डेली न्यूज़ (13 Oct, 2025)



भारत में श्रम अधिकारों का सुदृढ़ीकरण

प्रिलिम्स के लिये: अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन, राष्ट्रीय कौशल विकास निगम

मेन्स के लिये: भारत में श्रम अधिकार और औद्योगिक सुरक्षा, श्रम विधियों के प्रवर्तन में चुनौतियाँ, अनौपचारिक क्षेत्र और सामाजिक सुरक्षा उपाय

स्रोत: द हिंदू  

चर्चा में क्यों?

तेलंगाना में सिगाची इंडस्ट्रीज़ में हुए रिएक्टर विस्फोट और वर्ष 2025 में औद्योगिक क्षेत्र में बड़ी संख्या में हुई दुर्घटनाओं से औद्योगिक सुरक्षा मानकों और समय के साथ श्रम सुरक्षा के अप्रभावी होने को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं, जिससे भारत में श्रमिकों के अधिकारों के हनन पर पुनः विचार-विमर्श शुरू हो गया है।

भारत में औद्योगिक क्षेत्रों में बढ़ती दुर्घटनाओं के क्या कारण हैं?

  • लापरवाही और लागत में कटौती: कार्य नियोजक प्रायः रखरखाव की अनदेखी करते हैं, पुरानी मशीनों का उपयोग करते हैं और सुरक्षा जाँचों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं, जिसके कारण बहुधा औद्योगिक दुर्घटनाएँ होती हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार औद्योगिक क्षेत्र की दुर्घटनाएँ बहुत कम मामलों में ही आकस्मिक होती हैं और सामान्यतया नियोजकों द्वारा लापरवाही करने, सुरक्षा में कम निवेश करने, या निम्न वेतन के कारण श्रमिकों को लंबे समय तक और उच्च दबाव में कार्य करने के लिये विवश करने के कारण होती हैं।
  • प्रशिक्षण और सुरक्षा प्रणालियों का अभाव: श्रमिकों को पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं किया जाता है और कई कार्यस्थलों पर अलार्म, सुरक्षा उपकरण या आपातकालीन सुविधाओं का अभाव होता है, जिसके कारण उपकरणों को अनुचित रूप से उपयोग में लाया जाता है और संकट के दौरान अनुक्रिया करने में देरी होती है।
  • सिगाची इंडस्ट्रीज़ में, रिएक्टर कथित तौर पर बिना किसी अलार्म या हस्तक्षेप के अनुमेय तापमान से दोगुने तापमान पर संचालित था, जो सुरक्षा में गंभीर खामियों को दर्शाता है।
  • कार्याधिक्य और थकान: लंबे समय तक कार्य करने और कार्य के अधिक दबाव से परिसंकटमय कार्य परिवेश में गलतियों की संभावना बढ़ जाती है।
  • अप्रभावी विधि प्रवर्तन: अनियमित निरीक्षण और अप्रभावी प्रवर्तन से असुरक्षित प्रथाएँ जारी रहती हैं।
  • अपंजीकृत श्रमिक: अनौपचारिक श्रमिकों के पास रिकॉर्ड, विधिक सुरक्षा और प्रतिकर का अभाव होता है, जिससे उनकी सुभेद्यता बढ़ जाती है।
  • बीमा का दावा करने के लिये जानबूझकर की गई कार्रवाई: कुछ दुर्घटनाओं में बीमा भुगतान प्राप्त करने के लिये उसमें हेरफेर की जाती है या उसे अतिरंजित कर दर्शाया जाता है, जिससे कार्यस्थल पर वास्तविक सुरक्षा प्रथाओं की पर्याप्त रिपोर्टिंग नहीं होती है।

भारत में श्रमिकों के अधिकारों के विनियमन संबंधी प्रमुख श्रम कानून कौन-से हैं?

  • कारखाना अधिनियम, 1948: यह कार्य दशाओं, मशीनरी रखरखाव, सुरक्षा मानकों, कार्य समय, विश्राम अवकाश, कैंटीन और क्रेच संबंधी विषयों के विनियमन से संबंधित है।
    • इसमें अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये निरीक्षण और प्रवर्तन के प्रावधान शामिल हैं।
    • सुरक्षा मानदंडों का सुदृढ़ीकरण करने के लिये इसमें वर्ष 1976 और वर्ष 1987 में, भोपाल गैस त्रासदी के बाद संशोधन किया गया था।
  • कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1923: इसके अंतर्गत कार्यस्थल पर घायल या मृत श्रमिकों को प्रतिकर प्रदान किया जाता है।
  • कर्मचारी राज्य बीमा (ESI) अधिनियम, 1948: इसमें अस्वस्थता, प्रसूति या रोज़गार से संबंधित क्षति  की स्थिति में कर्मचारियों को स्वास्थ्य बीमा, चिकित्सा देखभाल और नकद लाभ प्रदान किया जाता है।
  • मज़दूरी संदाय अधिनियम, 1936 और न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948: इसमें समय पर और उचित भुगतान का प्रावधान किया गया है।
  • औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947: इसके अंतर्गत कार्य से पर्यवसान, काम बंदी और विवाद समाधान के संबंध में श्रमिकों के अधिकारों के संरक्षण का प्रावधान किया गया है।
  • उपजीविकाजन्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा (OSHWC) संहिता, 2020: इसके अंतर्गत 13 पूर्व श्रम कानूनों का एक ही ढाँचे में समेकन किया गया। OSHWC संहिता का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा को विनियमित करना है, हालाँकि इसका पूर्ण कार्यान्वयन अभी लंबित है।

Labour_Laws ILO_Conventions

भारत में श्रमिकों के अधिकारों के संरक्षण संबंधी कौन-सी चुनौतियाँ हैं?

  • विधिक सुरक्षा उपायों का प्रणालीगत क्षरण: अनुकूलनशीलता और व्यापार में सुगमता की आड़ में श्रम सुरक्षा प्रभावित हुई है, जिससे प्रवर्तन तंत्र अप्रभावी हो गया है।
    • उदाहरण के लिये, महाराष्ट्र के 2015 के स्व-प्रमाणन नियम से कारखानों को स्वतंत्र निरीक्षणों को दरकिनार करने का अवसर प्राप्त हुआ, जिससे वैधानिक सुरक्षा प्रावधान प्रभावित हुए।
  • अनौपचारिकता और सुभेद्यता का सामान्यीकरण: नियोक्ताओं द्वारा बिना अन्वेक्षा के नियोजित करने, कार्य से मुक्त करने और श्रमिकों से कार्य करवाने के विवेकाधिकार को बढ़ावा देने वाले नीतिगत बदलावों से अनौपचारिक नियोजन बढ़ गया है, जिससे श्रमिक अपंजीकृत और विधिक या सामाजिक सुरक्षा से वंचित रह गए हैं।
    • शिवकाशी के पटाखा कारखानों में अधिकांश संविदा श्रमिक बिना औपचारिक रिकॉर्ड के कार्य करते हैं, जिससे दुर्घटना का प्रतिकर अनियमित और विलंबित हो जाता है।
  • आर्थिक लाभों में लैंगिक अपवर्जन: कार्यस्थल अधिकारों का अप्रभावी प्रवर्तन महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करता है, उनकी भागीदारी को बाधित करता है और लैंगिक अपवर्जन को बनाए रखता है।
  • कॉर्पोरेट उत्तरदायित्व की कमी: अपर्याप्त निरीक्षण और स्व-प्रमाणन के कारण नियोक्ता लापरवाही के लिये आपराधिक या वित्तीय रूप से उत्तरदायी नहीं रह जाते हैं।
    • उदाहरण के लिये, एन्नोर कोयला-संचालन संयंत्र दुर्घटना जैसी औद्योगिक आपदाओं में स्पष्ट खामियों के बावजूद संरचनात्मक विफलताओं के लिये कानूनी कार्रवाई न्यूनतम रही।
  • दीर्घकालिक आर्थिक और उत्पादकता प्रभाव: असुरक्षित और शोषणकारी कार्य दशाएँ उत्पादकता को कम करती हैं। अनौपचारिक व्यापार श्रमिकों की आय 5 अमेरिकी डॉलर प्रति घंटा है, जो राष्ट्रीय औसत 11 अमेरिकी डॉलर प्रति घंटा का लगभग आधा है, जिससे भारत के विकसित भारत 2047 के लक्ष्य असाध्य रहने की असंभावना रहती है।

भारत श्रमिक अधिकारों का किस प्रकार सुदृढ़ीकरण कर सकता है और सुरक्षा में सुधार ला सकता है?

  • विधिक सुरक्षा उपायों का सुदृढ़ीकरण: OSHWC संहिता, 2020 का पूर्ण प्रभावी कार्यान्वन करने और कार्यस्थल सुरक्षा, सभ्य कार्य और सामाजिक सुरक्षा पर ILO के अभिसमयों के साथ श्रम नीतियों को संरेखित किये जाने की आवश्यकता है।
  • औपचारिकीकरण और सामाजिक सुरक्षा: श्रम सुविधा पोर्टल के माध्यम से अनौपचारिक श्रमिकों का डिजिटल पंजीकरण करना और उन्हें पेंशन, स्वास्थ्य बीमा और सवेतन अवकाश सहित सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा कवरेज में एकीकृत किये जाने की आवश्यकता है।
  • कौशल विकास और सुरक्षा प्रशिक्षण: राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (NSDC) और स्किल इंडिया मिशन के माध्यम से क्षेत्र-विशिष्ट सुरक्षा और कौशल कार्यक्रमों का कार्यान्वन किया जाना चाहिये।
    • नीति आयोग द्वारा प्रस्तावित मिशन डिजिटल श्रमसेतु का और अधिक तेज़ी से कार्यान्वयन किया जाना चाहिये।
    • उच्च जोखिम वाले उद्योगों में अनुपालन और खतरों पर नज़र रखने के लिये #AIforAll के तहत AI-सक्षम निगरानी और पूर्वानुमान टूल का उपयोग किया जाना चाहिये।
  • लैंगिक-समावेशी उपाय कार्यस्थल पर बाल देखभाल सुविधाओं, प्रसूति लाभ अधिनियम, 1961 के अंतर्गत प्रसूति लाभ और अनौपचारिक क्षेत्रों में महिलाओं के लिये व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से महिला कार्यबल की भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिये।
  • कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) अनुपालन: व्यवसायों के बीच पर्यावरणीय, सामाजिक और शासन (ESG) मानदंडों के पालन को प्रोत्साहित करना।
    • कॉर्पोरेट CSR रणनीतियों में श्रमिक कल्याण संबंधी विचारों को एकीकृत करना।
  • सामूहिक कार्रवाई और सुरक्षा संस्कृति को बढ़ावा देना: सामूहिक रूप से सौदा करने, श्रमिक प्रतिनिधित्व और सूचना प्रदाता संरक्षण को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
    • श्रमिक सुरक्षा को लागत के बजाय एक निवेश मानते हुए "सुरक्षा-प्रथम" औद्योगिक संस्कृति को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
  • डेटा-संचालित निगरानी: लक्षित नीतिगत हस्तक्षेपों को सक्षम बनाते हुए और लापरवाही की रोकथाम कर अनुपालन, दुर्घटना दर और सामाजिक सुरक्षा कवरेज पर नज़र रखने के लिये राष्ट्रीय डैशबोर्ड स्थापित करना चाहिये।

निष्कर्ष

  • श्रमिक अधिकारों के संरक्षण के लिये सुदृढ़ कानून, सामाजिक सुरक्षा, कौशल प्रशिक्षण, लैंगिक समावेशन, कॉर्पोरेट उत्तरदायित्व और आँकड़ों पर आधारित निगरानी आवश्यक हैं। इन पर ध्यान देने से श्रमिकों की सुरक्षा होगी, उत्पादकता में वृद्धि होगी और विकसित भारत 2047 में योगदान बढ़ेगा।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में श्रम अधिकारों का प्रणालीगत रूप से कमज़ोर होना और अप्रभावी प्रवर्तन किस प्रकार इन्हें प्रभावित करता है और कौन-से सुधारों से इन कमियों का समाधान किया जा सकता है?

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. भारत में कार्यस्थल दुर्घटनाओं के मुख्य कारण क्या हैं?
पुरानी मशीनें, अनुपयुक्त सुरक्षा प्रणालियाँ, अत्यधिक कार्य, अपंजीकृत श्रमिक और अप्रभावी विधि प्रवर्तन।

2. भारत में औद्योगिक श्रमिकों की सुरक्षा के लिये कौन-से कानून हैं?
प्रमुख कानूनों में कारखाना अधिनियम 1948, उपजीविकाजन्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा (OSHWC) संहिता, 2020, कर्मकार प्रतिकर अधिनियम 1923, ESI अधिनियम 1948, मज़दूरी संदाय अधिनियम 1936 और न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम 1948 शामिल हैं।

3. OSHWC संहिता, 2020 से श्रमिक सुरक्षा नियमों में किस प्रकार सुधार हुआ है?
इसमें सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य दशाओं को सुव्यवस्थित करने के लिये 13 श्रम कानूनों को एकीकृत किया गया है, हालाँकि इसका पूर्ण कार्यान्वयन अभी लंबित है।

4. श्रमिक अधिकारों और औद्योगिक सुरक्षा में सुधार के लिये कौन-से उपाय किये जा सकते हैं?
विधिक सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ करना, अनौपचारिक श्रमिकों को औपचारिक बनाना, कौशल प्रशिक्षण, लैंगिक समावेशन, कॉर्पोरेट जवाबदेही और AI-सक्षम निगरानी।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:(2017)

  1. कारखाना अधिनियम, 1881 को औद्योगिक मज़दूरों की मज़दूरी तय करने और मज़दूरों को ट्रेड यूनियन बनाने की अनुमति देने के उद्देश्य से पारित किया गया था।  
  2. एन.एम. लोखंडे ब्रिटिश भारत में श्रमिक आंदोलन के आयोजन में अग्रणी थे।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1

(b) केवल 2

(c) 1 और 2 दोनों

(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. “मेक इन इंडिया कार्यक्रम की सफलता कौशल भारत कार्यक्रम और क्रांतिकारी श्रम सुधारों की सफलता पर निर्भर करती है।" तार्किक तर्कों के साथ चर्चा कीजिये। (2015)


जैव चिकित्सा अनुसंधान कार्यक्रम के माध्यम से भारत के भविष्य का संरूपण

स्रोत: पी.आई.बी.  

चर्चा में क्यों?

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बायोमेडिकल रिसर्च करियर प्रोग्राम (BRCP) के तीसरे चरण को स्वीकृति दे दी है, जो जैव चिकित्सा/बायोमेडिकल अनुसंधान के माध्यम से विज्ञान में भारत की भविष्य की नीतियों को आकार देगा और विकसित भारत 2047 के अनुरूप देश की नवाचार क्षमता का वर्द्धन करेगा।

बायोमेडिकल रिसर्च करियर प्रोग्राम (BRCP) क्या है?

  • परिचय: BRCP वर्ष 2008-09 में शुरू की गई एक प्रमुख भारत-ब्रिटेन पहल है। इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT), भारत सरकार और वेलकम ट्रस्ट, यूनाइटेड किंगडम द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है।
    • BRCP, आत्मनिर्भर भारत, स्वस्थ भारत और स्टार्टअप इंडिया जैसे राष्ट्रीय मिशनों के साथ संरेखित है।
    • BRCP का दूसरा चरण वर्ष 2018-19 में एक विस्तारित पोर्टफोलियो और व्यापक अनुसंधान क्षेत्रों के साथ शुरू किया गया था। 
    • तीसरा चरण वर्ष 2025-26 से 2030-31 के लिये कार्यान्वित है, जिसमें वर्ष 2037-38 तक विस्तारित सेवा चरण होगा।
  • मुख्य उद्देश्य
    • भारत में एक विश्व स्तरीय बायोमेडिकल अनुसंधान इकोसिस्टम का निर्माण करना।
    • फेलोशिप और अनुदान के माध्यम से प्रारंभिक करियर से लेकर वरिष्ठ शोधकर्त्ता चरण तक, करियर के सभी चरणों में वैज्ञानिकों को सहायता प्रदान करना।
    • अंतर्विषयक, नीतिपरक और रूपांतरणीय/अंतरणीय अनुसंधान को प्रोत्साहित करना, जिससे प्रत्यक्ष रूप से स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक स्वास्थ्य परिणामों में सुधार आएगा।
    • चरण-III का लक्ष्य 2,000 शोधकर्त्ताओं को प्रशिक्षित करना, 25-30% परियोजनाओं को प्रौद्योगिकी तत्परता स्तर (TRL-4) और उससे ऊपर तक पहुँचाना, पेटेंट योग्य अनुसंधान को बढ़ावा देना और अधिक समावेशिता के लिये महिला वैज्ञानिकों की भागीदारी में 10-15% का विस्तार करना है।
  • उपलब्धियाँ: BRCP के अंतर्गत 721 अनुसंधान अनुदानों के लिये सहायता प्रदान की गई है और भारत की COVID-19 अनुसंधान प्रतिक्रिया को आकार देने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।

जैव चिकित्सा अनुसंधान और नवाचार में भारत के उभरते क्षेत्र कौन-से हैं?

  • जीनोमिक्स और मानव आनुवंशिकी: जीनोमइंडिया और UMMID (वंशानुगत विकारों के प्रबंधन और उपचार की विशिष्ट विधियाँ) जैसी पहलें भारत की आनुवंशिक विविधता दर्शाती हैं जिनका उद्देश्य प्रिसिशन चिकित्सा और दुर्लभ रोगों का शीघ्र निदान करना है।
    • DBT-राष्ट्रीय जैव चिकित्सा जीनोमिक्स संस्थान (NIBMG) द्वारा विकसित dbGENVOC, दुनिया का पहला सार्वजनिक ओरल कैंसर जीनोमिक डेटाबेस है, जो भारत में निवारण, निदान और उपचार में सहायता के लिये 24 मिलियन से अधिक प्रकारों का संग्रह करता है।
  • संक्रामक रोग जीवविज्ञान: मानव इम्यूनोडिफिशिएंसी वायरस (HIV), क्षय रोग (TB), मलेरिया, कोविड-19 और डेंगू पर भारत के शोध से डेंगू डे 1 परीक्षण और HIV ट्राई-डॉट+एजी परीक्षण जैसे नवाचारों की उत्पत्ति हुई।
  • टीका विकास: भारत-अमेरिका टीका कार्रवाई कार्यक्रम (VAP) के समर्थन से भारत ने ROTAVAC और कोवैक्सीन जैसे प्रमुख स्वदेशी टीके विकसित किये हैं।
    • वर्तमान प्रयासों में डेंगू, मलेरिया और निमोनिया जैसी बीमारियों को लक्षित किया गया है, जिससे आत्मनिर्भरता और निर्यात क्षमता का वर्द्धन होता है।
  • निदान और चिकित्सा उपकरण: क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पैलिंड्रोमिक रिपीट्स (CRISPR) आधारित परीक्षण, इंडीजीनस रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन पॉलीमरेज़ चेन रिएक्शन (RT-PCR) किट और किफायती साधन जैसे टूल प्रारंभिक पहचान और स्वास्थ्य सेवा पहुँच में सुधार करते हैं।
  • चिकित्सा विज्ञान और औषधि पुनर्प्रयोजन: भारत नए संकेतों के लिये मौजूदा दवाओं का पुनर्प्रयोजन करके किफायती औषधि विकास में तेज़ी ला रहा है। इस दृष्टिकोण से नैदानिक ​​परीक्षणों की समय-सीमा और नियामक अनुमोदन कम हो जाते हैं, जिससे भारत की वृहद जनसंख्या के लिये चिकित्साएँ अधिक सुलभ हो जाती हैं।
  • बायोमेडिकल इंजीनियरिंग और बायोडिज़ाइन: चिकित्सा उपकरणों (PLI MD) के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिये उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना के तहत, भारत कम लागत वाले प्रत्यारोपण, सहायक उपकरण और चिकित्सा उपकरण विकसित करता है, जिससे आयात पर निर्भरता कम होती है।
  • मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य: गर्भ-इनी (GARBH-INi) जैसे कार्यक्रम मातृ एवं शिशु देखभाल में सुधार के लिये समय से पूर्व जन्म और विकासात्मक जोखिमों का अध्ययन करते हैं।
    • राष्ट्रीय रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) AMR, जीवनशैली संबंधी बीमारियों और कुपोषण से निपटने के लिये किफायती, साक्ष्य-आधारित समाधान हेतु अनुसंधान एवं विकास का समर्थन करता है।
    • BioCARe (बेरोज़गार महिला वैज्ञानिकों का करियर विकास), जानकी अम्मल पुरस्कार (वर्गीकरण के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान को मान्यता) तथा महिला-केंद्रित इनक्यूबेटर जैसी पहल लैंगिक समावेशिता और नेतृत्व को बढ़ावा देती हैं।

भारत: फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड 

  • वैश्विक मान्यता: भारत को विश्व स्तर पर ‘फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड’ के रूप में जाना जाता है, क्योंकि इसने पूरे विश्व में, विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के दौरान, किफायती टीके, दवाएँ और चिकित्सा आपूर्ति प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
    • भारत का फार्मा उद्योग मात्रा के हिसाब से विश्व का तीसरा सबसे बड़ा और उत्पादन मूल्य के हिसाब से 14वाँ सबसे बड़ा उद्योग माना जाता है।
  • निर्यात वृद्धि: ड्रग और फार्मास्यूटिकल निर्यात वर्ष 2023 से वर्ष 2024 तक 8.36% बढ़ा।
    • निर्यात वर्ष 2013-14 में 15.07 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2023-24 में 27.85 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
    • भारत लगभग 200 देशों को निर्यात करता है, जिनके शीर्ष बाज़ारों में अमेरिका, बेल्ज़ियम, दक्षिण अफ्रीका, UK और ब्राज़ील शामिल हैं।
  • बायोटेक्नोलॉजी बूम: भारत का जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर (2014) से बढ़कर 130 बिलियन अमेरिकी डॉलर (2024) हो गया है तथा अनुमान है कि वर्ष 2030 तक यह 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगा।
    • विकास मेट्रो, टियर-I और ग्रामीण बाज़ारों में समान रूप से वितरित है (प्रत्येक की हिस्सेदारी 30% है)।

भारत में जैव चिकित्सा अनुसंधान की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  • नीति और नियामक सुधार: नैतिक मंज़ूरी और डेटा प्रशासन को सुव्यवस्थित करने के लिये राष्ट्रीय जैव चिकित्सा अनुसंधान प्राधिकरण (NBRA) की स्थापना करन।
    • पारदर्शिता और सहयोग के लिये खुले विज्ञान ढाँचे को एकीकृत करना।
  • वित्तीय और संस्थागत स्थिरता: वर्ष 2037 के बाद निरंतर सहायता के लिये राष्ट्रीय जैव-चिकित्सा नवाचार कोष (NBIF) बनाना। ट्रांसलेशनल रिसर्च और विनिर्माण के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को मज़बूत करना।
  • क्षेत्रीय अनुसंधान क्लस्टर: अनुसंधान एवं विकास क्षमता को विकेंद्रित करने और स्थानीय रोज़गार को बढ़ावा देने के लिये  टियर-2/3 शहरों में जैव नवाचार केंद्र विकसित करना।
  • कौशल विकास और शिक्षा: चिकित्सा और इंजीनियरिंग संस्थानों में बायोमेडिकल इनोवेशन फेलोशिप और अंतःविषय पाठ्यक्रम शुरू करना।
  • निगरानी और प्रभाव आकलन: फेलोशिप परिणामों, प्रौद्योगिकी तत्परता और लैंगिक समानता मैट्रिक्स को ट्रैक करने के लिये AI-संचालित डैशबोर्ड का उपयोग करना।

निष्कर्ष

BioE3 जैसी पहलों के साथ, BRCPI भारत को किफायती और प्रभावशाली जैव-चिकित्सा नवाचार का वैश्विक केंद्र बनने की दिशा में आगे बढ़ा रहा है। DG-3 (उत्कृष्ट स्वास्थ्य और कल्याण) और SDG-9 (उद्योग, नवाचार और बुनियादी ढाँचा) के साथ संरेखित, यह स्वास्थ्य सेवा को मज़बूत बनाता है, समावेशिता को बढ़ावा देता है तथा विश्व मंच पर वैज्ञानिक नेतृत्व को आगे बढ़ाता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. जैव-चिकित्सा अनुसंधान भारत के विकसित भारत 2047 के दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिये केंद्रीय है। चर्चा कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. बायोमेडिकल रिसर्च करियर प्रोग्राम (BRCP) क्या है?
BRCP एक प्रमुख भारत-ब्रिटेन पहल है जिसका उद्देश्य भारत में विश्व स्तरीय बायोमेडिकल अनुसंधान इकोसिस्टम का निर्माण करना है।

2. जैव चिकित्सा अनुसंधान में भारत की उभरती हुई सीमाएँ क्या हैं?
प्रमुख क्षेत्रों में जीनोमिक्स, संक्रामक रोग जीवविज्ञान, टीका विकास, निदान, चिकित्सा विज्ञान, बायोमेडिकल इंजीनियरिंग, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य और सार्वजनिक स्वास्थ्य पोषण शामिल हैं।

3. dbGENVOC क्या है और इसका महत्त्व क्या है?
DBT-NIBMG द्वारा विकसित dbGENVOC, विश्व का पहला पब्लिक ओरल कैंसर जीनोमिक डेटाबेस है जिसमें 24 मिलियन से अधिक प्रकार शामिल हैं, जो भारत में रोकथाम, निदान और उपचार में सहायता करता है।


कार्बन अभिग्रहण, उपयोग और भंडारण

प्रिलिम्स के लिये: कार्बन अभिग्रहण, उपयोग और भंडारण (CCUS); ग्रीनहाउस गैसें; जैव-ऊर्जा (Bioenergy); डायरेक्ट एयर कैप्चर; तरलीकृत प्राकृतिक गैस (LNG)                                          

मेन्स के लिये: जलवायु शमन रणनीति (Climate Mitigation Strategy) के रूप में कार्बन अभिग्रहण, उपयोग और भंडारण (CCUS) की प्रभावशीलता एवं जोखिम; इससे जुड़ी चुनौतियाँ; भारत की स्थिति तथा CCUS संबंधी पहलें।

स्रोत: TH 

चर्चा में क्यों?

क्लाइमेट एनालिटिक्स रिपोर्ट के अनुसार, एशिया की व्यापक कार्बन अभिग्रहण, उपयोग और भंडारण (CCUS) योजनाएँ वर्ष 2050 तक लगभग 25 अरब टन अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों का कारण बन सकती हैं।

  • ऐसा इसलिये है क्योंकि चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और इंडोनेशिया में अधिकांश CCUS योजनाएँ उत्सर्जन कम करने के बजाय कोयला, तेल और गैस के जीवन काल को बढ़ाने के उद्देश्य से डिजाइन की गई हैं।

कार्बन अभिग्रहण, उपयोग और भंडारण क्या है?

  • परिचय: CCUS तकनीकों का एक समूह है जो बड़े स्रोतों जैसे पावर प्लांट्स, रिफाइनरियों और औद्योगिक इकाइयों से CO₂ उत्सर्जन को अभिगृहीत करता है या वायुमंडल में मौजूद CO₂ को निर्मूलित करता है।
  • कार्यप्रणाली: CCUS में मुख्यतः तीन चरण शामिल हैं — CO₂ का अभिग्रहण, परिवहन एवं भंडारण या उपयोग।
    • अभिग्रहण की विधियाँ:
      • पोस्ट-कंबस्टियन (Post-combustion): ईंधन दहन के पश्चात फ्लू गैस से CO₂ को सॉल्वेंट्स की मदद से पृथक किया जाता है।
      • प्री-कंबस्टियन (Pre-combustion): ईंधन दहन के पूर्व हाइड्रोजन–CO₂ मिश्रण में परिवर्तित किया जाता है, फिर CO₂ को पृथक किया जाता है।
      • ऑक्सी-फ्यूल कंबस्टियन (Oxy-fuel combustion): ईंधन का दहन शुद्ध ऑक्सीजन में किया जाता है, जिससे CO₂ और भाप का उत्पादन होता है, जो अभिग्रहण को आसान बनाता है।
    • परिवहन और भंडारण: अभिगृहीत किये गए CO₂ को संपीड़ित करके पाइपलाइन, जहाज, रेल या सड़क के माध्यम से ले जाया जाता है और गहरी भूवैज्ञानिक संरचनाओं  जैसे- दोहित तेल और गैस क्षेत्र या लवणीय जल वाले भूमिगत जलाशय (saline aquifers) आदि में लंबे समय तक भंडारण के लिये इंजेक्ट किया जाता है। वैकल्पिक रूप से, इसे वाणिज्यिक उपयोग में भी लाया जा सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन से निपटने में भूमिका: CCUS वैश्विक डीकार्बोनाइजेशन में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है:
    • हार्ड-टू-एबेट सेक्टर जैसे स्टील, सीमेंट (वैश्विक उत्सर्जन का 7%) और रसायन उद्योग में उत्सर्जन कम करने में सहायक।
    • उद्योग और परिवहन में जीवाश्म ईंधनों के स्थान पर कम-कार्बन वाले विद्युत् और हाइड्रोजन का उत्पादन।
    • BECCS (Bioenergy with CCS) और डायरेक्ट एयर कैप्चर (DACCS) के माध्यम से वायुमंडल से मौजूदा CO₂ को हटाना।
    • अनुकूलता: CCUS को कोयला, गैस या बायोमास संयंत्रों में स्थापित किया जा सकता है, जिससे ऊर्जा सुरक्षा बढ़ती है और कम-कार्बन उत्सर्जन ऊर्जा स्रोतों में विविधता आती है।

CCUS पर एशिया की बढ़ती निर्भरता जलवायु के संबंध में क्यों चिंतनीय है?

  • व्यापक अतिरिक्त उत्सर्जन: CCUS परिदृश्य के आधार पर, एशिया में वर्ष 2050 तक अतिरिक्त 24.9 गीगाटन CO₂-समतुल्य उत्सर्जन हो सकता है—जो दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया के संयुक्त जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन से भी अधिक है।
    • यह अतिवृद्धि मामूली नहीं है; यह एक संभावित आपदा है जो एकल रूप से ही वैश्विक जलवायु लक्ष्यों के लिये खतरा है।
  • आर्थिक अवरोध: एक उच्च-CCS मार्ग से देशों का महॅंगे, पुराने जीवाश्म ईंधन बुनियादी ढाँचे में अभिबद्ध होने का ख़तरा रहता है जिससे अनुपयुक्त संसाधनों के निर्माण और अधिक स्वच्छ विकल्पों से निवेश के बहिर्गमन का जोखिम होता है।
  • क्षेत्रीय सुभेद्यताएँ: एक उच्च-CCS मार्ग से जलवायु संबंधी उन खतरों को बढ़ावा मिलता है जिनसे एशिया को सबसे अधिक खतरा है जैसे समुद्र के जल स्तर में वृद्धि, मानसून की अस्थिरता और हीट वेव्स—और इसके साथ ही अप्रग्रहीत NOx और SOx से प्राणघातक वायु प्रदूषण बना रहता है।
  • बढ़ती ऊर्जा मांग: सरकारें कोयला और गैस जैसे घरेलू जीवाश्म ईंधनों का दोहन करने के लिये ऊर्जा सुरक्षा रणनीति के रूप में CCUS का उपयोग कर रही हैं और साथ ही वे जलवायु लक्ष्यों के प्रति मात्र दिखावा कर रही हैं, जबकि पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा में संक्रमण से बच रही हैं।

CCUS में भारत की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • सीमित विस्तारण: भारत में वर्तमान में न्यूनतम CCS अवसंरचना है जिसमें किसी व्यापक परिचालन परियोजनाओं या भंडारण सुविधाओं का अभाव है, जिससे यह क्षेत्रीय CCS नेटवर्क से एक सीमा तक असंयोजित रह जाता है।
  • सीमेंट क्षेत्र के लिये CCU टेस्टबेड: भारत ने सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल के तहत सीमेंट क्षेत्र के लिये पाँच CCU टेस्टबेड का अपना पहला क्लस्टर लॉन्च किया है, जो निम्नलिखित पर केंद्रित है:
    • ऑक्सीजन-एन्हांस्ड कैल्सीनेशन: CO₂ को कंक्रीट ब्लॉक और ओलेफिन (जैसे, एथिलीन, प्रोपलीन) में परिवर्तित करना।
    • कार्बन-ऋणात्मक खनिजीकरण: CO₂ को स्थायी रूप से चट्टानों में पाशन करना।
    • वैक्यूम स्विंग अधिशोषण: सीमेंट भट्ठा गैसों से CO₂ को अलग करना और इसे वापस निर्माण सामग्री में एकीकृत करना।
  • कार्बन कैप्चर में राष्ट्रीय केंद्र: विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से, भारत में कार्बन प्रग्रहण और उपयोग (CCU) हेतु दो राष्ट्रीय उत्कृष्टता केंद्र (CoE) स्थापित किये जा रहे हैं:
    • NCoE-CCU, IIT बॉम्बे, मुंबई और
    • NCCCU, JNCASR, बंगलुरु
  • नवीकरणीय लाभ: सौर, वात, विद्युत गतिशीलता और हरित हाइड्रोजन के क्षेत्र में भारत की प्रगति, भारी कार्बन प्रग्रहण और उपयोग (CCU) के बिना कार्बन उत्सर्जन को कम करने का मार्ग प्रदान करती है। 
    • CCS के लिये 4.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सरकारी सहायता से नवीकरणीय ऊर्जा और हरित नवाचार के लिये निधि के उपयोग पर विचार विमर्श जारी है।

CCUS से जुड़ी प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?

  • कम अभिग्रहण दक्षता: अधिकांश CCS परियोजनाएँ केवल 50% CO₂ ही अभिग्रहण कर पाती हैं, जो कि सार्थक उत्सर्जन कटौती के लिये आवश्यक 95% से काफी कम है, जिससे वे जलवायु समाधान के रूप में कम प्रभावी हो जाती हैं।
  • जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता: मौजूदा CCS परियोजनाओं में से लगभग 80% संवर्धित तेल पुनर्प्राप्ति (EOR) के लिये संचित CO₂ का उपयोग करती हैं, जो जीवाश्म ईंधन निष्कर्षण को कम करने के बजाय उसे बढ़ाती है।
  • उच्च आर्थिक लागत: CCS-आधारित विद्युत उत्पादन, भंडारण वाली नवीकरणीय ऊर्जा की तुलना में विद्युत को दोगुना तक महॅंगा बना सकता है। CCUS सुविधाएँ पूँजी और ऊर्जा दोनों-प्रधान हैं, जिससे विशेष रूप से एशिया में आर्थिक व्यवहार्यता को लेकर चिंताएँ बढ़ रही हैं।
  • क्षेत्रवार विसंगति: अधिकांश CCS परियोजनाएँ गैस, LNG और हाइड्रोजन उत्पादन क्षेत्रों जैसे जीवाश्म ईंधन क्षेत्रों को लक्षित करती हैं, जिनके पास पहले से ही शून्य-उत्सर्जन विकल्प मौजूद हैं, जबकि इस्पात व सीमेंट जैसे हार्ड-टू-एबेट सेक्टर को न्यूनतम निवेश प्राप्त होता है।
  • किफायती विकल्पों का उदय: नवीकरणीय ऊर्जा, विद्युतीकरण और ऊर्जा दक्षता, CCS के साथ जीवाश्म ईंधन की तुलना में पहले से ही अधिक लागत प्रभावी हैं। उच्च-CCS की लागत, निम्न-CCS की तुलना में, वर्ष 2050 तक वैश्विक स्तर पर 30 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक अधिक हो सकती है।
  • पर्यावरणीय जोखिम: भूमिगत भंडारण से संभावित CO₂ रिसाव उत्सर्जन में कमी को निम्न कर सकता है और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचा सकता है।

भारत को अपने हरित परिवर्तन के क्रम में CCUS के लिये क्या रणनीति अपनानी चाहिये?

  • नवीकरणीय ऊर्जा को प्राथमिकता देना: सौर, पवन, हरित हाइड्रोजन और विद्युत गतिशीलता को प्राथमिक डीकार्बोनाइजेशन क्रम के रूप में अपनाना। CCUS का उपयोग केवल वहीं करें जहाँ उत्सर्जन कम करना कठिन हो, जैसे इस्पात, सीमेंट और रासायनिक उद्योग में।
  • पायलट प्रोजेक्ट और स्केल चयनात्मक रूप: लागत-प्रभावशीलता और पर्यावरणीय सुरक्षा का मूल्यांकन करने के लिये छोटे पैमाने पर, उच्च-दक्षता वाली CCUS परियोजनाओं को लागू करना। ऐसे व्यापक कार्यान्वयन से बचना जो जीवाश्म ईंधन पर निरंतर निर्भरता को बढ़ावा देते हैं।
  • स्टोरेज एटलस विकसित करना: भंडारण उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि अभिग्रहण और सुरक्षित, सुलभ भंडारण के बिना CCUS अप्रभावी है।
  • तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ONGC) और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) को निवेश जोखिम को कम करने के लिये समाप्त हो चुके तेल एवं गैस क्षेत्रों (जैसे, बॉम्बे हाई) तथा गहरे लवणीय जलभृतों का मानचित्रण करना चाहिये।
  • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण एवं वित्त: CCUS प्रौद्योगिकी और वित्त के लिये विकसित देशों के साथ वार्ता करना, इसे ग्लोबल साउथ औद्योगीकरण के लिये महत्त्वपूर्ण स्थान देना चाहिये। जलवायु पुनर्स्थापन प्रौद्योगिकियों में अग्रणी बनने के लिये डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC) और BECCS के लिये अनुसंधान एवं विकास में निवेश करना।

निष्कर्ष

प्राथमिक जलवायु रणनीति के रूप में CCUS पर एशिया की अत्यधिक निर्भरता से भारी उत्सर्जन, आर्थिक अवरोध और 1.5°C के लक्ष्य को प्राप्त न करने का जोखिम उत्पन्न करती है। भारत और अन्य देशों के लिये, महॅंगे और अकुशल CCUS की बजाय नवीकरणीय ऊर्जा तथा हरित हाइड्रोजन जैसे सिद्ध एवं किफायती विकल्पों को प्राथमिकता देना, कार्बन-मुक्ति का अधिक व्यवहार्य मार्ग है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. कार्बन अभिग्रहण, उपयोग और भंडारण (CCUS) क्या है? जलवायु परिवर्तन से निपटने में CCUS के जोखिमों और सीमाओं का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. कार्बन अभिग्रहण, उपयोग और भंडारण (CCUS) क्या है?
CCUS विद्युत संयंत्रों, उद्योगों या वायुमंडल से CO₂ को एकत्रित करता है और इसे भूवैज्ञानिक संरचनाओं में भंडारण के लिये ले जाता है या जलवायु परिवर्तन को कम करने हेतु औद्योगिक उपयोग करता है।

2. संवर्धित तेल पुनर्प्राप्ति (EOR) CCUS परियोजनाओं से कैसे जुड़ी है?
वर्तमान CCS परियोजनाओं में से लगभग 80% संवर्धित तेल पुनर्प्राप्ति (EOR) के लिये संचित CO₂ का उपयोग करती हैं, जिससे जीवाश्म ईंधन निष्कर्षण का विस्तार होता है, जिससे इस तकनीक की जलवायु शमन क्षमता कम हो जाती है।

3. एशिया की CCUS योजनाओं को जोखिम भरा क्यों माना जाता है?
ये वर्ष 2050 तक 24.9 गीगाटन अतिरिक्त CO₂ का उत्पादन कर सकती हैं, अर्थव्यवस्थाओं को जीवाश्म ईंधन पर निर्भर कर सकती हैं और स्वच्छ, लागत-प्रभावी तकनीकों से निवेश को हटा सकती हैं।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रीलिम्स 

प्रश्न. निम्नलिखित कृषि पद्धतियों पर विचार कीजिये: (2012)

  1. समोच्च मेंडबंदी (कंटूर बंडिंग)
  2.  रिले फसल 
  3.  शून्य जुताई

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में उपर्युक्त में से कौन-सा मिट्टी में कार्बन अधिग्रहण/भंडारण में सहायक है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) 1, 2 और 3
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं

उत्तर: (b)


प्रश्न. कार्बन डाइ-ऑक्साइड के मानवजनित उत्सर्जन के कारण होने वाले ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन कार्बन पृथक्करण के लिये संभावित स्थल हो सकता है? (2017)

  1. परित्यक्त और गैर-आर्थिक कोयले की तह 
  2.  तेल और गैस भंडारण में कमी 
  3.  भूमिगत गहरी लवणीय संरचनाएँ

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)