डेली न्यूज़ (11 Jul, 2025)



भारत में विधायी कार्य-उत्पादकता

प्रिलिम्स के लिये:

लोकसभा अध्यक्ष का कार्यालय, लोकसभासंसद की उत्पादकता, स्थगन, संसदीय समितियाँ, राज्यसभा

मेन्स के लिये:

संसद के कामकाज से संबंधित मुद्दे और संसद की कार्य-उत्पादकता में सुधार के उपाय

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों?

लोकसभा अध्यक्ष ने शहरी स्थानीय निकायों (ULB) के अध्यक्षों के राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए विधायी कार्य-उत्पादकता में वृद्धि तथा विमर्श की गुणवत्ता को सुधारने की आवश्यकता पर बल दिया।

भारत में विधायी कार्य-उत्पादकता की स्थिति क्या है?

  • विधायी कार्य-उत्पादकता से तात्पर्य उस दक्षता और प्रभावशीलता से है जिसके साथ संसद और राज्य विधानमंडल जैसे विधायी निकाय अपने मुख्य कार्यों जैसे- कानून निर्माण, कार्यकारी निरीक्षण, बजट अनुमोदन और राष्ट्रीय/सार्वजनिक महत्त्व के मुद्दों पर बहस करते हैं।
  • स्थिति:
    • बैठक के दिनों की संख्या: संसद के बैठक दिनों की संख्या घटकर पहले लोकसभा में लगभग 135 दिन प्रतिवर्ष से 17वीं लोकसभा में लगभग 55 दिन प्रतिवर्ष रह गई है।
    • प्रत्येक बैठक की अवधि: गहन विधायी विचार-विमर्श के लिये लंबी बैठकें आवश्यक हैं। हालाँकि वर्ष 2023 के बजट सत्र में, लोकसभा और राज्यसभा क्रमशः निर्धारित समय का केवल 33% तथा 24% ही कार्य कर पाएंगी, जिससे यह वर्ष 1952 के बाद से छठा सबसे छोटा बजट सत्र बन जाएगा । 
    • उपस्थित सदस्यों की संख्या: 17वीं लोकसभा (2019–2024) के दौरान सांसदों की औसत उपस्थिति जहाँ 79% रही, वहीं संसदीय बहसों में उनकी सक्रिय भागीदारी अपेक्षाकृत कम देखी गई; इस अवधि में सांसदों ने औसतन केवल 45 बहसों में भाग लिया।

 

  • व्यवधान का स्तर:  बार-बार होने वाले व्यवधान, जैसे- नारेबाज़ी और बहिर्गमन, बहस के समय को काफी कम कर देते हैं। 15वीं लोकसभा (2009-14) में व्यवधानों के कारण निर्धारित समय का 30% से अधिक समय बर्बाद हुआ, जिससे विधायी कार्य-उत्पादकता बुरी तरह प्रभावित हुई।
  • संसदीय समितियों द्वारा जाँच: 17वीं लोकसभा में, केवल 10% विधेयक समितियों को भेजे गए, जो 14वीं लोकसभा (60%), 15वीं (71%) और 16वीं (25%) की तुलना में काफी कम है, जहाँ केवल 14 विधेयकों की समीक्षा की गई थी। इसके अतिरिक्त, हाल के वर्षों में समितियों के भीतर बढ़ते दलीय मतभेदों ने द्विदलीय जाँच को कमज़ोर कर दिया है, जिससे विधायी समीक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई है।
  • विचार-विमर्श की कार्यप्रणाली: कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने के लिये आवश्यक प्रश्नकाल और शून्यकाल जैसे उपकरण या तो अपर्याप्त रूप से उपयोग किये गए या पूरी तरह अनुपस्थित रहे। 17वीं लोकसभा में प्रश्नकाल लोकसभा में केवल 19% और राज्यसभा में मात्र 9% निर्धारित समय में ही संचालित हुआ।

  • सांसदों के निजी विधेयकों की प्रस्तुति: स्वतंत्रता के बाद से अब तक 300 से अधिक निजी विधेयक प्रस्तुत किये गए हैं, लेकिन इनमें से केवल 14 ही पारित हुए हैं। अंतिम निजी विधेयक वर्ष 1970 में पारित हुआ था।
  • संविधानिक प्रावधानों में देरी: अनुच्छेद 93 के अंतर्गत उपाध्यक्ष (डिप्टी स्पीकर) का पद 17वीं लोकसभा के पूरे कार्यकाल में रिक्त रहा, जबकि संविधान में इसे "यथाशीघ्र" चुने जाने की आवश्यकता बताई गई है।
  • सहमति-आधारित कानून निर्माण में गिरावट: सरकार और विपक्ष के बीच सहमति बनाने की परंपरा काफी कमज़ोर हो गई है, जिससे महत्त्वपूर्ण विधेयकों को न्यूनतम बहस तथा  निरंतर बाधाओं के बीच पारित किया जा रहा है।
    • वर्ष 1950 से अब तक केवल 3 बार संयुक्त बैठक का उपयोग किया जाना, उन व्यवस्थाओं के क्षरण को दर्शाता है जो विधायी गतिरोधों को सुलझाने के लिये बनाई गई थीं।

विधायिका की निम्न कार्य-उत्पादकता के प्रमुख निहितार्थ क्या हैं?

  • निगरानी की कमज़ोरी: बैठक के दिनों की कमी, निरंतर बाधाएँ और प्रश्नकाल का अपर्याप्त उपयोग कार्यपालिका को जवाबदेह ठहराने की विधायिका की क्षमता को कमज़ोर करता है, जिससे संसदीय निगरानी कमज़ोर पड़ती है तथा बिना जाँच के निर्णय लेने की प्रवृत्ति बढ़ती है।
  • कम गुणवत्ता वाला कानून निर्माण: संसदीय समितियों को दरकिनार कर विधेयकों को बिना पर्याप्त बहस के जल्दबाज़ी में पारित करना कानून की गहनता, वैधता और प्रभावशीलता से समझौता करता है, जिससे न्यायिक समीक्षा तथा कार्यान्वयन में चुनौतियों का जोखिम बढ़ जाता है।
  • विपक्ष का हाशिये पर जाना: बहस के लिये सीमित समय, निजी विधेयकों की अनुपस्थिति और विपक्ष की भागीदारी पर रोक समावेशी कानून निर्माण को कमज़ोर करती है, सहमति बनाने की प्रक्रिया को बाधित करती है तथा लोकतंत्र में असहमति की भूमिका को कमज़ोर करती है।
  • लोक विश्वास में गिरावट: विधायी प्रणाली की अक्षमता की धारणा लोकतांत्रिक संस्थानों में नागरिकों के विश्वास को कमज़ोर करती है, जिससे राजनीतिक उदासीनता, मतदान में कमी और संस्थागत वैधता का क्षरण होता है।
  • कार्यपालिका का अतिक्रमण: विधायिका की भागीदारी कम होने से कार्यपालिका को अध्यादेशों, अधीनस्थ कानूनों और कार्यकारी आदेशों के माध्यम से संसद को दरकिनार करने का अवसर मिलता है, जिससे संवैधानिक शक्तियों का संतुलन बिगड़ता है तथा नियंत्रण एवं संतुलन प्रणाली कमज़ोर होती है।

भारत में विधायी कार्य-उत्पादकता में सुधार के लिये क्या उपाय किये गए हैं?

  • सांसदों के लिये आचार संहिता: सांसदों (संसद सदस्यों) के आचरण को नियंत्रित करने के लिये एक औपचारिक आचार संहिता निर्धारित की गई है, जिसका उद्देश्य संसद की गरिमा बनाए रखना, अवरोधों को कम करना और विधायी कार्य में रचनात्मक भागीदारी को बढ़ावा देना है।
  • प्रौद्योगिकी को अपनाना: संसद ने विधायी कार्यक्षमता बढ़ाने के लिये डिजिटल उपकरणों को अपनाया है। कार्यवाही का सीधा प्रसारण सार्वजनिक निगरानी को बढ़ाता है, जिससे सांसदों की जवाबदेही और अनुशासित व्यवहार को प्रोत्साहन मिलता है।
    • ई-विधान (NeVA) जैसी पहलें सभी राज्य विधानसभाओं को कागज़रहित बनाने की दिशा में कार्य कर रही हैं, जिससे रियल-टाइम अपडेट और विधायी कार्य में पारदर्शिता में सुधार सुनिश्चित होता है।
  • संसदीय समिति प्रणाली को सुदृढ़ करना: एक सशक्त संसदीय समिति प्रणाली, जिसमें विभाग से संबंधित स्थायी समितियाँ शामिल हैं, विधेयकों, नीतियों और कार्यपालिका की गतिविधियों की विस्तृत जाँच के लिये उपयोग की जाती है।
    • यह विशेषज्ञों के सुझावों को शामिल करने की अनुमति देती है तथा विधायी चर्चाओं की गुणवत्ता और गहराई को मज़बूत बनाती है।
  • अनुशासनात्मक तंत्र: अनुशासनहीन व्यवहार से निपटने के लिये संसद नियमों का उल्लंघन करने वाले सांसदों के निलंबन या निष्कासन जैसे अनुशासनात्मक उपाय लागू करती है। इनका उद्देश्य सदन की गरिमा बनाए रखना और कार्यवाही को सुचारु रूप से संचालित करना है।
  • विधायकों के लिये क्षमता निर्माण: लोक सभा सचिवालय, PRS लेजिस्लेटिव रिसर्च और गैर-सरकारी संगठनों (NGO) जैसे निकायों द्वारा आयोजित प्रशिक्षण सत्र, कार्यशालाएँ एवं हैंडबुक, विधायकों को प्रक्रियाओं तथा सर्वोत्तम प्रथाओं का ज्ञान प्रदान करते हैं।

भारत में विधायी कार्य-उत्पादकता में सुधार के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  • संस्थागत अनुशासन और नियमित कार्यप्रणाली: संसद के लिये न्यूनतम बैठक दिवसों को अनिवार्य बनाया जाए तथा पूर्वानुमान तथा समयबद्ध विचार-विमर्श सुनिश्चित करने हेतु वार्षिक विधायी कैलेंडर प्रकाशित किये जाएं।
    • आचरण को मानकीकृत करने और विधायी शिष्टाचार को बनाए रखने के लिये सभी स्तरों पर प्रक्रिया के आदर्श नियमों को अपनाना।
  • समितियाँ एवं विधायी समीक्षा: सभी स्तरों पर स्थायी एवं विषय समितियों को विधेयकों, बजटों और नीतियों की गहन समीक्षा/जाँच करने के लिये सशक्त बनाना।
    • महत्त्वपूर्ण विधेयकों के लिये समिति के संदर्भ अनिवार्य बनाना। कानून निर्माण प्रक्रिया में आरंभिक चरण में ही विशेषज्ञों और हितधारकों की राय शामिल करने हेतु पूर्व-विधायी परामर्शों को संस्थागत बनाना।
  • जवाबदेही और पारदर्शिता: सांसदों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी तथा मतदान रिकॉर्ड की निगरानी एवं प्रकाशन करना, बेहतर जवाबदेही के लिये सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 का उपयोग करना।
    • अनुशासनात्मक शक्तियों के माध्यम से व्यवधानों को रोकने के लिये पीठासीन अधिकारियों को सशक्त बनाना। पारदर्शिता और जनता का विश्वास बढ़ाने हेतु कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग तथा अभिलेखीकरण अनिवार्य करना।
  • संवाद और क्षमता निर्माण: सरकार और विपक्ष के बीच आम सहमति बनाने को प्रोत्साहित करके व्यवधान से संवाद की ओर बदलाव को बढ़ावा देना।
    • विधायी गुणवत्ता और सूचित भागीदारी में सुधार के लिये पहली बार प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण तथा अभिविन्यास प्रदान करना।
  • नागरिक सहभागिता और मान्यता: ईमानदारी और जनसेवा में निहित युवा नेतृत्व को बढ़ावा देना। पुरस्कारों, अनुदानों और मानेसर सम्मेलन जैसे मंचों के माध्यम से उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले विधायकों को सम्मानित करें ताकि सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा किया जा सके।
  • अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाना: पारदर्शिता, समावेशिता और विधायी जानकारी तक पहुँच को बढ़ावा देने वाले IPU (अंतर-संसदीय संघ) मानकों को अपनाना। 
    • निश्चित बैठक दिवसों और अनिवार्य समिति जाँच के UK और जर्मन मॉडल का अनुकरण करना। 
    • प्रक्रियागत और नैतिक सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिये कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूके जैसे देशों के साथ सांसद/विधायक विनिमय कार्यक्रम शुरू करना।
    • आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (Organisation for Economic Cooperation and Development- OECD) की संसद से प्रेरित बेंचमार्किंग प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना, जिसमें विधायी प्रदर्शन पर सार्वजनिक डैशबोर्ड शामिल हों।

निष्कर्ष:

लोकतांत्रिक जवाबदेही, गुणवत्तापूर्ण कानून निर्माण और उत्तरदायी शासन के लिये विधायी कार्य-उत्पादकता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। डिजिटल एकीकरण और समिति सुधारों में प्रगति के बावजूद, व्यवधान, कम जाँच और कम बैठकें जैसी समस्याएँ प्रभावशीलता में बाधा डालती हैं। संस्थागत अनुशासन को मजबूत करना, द्विदलीय संवाद को बढ़ावा देना और नागरिक भागीदारी को बढ़ाना, विकसित भारत @2047 को साकार करने के लिये सभी स्तरों पर विधायिकाओं को सशक्त बनाने हेतु आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

भारत में विधायी कार्य-उत्पादकता में गिरावट के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख कारकों का विश्लेषण कीजिये और इसे मजबूत करने हेतु समग्र उपायों का प्रस्ताव करें।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)   

प्रिलिम्स

प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन-सी लोकसभा की अनन्य शक्ति (याँ) है/हैं? (2022)

  1. आपात की उद्घोषणा का अनुसमर्थन करना। 
  2. मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करना। 
  3. भारत के राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाना। 

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) 1 और 2 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 3 
(d) केवल 3

उत्तर: B 


मेन्स 

  1. आपकी दृष्टि में, भारत में कार्यपालिका की जवाबदेही को निश्चित करने में संसद कहाँ तक समर्थ है? (2021)


भारत-ब्राज़ील संबंधों के पाँच स्थायी स्तंभ

प्रिलिम्स के लिये:

जैव प्रौद्योगिकी, भूख और गरीबी के खिलाफ वैश्विक गठबंधन, जैव ईंधन, फ्लेक्स फ्यूल व्हीकल, वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन, UNFCCC, महत्त्वपूर्ण खनिज, अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA), WTO, भारत-मर्कोसुर अधिमान्य व्यापार समझौता (PTA), GM फसलें

मेन्स के लिये:

भारत और ब्राज़ील के बीच सहयोग के प्रमुख क्षेत्र, उनके संबंधों को प्रभावित करने वाली चुनौतियाँ तथा द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने के लिये आवश्यक उपाय।

स्रोत: पी.आई.बी. 

चर्चा में क्यों?

भारत के प्रधानमंत्री ने ब्राज़ील की राजकीय यात्रा की, जहाँ दोनों देशों ने वर्ष 2006 में स्थापित भारत-ब्राज़ील सामरिक साझेदारी को और मज़बूत करने की अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की तथा पाँच प्राथमिकता वाले स्तंभों पर केंद्रित द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की।

  • भारत के प्रधानमंत्री को ब्राज़ील का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान “द ग्रैंड कॉलर ऑफ द नेशनल ऑर्डर ऑफ द सदर्न क्रॉस” से सम्मानित किया गया

नोट: भारत के प्रधानमंत्री रियो डी जेनेरियो (ब्राज़ील) में 17वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन 2025 (6-7 जुलाई 2025) में भाग लेने के बाद ब्रासीलिया (ब्राज़ील की राजधानी) पहुँचे। 

  • भारत ब्रिक्स की अध्यक्षता ग्रहण करेगा और वर्ष 2026 में 18वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की मेज़बानी करेगा।

भारत-ब्राज़ील द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाने के लिये किन पाँच प्राथमिकता स्तंभों पर सहमति बनी है?

  • रक्षा और सुरक्षा सहयोग: भारत-ब्राज़ील ने रणनीतिक सहयोग को मज़बूत करने के लिये वर्गीकृत सूचनाओं के आदान-प्रदान तथा पारस्परिक संरक्षण एवं अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद व अंतर्राष्ट्रीय संगठित अपराध का मुकाबला करने हेतु समझौतों पर हस्ताक्षर किये।
    • उन्होंने सूचना साझा करने के लिये एक साइबर सुरक्षा संवाद (Cybersecurity Dialogue) भी शुरू किया।
  • खाद्य एवं कृषि सुरक्षा: भारत और ब्राज़ील ने सतत् कृषि पर ठोस कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया तथा कृषि उत्पादकता, पशु आनुवंशिकी जैव प्रौद्योगिकी में संयुक्त अनुसंधान एवं विकास की योजना के साथ खाद्य पहुँच सुनिश्चित करने पर जोर दिया।
  • ऊर्जा परिवर्तन और जलवायु कार्रवाई: भारत-ब्राज़ील ने परिवहन को कार्बन मुक्त करने तथा सतत् विकास को बढ़ावा देने में सतत् जैव ईंधन एवं फ्लेक्स फ्यूल व्हीकल के महत्त्व पर जोर दिया, साथ ही वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन को मज़बूत करने का संकल्प लिया, जिसके दोनों देश संस्थापक सदस्य हैं।
    • भारत ने ब्राज़ील की UNFCCC COP30 प्रेसीडेंसी (नवंबर 2025 में बेलेम, ब्राज़ील में आयोजित की जाएगी) और ट्रॉपिकल फॉरेस्ट फॉरएवर फंड (ब्राज़ील की एक पहल) को भी समर्थन दिया ।
  • डिजिटल परिवर्तन और उभरती प्रौद्योगिकियाँ: दोनों देश डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, क्वांटम प्रौद्योगिकियों, नवीकरणीय ऊर्जा और बाह्य अंतरिक्ष जैसे प्रमुख क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिये वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग पर संयुक्त आयोग की बैठक बुलाने पर सहमत हुए।
  •  रणनीतिक क्षेत्रों में औद्योगिक साझेदारी: भारत और ब्राज़ील ने सहयोग के प्रमुख क्षेत्रों की पहचान की, जिनमें औषधि क्षेत्र, खनन और महत्त्वपूर्ण खनिज, तथा तेल एवं गैस शामिल हैं।
    • दोनों देशों ने गैर-शुल्क बाधाओं (Non-Tariff Barriers) को दूर करने, द्विपक्षीय निवेश सहयोग और सुविधा संधि (2020) को शीघ्र लागू करने तथा दोहरा कराधान बचाव संधि (2022) में संशोधन हेतु प्रोटोकॉल के क्रियान्वयन को तेज़ी से आगे बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की। साथ ही, ब्राज़ील-भारत व्यापार परिषद की शुरुआत करने का निर्णय लिया गया ताकि निजी क्षेत्र की भागीदारी को सशक्त किया जा सके।

Brazil

भारत-ब्राज़ील संबंधों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • राजनीतिक और राजनयिक संबंध: भारत और ब्राज़ील के बीच राजनयिक संबंध वर्ष 1948 में स्थापित हुए थे। भारत की एक दूतावास ब्राज़ीलिया में तथा एक कॉन्सुलेट जनरल साओ पाउलो में स्थित है।
    • वर्ष 2006 में स्थापित रणनीतिक साझेदारी ने द्विपक्षीय संबंधों को सुदृढ़ और गहन बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • व्यापार और आर्थिक सहयोग: वर्ष 2024–25 में भारत-ब्राज़ील द्विपक्षीय व्यापार 12.2 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया। भारत के प्रमुख निर्यातों में पेट्रोकेमिकल्स, एग्रोकेमिकल्स, दवाएँ और इंजीनियरिंग उत्पाद शामिल हैं, जबकि ब्राज़ील से भारत को कच्चा तेल, सोया तेल, चीनी, सोना और लौह अयस्क का निर्यात किया गया।
    • भारत ने ब्राज़ील में लगभग 6 अरब डॉलर का निवेश किया है, जबकि ब्राज़ील का भारत में निवेश लगभग 1 अरब डॉलर है।
  • रक्षा और सुरक्षा सहयोग: वर्ष 2003 में रक्षा सहयोग समझौता हुआ, जिसे वर्ष 2006 में अनुमोदन मिला। इसके तहत एक संयुक्त रक्षा समिति (JDC) की स्थापना की गई। 2+2 राजनीतिक-सैन्य वार्ता की पहली बैठक वर्ष 2024 में आयोजित की गई थी।
  • अंतरिक्ष और प्रौद्योगिकी सहयोग: भारत ने वर्ष 2021 में ब्राज़ील के अमेज़ोनिया-1 उपग्रह को लॉन्च किया साथ ही ब्राज़ील भारत के डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPI) में गहरी रुचि रखता है।
  • ऊर्जा और जैव-ईंधन साझेदारी: भारत और ब्राज़ील ने वर्ष 2023 में ग्लोबल बायोफ्यूल्स एलायंस की सह-स्थापना की। दोनों देश तेल एवं गैस तथा जैव-ऊर्जा पर संयुक्त कार्य समूह (Joint Working Groups) का संचालन करते हैं। ब्राज़ील ने वर्ष 2022 में इंटरनेशनल सोलर अलायंस (ISA) की पुष्टि की।
  • सांस्कृतिक और जन-से-जन संबंध: भारत ने मई 2011 में साओ पाउलो में लैटिन अमेरिका में अपना पहला सांस्कृतिक केंद्र खोला। ब्राज़ील में योग और आयुर्वेद से जुड़ा एक जीवंत समुदाय मौजूद है।
    • भारतीय प्रवासी समुदाय की संख्या लगभग 4,000 है, जिसमें अधिकतर पेशेवर और व्यापारी शामिल हैं।

भारत-ब्राज़ील संबंधों के समक्ष चुनौतियाँ क्या हैं?

  • सीमित आर्थिक विविधता: वर्ष 2024–25 में 12.2 अरब अमेरिकी डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार अपेक्षाकृत सीमित बना हुआ है। यह व्यापार गैर-शुल्क बाधाओं (जैसे सख्त स्वच्छता और पादप स्वच्छता मानदंडों) से बाधित होता है, जिससे कृषि व्यापार प्रभावित होता है।
    • व्यापार मुख्यतः कच्चे माल और परिष्कृत उत्पादों पर आधारित है — ब्राज़ील कच्चा माल निर्यात करता है, जिससे भारत परिष्कृत उत्पाद, जिससे मूल्य-वर्द्धित व्यापार की संभावनाएँ सीमित हो जाती हैं।
  • भौगोलिक दूरी: उच्च परिवहन लागत और लंबे शिपिंग मार्गों के कारण व्यापार प्रतिस्पर्द्धा कम हो जाती है। इसके अलावा, सीमित सीधी उड़ानें और कनेक्टिविटी की बाधाएँ व्यापार, पर्यटन और जन-से-जन संपर्क में रुकावट उत्पन्न करती हैं।
  • कृषि और जैव ईंधन में प्रतिस्पर्द्धा: भारत और ब्राज़ील वैश्विक चीनी (शुगर) एवं  इथेनॉल बाज़ारों में प्रतिद्वंद्विता का सामना कर रहे हैं, जिससे सहयोग को लेकर प्रतिस्पर्द्धा बढ़ रही है, जबकि सब्सिडी नीतियों पर मतभेद, विशेष रूप से विश्व व्यापार संगठन में भारतीय शुगर सब्सिडी के प्रति ब्राज़ील के विरोध के कारण टकराव उत्पन्न हो रहा है।
  • संस्कृतिक एवं जागरूकता अंतराल: सांस्कृतिक समझ अभी भी सीमित है, जहाँ ब्राज़ील के लोग भारत को प्रायः योग/आध्यात्म से जोड़ते हैं, जबकि भारतीय ब्राज़ील को मुख्य रूप से फुटबॉल/कार्निवाल के माध्यम से देखते हैं। इन दोनों देशों के बीच मीडिया और शैक्षणिक आदान-प्रदान की कमी भी इस स्थिति को और बढ़ा देती है। 
  • वैश्विक प्राथमिकताओं में अंतर: भारत और ब्राज़ील की क्षेत्रीय प्राथमिकताएँ भिन्न हैं — भारत का ध्यान इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर केंद्रित है, जबकि ब्राज़ील लैटिन अमेरिका को प्राथमिकता देता है।
    • दोनों देशों को बहुपक्षीय मंचों पर भी समन्वय में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे कि विश्व व्यापार संगठन (WTO) और जलवायु वार्ताओं में, विशेष रूप से कृषि सब्सिडी एवं कार्बन उत्सर्जन जैसे मुद्दों पर मतभेद।

भारत-ब्राज़ील संबंधों को और किस प्रकार सुदृढ़ किया जा सकता है?

  • व्यापार और आर्थिक साझेदारी को बढ़ावा देना: अगले 5 वर्षों में द्विपक्षीय व्यापार को 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचाने के लिये व्यापारिक वस्तुओं में विविधता लाना और गैर-शुल्क बाधाओं को कम करना आवश्यक है। इसके लिये फार्मा, खाद्य सुरक्षा और कृषि मानकों की पारस्परिक मान्यता को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • लॉजिस्टिक्स और कनेक्टिविटी में सुधार: शिपिंग लागत व समय को कम करने के लिये भारत-ब्राज़ील समुद्री गलियारे स्थापित करना और दिल्ली/मुंबई तथा साओ पाउलो के बीच सीधी उड़ानें शुरू की जाएँ ताकि पर्यटन एवं व्यापारिक संपर्क को बढ़ावा मिल सके।
  • ऊर्जा और हरित साझेदारी को मज़बूत करना: ग्लोबल बायोफ्यूल एलायंस (GBA)परियोजनाओं को बढ़ाकर और ब्राज़ील के गन्ना उद्योग के साथ भारत की इथेनॉल मिश्रण प्रौद्योगिकी को साझा करके जैव ईंधन तथा इथेनॉल पर सहयोग बढ़ाना।
    • भारत की इलेक्ट्रिक वाहन (EV) आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये  लिथियम, कोबाल्ट और दुर्लभ मृदा जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों पर सहयोग किया जाए।
  • कृषि एवं खाद्य सुरक्षा संबंधों को गहरा करना: भारत और ब्राज़ील को GM फसलों तथा अनावृष्टि-प्रतिरोधी बीजों के विकास में सहयोग करना चाहिये, साथ ही ऑर्गेनिक खाद्य पदार्थों, शाकाहारी उत्पादों व तैयार-खाद्य (रेडी-टू-ईट) वस्तुओं में संयुक्त उद्यमों को बढ़ावा देना चाहिये।
  • संस्थागत तंत्र को सुदृढ़ करना: संबंधों को मज़बूत करने के लिये प्रतिवर्ष प्रधानमंत्री–राष्ट्रपति शिखर सम्मेलन आयोजित किये जाएँ, राज्य स्तर की साझेदारियों को बढ़ावा देने के लिये सिस्टर-सिटी समझौतों (जैसे मुंबई–रियो, बेंगलुरु–साओ पाउलो) को प्रोत्साहित किया जाएँ और थिंक टैंक सहयोग के माध्यम से ट्रैक-2 कूटनीति को आगे बढ़ाया जाएँ।

निष्कर्ष

भारत और ब्राज़ील की रणनीतिक साझेदारी, जो पाँच प्रमुख स्तंभों पर आधारित है, व्यापारिक बाधाओं तथा लॉजिस्टिक अंतराल जैसी चुनौतियों के बावजूद अपार संभावनाएँ रखती है। आर्थिक संबंधों को बढ़ाकर, तकनीकी सहयोग को सशक्त बनाकर और वैश्विक प्राथमिकताओं को समन्वित करके, दोनों देश ग्लोबल साउथ के प्रमुख नेतृत्वकर्त्ता बन सकते हैं, जो एक बहुध्रुवीय विश्व में सतत् विकास तथा पारस्परिक समृद्धि को बढ़ावा देंगे।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. "भारत और ब्राज़ील के बीच रणनीतिक साझेदारी है, फिर भी द्विपक्षीय व्यापार क्षमता से कम है।" चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और आर्थिक जुड़ाव बढ़ाने के उपाय सुझाएँ।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मेन्स

प्रश्न: "विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के अधिक व्यापक लक्ष्य और उद्देश्य वैश्वीकरण के युग में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रबंधन और प्रोन्नति करना है। परंतु (संधि) वार्ताओं की दोहा परिधि मृतोन्मुखी प्रतीत होती है, जिसका कारण विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद है।" भारतीय परिप्रेक्ष्य में, इस पर चर्चा कीजिये। (2016)


विज्ञान के माध्यम से राज्यों का सशक्तीकरण

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, बौद्धिक संपदा, राष्ट्रीय औषधीय एवं सुगंधित पौधा मिशन

मेन्स के लिये:

भारत के नवाचार पारिस्थितिकी तंत्र में राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों की भूमिका, अनुसंधान और नवाचार में विकेंद्रीकरण का महत्त्व, भारत की स्थानीय नवाचार प्रणाली में चुनौतियाँ और सुधार

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों? 

राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान (NITI आयोग) ने अपनी रिपोर्ट "राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (S&T) परिषदों सुदृढ़ बनाने की रूपरेखा" में राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों के वित्तपोषण और शासन प्रणाली में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया है।

भारत में राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (S&T) परिषदों की भूमिका क्या है?

  • परिचय: विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार (STI) राष्ट्रीय विकास के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें केंद्र और राज्य दोनों के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
    • केंद्र-राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी भागीदारी की शुरुआत वर्ष 1971 में भारत रत्न श्री सी. सुब्रमण्यम के नेतृत्व में राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों (SSTC) की स्थापना के साथ हुई थी।
    • प्रारंभ में यह परिषदें कर्नाटक, केरल, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में स्थापित की गई थीं। आज ये लगभग सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कार्यरत हैं।
  • सहयोग: राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST), विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा राज्य विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी कार्यक्रम (SSTP) के तहत सहायता प्रदान की जाती है।
    • DST राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सचिवालयों को बजट सहायता देता है। इसके अलावा, परिषदों को राज्य सरकारों से भी वित्तीय सहयोग प्राप्त होता है, यद्यपि यह राज्यों के अनुसार अलग-अलग होता है।
  • मुख्य भूमिकाएँ: परिषदें प्रायः कृषि, नवीकरणीय ऊर्जा, आपदा प्रबंधन और जैव प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में स्थानीय नवाचारों को बढ़ावा देने का कार्य करती हैं। 
    • विज्ञान-आधारित समाधान तैयार करती हैं जो संसाधनों के प्रबंधन, पर्यावरणीय सुधार और जनजीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने में सहायक होते हैं।
    • विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदें समाज के सभी वर्गों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जागरूकता को बढ़ावा देती हैं।

राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (S&T) परिषदों के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • कोर अनुदानों पर अत्यधिक निर्भरता: कई राज्य परिषदें केवल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) से मिलने वाले मुख्य अनुदानों पर निर्भर रहती हैं और अन्य मंत्रालयों या एजेंसियों से परियोजना-आधारित अनुदान प्राप्त करने के लिये बहुत कम प्रयास करती हैं।
  • केंद्रीय वित्तीय सहायता की कमी: विकेंद्रीकृत विज्ञान शासन के तहत कार्य करने के उद्देश्य से स्थापित परिषदों को केंद्र सरकार से बहुत कम धनराशि मिलती है।
    • उदाहरण के लिये, गुजरात राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के 300 करोड़ रुपए के वार्षिक बजट में से केंद्र से केवल 1.07 करोड़ रुपए ही आते हैं। केरल के 150 करोड़ रुपए के मामले में केंद्र (DST) का योगदान शून्य था।
    • राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास में राज्यों का योगदान केंद्र के 44% की तुलना में मात्र 6.7% है। सिक्किम और मिज़ोरम जैसे छोटे राज्य विशेष रूप से सीमित बजट से प्रभावित हैं जो उनकी वैज्ञानिक प्रगति में बाधा बन रहा है।
  • उद्योग और संस्थागत संबंधों का अभाव: राज्य परिषदों का राज्य के उद्योगों, सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों (PSE) और शैक्षणिक संस्थानों (IIT, IIM) के साथ सहयोग बहुत सीमित है, जिससे व्यावहारिक अनुसंधान एवं नवाचार पर प्रभाव नहीं पड़ पाता।
  • संसाधनों का अप्रभावी उपयोग: विभिन्न राज्यों में वित्तीय संसाधनों के उपयोग में असमानता और कार्यान्वयन की अक्षमता क्षेत्रीय असंतुलन को दर्शाती है। 
  • अनुसंधान उत्पादकता में पिछड़ापन: भारत के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आउटपुट का अधिकांश हिस्सा केंद्रीय वित्तपोषित संस्थानों से आता है, जबकि राज्य परिषदें उत्पादकता और प्रभाव में पीछे रह जाती हैं।
  • कुछ राज्यों में बजट में कटौती: वर्ष 2023–24 से 2024–25 के बीच राज्य स्तरीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों (State S&T Councils) के बजट का तुलनात्मक विश्लेषण कुल 17.65% की वृद्धि दर्शाता है, जो राज्य स्तर पर निवेश में वृद्धि को दर्शाता है।
  • हालाँकि, सिक्किम (-16.16%), तमिलनाडु (-4%), और उत्तराखंड (-5%) जैसे राज्यों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी बजट में कटौती देखी गई है, जिससे वहाँ की वर्तमान और भविष्य की परियोजनाएँ प्रभावित हो रही हैं।
  • अनुकूलनशीलता का अभाव: कई विज्ञान परिषदें तेज़ी से बदलते अनुसंधान एवं विकास (R&D) परिदृश्य के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं, जिससे उनकी योजनाएं और मॉडल पुराने और अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
  • कमज़ोर नेतृत्व: अनेक परिषदों का नेतृत्व विज्ञान और प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों के बजाय नौकरशाहों के हाथों में है। वैज्ञानिक नेतृत्व की इस कमी ने परिषदों की अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहित करने की क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
  • स्टाफिंग संबंधी समस्याएँ: इन परिषदों में कुशल कर्मियों की कमी है और बजट की सीमाओं के कारण कई पद रिक्त हैं। साथ ही, अधिकांश परिषदों में पूर्णकालिक वैज्ञानिक नेतृत्व का अभाव है, जिससे कार्यकुशलता में गिरावट और कर्मचारियों में मनोबल की कमी देखी जा रही है।

राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों की सफलता:

  • केरल: केरल की राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद ने फेलोशिप कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया है, जिससे महिला वैज्ञानिकों को करियर ब्रेक के बाद अनुसंधान में वापस लौटने में मदद मिली है 
    • राज्य प्रत्येक वर्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पहलों के लिये 170 करोड़ रुपए से अधिक का बजट आवंटित करता है, जो अनुसंधान और विकास (R&D) के प्रति उसकी दृढ़ प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
  • तमिलनाडु: तमिलनाडु बौद्धिक संपदा (IP) पंजीकरण में राष्ट्रीय अग्रणी बनकर उभरा है, जिसका श्रेय वहाँ के पेटेंट सूचना केंद्र (Patent Information Centre - PIC) को जाता है।
    • राज्य ने पेटेंट फाइलिंग और GI पंजीकरण में पहला स्थान तथा औद्योगिक डिज़ाइन फाइलिंग में तीसरा स्थान प्राप्त किया (भारतीय पेटेंट कार्यालय की वार्षिक रिपोर्ट 2022–23 के अनुसार)।
    • बौद्धिक संपदा जागरूकता और प्रौद्योगिकी वाणिज्यीकरण में इसके महत्त्वपूर्ण योगदान के लिये तमिलनाडु के PIC को वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा "राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा पुरस्कार 2023 (विशेष विशेष प्रशस्ति पत्र)" से सम्मानित किया गया।
  • पंजाब: पंजाब की पराली प्रबंधन की नवाचारी पहल ने प्रदूषण को कम किया है तथा स्थायी कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देकर स्थानीय अर्थव्यवस्था को सशक्त किया है।
    • इस पहल ने रोज़गार के अवसर भी उत्पन्न किए हैं और पर्यावरण संरक्षण में योगदान दिया है।
  • मिज़ोरम: मिज़ोरम का इनोवेशन फैसिलिटी सेंटर (IFC) स्थानीय स्तर पर नवाचार को बढ़ावा देने के लिये तकनीकी सहायता, संस्थागत समर्थन और IP फाइलिंग जैसी सेवाएँ प्रदान करता है।
    • इस केंद्र ने अब तक 82 नवाचार-संबंधी उत्पाद और 93 गैर-नवाचार उत्पाद विकसित किए हैं। IFC, नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (NIF) और NIT मिज़ोरम जैसे संस्थानों के साथ मिलकर समावेशी विकास को बढ़ावा दे रहा है।
  • मणिपुर: राष्ट्रीय औषधीय एवं सुगंधित पौध मिशन के साथ संरेखित मणिपुर की सुगंधित पौध खेती परियोजना, राज्य को प्राकृतिक सुगंध आधारित उत्पादों के लिये एक संभावित केंद्र के रूप में स्थापित कर रही है। 
    • यह पहल स्थानीय किसानों के लिये रोज़गार, ग्रामीण उद्यमिता को बढ़ावा, और क्षेत्रीय आर्थिक विकास में सहायक बनी है, जो दर्शाता है कि स्थानीय वैज्ञानिक प्रयास सामाजिक-आर्थिक प्रगति को गति दे सकते हैं।

SSTCs को मज़बूत करने के लिये नीति आयोग द्वारा सुझाए गए प्रमुख सुधार क्या हैं?

  • वैज्ञानिक नेतृत्व: नीति आयोग ने सिफारिश की है कि परिषदों का नेतृत्व नौकरशाहों के बजाय पूर्णकालिक वैज्ञानिकों को सौंपा जाए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि परिषदें ऐसे विशेषज्ञों द्वारा संचालित हों जो वैज्ञानिक उत्कृष्टता और नवाचार को आगे बढ़ा सकें।
  • प्रदर्शन-आधारित वित्तपोषण: नीति आयोग, बिना प्रदर्शन-आधारित अनुदानों के बजाय, परिषदों के प्रदर्शन से जुड़े वित्तपोषण का समर्थन करता है। इससे राज्यों को अपने अनुसंधान एवं विकास परिणामों में सुधार करने और खर्च किये गए प्रत्येक रुपए का अधिकतम लाभ उठाने के लिये प्रोत्साहन मिलेगा।
    • राज्यों को नियमित और उन्नत गतिविधियों के लिये सकल राज्य घरेलू उत्पाद (Gross State Domestic Product- GSDP) का कम-से-कम 0.5% विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को आवंटित करना चाहिये।
      • DST को छोटे पूर्वोत्तर और केंद्रशासित प्रदेशों की परिषदों को छोड़कर, मुख्य अनुदानों के स्थान पर प्रदर्शन-आधारित परियोजना वित्तपोषण प्रदान करना चाहिये। परिषदों को अतिरिक्त वित्तपोषण के लिये DST से परे केंद्रीय मंत्रालयों की योजनाओं पर भी विचार करना चाहिये।
    • सुरक्षित नौकरियाँ और कॅरियर विकास: वैज्ञानिक कर्मियों का मनोबल बढ़ाने और प्रतिभाओं को बनाए रखने के लिये, रोडमैप में यह सुझाव दिया गया है कि राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों (State Science & Technology Councils- SSTC) परियोजनाओं से जुड़े शोधकर्त्ताओं को सुरक्षित, दीर्घकालिक नौकरियाँ प्रदान की जाएँ, जिनमें स्पष्ट कॅरियर प्रगति (Career Progression) भी निर्धारित हो।
    • उद्योग और शैक्षणिक संबंधों को मज़बूत करना: परिषदों, उद्योगों तथा शैक्षणिक संस्थानों के बीच मज़बूत संबंध बनाना महत्त्वपूर्ण है। 
      • इससे अनुसंधान और व्यावसायीकरण के बीच की खाई को पाटने में मदद मिलेगी, जिससे ऐसे नवाचार सामने आएंगे जिनसे समाज तथा अर्थव्यवस्था दोनों को लाभ होगा।
  • विज्ञान शहर और नवाचार केंद्र: रोडमैप में प्रत्येक राज्य में साइंस सिटी, तारामंडल और नवाचार केंद्र की स्थापना का आह्वान किया गया है। 
  • उदाहरण: अहमदाबाद स्थित गुजरात साइंस सिटी, रोबोटिक्स गैलरी जैसी अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ वैज्ञानिक शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र है, जो स्वास्थ्य सेवा, उद्योग और दैनिक जीवन में वास्तविक दुनिया के अनुप्रयोगों को प्रदर्शित करता है।
    • ये उत्कृष्टता केंद्रों के रूप में कार्य करेंगे, जो स्थानीय वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को बढ़ावा देने के लिये अनुसंधान, शिक्षा एवं उद्योग को एक साथ लाएंगे।
  • STI सूचना प्रकोष्ठ: परिषदों को राज्य-स्तरीय STI डेटा के प्रबंधन के लिये विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार (STI) प्रकोष्ठों की स्थापना करनी चाहिये और सरकारी एजेंसियों के साथ संकेतक साझा करने हेतु नोडल बिंदु के रूप में कार्य करना चाहिये। ये प्रकोष्ठ साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण में सहायता करेंगे।
  • SSR और CSR प्रकोष्ठ: परिषदों को स्थानीय चुनौतियों का समाधान करने तथा वैज्ञानिक जागरूकता को बढ़ावा देने के लिये संस्थानों एवं हितधारकों से संसाधनों का समन्वय करके वैज्ञानिक सामाजिक उत्तरदायित्व (SSR) और कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) प्रयासों का नेतृत्व करना चाहिये।
  • राष्ट्रीय निगरानी प्रणाली: इन सुधारों की प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिये, नीति आयोग एक राष्ट्रीय निगरानी प्रणाली के निर्माण का प्रस्ताव करता है जो राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों की प्रगति पर नज़र रखेगी और उन्हें उनके प्रदर्शन हेतु जवाबदेह बनाएगी।

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दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न:  भारत में विकेंद्रीकृत वैज्ञानिक शासन को बढ़ावा देने में राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषदों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। इस अधिदेश को पूरा करने में उनके सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न.1 राष्ट्रीय नवप्रवर्तक प्रतिष्ठान-भारत (नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन इंडिया- एन.आई.एफ.) के संबंध में निम्नलिखित में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2015)

  1. NIF केंद्र सरकार के अधीन विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की एक स्वायत्त संस्था है। 
  2. NIF अत्यंत उन्नत विदेशी वैज्ञानिक संस्थाओं के सहयोग से भारत की प्रमुख (प्रीमियर) वैज्ञानिक संस्थाओं में अत्यंत उन्नत वैज्ञानिक अनुसंधान को मज़बूत करने की एक पहल है।

नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (a)


प्रश्न. 2 निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिये शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार दिया जाता है? (2009)

(a) साहित्य 
(b) प्रदर्शन  
(c) विज्ञान 
(d) समाज सेवा

उत्तर: (c)


प्रश्न. 3 अटल नवप्रवर्तन (इनोवेशन) मिशन किसके अधीन स्थापित किया गया है? (2019)

(a) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग
(b) श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय
(c) नीति आयोग
(d) कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न: अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये।  इस तकनीक के अनुप्रयोग ने भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार सहायता की? (2016)


निर्वाचन नामावली का विशेष गहन पुनरीक्षण

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, भारत का निर्वाचन आयोग, आधार, मतदाता सूची, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950, अनुच्छेद 324            

मेन्स के लिये:

निर्वाचन नामावली में संशोधन की आवश्यकता और संबंधित चिंताएँ, मतदाता सूची संशोधन की सत्यनिष्ठा और सटीकता सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक कदम।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स 

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने बिहार में मतदाता सूची के भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI) के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की समीक्षा की और मतदाता गणना के लिये आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज़ों के रूप में स्वीकार करने का सुझाव दिया।

  • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ताओं की इस दलील को खारिज कर दिया कि भारत के निर्वाचन आयोग के पास संशोधन करने का अधिकार नहीं है।

निर्वाचन नामावली के विशेष गहन पुनरीक्षण के संबंध में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • परिचय: निर्वाचन नामावली (जिसे मतदाता सूची या निर्वाचक रजिस्टर भी कहा जाता है) एक विशिष्ट निर्वाचन क्षेत्र के सभी पात्र और पंजीकृत मतदाताओं की आधिकारिक सूची है। 
    • इसका उपयोग मतदाताओं की पहचान सत्यापित करने तथा चुनावों के दौरान निष्पक्ष एवं पारदर्शी निर्वाचन प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिये किया जाता है।
    • मतदाता सूचियाँ ECI द्वारा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (RP अधिनियम), 1950 के तहत तैयार की जाती हैं।
    • इसमें गैर-नागरिकों (धारा 16) को शामिल नहीं किया गया है तथा 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के नागरिकों को शामिल किया गया है जो सामान्यतः निर्वाचन क्षेत्र (धारा 19) में निवास करते हैं।
  • विशेष गहन पुनरीक्षण के संबंध में: SIR एक केंद्रित, समयबद्ध घर-घर जाकर मतदाता सत्यापन प्रक्रिया है, जो प्रमुख चुनावों से पहले मतदाता सूचियों को अद्यतन और सही करने के लिये बूथ स्तर के अधिकारियों (BLO) द्वारा संचालित की जाती है।
    • नये पंजीकरण, विलोपन और संशोधन की अनुमति देकर यह सुनिश्चित करता है कि मतदाता सूची सटीक, समावेशी और विसंगतियों से मुक्त हो।
    • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21 भारत निर्वाचन आयोग को मतदाता सूची तैयार करने और संशोधित करने का अधिकार देती है, जिसमें दर्ज कारणों के साथ किसी भी समय विशेष संशोधन करना भी शामिल है।
  • एसआईआर का संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 324 भारत के निर्वाचन आयोग को मतदाता सूची तैयार करने और चुनाव कराने का पर्यवेक्षण तथा नियंत्रण करने की शक्ति प्रदान करता है।
    • अनुच्छेद 326 सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की गारंटी देता है, जिसके तहत 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के नागरिकों को मतदान का अधिकार है, जब तक कि उन्हें आपराधिक दोषसिद्धि, विकृत मस्तिष्क या भ्रष्टाचार के कारण कानून द्वारा अयोग्य घोषित न कर दिया जाए।
  • न्यायिक स्थिति: मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त मामले, 1977 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिये अनुच्छेद 324 के तहत ECI की व्यापक शक्तियों को बरकरार रखा, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर पुनर्मतदान का आदेश देना भी शामिल है, और इस बात पर जोर दिया कि अनुच्छेद 329(b) के अनुसार चुनावों के दौरान न्यायिक समीक्षा प्रतिबंधित है
    • इसमें स्पष्ट किया गया कि यदि अनुच्छेद 327 और 328 के तहत कानून किसी भी पहलू पर मौन हैं तो भारत निर्वाचन आयोग स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकता है ।
    • साथ ही यह भी उल्लेख किया गया कि यद्यपि प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत महत्त्वपूर्ण है, फिर भी असाधारण परिस्थितियों में ECI त्वरित और व्यावहारिक निर्णय ले सकता है।
  • पूर्ववर्ती मतदाता सूची पुनरीक्षण: देश के विभिन्न भागों में वर्ष 1952–56, 1957, 1961, 1965, 1966, 1983–84, 1987–89, 1992, 1993, 1995, 2002, 2003 और 2004 में विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (SIR) आयोजित किये गए थे। बिहार में अंतिम SIR वर्ष 2003 में आयोजित किया गया था।

नोट: अनुच्छेद 327 संसद को विधानमंडलों के चुनावों के संबंध में प्रावधान करने का अधिकार प्रदान करता है।

  • अनुच्छेद 328 राज्य की विधानमंडल को उसके अपने चुनावों के संबंध में प्रावधान करने का अधिकार देता है।

ECI

मतदाता सूची के विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (SIR) की आवश्यकता क्यों होती है?

  • त्रुटिरहित और अद्यतन मतदाता सूची: SIR का उद्देश्य अपात्र मतदाताओं को हटाना, नव पात्र या पूर्व में छूटे हुए मतदाताओं को जोड़ना और मतदाता सूची में त्रुटियों को सुधारना होता है, ताकि सूची सटीक हो और धोखाधड़ी को रोका जा सके।
    • SIR प्रवासियों तथा स्थानांतरित जनसंख्या के लिये पुनः पंजीकरण को सरल बनाता है और यह सुनिश्चित करता है कि मतदाता सूची संशोधित निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं के अनुसार अद्यतन रहे।
  • लोकतांत्रिक वैधता की रक्षा: SIR "वन पर्सन, वन वोट अर्थात् एक व्यक्ति, एक वोट" के सिद्धांत को सशक्त करता है। यह फर्जी और दोहराए गए मतदाताओं को हटाकर लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता का विश्वास बनाए रखने में सहायक होता है, क्योंकि यह सूक्ष्म जाँच की प्रक्रिया सुनिश्चित करता है।
  • मतदाता भागीदारी को प्रोत्साहन: SIR जागरूकता अभियानों के माध्यम से नागरिक सहभागिता को बढ़ावा देता है और डोर-टू-डोर सर्वेक्षण तथा ऑनलाइन पंजीकरण विकल्पों के माध्यम से मतदाता पंजीकरण को सुलभ बनाता है — विशेष रूप से वंचित वर्गों को लाभ पहुँचाता है।
  • प्रौद्योगिकी और नीतिगत सुधारों को अपनाना: SIR, मतदाता सूचियों के डिजिटल एकीकरण को प्रोत्साहित करता है और प्रवासी मतदाताओं के लिये  रिमोट वोटिंग जैसी नीतिगत पहलों को लागू करने में सहायक होता है, जिससे सुलभता तथा दक्षता में सुधार होता है।
    • उदाहरण के लिये, बिहार भारत का पहला राज्य बना जिसने E-SECBHR ऐप के माध्यम से नगरपालिका चुनावों में मोबाइल ई-वोटिंग की पायलट परियोजना शुरू की। इसमें ब्लॉकचेन, फेशियल रिकग्निशन, बायोमेट्रिक स्कैनिंग और वोटर आईडी सत्यापन जैसी अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग किया गया।

मतदाता सूची के विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (SIR) से जुड़ी चिंताएँ क्या हैं?

  • व्यापक मताधिकार वंचन का जोखिम: आधार, राशन कार्ड या यहाँ तक कि मतदाता पहचान पत्र जैसे व्यापक रूप से उपयोग किये जाने वाले पहचान पत्रों को अस्वीकार करना, वंचित वर्गों पर अनुपातहीन रूप से प्रभाव डाल सकता है।
    • परंपरागत रूप से, मतदाता सूची में 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों को उनके सामान्य निवास स्थान के आधार पर शामिल किया जाता है, लेकिन वर्तमान प्रक्रिया में उनके जन्म स्थान को भी ध्यान में रखा जा रहा है।
  • प्रवासी श्रमिकों पर प्रभाव: प्रवासी श्रमिकों, छात्रों और अस्थायी श्रमिकों के बार-बार स्थान परिवर्तन के कारण निवास का प्रमाण प्रस्तुत करना कठिन हो जाता है, जिससे उनकी मतदाता सूची से बहिष्करण का जोखिम बढ़ जाता है।
  • नागरिकों के गुप्त राष्ट्रीय रजिस्टर का संदेह: जन्म प्रमाण पत्र या वंशानुगत दस्तावेज़ों की मांग को परोक्ष रूप से नागरिकता परीक्षण के रूप में देखा जा रहा है, जिससे हाशिये पर और अल्पसंख्यक समुदायों के व्यवस्थित बहिष्करण की आशंका बढ़ जाती है।
    • यह आशंका जताई जा रही है कि SIR को पक्षपातपूर्ण ढंग से लागू किया जा सकता है, जिससे चुनावी अखंडता और समावेशी प्रतिनिधित्व कमज़ोर हो सकता है।
  • जन परामर्श की कमी: शीर्ष स्तर पर कार्यान्वयन और अत्यधिक दस्तावेज़ीकरण आवश्यकताओं के कारण सार्वभौमिक मताधिकार को नुकसान पहुँचने का खतरा है, विशेष रूप से अशिक्षित और निराश्रित लोगों के लिये।

SIR प्रक्रिया की अखंडता और सटीकता को किस प्रकार मज़बूत किया जा सकता है?

  • समावेशी दस्तावेज़ीकरण नीतियाँ: हालाँकि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है, फिर भी यह वंचित समुदायों के लिये सबसे सुलभ पहचान पत्र है। इसलिये इसे निवास प्रमाणन के लिये स्वीकार किया जाना चाहिये तथा इसे पूर्ववर्ती अभिलेखों (legacy data) से क्रॉस-वेरिफिकेशन द्वारा पूरक किया जाना चाहिये।
  • सुदृढ़ सत्यापन और डेटा सटीकता: त्रुटिरहित और पारदर्शी मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को सुनिश्चित करने के लिये, सुरक्षा उपायों के साथ आधार-वोटर आईडी लिंकिंग, BLO द्वारा घर-घर सत्यापन और राज्य निर्वाचन आयोग जैसे चुनावी प्राधिकरणों द्वारा नियमित ऑडिट किया जाना चाहिये।
  • राजनीतिक और कानूनी सहमति: चुनाव आयोग (ECI) को सभी हितधारकों, जिसमें नागरिक समाज भी शामिल हो, से परामर्श करना चाहिये तथा SIR से जुड़े नियमों और अंतिम तिथियों को स्पष्ट करने के लिये जन-जागरूकता अभियान चलाने चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, विशेष न्यायाधिकरणों द्वारा न्यायिक निगरानी और निर्वाचन नामांकन अधिकारियों (EROs) के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश अत्यंत आवश्यक हैं, ताकि संवैधानिक सुरक्षा उपायों को बनाए रखा जा सके तथा मनमाने ढंग से मतदाताओं के बहिष्करण को रोका जा सके।
  • प्रौद्योगिकी-आधारित सुरक्षा उपाय: AI-सक्षम विसंगति पहचान (Anomaly Detection) के माध्यम से संदेहास्पद विलोपन/जोड़ (जैसे किसी एक क्षेत्र से एक साथ कई नाम हटना) की पहचान की जाए। ब्लॉकचेन-आधारित मतदाता लॉग लागू किए जाएँ और वास्तविक समय ट्रैकिंग डैशबोर्ड उपलब्ध कराया जाए, ताकि मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के दौरान छेड़छाड़ को रोका जा सके।
  • समावेशिता के उपाय: वंचित समूहों (जैसे विकलांग, आदिवासी समुदाय) के लिये विशेष शिविरों का आयोजन किया जाए। बहुभाषी हेल्पलाइन शुरू की जाए और पुनरीक्षण के बाद नमूना सर्वेक्षण (sample surveys) कराए जाएँ, ताकि सटीक नामांकन सुनिश्चित किया जा सके और बहिष्करण को न्यूनतम किया जा सके।

निष्कर्ष:

विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) मतदाता सूचियों की त्रुटिरहितता सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें सटीकता और समावेशिता के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग (ECI) के अधिकार क्षेत्र को बरकरार रखा है, फिर भी मतदाता अधिकार से वंचित होने और पूर्वाग्रह (bias) को लेकर चिंताएँ बनी हुई हैं। प्रौद्योगिकी आधारित सत्यापन, राजनीतिक सहमति, और न्यायिक निगरानी जैसे उपाय SIR की पारदर्शिता और निष्पक्षता को मज़बूत कर सकते हैं, जिससे लोकतांत्रिक वैधता के लिये एक न्यायसंगत और विश्वसनीय मतदाता सूची सुनिश्चित की जा सकती है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) चुनावी निष्पक्षता के लिये आवश्यक है, लेकिन यह बहिष्करण की चिंताएँ भी उत्पन्न करता है। समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)

  1. भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो प्रत्याशियों को किसी एक लोकसभा चुनाव में तीन निर्वाचन-क्षेत्रों से लड़ने से रोकता है। 
  2. 1991 में लोकसभा चुनाव में श्री देवी लाल ने तीन लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था।  
  3. वर्तमान नियमों के अनुसार, यदि कोई प्रत्याशी किसी एक लोकसभा चुनाव में कई निवार्चन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ता है, तो उसकी पार्टी को उन निर्वाचन-क्षेत्रों के उप-चुनावों का खर्च उठाना चाहिये, जिन्हें उसने खाली किया है बशर्ते वह सभी निर्वाचन-क्षेत्रों से विजयी हुआ हो।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1      
(b)  केवल 2
(c) 1 और 3      
(d) 2 और 3

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. लोक प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत संसद अथवा राज्य विधायिका के सदस्यों के चुनाव से उभरे विवादों के निर्णय की प्रक्रिया का विवेचन कीजिये। किन आधारों पर किसी निर्वाचित घोषित प्रत्याशी के निर्वाचन को शून्य घोषित किया जा सकता है? इस निर्णय के विरुद्ध पीड़ित पक्ष को कौन-सा उपचार उपलब्ध है? वाद विधियों का संदर्भ दीजिये। (2022)