैं।
- निष्कासन: सदस्यों को केवल राष्ट्रपति द्वारा ही हटाया जा सकता है, राज्यपाल द्वारा नहीं। इसके कारणों में दिवालियापन, वेतनभोगी रोज़गार, अस्वस्थता या दुर्व्यवहार शामिल हैं। राष्ट्रपति उन्हें उन्हीं आधारों और उसी तरीके से हटा सकते हैं जैसे वे UPSC के अध्यक्ष या सदस्य को हटाते हैं।
- दुर्व्यवहार के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय (SC) की जाँच अनिवार्य है तथा उसकी सलाह बाध्यकारी है। राज्यपाल जाँच के दौरान सदस्य को निलंबित कर सकता है।
- सदस्य राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंपकर किसी भी समय इस्तीफा दे सकते हैं।
- स्वतंत्रता के लिये सुरक्षा उपाय:
- सेवा शर्तों का संरक्षण: एक बार नियुक्त होने के बाद, सेवा शर्तों को उनके नुकसान के लिये बदला नहीं जा सकता है ।
- वित्तीय स्वतंत्रता: वेतन, भत्ते और पेंशन राज्य के समेकित कोष से दिये जाते हैं—ये विधायी मतदान के अधीन नहीं होते हैं ।
- सेवानिवृत्ति के बाद की पाबंदियॉं: अध्यक्ष की नियुक्ति केवल यूपीएससी या किसी अन्य एसपीएससी के अध्यक्ष पद पर ही हो सकती है —अन्य किसी सरकारी रोज़गार पर नहीं ।
- सदस्य UPSC के सदस्य या SPSC के अध्यक्ष बन सकते हैं- कोई अन्य सरकारी नौकरी प्राप्त नहीं कर सकते।
- पुनर्नियुक्ति नहीं: सदस्य अपना पहला कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरे कार्यकाल के लिये पात्र नहीं होते हैं।
- SPSC के कार्य:
- परीक्षा का संचालन: राज्य सेवाओं में नियुक्तियों के लिये प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन करता है।
- भर्ती संबंधी सलाहकार की भूमिका: यह सिविल सेवाओं और पदों के लिये भर्ती के तरीकों, पदोन्नति, अंतर-सेवा तबादलों पर सलाह देता है तथा प्रतिनियुक्ति के लिये उम्मीदवारों की उपयुक्तता का आकलन करता है।
- अनुशासनात्मक परामर्श: यह निंदा, वेतन वृद्धि या पदोन्नति को रोकना, वित्तीय नुकसान की वसूली, निष्कासन या बर्खास्तगी सहित अन्य अनुशासनात्मक कार्रवाइयों पर सलाह देता है।
- वार्षिक रिपोर्टिंग: राज्यपाल को प्रदर्शन रिपोर्ट प्रस्तुत करता है, जो अस्वीकृत सलाह के स्पष्टीकरण के साथ उन्हें राज्य विधानमंडल के समक्ष प्रस्तुत करता है।
- विस्तारित अधिकार क्षेत्र: राज्य विधानमंडल SPSC की भूमिका का विस्तार करके इसे स्थानीय प्राधिकरणों, निगमित निकायों या सार्वजनिक संस्थानों तक बढ़ा सकता है।
- संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग: संविधान दो या दो से अधिक राज्यों के लिये संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग (JSPSC) के गठन की अनुमति देता है। वर्ष 1966 में हरियाणा के गठन के बाद पंजाब और हरियाणा ने कुछ समय के लिये संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग का गठन किया था।
- UPSC और SPSC (संवैधानिक निकाय) के विपरीत, JSPSC एक वैधानिक निकाय है जिसे संबंधित राज्य विधानसभाओं के अनुरोध पर संसद द्वारा स्थापित किया गया है।
- सेवा शर्तें: सदस्यों की संख्या और सेवा शर्तें अध्यक्ष द्वारा निर्धारित की जाती हैं।
- रिपोर्टिंग: JSPSC प्रत्येक संबंधित राज्य के राज्यपाल को वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करता है, जो उन्हें संबंधित राज्य विधानमंडलों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
- वैकल्पिक व्यवस्था: राष्ट्रपति की स्वीकृति से राज्य के राज्यपाल के अनुरोध पर UPSC राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है।
SPSC के अधिकार क्षेत्र की संवैधानिक सीमाएँ क्या हैं?
- अधिकार क्षेत्र से बाहर के मामले: इसमें पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण और नियुक्तियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के दावों पर विचार करना शामिल है।
- राज्यपाल की नियामक शक्ति: राज्यपाल विनियमों के माध्यम से विशिष्ट पदों, सेवाओं और मामलों को SPSC परामर्श से बाहर कर सकते हैं (इन्हें 14 दिनों के लिये विधानमंडल के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये तथा राज्य विधानमंडल द्वारा संशोधन या निरसन के अधीन हैं)।
- सलाहकारी प्रकृति: SPC की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं- राज्य सरकारें सलाह को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती हैं।
- न्यायालय के निर्णय: उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मनबोधन लाल श्रीवास्तव (1957) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि SPSC से परामर्श न करने से सरकारी निर्णय अमान्य नहीं होते। यह प्रावधान निर्देशात्मक है, अनिवार्य नहीं।
राज्य लोक सेवा आयोगों के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- प्रश्नपत्र लीक: राज्य लोक सेवा आयोगों की परीक्षाओं में बार-बार प्रश्नपत्र लीक होने की घटनाओं (जैसे बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश) ने सार्वजनिक विश्वास को गंभीर रूप से कमज़ोर किया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, केवल वर्ष 2018 में ही लगभग 2,000 परीक्षा कदाचार के मामले (जिनमें प्रश्नपत्र लीक और प्रतिरूपण शामिल हैं) दर्ज किये गए थे।
- पिछले 7 वर्षों में देशभर में 70 से अधिक मामलों ने 1.7 करोड़ से अधिक छात्रों को प्रभावित किया है, जिनमें वर्ष 2024 में राजस्थान लोक सेवा आयोग के एक पूर्व सदस्य की 2021 उप-निरीक्षक परीक्षा प्रश्नपत्र लीक मामले में गिरफ्तारी भी शामिल है।
- भर्ती प्रक्रियाओं में देरी: आरक्षण, पाठ्यक्रम और पात्रता से जुड़े न्यायालयी मामलों के कारण SPSC के माध्यम से होने वाली भर्तियाँ प्राय: पूरी नहीं हो पातीं, जिससे हज़ारों चयन प्रक्रियाएँ वर्षों तक लंबित रह जाती हैं।
- भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की समस्याएँ: परीक्षा घोटालों, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के कारण राज्य लोक सेवा आयोगों की विश्वसनीयता पर गंभीर संकट आया है, जिनमें मध्य प्रदेश का कुख्यात व्यवस्थित व्यापम घोटाला (2013) प्रमुख उदाहरण है। सोशल मीडिया पर फैलने वाली अप्रमाणित अफवाहें और SPSC की ओर से समय पर आधिकारिक स्पष्टीकरण के अभाव में सार्वजनिक विश्वास और भी कमज़ोर होता है, जिसके परिणामस्वरूप प्राय: विरोध प्रदर्शन तथा परीक्षाओं का बहिष्कार देखने को मिलता है।
- स्वायत्तता और राजनीतिक प्रभाव से जुड़े मुद्दे: यद्यपि राज्य लोक सेवा आयोग संवैधानिक रूप से संरक्षित है, फिर भी राज्यपाल द्वारा की जाने वाली नियुक्ति प्रक्रिया सदस्यों की नियुक्ति में संभावित राजनीतिक प्रभाव को लेकर चिंताएँ उत्पन्न करती है। इससे आयोग की स्वतंत्रता और पक्षपात की आशंकाएँ उत्पन्न होती हैं।
- पुरानी प्रणालियाँ और अवसंरचना: कई SPSC के पास बड़े पैमाने की परीक्षाओं को सुरक्षित रूप से संचालित करने के लिये आवश्यक संस्थागत क्षमता, मानव संसाधन और लॉजिस्टिक व्यवस्था का अभाव है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने कमज़ोर योजना, स्टाफ की कमी और अपर्याप्त परीक्षा सुरक्षा को प्रमुख कमज़ोरियों के रूप में रेखांकित किया है।
- कमज़ोर जवाबदेही और पारदर्शिता तंत्र: अधिकांश SPSC में सशक्त बाह्य लेखा-परीक्षा और संसदीय निगरानी का अभाव है। RTI के कमज़ोर अनुपालन, अंकों व अभिलेखों के प्रकाशन में विलंब तथा एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) जैसे संगठनों द्वारा उजागर की गई पारदर्शिता की कमियाँ निष्पक्ष प्रक्रियाओं के बावजूद जनविश्वास को कमज़ोर करती हैं।
राज्य लोक सेवा आयोगों (SPSC) को सुदृढ़ करने हेतु कौन-से उपाय आवश्यक हैं?
- समयबद्ध भर्ती: राज्य सेवा नियमों में संशोधन कर भर्ती की प्रत्येक अवस्था के लिये अधिकतम समय-सीमा निर्धारित की जानी चाहिये। साथ ही, पूर्वानुमेयता सुनिश्चित करने के लिये प्रत्येक SPSC को वार्षिक परीक्षा कैलेंडर प्रकाशित करने और उसका पालन करने के लिये बाध्य किया जाना चाहिये। ऐसा माना जाता है कि इस प्रकार के कानूनी ढाँचे से भर्ती प्रक्रियाएँ अधिक शीघ्र पूरी हो सकेंगी।
- संस्थागत एवं परिचालन सुधार: राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (NTA) की तर्ज पर एक राज्य परीक्षा सुरक्षा प्राधिकरण (SESA) का गठन किया जाना चाहिये, जो विशेष रूप से प्रश्नपत्र निर्माण, एन्क्रिप्शन, लॉजिस्टिक्स तथा पेपर लीक की जाँच का कार्य सॅंभाले।
- स्वतंत्रता और जवाबदेही को सुदृढ़ करना: SPSC के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिये एक कॉलेजियम प्रणाली स्थापित की जाए, जिसमें राज्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, UPSC के अध्यक्ष और राज्य के मुख्य सचिव शामिल हों। इससे नियुक्ति प्रक्रिया को प्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण से अलग रखा जा सकेगा। साथ ही जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये SPSC को नियमित CAG प्रदर्शन ऑडिट के दायरे में लाया जाए।
- क्षमता निर्माण और पारदर्शिता: SPSC के सदस्यों और कर्मचारियों के लिये आधुनिक भर्ती तकनीकों तथा नैतिक मानकों पर व्यापक प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए। इसके अतिरिक्त प्रत्येक भर्ती चक्र के लिये एक रीयल-टाइम सार्वजनिक डैशबोर्ड विकसित किया जाए, जिसमें चरणवार प्रगति और अंतिम चयन की जानकारी प्रदर्शित हो, ताकि पूर्ण पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके।
निष्कर्ष
योग्यता के संवैधानिक प्रहरी के रूप में राज्य लोक सेवा आयोग (SPSCs) प्रश्नपत्र लीक, भर्ती में देरी और राजनीतिक प्रभाव जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जिससे उनकी विश्वसनीयता क्षीण हुई है। इन्हें सुदृढ़ करने के लिये उनके परामर्श को बाध्यकारी बनाना, परिचालन स्वतंत्रता सुनिश्चित करना और प्रौद्योगिकी-आधारित पारदर्शिता अपनाना आवश्यक है, ताकि सक्षम राज्य सिविल सेवा के निर्माण में उनकी भूमिका पुनः स्थापित हो सके।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में राज्य लोक सेवा आयोगों की संवैधानिक भूमिका और कार्यों की समीक्षा कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. राज्य लोक सेवा आयोग (SPSC) क्या है?
यह अनुच्छेद 315–323 के अंतर्गत स्थापित एक संवैधानिक निकाय है, जो राज्य सिविल सेवाओं में योग्यता-आधारित, निष्पक्ष और स्वतंत्र भर्ती सुनिश्चित करता है।
2. SPSC के सदस्यों की नियुक्ति और पदच्युति कैसे होती है?
सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है तथा उन्हें केवल राष्ट्रपति द्वारा ही हटाया जा सकता है। पदच्युति के आधारों में कदाचार, दिवालियापन या अक्षमता शामिल हैं। कदाचार के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जाँच अनिवार्य होती है।
3. क्या SPSC की सिफारिशें राज्य सरकार पर कानूनी रूप से बाध्यकारी होती हैं?
नहीं। SPSC की सिफारिशें परामर्शात्मक प्रकृति की होती हैं और जैसा कि उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मनबोधन लाल श्रीवास्तव (1957) में कहा गया है, बिना परामर्श के सरकार की कार्रवाई अमान्य नहीं होती।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रिलिम्स
प्रश्न. भारतीय संविधान के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति का यह कर्त्तव्य है कि वे निम्नलिखित में से किसको/किनको संसद् के पटल पर रखवाए? (2012)
1. संघ वित्त आयोग की सिफारिशों को
2. लोक लेखा समिति के प्रतिवेदन को
3. नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन को
4. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के प्रतिवेदन को
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सहीं उत्तर चुनिये:
(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 4
(c) केवल 1, 3 और 4.
(d) 1,2,3 और 4
उत्तर: (c)
मेन्स
प्रश्न. एक प्रभावी लोक सेवक बनने के लिये आवश्यक दस आवश्यक मूल्यों की पहचान कीजिये। लोक सेवकों में अनैतिक आचरण को रोकने के उपायों का वर्णन कीजिये। (2021)
प्रश्न. "आर्थिक प्रदर्शन के लिये संस्थागत गुणवत्ता एक निर्णायक चालक है"। इस संदर्भ में लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिये सिविल सेवा में सुधारों के सुझाव दीजिये। (2020)
राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस एवं भारत में उपभोक्ता आयोग
प्रिलिम्स के लिये: उपभोक्ता आयोग, ई-दाखिल पोर्टल, अर्द्ध-न्यायिक निकाय, केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण
मेन्स के लिये: भारत में अर्द्ध-न्यायिक निकायों की प्रभावशीलता, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019, समावेशी शासन के घटक के रूप में उपभोक्ता अधिकार
चर्चा में क्यों?
24 दिसंबर को मनाया जाने वाला राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस भारत में उपभोक्ता अधिकारों एवं संरक्षण के महत्त्व को रेखांकित करता है। साथ ही यह उपभोक्ता आयोगों में बढ़ते विलंब की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है, जहाँ मामलों की बढ़ती लंबितता और संरचनात्मक कमियाँ समयबद्ध न्याय वितरण को कमज़ोर कर रही हैं।
सारांश
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत मज़बूत विधिक आधार के बावजूद, उपभोक्ता आयोग मामलों की बढ़ती लंबितता, मानव संसाधन की कमी, बार-बार स्थगन तथा अप्रभावी अवसंरचना के कारण गंभीर विलंब का सामना कर रहे हैं, जिससे राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस पर रेखांकित त्वरित उपभोक्ता न्याय का उद्देश्य प्रभावित हो रहा है।
- उपभोक्ता आयोगों को सुदृढ़ करने के लिये त्वरित नियुक्तियाँ, कठोर केस-फ्लो प्रबंधन, ई-जागृति के माध्यम से पूर्ण डिजिटल एकीकरण, अनिवार्य मध्यस्थता तथा प्रदर्शन-आधारित निगरानी तंत्र को अपनाना आवश्यक है, ताकि प्रौद्योगिकी-सक्षम, दक्ष और समयबद्ध उपभोक्ता शिकायत निवारण सुनिश्चित किया जा सके।
नोट: राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 को राष्ट्रपति की स्वीकृति की स्मृति में मनाया जाता है, जिसके अंतर्गत सूचित किये जाने का अधिकार, संरक्षण का अधिकार, सुने जाने का अधिकार तथा निवारण प्राप्त करने का अधिकार जैसे प्रमुख उपभोक्ता अधिकार निर्धारित किये गए।
- इस दिवस का उद्देश्य उपभोक्ता जागरूकता और उत्तरदायी प्रथाओं को बढ़ावा देना है।
- वर्ष 2025 की थीम, “Efficient and Speedy Disposal through Digital Justice अर्थात डिजिटल न्याय के माध्यम से कुशल एवं त्वरित निस्तारण”, प्रौद्योगिकी-संचालित और समयबद्ध उपभोक्ता शिकायत निवारण पर विशेष ज़ोर को रेखांकित करती है।
उपभोक्ता आयोग क्या होते हैं?
- परिचय: उपभोक्ता आयोग अर्द्ध-न्यायिक निकाय हैं जिनकी स्थापना उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 (अब उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (CPA), 2019) के तहत उपभोक्ताओं और विक्रेताओं या सेवा प्रदाताओं के बीच विवादों को हल करने के लिये की गई है।
- इनका उद्देश्य त्वरित और प्रभावी न्याय प्रदान करना और उपभोक्ताओं को अनुचित व्यापार प्रथाओं, दोषपूर्ण वस्तुओं और सेवाओं से संरक्षित करना है।
- भारत में उपभोक्ता आयोगों के प्रकार: उपभोक्ता अधिनियम, 2019 उपभोक्ता विवादों के निवारण के लिये तीन स्तरीय अर्द्ध-न्यायिक तंत्र को प्रतिपादित करता है, अर्थात् ज़िला आयोग, राज्य आयोग और राष्ट्रीय आयोग, जिनमें से प्रत्येक को परिभाषित मौद्रिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
- ज़िला और राज्य उपभोक्ता आयोगों की स्थापना राज्य सरकारों द्वारा केंद्र सरकार की मंजूरी से की जाती है, जबकि राष्ट्रीय आयोग की स्थापना केंद्र सरकार द्वारा की जाती है।
- ये निकाय विवाद समाधान के लिये एक वैकल्पिक तंत्र प्रदान करते हैं और दीवानी अदालतों का स्थान नहीं लेते हैं।
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उपभोक्ता आयोग |
मौद्रिक क्षेत्राधिकार |
संघटन |
अपीलीय प्राधिकरण |
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ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग |
50 लाख रुपये तक। |
अध्यक्ष (ज़िला न्यायाधीश या समकक्ष) और सदस्यगण। |
अपील राज्य आयोग के समक्ष की जा सकती है। |
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राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग |
50 लाख रुपये से अधिक और 2 करोड़ रुपये तक। |
अध्यक्ष (उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश या सेवानिवृत्त न्यायाधीश) और सदस्यगण। |
अपील राष्ट्रीय आयोग के समक्ष की जा सकती है। |
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राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) |
2 करोड़ रुपये से अधिक। |
अध्यक्ष (सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के वर्तमान या सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश) और सदस्यगण। |
अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है। |
- न्यायिक निर्णय:
- इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी.पी. शांता (1995): सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि चिकित्सक द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएँ उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के दायरे में आती हैं।
- अंबरीश कुमार शुक्ला बनाम फेरस इंफ्रास्ट्रक्चर (2016): इस मामले में पैसों से संबंधित न्यायक्षेत्र (Pecuniary Jurisdiction) को स्पष्ट किया गया, जहाँ कुल दावा मूल्य (उत्पाद की लागत और मुआवज़ा) को ध्यान में रखते हुए उचित न्यायालय का निर्धारण किया गया।
- गणेशकुमार राजेश्वरराव सेलुकर और अन्य बनाम महेंद्र भास्कर लिमये और अन्य: सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से उपभोक्ता विवादों के लिये स्थायी निर्णयात्मक निकायों की स्थापना करने का आग्रह किया। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि उपभोक्ता अधिकार संवैधानिक रूप से संरक्षित हैं और CPA, 1986 के कार्यान्वयन में अंतराल को देखते हुए एक स्थिर ढाँचे की आवश्यकता है।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019
- CPA, 2019, जो 2020 में लागू हुआ, ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की जगह ली और आधुनिक बाज़ार में उपभोक्ता अधिकारों और शिकायत निवारण को सुदृढ़ किया।
- यह अधिनियम न्यायसंगत व्यापार प्रथाओं, सूचित उपभोक्ता चयन और त्वरित विवाद निवारण को प्रोत्साहित करता है।
- यह कानून कई प्रमुख अधिकारों की गारंटी देता है, जिसमें शामिल है उत्पादों या सेवाओं की गुणवत्ता, मात्रा, क्षमता, शुद्धता और मानकों के संबंध में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार, जिससे उपभोक्ताओं को असमान्य या अनुचित व्यापार प्रथाओं से सुरक्षा मिलती है।
- केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA), जिसे 2020 में CPA, 2019 के अंतर्गत स्थापित किया गया, सामूहिक स्तर पर उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा करता है।
- CCPA उपभोक्ता अधिकारों को लागू करता है, असमान्य व्यापार प्रथाओं को रोकता है, भ्रामक विज्ञापनों को नियंत्रित करता है और निर्माताओं, समर्थन करने वालों तथा प्रकाशकों के विरुद्ध कार्रवाई करता है।
भारत में उपभोक्ता आयोगों में विलंब के क्या कारण हैं?
- केस बैकलॉग में वृद्धि: जनवरी 2024 तक, ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोगों में 5.43 लाख मामले लंबित थे।
- वर्ष 2024 में 1.73 लाख नए मामले दायर किये गए, जबकि केवल 1.58 लाख मामलों का निपटान हुआ, जिससे बैकलॉग में लगभग 14,900 मामले और जुड़ गए।
- कठोर मानव संसाधन की कमी: राज्य और ज़िला उपभोक्ता आयोगों में अध्यक्ष और सदस्यों के कई पद रिक्त हैं, जिससे कार्यकारी बेंच की क्षमता में उल्लेखनीय कमी आई है और मामलों के निपटान की गति धीमी हो गई है।
- लगातार स्थगन: उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (CPA), 2019 मामलों का निपटान 3–5 माह के भीतर करने का प्रावधान करता है और केवल पर्याप्त कारण प्रस्तुत किये जाने तथा लिखित रूप में कारण दर्ज होने पर ही स्थगन की अनुमति देता है।
- हालाँकि, समय की कमी, पक्षकारों की अनुपस्थिति और अधूरे रिकॉर्ड के कारण मामले बार-बार स्थगित किये जाते हैं, जिससे स्पष्ट कानूनी प्रावधानों के बावजूद नियमित देरी होती है।
- आदेशों का कमज़ोर प्रवर्तन: अंतिम आदेशों के खराब प्रवर्तन से प्रायः उपभोक्ताओं को निष्पादन कार्यवाही में जाने के लिये मज़बूर होना पड़ता है , जबकि कंपनियों द्वारा गैर-अनुपालन से पुन: मुकदमेबाज़ी होती है , जिससे मामलों की लंबितता बढ़ जाती है।
- CAG एवं उपभोक्ता मामलों के विभाग की रिपोर्टों में मुआवज़े की वसूली की कम दर को एक प्रमुख चिंता के रूप में उजागर किया गया है ।
- अपर्याप्त अवसंरचना और रसद: सीमित न्यायालय कक्ष, अपर्याप्त सहायक कर्मचारी और ई-दाखिल पोर्टल के माध्यम से कमज़ोर डिजिटल केस प्रबंधन के कारण सुनवाई के साथ-साथ मामलों की निगरानी शिथिल हो जाती है।
- विशेषज्ञ ज्ञान का अभाव: बीमा दावों, चिकित्सकीय लापरवाही या वित्तीय उत्पादों से जुड़े मामलों में विशेषज्ञ राय और तकनीकी रिपोर्टों की आवश्यकता होती है, जिससे समय-सीमा बढ़ जाती है।
- सदस्यों के पास प्रायः विषय-विशेष के प्रशिक्षण का अभाव होता है, जिससे बार-बार स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है और वे बाह्य विशेषज्ञों पर निर्भर हो जाते हैं।
- प्रतिपक्षों द्वारा रणनीतिक विलंब: संसाधन-संपन्न कंपनियाँ कभी-कभी व्यक्तिगत उपभोक्ताओं को आर्थिक एवं मानसिक रूप से थकाने के लिये बार-बार स्थगन का अनुरोध करती हैं।
भारत की उपभोक्ता संरक्षण पहल
- उपभोक्ता कल्याण कोष: यह उपभोक्ता संरक्षण एवं जागरूकता पहलों का समर्थन करता है। यह राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को एक उपभोक्ता कल्याण संचय कोष सृजित करने के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करता है, जो 75:25 के अनुपात (विशेष श्रेणी के राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के लिये 90:10) में वित्तपोषित होता है।
- कार्यक्रम गतिविधियों को इस संचय से प्राप्त ब्याज के माध्यम से वित्तपोषित किया जाता है और वर्ष 2024-25 में 38.68 करोड़ रुपए जारी किये गए।
- ई-जागृति: इसे वर्ष 2025 में लॉन्च किया गया, यह उपभोक्ता शिकायत निवारण के लिये एक एकीकृत डिजिटल मंच है जो ई-दाखिल, NCDRC CMS और कॉन्फोनेट को एक ही प्रणाली में समेकित करता है।
- यह ऑनलाइन शिकायत दर्ज करने, शुल्क भुगतान, आभासी सुनवाई और मामला ट्रैकिंग को सक्षम बनाता है।
- बहुभाषी समर्थन, चैटबॉट, वॉयस-टू-टेक्स्ट सुविधाओं और भारत कोष तथा PayGov जैसे सुरक्षित भुगतान गेटवे के साथ, यह प्लेटफॉर्म सुलभता, समावेशिता, तीव्र मामला निस्तारण और NRI, वरिष्ठ नागरिकों तथा दिव्यांग व्यक्तियों सहित सभी के लिये सुरक्षित लेनदेन सुनिश्चित करता है।
- राष्ट्रीय उपभोक्ता हेल्पलाइन 2.0: यह एक AI-सक्षम, बहुभाषी शिकायत निवारण मंच है जो उपभोक्ताओं को शिकायत दर्ज करने, मुकदमेबाज़ी-पूर्व उपचार प्राप्त करने और उपभोक्ता अधिकारों की जानकारी प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करता है।
- NCH अब प्रतिवर्ष 12 लाख से अधिक शिकायतों का समाधान करता है, जिनमें से अनेक 21 दिनों के भीतर हल हो जाती हैं। यह बढ़ते उपभोक्ता विश्वास और तीव्र डिजिटल निवारण को दर्शाता है।
- उपभोक्ता जागरूकता: उपभोक्ता मामलों के विभाग ने डार्क पैटर्न जैसी भ्रामक ऑनलाइन प्रथाओं का पता लगाने के लिये ऐरावत सुपरकंप्यूटर पर AI-आधारित डिजिटल उपकरण तैनात किए हैं।
- जागो ग्राहक जागो ऐप उपयोगकर्त्ताओं को असुरक्षित ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों के बारे में चेतावनी देता है, जबकि जागृति ऐप और डैशबोर्ड CCPA को संदिग्ध वेबसाइटों की वास्तविक समय रिपोर्टिंग और निगरानी करने में सक्षम बनाते हैं।
- हेराफेरी को रोकने के लिये, CCPA ने ड्रिप प्राइसिंग, प्रच्छन्न विज्ञापन और झूठी तात्कालिकता जैसे डार्क पैटर्न के विरुद्ध दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जो डिजिटल बाज़ारों में पारदर्शिता और उपभोक्ता संरक्षण को मज़बूत करते हैं।
- भारतीय मानक ब्यूरो (BIS): BIS अधिनियम, 2016 के तहत भारत का राष्ट्रीय मानक निकाय , मानकों का निर्माण करता है, उत्पादों को प्रमाणित करता है और साथ ही बाज़ार में गुणवत्ता एवं सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
- भारत में 22,300 से अधिक भारतीय मानक लागू हैं, जिनमें से 94% ISO और IEC मानदंडों के अनुरूप हैं।
- BIS गुणवत्ता नियंत्रण आदेश उपभोक्ता सुरक्षा, निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता और आयात प्रतिस्थापन का समर्थन करते हैं।
- BIS केयर ऐप उपभोक्ताओं को आभूषणों की हॉलमार्किंग को सत्यापित करने और शिकायत दर्ज़ करने में सक्षम बनाता है, जिससे पारदर्शिता और निष्पक्ष व्यापार को बढ़ावा मिलता है।
- राष्ट्रीय परीक्षण शाला (NTH): उपभोक्ता मामलों के विभाग के अंतर्गत वर्ष 1912 में स्थापित, यह इंजीनियरिंग सामग्री और उत्पादों के लिये परीक्षण, अंशांकन और गुणवत्ता प्रमाणन प्रदान करता है।
- वर्ष 2024-25 में, नमूना परीक्षण में 60% से अधिक की वृद्धि हुई, जो गुणवत्ता आश्वासन में इसकी बढ़ती भूमिका को उजागर करती है।
- विधिक मापविज्ञान (पैकेज्ड कमोडिटीज) संशोधन नियम, 2025: ये नियम, विधिक मापविज्ञान (सरकारी अनुमोदित परीक्षण केंद्र) संशोधन नियम, 2025 के साथ मिलकर लेबलिंग नियमों को सरल बनाते हैं, अनुमोदित परीक्षण केंद्रों का विस्तार करते हैं और आयातित ई-कॉमर्स वस्तुओं के लिये मूल देश के फिल्टर जैसे प्रकटीकरण मानदंडों को मज़बूत करते हैं।
- कुल मिलाकर, वे मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता, नियामक स्पष्टता और उपभोक्ता संरक्षण में सुधार करते हैं, जबकि व्यवसायों पर अनुपालन का बोझ कम करते हैं।
- कुल मिलाकर, वे मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता, नियामक स्पष्टता और उपभोक्ता संरक्षण में सुधार करते हैं, जबकि व्यवसायों पर अनुपालन का बोझ कम करते हैं।
भारत में उपभोक्ता आयोगों के प्रभावी कामकाज़ को मज़बूत करने के लिये कौन-से उपाय किये जा सकते हैं?
- त्वरित नियुक्तियाँ: समयबद्ध चयन प्रक्रियाओं के माध्यम से रिक्तियों को भरना और निरंतरता एवं विशेषज्ञता सुनिश्चित करने के लिये एक समर्पित उपभोक्ता न्यायिक दल बनाने पर विचार करना।
- अनिवार्य केस-फ्लो प्रबंधन: उच्च न्यायालय के केस-फ्लो नियमों के समान, लंबे समय से लंबित मामलों की अनिवार्य प्राथमिकता सूची के साथ केस-आयु मानदंड (6 महीने, 1 वर्ष, 2 वर्ष) लागू करना।
- पूर्ण एकीकृत डिजिटल न्यायनिर्णय: ई-जागृति को फाइलिंग से आगे बढ़ाकर स्वचालित सूचीकरण, दस्तावेज़ जाँच और अनुपालन ट्रैकिंग को शामिल करना, ताकि रजिस्ट्री स्तर पर होने वाली देरी और बार-बार होने वाले स्थगन में कमी आए।
- मध्यस्थता हेतु अनिवार्य संदर्भ: निम्न मूल्य और सेवा-संबंधी विवादों के लिये ज़िला स्तर पर उपभोक्ता मध्यस्थता प्रकोष्ठों को सुदृढ़ करना तथा मामलों के बोझ को घटाने के उद्देश्य से प्रवेश चरण में ही मध्यस्थता के लिये अनिवार्य संदर्भ की व्यवस्था करना।
- परिणाम-आधारित प्रदर्शन निगरानी: पारदर्शिता और प्रशासनिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये प्रत्येक आयोग के लिये त्रैमासिक निपटान और लंबित मामलों की रिपोर्ट प्रकाशित करना।
निष्कर्ष:
उपभोक्ता आयोग उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने और बाज़ार में जवाबदेही सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालाँकि, त्वरित और प्रभावी न्याय प्रदान करने के अपने वादे को पूरा करने के लिये देरी, कर्मचारियों की कमी और प्रवर्तन संबंधी चुनौतियों का समाधान करना आवश्यक है।
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दृष्टि मेन्स का प्रश्न: प्रश्न: उपभोक्ता आयोगों की परिकल्पना सामाजिक न्याय के साधन के रूप में की गई थी। आज वे इस उद्देश्य को पूरा कर रहे हैं या नहीं, इसका आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. भारत में राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस क्यों. मनाया जाता है?
यह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के लागू होने का प्रतीक है और इसका उद्देश्य उपभोक्ता अधिकारों, जागरूकता और निष्पक्ष बाज़ार प्रथाओं को बढ़ावा देना है।
2. भारत में उपभोक्ता आयोगों का उद्देश्य क्या है?
उपभोक्ता आयोग उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत अनुचित व्यापार प्रथाओं, दोषपूर्ण वस्तुओं और दोषपूर्ण सेवाओं के खिलाफ त्वरित और किफायती निवारण प्रदान करते हैं।
3. उपभोक्ता आयोगों की वर्तमान संरचना क्या है?
भारत में मौद्रिक क्षेत्राधिकार पर आधारित ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों से युक्त त्रिस्तरीय प्रणाली का पालन किया जाता है।
4. वैधानिक समय-सीमा के बावजूद उपभोक्ता आयोगों को देरी का सामना क्यों करना पड़ रहा है?
लंबित मामलों की बढ़ती संख्या, आयोगों में रिक्तियाँ, बार-बार स्थगन और प्रक्रियात्मक अक्षमताएँ 3-5 महीने के निपटान के लक्ष्य को कमज़ोर कर रही हैं।
5. ई-दाखिल पोर्टल की क्या भूमिका है?
ई-दाखिल ऑनलाइन फाइलिंग, ई-नोटिस, दस्तावेज़ तक पहुँच और वर्चुअल सुनवाई की सुविधा प्रदान करता है, जिससे शारीरिक यात्रा और प्रक्रियात्मक देरी कम होती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स
प्रश्न.1 भारतीय विधान के प्रावधानी के अंतर्गत उपभोक्ताओं के अधिकारों/विशेषाधिकार्ते के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2012)
- उपभोक्ताओं को खाद्य की जाँच करने के लिये नमूने लेने का अधिकार है।
- उपभोक्ता यदि उपभीक्ता मंच में अपनी शिकायत दर्ज करता है तो उसे इसके लिए कोई फींस नहीं देनी होती।
- उपभोक्ता की मृत्यु हो जाने पर उसका वैधानिक उत्तराधिकारी उसकी ओर से उपभोक्ता मंच में शिकायत दर्ज कर सकता है।
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:
(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: c
मेन्स
प्रश्न. अर्द्ध-न्यायिक (न्यायिकवत) निकाय से क्या तात्पर्य है? ठोस उदाहरणों की सहायता से स्पष्ट कीजिये। (2016)
प्रश्न. आप इस मत से कहाँ तक सहमत हैं कि अधिकरण सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता को कम करते हैं? उपर्युक्त को दृष्टिगत रखते हुए भारत में अधिकरणों की संवैधानिक वैधता तथा सक्षमता की विवेचना कीजिये। (2018)
दक्षिणी महासागर कार्बन विसंगति
चर्चा में क्यों?
नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक अध्ययन एक उल्लेखनीय दक्षिणी महासागर कार्बन विसंगति को उजागर करता है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि 2000 के दशक की शुरुआत से दक्षिणी महासागर निरंतर अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करता आ रहा है, जबकि पहले के जलवायु मॉडलों में इसके कार्बन-सिंक क्षमता के कमज़ोर पड़ने की भविष्यवाणी की गई थी।
सारांश
- नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक अध्ययन दर्शाता है कि दक्षिणी महासागर CO₂ का अवशोषण निरंतर करता जा रहा है, जो जलवायु मॉडलों की भविष्यवाणियों के विपरीत है। इसका कारण सतही स्तरीकरण है, जिसके परिणामस्वरूप कार्बन-समृद्ध गहरा जल सतह तक नहीं पहुँच पाता और निचले स्तरों में संचित रहता है।
- एक प्रमुख वैश्विक कार्बन एवं ऊष्मा अवशोषक (सिंक) होने के कारण, स्तरीकरण के कमज़ोर पड़ते ही संचित कार्बन के मुक्त होने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे दक्षिणी महासागर के कार्बन अवशोषक से उत्सर्जक बनने का खतरा उत्पन्न हो सकता है।
दक्षिणी महासागर कार्बन विसंगति क्या है?
- मॉडल पूर्वानुमानों के विपरीत: जलवायु मॉडलों के अनुसार, बढ़ती ग्रीनहाउस गैस सांद्रता और ओज़ोन परत के पतन के संयुक्त प्रभाव से दक्षिणी महासागर के ऊपर पश्चिमी पवनों की तीव्रता बढ़ने तथा उनके ध्रुवों की दिशा में स्थानांतरित होने की संभावना व्यक्त की गई थी।
- वायुमंडलीय परिसंचरण में इस परिवर्तन से महासागरीय अपवेलिंग (गहरे, कार्बन-समृद्ध जल को सतह के निकट लाने की प्रक्रिया) के बढ़ने की संभावना थी।
- इसके परिणामस्वरूप, तीव्र मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन से ये कार्बन-युक्त गहरे जल वायुमंडल के संपर्क में आ जाते, जिससे दक्षिणी महासागर की कार्बन सिंक के रूप में भूमिका कमज़ोर पड़ने की आशंका जताई गई थी।
- हालाँकि, 2000 के दशक की शुरुआत से किये गए दीर्घकालिक अवलोकनों से पता चलता है कि दक्षिणी महासागर निरंतर अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करता रहा है, क्योंकि कार्बन-समृद्ध परिक्रमणीय गहरा जल सतह से लगभग 100–200 मीटर नीचे संचित हैं, जिससे उनका वायुमंडल में उत्सर्जन नहीं हो पाता।
- वायुमंडलीय परिसंचरण में इस परिवर्तन से महासागरीय अपवेलिंग (गहरे, कार्बन-समृद्ध जल को सतह के निकट लाने की प्रक्रिया) के बढ़ने की संभावना थी।
- स्तरीकरण की भूमिका: अधिक वर्षा, अंटार्कटिक हिम के पिघलने तथा समुद्री हिम के स्थानांतरण/आवागमन के परिणामस्वरूप महासागर की सतही परत में स्वच्छ जल की मात्रा बढ़ गई है। स्वच्छ जल, लवणीय जल की तुलना में हल्का होता है, इसलिये यह ऊपर एक स्थिर परत बना लेता है।
- यह परतदार संरचना, जिसे स्तरीकरण (Stratification) कहा जाता है, एक ढक्कन की तरह कार्य करती है, जो सतही जल और नीचे स्थित कार्बन-समृद्ध गहरे जल के बीच ऊर्ध्वाधर मिश्रण को रोकती है। इसके परिणामस्वरूप कार्बन नीचे ही संग्रहित रहता है, CO₂ वायुमंडल में निकलने से रुक जाती है और दक्षिणी महासागर एक कार्बन अवशोषक (कार्बन सिंक) के रूप में कार्य करता रहता है।
- महत्त्व: अध्ययन चेतावनी देता है कि यह स्थिति अस्थायी हो सकती है। यदि भविष्य में सतही स्तरीकरण कमज़ोर पड़ता है तो संग्रहित कार्बन तेज़ी से वायुमंडल में उत्सर्जित हो सकता है, जिससे जलवायु परिवर्तन की गति और तीव्र हो जाएगी।
- 2010 के दशक की शुरुआत से, दक्षिणी महासागर के कुछ हिस्सों में सतही स्तरीकरण के पतला होने और लवणता बढ़ने से पवनों के लिये गहरे, कार्बन-समृद्ध जल को ऊपर मिलाना आसान हो गया है, जिससे इसके कार्बन सिंक से कार्बन स्रोत में बदलने का जोखिम बढ़ गया है।
दक्षिणी महासागर के संदर्भ में प्रमुख तथ्य क्या हैं?
- भौगोलिक विस्तार: दक्षिणी महासागर (या अंटार्कटिक महासागर) को अंटार्कटिका के चारों ओर के जलक्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है, जो सामान्यतः अंटार्कटिक तट से उत्तर की ओर 60° दक्षिण अक्षांश तक फैला होता है। इस सीमा को इंटरनेशनल हाइड्रोग्राफिक ऑर्गनाइज़ेशन (IHO) ने वर्ष 2000 में स्थापित किया था और इसे अंटार्कटिक सर्कम्पोलर कर्रेंट (ACC) द्वारा चिह्नित किया गया है, जो अटलांटिक, पैसिफिक और हिंद महासागरों के कुछ हिस्सों को जोड़ता है।
- यह विशेष है क्योंकि इसे भूमि द्वारा नहीं बल्कि एक धारा (कर्रेंट) द्वारा परिभाषित किया गया है और यह वैश्विक जलवायु में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- प्रमुख भौगोलिक विशेषताएँ
- सबसे संकीर्ण मार्ग (Narrowest chokepoint): दक्षिण अमेरिका और अंटार्कटिक प्रायद्वीप के बीच ड्रेक पैसिज (Drake Passage), जिसकी चौड़ाई लगभग 1,000 किमी है।
- दक्षिणी महासागर में वेड्डेल सी, रॉस सी, अमुंडसेन सी, बेलिंग्सहाउसन सी और स्कॉटिया सी के कुछ हिस्से शामिल हैं।
- कोई महाद्वीपीय भूभाग इसके प्रवाह को बाधित नहीं करता।
- आकार और कवरेज: क्षेत्रफल के हिसाब से यह प्रशांत महासागर, अटलांटिक महासागर और हिंद महासागर के बाद चौथा सबसे बड़ा महासागर है तथा आर्कटिक महासागर से बड़ा है।
- यह वैश्विक महासागरों के लगभग 25–30% क्षेत्र को कवर करता है और पृथ्वी के कुल महासागर आयतन का लगभग 5.4% हिस्सा है।
- कार्बन सिंक की भूमिका: दक्षिणी महासागर विश्व के महासागरों द्वारा अवशोषित सभी मानवजनित CO₂ का लगभग 40% अपने भीतर समाहित करता है। यह ग्लोबल वार्मिंग के विरुद्ध एक महत्त्वपूर्ण संतुलनकारी भूमिका निभाता है।
- यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से उत्पन्न अतिरिक्त ऊष्मा का लगभग 75% अवशोषित करने के लिये ज़िम्मेदार है।
- महासागरीय परिसंचरण: दक्षिणी महासागर का परिसंचरण अंटार्कटिक सर्कम्पोलर कर्रेंट द्वारा नियंत्रित होता है, जो विश्व की सबसे तीव्र धारा है। यह अंटार्कटिका के चारों ओर पूर्व की दिशा में बहती है और अटलांटिक, हिंद तथा प्रशांत महासागरों को जोड़ती है।
- ठंडी और सघन अंटार्कटिक जल धारा महासागर के तल के साथ उत्तर की दिशा में बहती है, जबकि अटलांटिक, हिंद और प्रशांत महासागर की गर्म सतही जल दक्षिण की ओर बहती है ताकि उनका स्थान ले सके तथा ये धारा अंटार्कटिक कन्वर्जेंस पर मिलती हैं।
- यह क्षेत्र उच्च फाइटोप्लांकटन उत्पादकता का समर्थन करता है, जिसमें मुख्य रूप से डायाटम्स होते हैं। अंटार्कटिक क्रिल (Antarctic krill) इस खाद्य जाल का केंद्र बनाते हैं, जो मछली, समुद्री पक्षियों, सील और व्हेल को पोषण प्रदान करता है।
- महासागर वैश्विक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (MOC) का केंद्रबिंदु है, जिसे प्राय: महासागरों की ‘कन्वेयर बेल्ट’ के रूप में जाना जाता है।
- ठंडी और सघन अंटार्कटिक जल धारा महासागर के तल के साथ उत्तर की दिशा में बहती है, जबकि अटलांटिक, हिंद और प्रशांत महासागर की गर्म सतही जल दक्षिण की ओर बहती है ताकि उनका स्थान ले सके तथा ये धारा अंटार्कटिक कन्वर्जेंस पर मिलती हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. दक्षिणी महासागर कार्बन विसंगति क्या है?
यह 2000 के दशक की शुरुआत से दक्षिणी महासागर द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषण में निरंतर वृद्धि को दर्शाता है, जो जलवायु मॉडलों की अवशोषण क्षमता कम होने की भविष्यवाणियों के विपरीत है।
2. दक्षिणी महासागर कार्बन सिंक में स्तरीकरण (Stratification) की क्या भूमिका है?
वर्षा और हिम के पिघलने से सतही परत में स्वच्छ जल की मात्रा बढ़ गई, जो हल्का होता है और ऊर्ध्वाधर मिश्रण को रोकता है। इससे कार्बन-समृद्ध जल सतह से लगभग 100–200 मीटर नीचे संचित रहता है।
3. अंटार्कटिक सर्कम्पोलर कर्रेंट क्यों महत्त्वपूर्ण है?
यह विश्व की सबसे तीव्र महासागरीय धारा है, जो अटलांटिक, हिंद और प्रशांत महासागरों को जोड़ती है तथा वैश्विक ऊष्मा, पोषक तत्त्व एवं कार्बन के प्रवाह को नियंत्रित करती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रिलिम्स:
प्रश्न. निम्नलिखित कारकों पर विचार कीजिये:
- पृध्वी का आवर्तन
- वायु दाब और हवा
- महासागरीय जल का घनत्व
- पृथ्वी का परिक्रमण
उपर्युक्त में से कौन-से कारक महासागरीय धाराओं को प्रभावित करते हैं? (2012)
(a) केवल 1 और 2
(b) 1, 2 और 3
(c) 1 और 4
(d) 2, 3 और 4
उत्तर: (b)
मेन्स:
प्रश्न. महासागरीय लवणता में विभिन्नताओं के कारण बताइये तथा इसके बहु-आयामी प्रभावों की विवेचना कीजिये। (250 शब्द) (2017)





