डेली न्यूज़ (17 Mar, 2022)



भारत की सौर क्षमता स्थिति

प्रिलिम्स के लिये:

सोलर फोटोवोल्टिक (PV) सिस्टम, रूफटॉप सोलर, नवीकरणीय ऊर्जा, विकेंद्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा, इंटरनेशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी, IRENA, इंटरनेशनल सोलर एलायंस।

मेन्स के लिये:

अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में भारत की उपलब्धियाँ, भारत के नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य तथा इसे प्राप्त करने हेतु चुनौतियाँ और पहल, भारत की सौर क्षमता तथा आगे की राह।

चर्चा में क्यों?

वर्ष 2021 में भारत ने अपनी संचयी स्थापित क्षमता में रिकॉर्ड 10 गीगावाट (GW) सौर ऊर्जा की वृद्धि की।

  • यह वृद्धि 12 महीनों के दौरान उच्चतम क्षमता वृद्धि रही है, इसके साथ ही सौर ऊर्जा के क्षेत्र में वर्ष-दर-वर्ष लगभग 200% की वृद्धि दर्ज की गई है।
  • अब (28 फरवरी, 2022 तक) भारत 50 GW संचयी स्थापित सौर क्षमता से आगे निकल गया है।
  • 50 GW स्थापित सौर क्षमता में से 42 GW ग्राउंड-माउंटेड सोलर फोटोवोल्टिक (PV) सिस्टम से प्राप्त होती है और केवल 6.48 GW रूफ-टॉप सोलर (RTS) से तथा 1.48 GW सोलर PV के अन्य तरीकों से प्राप्त होती है।

उपलब्धि का महत्त्व:

  • यह वर्ष 2030 तक अक्षय ऊर्जा से 500 GW ऊर्जा (जिसमें से सौर ऊर्जा के क्षेत्र से 300 गीगावाट ऊर्जा प्राप्त किये जाने की उम्मीद है) के उत्पादन में भारत की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
  • ऊर्जा क्षमता में वृद्धि के बाद भारत सौर ऊर्जा विस्तार के मामले में पाँचवें स्थान पर आ गया है और यह 709.68 GW की वैश्विक संचयी क्षमता में लगभग 6.5% का योगदान देता है।

रूफ-टॉप सोलर इंस्टालेशन में भारत क्यों पिछड़ रहा है?

  • विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा का लाभ उठाने में विफल:
    • बड़े पैमाने पर सोलर फोटोवोल्टिक (Solar PV) पर ध्यान केंद्रित करने के कारण भारत विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा (DRE) विकल्पों के कई लाभों का फायदा उठाने में विफल रहा है, जिसमें ट्रांसमिशन और वितरण (T&D) घाटे में कमी शामिल है।
  • सीमित वित्तपोषण:
    • सोलर फोटोवोल्टिक सिस्टम प्रौद्योगिकी के प्राथमिक लाभों में से एक है, इसे ऊर्जा खपत के रूप में स्थापित करके बड़े पूंजी-गहन संचरण बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता को कम किया जा सकता है।
      • भारत को बड़े और छोटे दोनों पैमाने पर सोलर फोटोवोल्टिक सिस्टम को स्थापित करने के साथ-साथ विशेष रूप से RTS प्रयासों का विस्तार करने की ज़रूरत है।
    • हालाँकि आवासीय उपभोक्ताओं और छोटे एवं मध्यम उद्यम (SMEs) जो RTS स्थापित करना चाहते हैं, के लिये वित्तपोषण सीमित है। 
  • विद्युत वितरण कंपनियों (DISCOMS) की उदासीन प्रतिक्रियाएँ:
    • नेट मीटरिंग आरटीएस को समर्थन देने के लिये बिजली वितरण कंपनियों (DISCOMS) की रुचि में कमी देखने को मिल रही है।

भारत की सौर ऊर्जा क्षमता में वृद्धि के समक्ष चुनौतियाँ: 

  • स्थापित सौर क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि के बावजूद देश के बिजली उत्पादन में सौर ऊर्जा का योगदान उसी गति से नहीं बढ़ा है
  • उदाहरण के लिये वर्ष 2019-20 में सौर ऊर्जा ने भारत की कुल 1390 BU बिजली उत्पादन में केवल 3.6% (50 बिलियन यूनिट) का योगदान दिया।
  • उपयोगिता-पैमाने पर सोलर PV क्षेत्र को भूमि लागत, उच्च T&D नुकसान और अन्य अक्षमताओं तथा ग्रिड एकीकरण जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
  • स्थानीय समुदायों और जैवविविधता संरक्षण मानदंडों के बीच भी टकराव की स्थिति रही है। इसके अलावा भले ही भारत ने यूटिलिटी-स्केल सेगमेंट में सौर ऊर्जा उत्पादन के लिये रिकॉर्ड कम टैरिफ हासिल किया है लेकिन इससे अंतिम उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली सुलभ नहीं हुई है।
  • अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी (IRENA) का अनुमान है कि सोलर PV अपशिष्ट से पुनर्प्राप्त करने योग्य सामग्रियों का वैश्विक मूल्य 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक हो सकता है।
  • वर्तमान में केवल यूरोपीय संघ ने सोलर PV अपशिष्ट के प्रबंधन में निर्णायक कदम उठाए हैं
  • भारत विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) के आसपास उपयुक्त दिशा-निर्देश विकसित करने पर विचार कर सकता है, जिसका अर्थ है कि सौर पीवी उत्पादों के समग्र जीवन चक्र के लिये निर्माताओं को उत्तरदायी बनाया जाएगा और अपशिष्ट पुनर्चक्रण हेतु मानक विकसित किये जाएंगे।
    • यह घरेलू निर्माताओं को प्रतिस्पर्द्धा में बढ़त दे सकता है और अपशिष्ट प्रबंधन एवं आपूर्ति पक्ष की बाधाओं को दूर करने में महत्त्वपूर्ण हो सकता है।

भारत की घरेलू सौर मॉड्यूल निर्माण क्षमता की मौजूदा स्थिति:

  • सौर क्षेत्र में घरेलू विनिर्माण क्षमता देश में सौर ऊर्जा की वर्तमान संभावित मांग के अनुरूप नहीं है।
    • भारत में सौर सेल उत्पादन के लिये 3 गीगावाट क्षमता और सौर पैनल उत्पादन क्षमता के लिये 8 गीगावाट क्षमता थी। इसके अलावा सौर मूल्य शृंखला में एकीकरण का अभाव है, क्योंकि भारत में सौर वेफर्स और पॉलीसिलिकॉन के निर्माण की कोई क्षमता नहीं है।
    • वर्ष 2021-22 में भारत ने अकेले चीन से लगभग 76.62 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के सौर सेल और मॉड्यूल आयात किये, जो उस वर्ष भारत के कुल आयात का 78.6% था।
    • कम विनिर्माण क्षमता और चीन से सस्ते आयात ने भारतीय उत्पादों को घरेलू बाज़ार में गैर-प्रतिस्पर्द्धी बना दिया है।
  • हालाँकि यदि भारत सौर प्रणालियों के लिये एक ‘सर्कुलर अर्थव्यवस्था मॉडल’ को अपनाता है, तो इस स्थिति में आसानी से सुधार किया जा सकता है। 
    • इससे सोलर पीवी वेस्ट को सोलर पीवी सप्लाई चेन में रिसाइकिल और दोबारा इस्तेमाल किया जा सकेगा। अनुमान के अनुसार, वर्ष 2030 के अंत तक भारत लगभग 34,600 मीट्रिक टन सौर पीवी कचरे का उत्पादन करेगा।

आगे की राह

  • सरकारों, विभिन्न इकाइयों/यूटिलिटीज़ और बैंकों को ऐसे नवीन वित्तीय तंत्रों की तलाश करने की आवश्यकता होगी जो ऋण की लागत में कमी और उधारदाताओं के लिये निवेश के जोखिम को कम करते हों।
  • जागरूकता में वृद्धि और RTS परियोजनाओं के लिये किफायती वित्त संभावित रूप से देश भर में SMEs और घरों में RTS का प्रसार सुनिश्चित कर सकता है।
  • छत के रिक्त स्थान का उपयोग करने से RTS स्थापित करने की समग्र लागत को कम करने और अर्थव्यवस्था के परिमाणात्मक विकास को सक्षम करने में मदद मिल सकती है।
  • वर्ष 2015 में पक्षकारों के सम्मेलन (COP-21) में भारत और फ्राँस द्वारा स्थापित अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) के माध्यम से एक प्रभावशाली घरेलू ट्रैक रिकॉर्ड के अलावा ऐसे मुद्दों पर सौर ऊर्जा पर निवेश जुटाने, क्षमता निर्माण, कार्यक्रम का समर्थन करने व विश्लेषण जैसी सहयोग सुविधाएँ प्रदान करने के लिये देशों को एक साथ लाने हेतु एक वैश्विक मंच भी उपलब्ध है।
  • भविष्य में प्रौद्योगिकी साझाकरण और वित्त भी ISA के महत्त्वपूर्ण पहलू बन सकते हैं, जिससे सौर ऊर्जा के क्षेत्र में देशों के बीच सार्थक सहयोग की अनुमति मिल सकती है।

विगत वर्षों के प्रश्न

प्रश्न; ‘भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास एजेंसी लिमिटेड’ (IREDA) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2015)

1. यह एक पब्लिक लिमिटेड सरकारी कंपनी है।
2. यह एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी है।

नीचे दिये गए कूट का उपयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 2 दोनों 
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: c

स्रोत: द हिंदू


अनुदान की अनुपूरक मांग

प्रिलिम्स के लिये:

विनियोग अधिनियम, अनुच्छेद-115 और 116, संसद की लोक लेखा समिति, विभिन्न प्रकार के अनुदान।

मेन्स के लिये:

अनुदान की अनुपूरक मांग और संवैधानिक प्रावधान।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सरकार ने लोकसभा में अनुदान की अनुपूरक मांगों का तीसरा बैच पेश किया है।

अनुदान की अनुपूरक मांग क्या है?

  • इस अनुदान की आवश्यकता तब होती है जब संसद द्वारा वर्तमान वित्त वर्ष के लिये किसी विशेष सेवा हेतु विनियोग अधिनियम (Appropriation Act) के माध्यम से अधिकृत राशि अपर्याप्त पाई जाती है।
  • यह अनुदान वित्तीय वर्ष की समाप्ति से पहले संसद द्वारा प्रस्तुत और पारित किया जाता है।

अनुदान के अन्य प्रकार:

  • अतिरिक्त अनुदान (Additional Grant):  यह अनुदान उस समय प्रदान किया जाता है जब सरकार को उस वर्ष के वित्तीय विवरण में परिकल्पित/अनुध्यात सेवाओं के अतिरिक्त किसी नई सेवा के लिये धन की आवश्यकता होती है।
  • अधिक अनुदान (Excess Grant): यह तब प्रदान किया जाता है जब किसी सेवा पर उस वित्तीय वर्ष में निर्धारित (उस वर्ष में संबंधित सेवा के लिये) या अनुदान किये गए धन से अधिक व्यय हो जाता है। इस पर लोकसभा द्वारा वित्तीय वर्ष खत्म होने के बाद मतदान किया जाता है। मतदान के लिये लोकसभा में इस अनुदान की मांग प्रस्तुत करने से पहले उसे संसद की लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee) द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिये। 
  • प्रत्यानुदान (Vote of Credit): जब किसी सेवा के अनिश्चित स्वरूप के कारण उसकी मांग को बजट में उस प्रकार नहीं रखा जा सकता जिस प्रकार से सामान्यतया बजट में अन्य मांगों को रखा जाता है, तो ऐसी मांगों की पूर्ति के लिये प्रत्यानुदान प्रदान किया जाता है। 
    • अत: यह लोकसभा द्वारा कार्यपालिका को दिये गए ब्लैंक चेक के समान है।
  • अपवादानुदान (Exceptional Grant): यह एक विशेष उद्देश्य के लिये प्रदान किया जाता है तथा यह किसी भी वित्तीय वर्ष की वर्तमान सेवा का हिस्सा नहीं होता है।
  • सांकेतिक अनुदान (Token Grant): यह अनुदान तब जारी किया जाता है जब पहले से प्रस्तावित किसी सेवा के अतिरिक्त नई सेवा के लिये धन की आवश्यकता होती है। 
    • इस सांकेतिक राशि की मांग (1 रुपए) को लोकसभा के समक्ष वोट के लिये प्रस्तुत किया जाता है और यदि लोकसभा इस मांग को स्वीकार करती है तो राशि उपलब्ध करा दी जाती है।
    • धन के पुनर्विनियोजन (Reappropriation) में धन का हस्तांतरण शामिल होता है तथा मांग किसी अतिरिक्त व्यय से संबंधित नहीं होती है।

संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 115 अनुपूरक, अतिरिक्त या अधिक अनुदान से संबंधित है।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-116 लेखानुदान, प्रत्यानुदान और अपवादानुदान के निर्धारण से संबंधित है।
  • अनुपूरक, अतिरिक्त, अधिक और असाधारण अनुदान तथा वोट ऑफ क्रेडिट को उसी प्रक्रिया द्वारा विनियमित किया जाता है जैसे बजट (Budget) को किया जाता है।

विगत वर्षों के प्रश्न 

प्रश्न: भारत में सार्वजनिक वित्त पर संसदीय नियंत्रण की निम्नलिखित में से कौन सी विधियाँ हैं? (2012)

  1. संसद के समक्ष वार्षिक वित्तीय विवरण प्रस्तुत करना।
  2. विनियोग विधेयक पारित होने के बाद ही भारत की संचित निधि से धन की निकासी
  3. अनुपूरक अनुदान और लेखानुदान के प्रावधान।
  4. संसदीय बजट कार्यालय द्वारा व्यापक आर्थिक पूर्वानुमानों और व्यय के विरुद्ध सरकार के कार्यक्रम की आवधिक या कम-से-कम मध्य-वर्ष की समीक्षा करना।
  5. संसद में वित्त विधेयक पेश करना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2, 3 और 5
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 3, 4 और 5
(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (a)


निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2015)

  1. राज्यसभा के पास धन विधेयक को अस्वीकार करने या संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है।
  2. राज्यसभा अनुदान की मांगों पर मतदान नहीं कर सकती है।
  3. राज्यसभा वार्षिक वित्तीय विवरण पर चर्चा नहीं कर सकती है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 1 और 2 
(c) केवल 2 और  3 
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)

स्रोत: द हिंदू  


ग्रीन हाइड्रोजन फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हीकल

प्रिलिम्स के लिये:

ग्रीन हाइड्रोजन, अक्षय ऊर्जा, जीवाश्म ईंधन, पेरिस समझौता, FAME II योजना, PLI योजना, EV30@30 अभियान।

मेन्स के लिये:

संबंधित चुनौतियाँ और भारतीय बाज़ार में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ाने के तरीके।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री ने दुनिया की सबसे उन्नत तकनीक ग्रीन हाइड्रोजन आधारित फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हीकल (FCEV) टोयोटा मिराई को पेश किया है।

इस उपलब्धि का महत्त्व:

  • ग्रीन हाइड्रोजन और FCEV प्रौद्योगिकी के बारे में जागरूकता पैदा करना:
    • यह भारत में अपनी तरह की पहली परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रीन हाइड्रोजन और FCEV प्रौद्योगिकी की अनूठी उपयोगिता के बारे में जागरूकता पैदा करके देश में एक ग्रीन हाइड्रोजन आधारित पारिस्थितिकी तंत्र स्थापित करना है।
      • भारतीय सड़कों और जलवायु परिस्थितियों पर वाहन के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने के लिये एक पायलट परियोजना के लिये टोयोटा किर्लोस्कर मोटर प्राइवेट लिमिटेड और इंटरनेशनल सेंटर फॉर ऑटोमोटिव टेक्नोलॉजी (ICAT) द्वारा एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए हैं।
        • ICAT नेशनल ऑटोमोटिव टेस्टिंग एंड आर एंड डी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट (NATRiP), भारत सरकार के तत्त्वावधान में एक अग्रणी विश्व स्तरीय ऑटोमोटिव परीक्षण, प्रमाणन और आर एंड डी (R&D) सेवा प्रदाता है।
  • वर्ष 2047 तक भारत को आत्मनिर्भर बनने में सहायक:
    • यह जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करके स्वच्छ ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देकर वर्ष 2047 तक भारत को 'ऊर्जा आत्मनिर्भर' बनाएगा।
  • सर्वश्रेष्ठ ज़ीरो उत्सर्जन समाधान:
    • हाइड्रोजन द्वारा संचालित फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हीकल (FCEV) ज़ीरो उत्सर्जन के सबसे अच्छे सामाधान में से एक है। यह पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल है जिसमें पानी के अलावा किसी भी तरह का टेलपाइप (Tailpipe) उत्सर्जन नहीं होता है।
      • टेलपाइप उत्सर्जन: इसका आशय गैस या विकिरण जैसी किसी चीज़ का वातावरण में उत्सर्जन से है।
      • अक्षय ऊर्जा और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध बायोमास से ग्रीन हाइड्रोजन उत्पन्न किया जा सकता है।
      • ग्रीन हाइड्रोजन की क्षमता का दोहन करने के लिये प्रौद्योगिकी को अपनाना भारत के लिये एक स्वच्छ और किफायती ऊर्जा भविष्य हासिल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की स्थिति:

  • परिचय:
    • ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने तथा कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये पेरिस समझौते के तहत स्थापित वैश्विक जलवायु एजेंडा द्वारा इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) को प्रोत्साहित किया गया है।
      • वैश्विक इलेक्ट्रिक मोबिलिटी क्रांति वर्तमान में इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) के तेज़ विकास के संदर्भ में परिभाषित की जाती है।
      • बैटरी लागत में आ रही गिरावट और प्रदर्शन क्षमता में वृद्धि भी वैश्विक स्तर पर इलेक्ट्रिक वाहनों की मांग को बढ़ा रही है।
  • इलेक्ट्रिक वाहनों की आवश्यकता: भारत को एक परिवहन क्रांति की आवश्यकता है।
    • महँगे आयातित ईंधन से संचालित कारों की संख्या को और बढ़ाया जाना तथा अवसंरचनात्मक बाधाओं एवं तीव्र वायु प्रदूषण से पहले से ही पीड़ित अत्यधिक भीड़भाड़ वाले शहरों को और अव्यवस्थित किया जाना संवहनीय या व्यावहारिक नहीं है।
    • परिवहन क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने के लिये इलेक्ट्रिक मोबिलिटी की ओर ट्रांज़िशन वर्तमान युग की आशावादी वैश्विक रणनीति है। 
    • दिसंबर 2021 में पहली बार EVs का पंजीकरण 50,000 से अधिक होने के बावज़ूद वर्तमान में भारत में बिकने वाले सभी वाहनों में इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी 3% से भी कम है जो अब तक की सबसे अधिक मासिक बिक्री दर्ज की गई है।
    • हालांँकि बेची गई ईवी की मात्रा का 80% हिस्सा कम लागत और कम गति वाले तिपहिया वाहनों का है। कुल मिलाकर नेक्स्ट-जेन टू-व्हीलर कंपनियों के उदय के कारण ईवी की बिक्री में तीव्रता आई है।
    • भारत में परिवहन हेतु त्वरित ई-मोबिलिटी क्रांति (ई-अमृत) पोर्टल के अनुसार, दिसंबर 2021 तक केवल 7,96,000 EV पंजीकृत किये गए हैं और केवल 1,800 सार्वजनिक ईवी चार्जिंग स्टेशन (EV Charging Stations ) स्थापित किये गए हैं।
    • जबकि वित्त वर्ष 2015 से वित्त वर्ष 2020 तक EV की बिक्री में 133 फीसदी की वृद्धि हुई है, पारंपरिक ICEवाहनों की बिक्री की तुलना में यह संख्या काफी कम है। वित्त वर्ष 2021-22 में देश में बिकने वाले कुल वाहनों में से केवल 1.32% ही इलेक्ट्रिक वाहन थे।
  • संबद्ध चुनौतियाँ:
    • उपभोक्ता संबंधी मुद्दे: उपयुक्त चार्जिंग स्टेशनों की कमी चिंता का कारण है जो कि उन पड़ोसी समकक्ष देशों की तुलना में काफी कम है, जिनके पास पहले से ही 5 मिलियन से अधिक चार्जिंग स्टेशन हैं।
      • चार्जिंग स्टेशनों की कमी के कारण उपभोक्ताओं के लिये लंबी दूरी की यात्रा करना अव्यावहारिक हो जाता है। 
    • नीतिगत चुनौतियाँ: EV उत्पादन एक पूंजी गहन क्षेत्र है जहाँ ‘ब्रेक ईवन’ स्थिति और लाभ प्राप्ति के लिये एक दीर्घकालिक योजना की आवश्यकता होती है, जबकि EV उत्पादन से संबंधित सरकारी नीतियों की अनिश्चितता इस उद्योग में निवेश को हतोत्साहित करती है।    .
    • प्रौद्योगिकी और कुशल श्रम की कमी: भारत बैटरी, सेमीकंडक्टर्स, कंट्रोलर जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स के उत्पादन में प्रौद्योगिकीय रूप से पिछड़ा हुआ है, जबकि यह क्षेत्र EV उद्योग की रीढ़ है।
    • घरेलू उत्पादन हेतु सामग्री की अनुपलब्धता: बैटरी इलेक्ट्रिक वाहनों का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है।
      • भारत में लिथियम एवं कोबाल्ट का कोई ज्ञात भंडार नहीं है, जो कि बैटरी उत्पादन के लिये आवश्यक है।
      • लिथियम-आयन बैटरी के आयात के लिये अन्य देशों पर निर्भरता बैटरी निर्माण क्षेत्र में पूरी तरह से आत्मनिर्भर बनने में एक बाधा है।
  • संबंधित पहलें:
    • फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (FAME II) योजना।
    • आपूर्तिकर्त्ता पक्ष हेतु उन्नत रसायन विज्ञान प्रकोष्ठ (ACC) के लिये उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजना।
    • इलेक्ट्रिक वाहन निर्माताओं हेतु ऑटो एवं ऑटोमोटिव घटकों के लिये उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजना।
    • देश भर में सार्वजनिक ईवी चार्जिंग बुनियादी ढाँचे की तेज़ी से तैनाती हेतु हाल ही में केंद्र एवं राज्य स्तर पर विभिन्न हितधारकों की भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों का वर्णन करते हुए ‘इलेक्ट्रिक वाहनों के लिये चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर दिशा-निर्देश और मानक’ जारी किया गया है।
    • भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जो वैश्विक ‘EV30@30’ अभियान का समर्थन करते हैं, जिसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक कम-से-कम 30% नई इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री करना है।
      • ग्लासगो में COP26 में जलवायु परिवर्तन हेतु भारत ने पाँच तत्त्वों- ‘पंचामृत’ की वकालत की है और उसके प्रति प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है।
        • ग्लासगो शिखर सम्मेलन में भारत द्वारा विभिन्न विचारों का समर्थन किया गया था, जिसमें अक्षय ऊर्जा के माध्यम से भारत की ऊर्जा ज़रूरतों का 50% हिस्सा पूरा करना, वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 1 बिलियन टन कम करना और वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करना आदि शामिल हैं।

आगे की राह

  • भारतीय बाज़ार को स्वदेशी प्रौद्योगिकियों के लिये प्रोत्साहन की आवश्यकता है जो भारत के लिये रणनीतिक और आर्थिक दोनों दृष्टिकोण से अनुकूल होंगे।
  • पुराने मानदंडों को तोड़ना और एक नए उपभोक्ता व्यवहार का निर्माण करना हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है। इसलिये भारतीय बाज़ार में व्याप्त आशंकाओं को दूर करने और इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिये लोगों को जागरूक और सुग्राही बनाने की आवश्यकता है।
  • इलेक्ट्रिक आपूर्ति शृंखला के लिये विनिर्माण क्षेत्र को सब्सिडी देने से निश्चित तौर पर भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों के विकास में सुधार होगा।

स्रोत: पी.आई.बी.


डीप ओशन मिशन

प्रिलिम्स के लिये:

डीप ओशन मिशन, ब्लू इकॉनमी, मानवयुक्त सबमर्सिबल व्हीकल, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टेक्नोलॉजी, इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी

मेन्स के लिये:

डीप ओशन मिशन, सरकारी नीतियांँ और हस्तक्षेप, वैज्ञानिक नवाचार और खोजें,  ब्लू इकॉनमी

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा डीप ओशन मिशन (Deep Ocean Mission- DOM) लॉन्च किया गया है।

  • DOM भारत सरकार की ब्लू इकॉनमी पहल का समर्थन करने हेतु एक मिशन मोड प्रोजेक्ट है।
  • इससे पूर्व पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने  ब्लू इकॉनमी पॉलिसी का मसौदा भी तैयार किया गया था।
  • ब्लू इकॉनमी आर्थिक विकास, बेहतर आजीविका और रोज़गार एवं स्वस्थ महासागर पारिस्थितिकी तंत्र के लिये समुद्री संसाधनों का सतत् उपयोग है।

DOM

प्रमुख बिंदु 

DOM के प्रमुख घटक:

  • मानवयुक्त सबमर्सिबल वाहन का विकास:
    • तीन लोगों को समुद्र में 6,000 मीटर की गहराई तक ले जाने के लिये वैज्ञानिक सेंसर और उपकरणों के साथ एक मानवयुक्त पनडुब्बी विकसित की जाएगी। 
    • NIOT और इसरो संयुक्त रूप से एक मानवयुक्त सबमर्सिबल वाहन/पनडुब्बी विकसित कर रहे हैं।
    • राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी संस्थान (NIOT), पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान है।
  • गहरे समुद्र में खनन हेतु प्रौद्योगिकी का विकास:
    • मध्य हिंद महासागर में पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स के खनन के लिये एक एकीकृत खनन प्रणाली भी विकसित की जाएगी।
      • पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स समुद्र तल में मौजूद लोहे, मैंगनीज़, निकल और कोबाल्ट युक्त चट्टानें हैं।
    • भविष्य में संयुक्त राष्ट्र के संगठन ‘इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी’ द्वारा जब भी वाणिज्यिक खनन कोड तैयार किया जाएगा ऐसी स्थिति में खनिजों के अन्वेषण अध्ययन से निकट भविष्य में वाणिज्यिक दोहन का मार्ग प्रशस्त होगा। 
  • महासागर जलवायु परिवर्तन सलाहकार सेवाओं का विकास:
    • इसके तहत जलवायु परिवर्तनों के भविष्यगत अनुमानों को समझने और उसी के अनुरूप सहायता प्रदान करने वाले अवलोकनों एवं मॉडलों के एक समूह का विकास किया जाएगा। 
  • गहरे समुद्र में जैव विविधता की खोज एवं संरक्षण के लिये तकनीकी नवाचार:
    • इसके तहत सूक्ष्मजीवों सहित गहरे समुद्र की वनस्पतियों और जीवों के सर्वेक्षण एवं गहरे समुद्र में जैव-संसाधनों के सतत् उपयोग संबंधी अध्ययन पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। 
  • गहरे समुद्र में सर्वेक्षण और अन्वेषण:
    • इस घटक का प्राथमिक उद्देश्य हिंद महासागर के मध्य-महासागरीय भागों के साथ बहु-धातु हाइड्रोथर्मल सल्फाइड खनिज के संभावित स्थलों का पता लगाना और उनकी पहचान करना है। 
  • महासागर से ऊर्जा और मीठा पानी:
  • महासागर जीवविज्ञान हेतु उन्नत समुद्री स्टेशन:
    • इस घटक का उद्देश्य महासागरीय जीव विज्ञान और इंजीनियरिंग में मानव क्षमता एवं उद्यम का विकास करना है। 
    • यह घटक ऑन-साइट बिज़नेस इन्क्यूबेटर सुविधाओं के माध्यम से अनुसंधान को औद्योगिक अनुप्रयोग और उत्पाद विकास में परिवर्तित करेगा। 

‘डीप ओशन मिशन’ का महत्त्व:

  • महासागरीय संसाधनों का लाभ उठाना: महासागर विश्व के 70% हिस्से को कवर करते हैं और हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। महासागरों की गहराई में स्थित लगभग 95 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जिसका अब तक अन्वेषण नहीं किया जा सका है। 
    • भारत तीन दिशाओं से महासागरों से घिरा हुआ है और देश की लगभग 30 प्रतिशत आबादी तटीय क्षेत्रों में रहती है, साथ ही महासागर मत्स्यपालन, जलीय कृषि, पर्यटन, आजीविका एवं ‘ब्लू इकॉनमी’ का समर्थन करने वाला एक प्रमुख आर्थिक कारक है।
    • संवहनीयता पर महासागरों के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2021-2030 के दशक को सतत् विकास हेतु महासागर विज्ञान के दशक (Decade of Ocean Science for Sustainable Development) के रूप में घोषित किया है।
  • लंबी तटरेखा: भारत की समुद्री स्थिति अद्वितीय है। इसकी 7,517 किमी. लंबी तटरेखा में नौ तटीय राज्य और 1,382 द्वीप हैं।
    • फरवरी 2019 में प्रतिपादित किये गए भारत सरकार के 2030 तक के नए भारत के विकास की अवधारणा (India's Vision of New India by 2030) के दस प्रमुख आयामों में से ब्लू इकॉनमी भी एक प्रमुख आयाम है।
  • तकनीकी विशेषज्ञता: ऐसे मिशनों के लिये आवश्यक तकनीक और विशेषज्ञता वर्तमान में केवल पाँच देशों- अमेरिका, रूस, फ्रांँस, जापान और चीन के पास उपलब्ध है।
    • भारत ऐसी तकनीक वाला छठा देश होगा।

नीली अर्थव्यवस्था/ब्लू इकॉनमी से संबंधित अन्य पहलें:

  • सतत् विकास के लिये नीली अर्थव्यवस्था पर भारत-नॉर्वे टास्क फोर्स:
    • भारत और नॉर्वे के बीच ब्लू इकॉनमी को लेकर संयुक्त पहल विकसित करने के उद्देश्य से वर्ष 2020 में दोनों देशों द्वारा संयुक्त रूप से इस टास्क फोर्स का गठन किया गया था।
  • सागरमाला परियोजना:
    • सागरमाला परियोजना बंदरगाहों के आधुनिकीकरण के लिये आईटी-सक्षम सेवाओं के व्यापक उपयोग के माध्यम से बंदरगाह के विकास हेतु रणनीतिक पहल है।
  • ओ-स्मार्ट (O-SMART):
    • ओ-स्मार्ट एक अम्ब्रेला योजना है जिसका उद्देश्य सतत् विकास के लिये महासागरों और समुद्री संसाधनों का विनियमित उपयोग करना है।
  • एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन:
    • यह तटीय और समुद्री संसाधनों के संरक्षण तथा तटीय समुदायों के लिये आजीविका के अवसरों में सुधार पर केंद्रित है।
  • राष्ट्रीय मत्स्य नीति:
    • भारत में समुद्री और अन्य जलीय संसाधनों से मत्स्य संपदा के सतत् उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर 'ब्लू ग्रोथ इनिशिएटिव' को बढ़ावा देने हेतु एक राष्ट्रीय मत्स्य नीति मौजूद है।

विगत वर्षों के प्रश्न

प्र. यदि राष्ट्रीय जल मिशन को सही ढंग से और पूर्णतः लागू किया जाए तो देश पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (2012)

1- शहरी क्षेत्रों की जल आवश्कताओं की आंशिक आपूर्ति अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण से हो सकेगी।
2- ऐसे समुद्रतटीय शहर-जिनके पास जल के अपर्याप्त वैकल्पिक स्रोत हैं, की जल आवश्यकताओं की आपूर्ति ऐसी समुचित पौद्योगिकी व्यवहार में लाकर की जा सकेगी, जो समुद्री जल को प्रयोग लायक बना सकेगी।
3- हिमालय से उद्गमित सभी नदियाँ प्रायद्वीपीय भारत की नदियों से जोड़ दी जाएंगी।
4- सरकार कृषकों द्वारा भौम जल निकालने के लिये बोरिंग से खोदे गए कुएँ और उन पर लगाई गई मोटर तथा पम्प-सेट पर वहन किये व्यय की पूरी तरह प्रतिपूर्ति करेगी।

नीचे दिये गए कूट के आधार पर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (b)

स्रोत: पी.आई.बी.


सीलबंद कवर न्यायशास्त्र

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), सीलबंद कवर न्यायशास्त्र।

मेन्स के लिये:

न्यायपालिका, भारतीय संविधान, मौलिक अधिकार, मुहरबंद कवर न्यायशास्त्र।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में बिहार सरकार के खिलाफ एक आपराधिक अपील पर सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने एक वकील को अदालत में 'सीलबंद कवर रिपोर्ट' प्रस्तुत करने के लिये कहा है।

  • बीते कुछ दिनों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा ‘सीलबंद कवर न्यायशास्त्र’ का प्रायः इस्तेमाल किया गया है, उदाहरण के लिये राफेल फाइटर जेट समझौता (2018), बीसीसीआई सुधार मामला, भीमा कोरेगाँव मामला (2018) आदि।

‘सीलबंद कवर न्यायशास्त्र’ क्या है?

    • यह सर्वोच्च न्यायालय और कभी-कभी निचली अदालतों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक प्रथा है, जिसके तहत सरकारी एजेंसियों से ‘सीलबंद लिफाफों’ में जानकारी मांगी जाती है और यह स्वीकार किया जाता है कि केवल न्यायाधीश ही इस सूचना को प्राप्त कर सकते हैं।
    • यद्यपि कोई विशिष्ट कानून ‘सीलबंद कवर’ के सिद्धांत को परिभाषित नहीं करता है, सर्वोच्च न्यायालय इसे सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के आदेश XIII के नियम 7 और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 से उपयोग करने की शक्ति प्राप्त करता है।
      • सर्वोच्च न्यायालय के आदेश XIII के नियम 7:
        • नियम के अनुसार, यदि मुख्य न्यायाधीश या अदालत कुछ सूचनाओं को सीलबंद लिफाफे में रखने का निर्देश देते हैं या इसे गोपनीय प्रकृति का मानते हैं, तो किसी भी पक्ष को ऐसी जानकारी की सामग्री तक पहुँच की अनुमति नहीं दी जाएगी, सिवाय इसके कि मुख्य न्यायाधीश स्वयं आदेश दे कि विपरीत पक्ष को इसे एक्सेस करने की अनुमति दी जाए।
        • इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि सूचना को गोपनीय रखा जा सकता है यदि इसके प्रकाशन को जनता के हित में नहीं माना जाता है।
      • वर्ष 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123:
        • इस अधिनियम के तहत राज्य के मामलों से संबंधित आधिकारिक अप्रकाशित दस्तावेज़ों की रक्षा की जाती है और एक सरकारी अधिकारी को ऐसे दस्तावेज़ों का खुलासा करने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
        • अन्य उदाहरण जहाँ गोपनीयता या विश्वास के तहत जानकारी मांगी जा सकती है, इसका प्रकाशन जाँच में बाधा डालता है जैसे- विवरण (Details) जो पुलिस केस डायरी का हिस्सा है।

    सीलबंद कवर न्यायशास्त्र से संबंधित मुद्दे:

    • पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों के खिलाफ:
      • यह भारतीय न्याय प्रणाली की पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है, क्योंकि यह एक खुली अदालत के विचार के विरुद्ध है, जहाँ निर्णय सार्वजनिक जाँच के अधीन हो सकते हैं।
      • न्याय-निर्णयन की किसी भी प्रक्रिया में विशेष रूप से जिसमें मौलिक अधिकार शामिल हैं, इसके विवादों से संबंधित साक्ष्य " दोनों पक्षों के साथ साझा किये जाने चाहिये।"
    • दलीलों का दायरा कम करना:
      • अदालत के फैसलों में स्‍वेच्‍छाचारिता के दायरे को बढ़ाना, क्योंकि न्यायाधीशों को अपने फैसलों के लिये तर्क देना होता है, जो तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक की वे गोपनीय रूप से प्रस्तुत की गई जानकारी पर आधारित न हों।
        • आगे इसका विरोध किया जाता है कि जब कैमरे के समक्ष सुनवाई जैसे मौजूदा प्रावधान पहले से ही संवेदनशील जानकारी को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते हैं तो क्या राज्य को गोपनीयता के साथ जानकारी प्रस्तुत करने का ऐसा विशेषाधिकार दिया जाना चाहिये।
    • निष्पक्ष परीक्षण और न्याय-निर्णयन में बाधा:
      • यह भी तर्क दिया जाता है कि आरोपी पक्षों को ऐसे दस्तावेज़ो तक पहुँच प्रदान नहीं करना उनके निष्पक्ष परीक्षण और न्याय-निर्णयन के मार्ग में बाधा डालता है।
    • मनमानी प्रकृति:
      • सीलबंद कवर अलग-अलग न्यायाधीशों पर निर्भर होते हैं जो सामान्य अभ्यास के बजाय किसी विशेष मामले में एक बिंदु की पुष्टि करना चाहते हैं। यह अभ्यास को तदर्थ और मनमाना बनाता है

    सीलबंद कवर न्यायशास्त्र पर सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण:

    • मॉडर्न डेंटल कॉलेज बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2016) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इज़रायल के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, अहरोन बराक द्वारा प्रस्तावित आनुपातिकता के परीक्षण को अपनाया, जिसके अनुसार "संवैधानिक अधिकार की एक सीमा संवैधानिक रूप से अनुमेय होगी यदि:
      • इसे एक उचित उद्देश्य के लिये नामित किया गया है।
      • इस तरह की सीमा को लागू करने के लिये किये गए उपाय तर्कसंगत रूप से उस उद्देश्य की पूर्ति से जुड़े हों।
      • किये गए उपाय इसलिये आवश्यक हैं क्योंकि ऐसा कोई वैकल्पिक उपाय मौजूद नहीं है जो समान रूप से उसी उद्देश्य को कम सीमा के साथ प्राप्त कर सके।
      • उचित उद्देश्य को प्राप्त करने के महत्त्व और संवैधानिक अधिकार की सीमा निर्धारित करने के सामाजिक महत्त्व के बीच एक उचित संबंध (‘proportionality stricto sensu’ or ‘balancing’) हो।
    • के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामले में इस बात को दोहराया गया था।
    • पी. गोपालकृष्णन बनाम केरल राज्य के मामले में 2019 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि आरोपी द्वारा दस्तावेज़ों का खुलासा करना संवैधानिक रूप से अनिवार्य है, भले ही जाँच जारी हो क्योंकि दस्तावेज़ों से मामले की जाँच में सफलता मिल सकती है।
    • वर्ष 2019 में INX मीडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा सीलबंद लिफाफे में जमा किये गए दस्तावेज़ों के आधार पर पूर्व केंद्रीय मंत्री को जमानत देने से इनकार करने के अपने फैसले को आधार बनाने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय की आलोचना की थी।

    आगे की राह

    • न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह कार्यपालिका को जवाबदेह ठहराती है।
    • कार्यपालिका को अपने कार्यों का दृढ़ता से जवाब देना चाहिये- विशेष रूप से तब जब मौलिक अधिकारों, जैसे कि स्वतंत्रत अभिव्यक्ति में कटौती की जाती है। भारत का संविधान कार्यपालिका को ऐसे अधिकारों का उल्लंघन करने वाले मनमाने आदेश पारित करने की छूट नहीं देता है।
    • एक न्यायालय जो किसी भी कार्यकारी कार्रवाई के दौरान मूकदर्शक बना रहता है, वह अपरिष्कृत रूप से लोकतांत्रिक विनाश को दर्शाता है।
    • जब किसी कार्रवाई पर मौलिक अधिकारों को कम करने का आरोप लगाया जाता है, तो न्यायालय आनुपातिकता की दृष्टि से कार्रवाई की वैधता की जाँच करने के लिये बाध्य होता है।

    स्रोत: द हिंदू