रोगाणुरोधी प्रतिरोध के विरुद्ध भारत की रणनीति और समाधान | 28 Nov 2025

यह एडिटोरियल 24/11/2025 को द हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकशित “Strengthening the Frontline Against AMR: Building Progress Through Collective Commitment” पर आधारित है। यह लेख AMR के बढ़ते खतरे को उजागर करता है, जो अब मनुष्यों, पशुओं और पर्यावरण तक फैल चुका है, साथ ही आधुनिक चिकित्सा एवं खाद्य प्रणालियों के लिये भी खतरा बन गया है। यह केरल की PROUD/AMRITH पहलों सहित भारत के नीतिगत कदमों पर प्रकाश डालता है तथा इस बात पर बल देता है कि केवल एक समन्वित वन हेल्थ दृष्टिकोण ही इस संकट को रोक सकता है।

प्रिलिम्स के लिये: रोगाणुरोधी प्रतिरोध, वन हेल्थ फ्रेमवर्क, सुपरबग्स, अनुसूची H1, NDM-1 (नई दिल्ली मेटालो-बीटा-लैक्टामेज), रेड लाइन अभियान, ई. कोलाई, क्लेबसिएला और स्यूडोमोनास  

मेन्स के लिये: भारत में बढ़ते AMR संकट को बढ़ावा देने वाले कारक, भारत में AMR संकट का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिये अपनाए जा सकने वाले उपाय

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) एक गंभीर विकास चुनौती बन गया है जिससे स्वास्थ्य, कृषि एवं गरीबी उन्मूलन में दशकों की प्रगति को समाप्त करने की संभावना है। समस्या अस्पतालों से कहीं आगे तक बढ़ चुकी है, प्रतिरोधी सूक्ष्मजीव मृदा, जल और खाद्य शृंखलाओं को दूषित करते हैं, नियमित चिकित्सा प्रक्रियाओं से लेकर पशुधन उत्पादन तक सब कुछ खतरे में डालते हैं। भारत ने सुदृढ़ नीतिगत उपायों के साथ इसका हल ढूंढने का प्रयास किया है, जिसमें खाद्य पशुओं में कुछ एंटीबायोटिक दवाओं पर प्रतिबंध एवं केरल के PROUD और AMRITH पहल जैसे अभिनव राज्य कार्यक्रम शामिल हैं, जिन्होंने स्वास्थ्य तथा आर्थिक दोनों लाभों को प्रदर्शित किया है। इस संकट को दूर करने के लिये वन हेल्थ फ्रेमवर्क के तहत मानव, पशु और पर्यावरणीय स्वास्थ्य क्षेत्रों में समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है। स्थिति स्पष्ट है: प्रभावी रोगाणुरोधकों/प्रतिजैविकों के बिना आधुनिक चिकित्सा और सतत् विकास की आधार-शिला अभूतपूर्व जोखिम का सामना कर सकती है। 

रोगाणुरोधी प्रतिरोध क्या है? 

  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) को प्रायः ‘मूक महामारी’ कहा जाता है। यह तब होता है जब सूक्ष्मजीव (बैक्टीरिया, वायरस, कवक और परजीवी) विकसित होते हैं और उन दवाओं (रोगाणुरोधी) के प्रति प्रतिक्रिया करना बंद कर देते हैं जो कभी उनके उपचार में प्रभावी थे।
    • इसका परिणामसुपरबग्स (ऐसे रोगाणु जो अनेक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी होते हैं, जिससे मानक उपचार अप्रभावी हो जाते हैं, संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है तथा दूसरों में फैलने का खतरा बढ़ जाता है) की उत्पत्ति है।
  • मुख्य क्रियाविधि: AMR एक प्राकृतिक विकास प्रक्रिया है, लेकिन मानवीय गतिविधियों ने इसका प्रसार खतरनाक रूप से तीव्र कर दिया है। सूक्ष्मजीव चार मुख्य क्रियाविधि के माध्यम से प्रतिरोध विकसित होते हैं:
    • अवशोषण को सीमित करना: सूक्ष्मजीव दवा को प्रवेश करने से रोकने के लिये अपनी कोशिका भित्ति में उत्परिवर्तन कर देता है।
    • लक्ष्य परिवर्तन: सूक्ष्मजीव उस विशिष्ट प्रोटीन या अणु को रूपांतरित कर देता है जिस पर दवा को अनुक्रिया करना होता है, ताकि दवा उससे बंध न बना सके।
    • एफ्लक्स पंप: सूक्ष्मजीव जैविक ‘पंप’ विकसित करता है, जो दवा को नुकसान पहुँचाने से पहले ही उसे कोशिका से बाहर निकाल देता है।
    • दवा निष्क्रियता: सूक्ष्म जीव एंज़ाइम (जैसे: बीटा-लैक्टामेस) उत्पन्न करता है जो रासायनिक रूप से दवा को नष्ट या निष्क्रिय कर देता है।

अवलोकन योग्य:

बीस वर्ष पूर्व, मच्छरों को मारने या भगाने के लिये एक साधारण मच्छरदानी या एक साधारण चटाई ही काफी थी। आज, लिक्विड वेपोराइज़र को ‘हाई/टर्बो’ मोड पर चलाना पड़ता और मच्छर फिर भी उसके आस-पास उड़ते रहते हैं।

क्यों?
मच्छरों ने प्रजाति नहीं बदली। सुभेद्य मच्छरों की वर्षों पूर्व मृत्यु हो गई। जो मच्छर कॉइल से बच गए, उन्होंने ज़हर सहिष्णुता विकसित कर (विष से प्रतिरक्षा) लिया। उनसे ‘सुपर-मच्छर’ की उत्पत्ति हुई जो पुराने हथियारों से प्रतिरक्षित हैं।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध बिल्कुल यही है, लेकिन मानव शरीर के अंदर मौजूद बैक्टीरिया/जीवाणुओं के साथ। जब भी हम एंटीबायोटिक दवाओं का दुरुपयोग करते हैं, तो हम दुर्बल बैक्टीरिया को मार देते हैं, लेकिन प्रबल बैक्टीरिया की सहिष्णुता विकसित कर उनकी उत्तरजीविता बढ़ा देते हैं।

  • भारत में बढ़ते AMR संकट को कौन-से कारक बढ़ावा दे रहे हैं?
  • बड़े पैमाने पर नैदानिक ​​दुरुपयोग और ‘वॉच’ श्रेणी का दुरुपयोग: डॉक्टर प्रायः तीव्र निदान की कमी के कारण साधारण वायरल संक्रमणों के लिये ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक्स लिखते हैं, जबकि शेड्यूल H1 के लापरवाह प्रवर्तन से फार्मेसियों को बिना डॉक्टर के पर्चे के उच्च-स्तरीय दवाएँ बेचने की अनुमति मिलती है। 
    • यह ‘दवा की गोलियाँ-खाने’ की संस्कृति बैक्टीरिया को अनावश्यक रूप से दवाओं के संपर्क में लाकर प्रतिरोध को बढ़ाती है, जिससे उन्हें तेज़ी से जीवित रहने के तंत्र विकसित करने के लिये विवश होना पड़ता है। 
      • भारत में बढ़ती हुई मादक दवाइयों की संस्कृति का एक उल्लेखनीय उदाहरण महामारी के बाद डोलो-650 का व्यापक उपयोग है— एक डॉक्टर ने तो मज़ाक में यह तक कह दिया कि “भारतीय इसे कैडबरी जेम्स की तरह लेते हैं।”
      • यह प्रवृत्ति एंटीबायोटिक दवाओं की आसानी से उपलब्ध होने के कारण और भी बदतर हो जाती है, जिसके कारण लोग जोखिमों को समझे बिना ही स्वयं ही दवा लेने लगते हैं।
    • वर्ष 2022 में देश में कुल एंटीबायोटिक खपत का लगभग 59% ‘वॉच’ समूह से था, जिसमें 10 में से 8 रोगी औषधि-प्रतिरोधी बैक्टीरिया लेकर अस्पताल में भर्ती हुए। 
  • पशुधन में वृद्धि प्रवर्तक महामारी: कुक्कुट-पालन और जलीय कृषि उद्योग, सार्वजनिक स्वास्थ्य के स्थान पर लाभ को प्राथमिकता देते हुए, नियमित रूप से कोलिस्टिन जैसे महत्त्वपूर्ण एंटीबायोटिक्स का उपयोग बीमारी के इलाज के लिये नहीं, बल्कि पशुओं को तेज़ी से मोटा करने के लिये करते हैं। 
    • इससे खाद्य शृंखला में एक विशाल ‘प्रतिरोध भंडार’ का निर्माण होता है, जहाँ औषधि-प्रतिरोधी बैक्टीरिया मांस/मछली से सीधे मानव आंत में स्थानांतरित हो जाते हैं।
    • भारत विश्व स्तर पर पशु एंटीबायोटिक दवाओं का चौथा सबसे बड़ा उपभोक्ता है, जिसका उपभोग वर्ष 2030 तक 82% बढ़ने का अनुमान है; हाल के अध्ययनों में केरल के खुदरा बाज़ारों से एकत्र किये गए झींगा के नमूनों में एम्पीसिलीन के प्रति 100% औषधि-प्रतिरोध पाया गया है।
  • औषधि प्रदूषण– ‘हैदराबाद मॉडल’: ‘विश्व की फार्मेसी’ के रूप में, भारत को औषधि निर्माण इकाइयों द्वारा बिना उपचार के एंटीबायोटिक अवशेषों को स्थानीय जलस्रोतों में प्रवाहित करने की समस्या झेलनी पड़ रही है जिससे 'विकासवादी दाब कक्ष' बन जाते हैं।
    • इन एंटीबायोटिक-संतृप्त नदियों में जीवाणु अपने अस्तित्व के लिये बाध्य होकर उत्परिवर्तन करते हैं और 'सुपरबग्स' का रूप ले लेते हैं जो बाद में भूजल तथा सामुदायिक जलापूर्ति तंत्र में प्रवेश कर जाते हैं। 
    • हाल के पर्यावरणीय अध्ययनों में यह पाया गया है कि हैदराबाद की मूसी नदी में एंटीबायोटिक की सांद्रता सुरक्षित सीमाओं से 1,000 गुणा अधिक थी।
  • अतार्किक निश्चित-खुराक संयोजनों (FDC) का प्रसार: भारतीय बाज़ार गैर-वैज्ञानिक ‘कॉकटेल दवाओं’ से भरा पड़ा है, जिनमें कई एंटीबायोटिक्स को विटामिनों के साथ मिलाया जाता है, जिससे रोगाणुओं को उप-चिकित्सीय खुराक मिल जाती है तथा प्रतिरोध में तेज़ी आती है।
    • विनियामक कार्रवाई जारी है, लेकिन ये तर्कहीन फॉर्मूलेशन लक्षित उपचार के बजाय ‘शॉटगन थेरेपी’ की पेशकश करके प्रतिरोध को बढ़ावा दे रहे हैं।
    • अगस्त 2024 में, सरकार ने "कोई चिकित्सीय औचित्य नहीं" का हवाला देते हुए 156 FDC (एंटीबायोटिक कॉकटेल सहित) पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • अपर्याप्त स्वच्छता के कारण ‘स्कैवेंजर’ का प्रसार: अपर्याप्त सीवेज उपचार के कारण NDM-1 (नई दिल्ली मेटालो-बीटा-लैक्टामेज जैसे प्रतिरोधी ‘सुपरबग’ अस्पतालों से बच निकलते हैं और सार्वजनिक जल प्रणालियों में पनपते हैं।
    • हाल ही में हुए एक महामारी विज्ञान संबंधी अध्ययन के अनुसार, शहरी अपशिष्ट जल में प्रायः एंटीबायोटिक प्रतिरोधी ई. कोलाई, क्लेबसिएला और स्यूडोमोनास की अधिक मात्रा होती है। 
    • जब सीवेज नेटवर्क दोषपूर्ण या अनुपचारित होते हैं, तो ये बैक्टीरिया प्राकृतिक जल निकायों, मृदा और यहाँ तक ​​कि शौचालयों में पुनः प्रवेश कर सकते हैं, जिससे सामान्य स्वच्छता अवसंरचना सुपरबग संचरण के लिये पुलों में बदल जाती है।
  • निगरानी के अंध-क्षेत्र और निदान संबंधी कमी: भारत का AMR डेटा टर्शियरी ICU की ओर अत्यधिक झुका हुआ है, जिससे ग्रामीण प्राथमिक देखभाल में ‘मूक महामारी’ का पता नहीं चलता, जहाँ प्रयोगशालाओं की कमी के कारण डॉक्टर अनुभवजन्य रूप से दवा लिखते हैं। 
    • किफायती त्वरित निदान किट के बिना, स्वास्थ्य सेवा प्रदाता जीवाणु और विषाणु संक्रमण के बीच अंतर नहीं कर पाते, जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में अनावश्यक नुस्खे लिखने पड़ते हैं। 
    • उदाहरण के लिये, NCDC की NARS-नेट में भेजे जाने वाले आँकड़े मुख्यतः सार्वजनिक क्षेत्र के मेडिकल कॉलेजों व चयनित अस्पताल-प्रयोगशालाओं पर आधारित होते हैं जिसके कारण छोटे निजी क्लीनिकों एवं ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रतिनिधित्व कम हो जाता है, जबकि इन्हीं के पास प्रतिदिन होने वाले संक्रमणों का बड़ा हिस्सा पहुँचता है।
  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध से उत्पन्न प्रमुख खतरे क्या हैं?
  • आर्थिक खतरे:
  • व्यापार एवं निर्यात घाटा (झींगा एवं मुर्गी संकट):
    • समुद्री खाद्य निर्यात: भारत झींगा का एक प्रमुख वैश्विक निर्यातक है। हालाँकि, उच्च एंटीबायोटिक अवशेषों (जलीय रोगों के उपचार में प्रयुक्त दवाओं के अंश) के कारण यूरोपीय संघ एवं अमेरिका द्वारा बार-बार अस्वीकृतियाँ दी जाती रही हैं।
      • उदाहरण के लिये, अमेरिकी FDA ने नाइट्रोफ्यूरॉन और क्लोरैमफेनिकॉल जैसे प्रतिबंधित एंटीबायोटिक्स के कारण कई भारतीय झींगा प्रजातियों को प्रवेश देने से मना कर दिया है।
    • पोल्ट्री एवं पशुधन: चूँकि वैश्विक बाज़ार (विशेष रूप से यूरोपीय संघ) सख्त ‘एंटीबायोटिक-मुक्त’ नियमों को लागू कर रहे हैं, इसलिये भारत के पोल्ट्री क्षेत्र को उच्च-मूल्य आपूर्ति शृंखलाओं से बाहर होने का खतरा है।
      • ‘विकास को बढ़ावा देने वाले’ के रूप में एंटीबायोटिक दवाओं का बड़े पैमाने पर उपयोग अनुपालन में एक महत्त्वपूर्ण बाधा के रूप में कार्य करता है।
  • स्वास्थ्य देखभाल लागत में वृद्धि:
    • उपचार लागत: औषधि-प्रतिरोधी संक्रमणों का उपचार बहुत महंगा है।
      • इसके लिये ‘अंतिम उपाय’ एंटीबायोटिक दवाओं (जैसे: कोलिस्टिन या मेरोपेनम ), लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहने एवं महंगे आइसोलेशन प्रोटोकॉल की आवश्यकता होती है।
    • वित्तीय जोखिम: राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा अनुमान 2021-22 के अनुसार भारत के कुल स्वास्थ्य व्यय का 39.4% आउट-ऑफ-पॉकेट (OOPE) होने के कारण, AMR परिवारों को गरीबी में धकेलता है।
      • प्रतिरोधी सेप्सिस का एक भी प्रकरण कम आय वाले परिवार की जीवन भर की बचत को खत्म कर सकता है।
  • उत्पादकता एवं सकल घरेलू उत्पाद की हानि:
    • कार्यबल पर प्रभाव: AMR कामकाज़ी उम्र की आबादी को असमान रूप से प्रभावित करता है। लंबी बीमारी के कारण अनुपस्थिति बढ़ती है और वेतन हानि होती है।
      • विश्व बैंक का अनुमान है कि AMR के कारण वर्ष 2050 तक वैश्विक GDP में 3.8% तक की कमी आ सकती है; भारत जैसे उच्च बोझ वाले देश के लिये, इसका प्रभाव और भी अधिक गंभीर हो सकता है।
    • जनांकिकीय लाभांश जोखिम: भारत का प्राथमिक आर्थिक लाभ इसका युवा कार्यबल है। यदि एक महत्त्वपूर्ण जनांकिकीय समूह दीर्घकालिक प्रतिरोधी संक्रमणों (जैसे MDR-TB) से दुर्बल हो जाता है, तो यह ‘लाभांश’ एक ‘जनांकिकीय दायित्व’ में बदल सकता है।
  • सामाजिक एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरे
  • ‘एंटीबायोटिक-पूर्व युग’ में वापसी:
    • नियमित प्रक्रियाएँ जानलेवा हो जाती हैं: आधुनिक चिकित्सा रोगनिरोधी सुरक्षा के लिये एंटीबायोटिक दवाओं पर निर्भर करती है। इनके बिना, C-सेक्शन, हिप रिप्लेसमेंट और कीमोथेरेपी जैसी मानक प्रक्रियाएँ संक्रमण के जोखिम के कारण जानलेवा हो जाती हैं।
    • नवजात मृत्यु दर: भारत एक दुखद समस्या का सामना कर रहा है, जहाँ अनुमानतः 50,000 से अधिक नवजात शिशु प्रतिवर्ष प्रथम श्रेणी एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी जीवाणुओं के कारण होने वाले सेप्सिस से मर जाते हैं।
      • इससे शिशु मृत्यु दर (IMR) को कम करने के राष्ट्रीय प्रयासों को सीधे तौर पर नुकसान पहुँचता है।
  • ‘सुपरबग्स’ का उदय:
    • अस्पताल-अधिग्रहित संक्रमण (HAI): ICMR की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीय अस्पतालों में आम रोगाणु (जैसे: ई. कोलाई और क्लेबसिएला) शक्तिशाली एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति तेज़ी से प्रतिरोधी होते जा रहे हैं।
      • कार्बापेनम प्रतिरोधी जीव अब व्यापक रूप से फैल चुके हैं, जिससे डॉक्टरों के पास उपचार के बहुत कम या कोई विकल्प नहीं बचा है।
    • औषधि-प्रतिरोधी TB: भारत बहु-औषधि प्रतिरोधी क्षय रोग (MDR-TB) का वैश्विक बोझ सबसे अधिक झेल रहा है। यह वायुजनित खतरा, विशेषकर शहरी गरीबों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के बीच, बीमारी एवं गरीबी का एक दुष्चक्र उत्पन्न करता है।
  • पर्यावरणीय खतरे (‘वन हेल्थ’ संकट)
  • औषधि प्रदूषण: यद्यपि भारत ‘विश्व की फार्मेसी’ है, लेकिन विनिर्माण की यह क्षमता पर्यावरणीय लागत पर आती है। 
    • दवा कंपनियों (विशेषकर हैदराबाद) से निकलने वाले अपशिष्टों में प्रायः एंटीबायोटिक्स की उच्च सांद्रता होती है। 
    • ये स्थानीय जल निकायों को दूषित करते हैं तथा उन्हें सुपरबग्स के लिये ‘जनन स्थल’ में बदल देते हैं, जो अंततः मनुष्यों में वापस आ जाते हैं।
  • कृषि अपवाह: कृषि में प्रयुक्त एंटीबायोटिक्स मृदा और भू-जल में रिस जाते हैं। 
    • इससे एक संचरण चक्र निर्मित होता है, जहाँ प्रतिरोधी बैक्टीरिया फसलों एवं पेयजल के माध्यम से मानव खाद्य शृंखला में प्रवेश कर जाते हैं।
  • AMR संकट से निपटने के लिये भारत सरकार ने कौन-सी प्रमुख पहल की है?
  • AMR 2.0 पर राष्ट्रीय कार्य योजना (2025-29): हाल ही में शुरू की गई एक अद्यतन रूपरेखा, जो मानव और पशु क्षेत्रों में ‘वन हेल्थ’ निगरानी, ​​संक्रमण की रोकथाम एवं रोगाणुरोधी प्रबंधन पर केंद्रित है।
  • चेन्नई घोषणा: यह एंटीबायोटिक प्रतिरोध पर चर्चा करने के लिये भारत में चिकित्सा समितियों की पहली संयुक्त बैठक का परिणाम है।
  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध पर दिल्ली घोषणा (AMR): यह एक समग्र ‘एक स्वास्थ्य’ दृष्टिकोण के माध्यम से रोगाणुरोधी प्रतिरोध का मुकाबला करने के लिये अप्रैल 2017 में हस्ताक्षरित एक अंतर-मंत्रालयी आम सहमति है।
  • रेड लाइन अभियान: एक जन जागरूकता अभियान जिसके तहत एंटीबायोटिक दवाओं की पैकेजिंग पर एक ऊर्ध्वाधर लाल रेखा बनाना अनिवार्य किया जाता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि इन्हें डॉक्टर के पर्चे के बिना बेचा या खाया नहीं जाना चाहिये।
  • फिक्स्ड-डोज़ कॉम्बिनेशन (FDC) प्रतिबंध (2024): एक नियामक कार्रवाई जिसके तहत 156 तर्कहीन ‘कॉकटेल’ दवा फॉर्मूलेशन (जिनमें से कई में एंटीबायोटिक्स शामिल हैं) पर प्रतिबंध लगाया गया, जिनमें वैज्ञानिक औचित्य का अभाव था तथा जो प्रतिरोध को बढ़ावा देते थे।
    • इसके अलावा, सरकार ने रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) के बढ़ते खतरे को रोकने के लिये पशु आहार में कोलिस्टिन के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। 
    • इस कदम का उद्देश्य मनुष्यों में इस महत्त्वपूर्ण “अंतिम उपाय” एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोध के विकास को रोकना है।
  • अनुसूची H1 कार्यान्वयन: औषधि एवं प्रसाधन सामग्री नियमों में एक विधिक संशोधन, जो फार्मेसियों को एंटीबायोटिक बिक्री के लिये एक अलग रजिस्टर बनाए रखने का आदेश देता है तथा ओवर-द-काउंटर उपलब्धता को रोकता है।
  • ICMR का रोगाणुरोधी प्रतिरोध निगरानी नेटवर्क (AMRSN): वर्ष 2013 में स्थापित, यह भारत भर के विभिन्न तृतीयक देखभाल अस्पतालों से रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) पर डेटा एकत्र करने, विश्लेषण करने एवं रिपोर्ट करने की एक प्रणाली है।
  • भारत में AMR संकट का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
  • ’हब-एंड-स्पोक’ डायग्नोस्टिक ग्रिड: विशेष रूप से ग्रामीण भारत में ‘ब्लाइंड’ प्रिस्क्रिप्शन महामारी से निपटने के लिये, हमें हब-एंड-स्पोक डायग्नोस्टिक मॉडल को क्रियान्वित करना होगा।
    • इस प्रणाली में, उन्नत माइक्रोबायोलॉजी प्रयोगशालाओं वाले तृतीयक देखभाल केंद्रों (हब) को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (स्पोक्स) से डिजिटल रूप से जोड़ा गया है। 
    • परिधीय स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता केवल नमूने एकत्र करते हैं और उन्हें निर्धारित कोल्ड-चेन लॉजिस्टिक्स के माध्यम से हब तक पहुँचाते हैं तथा 24 घंटे के भीतर डिजिटल रिपोर्ट प्राप्त करते हैं। 
    • इससे प्रत्येक गाँव में महंगी प्रयोगशालाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, साथ ही यह सुनिश्चित होता है कि ग्रामीण चिकित्सक अनुभवजन्य अनुमान के बजाय साक्ष्य (एंटीबायोग्राम) के आधार पर दवा लिखते हैं, जिससे अनावश्यक एंटीबायोटिक के उपयोग में भारी कमी आती है।
      • स्वदेशी, कम लागत वाली त्वरित निदान किटों के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जैसे कि असम की DOSA परियोजना या IIT की लैब-ऑन-ए-चिप इनोवेशन, जो मिनटों में वायरल एवं बैक्टीरिया संक्रमणों में अंतर कर सकती हैं, जिससे अनावश्यक एंटीबायोटिक के उपयोग से बचने में सहायता मिलती है।
  • एंटीबायोटिक स्मार्ट विलेज (WASH-फर्स्ट डिफेंस): रोकथाम उपचार से बेहतर है; ‘एंटीबायोटिक स्मार्ट विलेज’ शुरू किये जाने चाहिये जो संक्रमण की शृंखला को तोड़ने के लिये जल, स्वच्छता एवं स्वास्थ्य (WASH) बुनियादी अवसंरचना को प्राथमिकता देते हैं। 
    • लक्षित क्लस्टरों में पीने योग्य पाइपयुक्त जल और सीवेज उपचार की 100% कवरेज सुनिश्चित करके, हम टाइफाइड एवं डायरिया जैसे जल-जनित रोगों की घटनाओं को कम करते हैं।
    • यदि कम लोग बीमार होंगे, तो कम लोगों को एंटीबायोटिक दवाओं की आवश्यकता होगी, जिससे स्वाभाविक रूप से जटिल चिकित्सा हस्तक्षेप की आवश्यकता के बिना प्रतिरोध के लिये चयन दबाव कम हो जाएगा।
  • ‘ग्रीन फार्मा’ खरीद को प्रोत्साहित करना: दवाओं की सबसे बड़ी खरीदार होने के नाते सरकार को ‘ग्रीन खरीद नीति’ लागू करनी चाहिये।
    • जो दवा कंपनियाँ यह सिद्ध कर सकें कि उनकी विनिर्माण इकाइयाँ "शून्य तरल उत्सर्जन" (ZLD) प्राप्त करती हैं तथा एंटीबायोटिक अवशेषों को हटाने के लिये अपशिष्टों का उपचार करती हैं, उन्हें सरकारी निविदाओं में प्राथमिकता मिलनी चाहिये। 
    • यह बाज़ार की शक्तियों (‘पुल’ प्रोत्साहन) का उपयोग करके प्रदूषण नियंत्रण को कंपनियों के लिये वित्तीय रूप से लाभदायक बनाता है तथा भारत की नदियों और मृदा में सक्रिय औषधि घटक के रिसाव को रोकता है।
  • ‘फार्म-टू-फोर्क’ एंटीबायोटिक ट्रेसेबिलिटी: खाद्य शृंखला को सुरक्षित करने के लिये, हमें पोल्ट्री एवं जलीय कृषि क्षेत्रों के लिये ब्लॉकचेन-आधारित ट्रेसेबिलिटी सिस्टम की आवश्यकता है।
    • फीड निर्माताओं और हैचरीज़ को एक विकेंद्रीकृत बहीखाते पर बैच विवरण दर्ज करना होगा, जिसमें यह प्रमाणित करना होगा कि उनके उत्पाद कोलिस्टिन जैसे विकास-वर्द्धक एंटीबायोटिक्स से मुक्त हैं। 
    • उपभोक्ता अंतिम मांस/अण्डे उत्पाद पर एक क्यूआर कोड स्कैन कर सकते हैं, जिससे वे इसकी ‘एंटीबायोटिक-मुक्त’ यात्रा देख सकते हैं।
      • पारदर्शिता की उपभोक्ताओं की यह मांग आर्थिक रूप से उत्पादकों को सस्ते विकास विकल्प के रूप में एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग को छोड़ने के लिये विवश करेगी।
  • एकीकृत ‘एक स्वास्थ्य’ निगरानी मंच: हमें सैद्धांतिक सहयोग से आगे बढ़कर एकीकृत राष्ट्रीय AMR डैशबोर्ड की ओर बढ़ना होगा, जो कानूनी रूप से मानव, पशु चिकित्सा एवं पर्यावरण क्षेत्रों से डेटा एकीकरण को अनिवार्य बनाता है। 
    • आँकड़ों को क्रॉस-रेफरेंस करने के लिये AI का उपयोग करके— उदाहरण के लिये, स्थानीय पोल्ट्री फार्मों में कोलिस्टिन की बिक्री में वृद्धि को पास की मानव आबादी में औषधि-प्रतिरोधी आंत संक्रमण में वृद्धि के साथ सह-संबंधित करके, ज़िला अधिकारी तुरंत ‘संक्रमण हॉटस्पॉट’ की पहचान और पृथक्करण कर सकते हैं, पारिस्थितिकी तंत्र को अलग-अलग साइलो के बजाय एक एकल जैविक इकाई के रूप में मान सकते हैं।
    • केरल मॉडल ने एक व्यापक, बहुआयामी रणनीति के माध्यम से ओवर-द-काउंटर (OTC) एंटीबायोटिक बिक्री पर सख्त प्रतिबंध को सफलतापूर्वक लागू किया है, जिसमें सख्त नियामक प्रवर्तन, जन जागरूकता अभियान और बहु-क्षेत्रीय 'वन हेल्थ' दृष्टिकोण शामिल है।
    • पशु टीकों पर सब्सिडी देने से एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग में काफी कमी आ सकती है; टीकाकृत मुर्गियों के बीमार पड़ने की संभावना बहुत कम हो जाती है, जिससे किसानों की नियमित एंटीबायोटिक खुराक पर निर्भरता कम हो जाती है।
  • व्यवहार परिवर्तन संचार (BCC) अभियान: निष्क्रिय जागरूकता पोस्टरों के बजाय, हमें ‘गोली खाने’ की आदत को छोड़ने के लिये स्थानीय मनोविज्ञान पर आधारित लक्षित व्यवहारिक प्रेरणाओं की आवश्यकता है।
    • इसमें संरचित सामुदायिक सहभागिता शामिल है, जहाँ विश्वसनीय स्थानीय नेता (धार्मिक प्रमुख, शिक्षक) समझाते हैं कि एंटीबायोटिक्स ‘अनमोल संसाधन’ हैं, न कि त्वरित समाधान।
    • एंटीबायोटिक संरक्षण को अगली पीढ़ी के लिये एक नैतिक कर्त्तव्य के रूप में ढालकर (स्वच्छ भारत की कहानी के समान), हम हर बुखार के लिये दवा की अपेक्षा करने के सामाजिक मानदंड को बदलकर यह समझ सकते हैं कि ‘समय और आराम’ प्रायः सबसे अच्छे उपचारक होते हैं।
  • ब्लू एनवेलप प्रोटोकॉल: भारत में, फार्मासिस्ट प्रायः स्ट्रिप्स काटकर एक सामान्य सफ़ेद कागज़ के थैले में केवल 3 या 4 गोलियाँ बेचते हैं। ढीली गोली निकलने के जोखिम (जहाँ मूल 'रेड लाइन' चेतावनी गायब हो जाती है) को दूर करने के लिये, विशेष रूप से एंटीबायोटिक दवाओं के लिये एक अलग कलर-कोडेड एन्वेलोप अनिवार्य किया गया है।
    • यह दृश्य-भेद एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा-तंत्र का कार्य करता है। ब्लू एनवेलप यह नहीं बताता कि आपको दवा शुरू करनी है, बल्कि यह संकेत देता है: "यदि आपने दवा शुरू कर दी है, तो इसे बीच में न छोड़ें अन्यथा आप बैक्टीरिया को और अधिक प्रबल बना देंगे।"
    • साधारण दर्दनिवारकों से इसे अलग चिह्नित कर देने से यह सुनिश्चित होता है कि रोगी संपूर्ण उपचार-पाठ्यक्रम पूरा करें ताकि बैक्टीरिया का पूर्ण उन्मूलन हो सके तथा जीवित बचे बैक्टीरिया के सुपरबग में परिवर्तित होने की संभावना न रहे।
    • भारत में एक और बड़ी समस्या यह है कि रोगी बचे हुए एंटीबायोटिक भविष्य के लिये संभाल लेते हैं और बाद में वायरल फ्लू होने पर स्वयं ही खा लेते हैं। 
    • यदि गोलियाँ साधारण सफेद पुड़िया में हों, तो वे अन्य दवाओं जैसी लगती हैं। जबकि विशिष्ट ब्लू एनवेलप रोगी के मन में एक अलग श्रेणी बनाता है: "यह वह गंभीर दवा है जो भारी संक्रमणों के लिये होती है।" इससे सामान्य सर्दी-जुकाम में इन्हें सामान्य रूप से लेने की प्रवृत्ति कम होती है, क्योंकि पैकेजिंग स्वयं इसकी गंभीरता का संकेत देती है।
  • निष्कर्ष: 
  • AMR अब केवल एक चिकित्सा समस्या नहीं रह गई है, बल्कि एक बहुआयामी विकासात्मक खतरा है जिसके लिये तत्काल और व्यवस्थित कार्रवाई की आवश्यकता है। भारत की हालिया नीतियाँ और राज्य-आधारित नवाचार दर्शाते हैं कि समन्वित प्रयासों से प्रगति संभव है। एक मज़बूत वन हेल्थ दृष्टिकोण के तहत निगरानी, ​​विनियमन और वाश (WASH) कार्यढाँचे को सुदृढ़ करना आवश्यक है। केवल निरंतर, विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग ही प्रभावी रोगाणुरोधी दवाओं और जन स्वास्थ्य के भविष्य की रक्षा कर सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) अब केवल स्वास्थ्य क्षेत्र का मुद्दा नहीं, बल्कि एक अंतर-क्षेत्रीय विकास संकट है। भारत में AMR को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारकों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये तथा वन हेल्थ कार्यढाँचे के अंतर्गत इसका हल करने में हाल की सरकारी पहलों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये। 

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-से, भारत में सूक्ष्मजैविक रोगजनकों में बहु-औषध प्रतिरोध के होने के कारण हैं? (2019)

  1. कुछ व्यक्तियों में आनुवंशिक पूर्ववृत्ति (जेनेटिक प्रीडिस्पोजीशन) का होना
  2. रोगों के उपचार के लिये प्रतिजैविकों (एंटिबॉयोटिक्स) की गलत खुराकें लेना
  3. पशुधन फार्मिंग में प्रतिजैविकों का इस्तेमाल करना
  4. कुछ व्यक्तियों में चिरकालिक रोगों की बहुलता होना

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) 1 और 2   

(b) केवल 2 और 3

(c) 1, 3 और 4

(d) 2, 3 और 4

उत्तर: (b)


मेन्स 

प्रश्न 1. क्या एंटीबायोटिकों का अति-उपयोग और डॉक्टरी नुस्खे के बिना मुक्त उपलब्धता, भारत में औषधि-प्रतिरोधी रोगों के अविर्भाव के अंशदाता हो सकते हैं? अनुवीक्षण और नियंत्रण की क्या क्रियाविधियाँ उपलब्ध हैं? इस संबंध में विभिन्न मुद्दों पर समालोचनापूर्वक चर्चा कीजिये। (2014)