भारत की न्याय वितरण प्रणाली में सुधार
प्रिलिम्स के लिये: भारतीय न्यायपालिका, सर्वोच्च न्यायालय, ई-कोर्ट परियोजना, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, लोक अदालतें, FASTER, न्यायालय कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग, ADR तंत्र, मध्यस्थता, जनहित याचिकाएँ
मेन्स के लिये: भारत में न्यायिक बैकलॉग, भारतीय न्यायपालिका में न्यायिक सुधार, भारतीय न्यायपालिका से संबंधित वर्तमान प्रमुख मुद्दे, भारत में न्यायिक सुधारों से संबंधित प्रमुख पहल।
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों और ज़िला न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक मामलों के भारी लंबित बोझ के कारण भारतीय न्यायपालिका गंभीर चुनौती का सामना कर रही है, जिससे न्याय वितरण प्रणाली, सुशासन तथा कानूनी व्यवस्था में नागरिकों का विश्वास गहराई से प्रभावित हो रहा है।
न्यायिक लंबित मामलों से जुड़े प्रमुख आँकड़े क्या हैं?
लंबित मामलों की संख्या |
वर्ष 2025 के मध्य तक, भारतीय न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से ज़िला न्यायालय 90% (4.6 करोड़+) मामलों का निपटारा कर रही हैं, इसके बाद उच्च न्यायालय (63.3 लाख+) और सर्वोच्च न्यायालय (86,700+) का स्थान है। |
निपटान असमानताएँ (आपराधिक बनाम सिविल मामले) |
आपराधिक मामलों का निपटारा तेज़ी से होता है तथा उच्च न्यायालय में 85.3% मामले एक वर्ष के भीतर निपटा दिये जाते हैं।
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भारतीय न्यायालयों में मामलों की उच्च लंबित संख्या के प्रमुख कारण क्या हैं?
- न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात में कमी: न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात 10 लाख लोगों पर 15 न्यायाधीशों पर स्थिर बना हुआ है, जो विधि आयोग की 50 की सिफारिश से काफी दूर है।
- हालाँकि निचली न्यायपालिका में महिलाओं की हिस्सेदारी 38% है, लेकिन उच्च न्यायालयों में उनका प्रतिनिधित्व मात्र 14% है।
- बार-बार स्थगन (Adjournments): न्यायालय मामलों में बार-बार स्थगन से सीधे तौर पर न्यायिक लंबितता में वृद्धि होती है, जो अनसुलझे मामलों का संचय है।
- न्याय प्रदान करने में यह देरी कानूनी प्रणाली में जनता के विश्वास को कमज़ोर करती है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय में विलंबित मामलों पर हुए एक अध्ययन में पाया गया कि 70% मामलों में तीन से अधिक स्थगन हुए थे।
- यद्यपि स्थगन की सीमा तय करने की प्रक्रियाएँ मौजूद हैं, फिर भी इन्हें प्राय: मंज़ूरी दे दी जाती है, जिससे "तारीख पर तारीख" की संस्कृति विकसित होती है।
- अल्पप्रयुक्त ADR: मध्यस्थता, पंचाट और सुलह जैसे ADR तंत्र, लंबित मामलों के बोझ को कम करने की क्षमता रखने के बावजूद, अब भी पर्याप्त रूप से उपयोग में नहीं लाए जा रहे हैं।
- साथ ही, देशभर में सभी ADR तंत्रों के प्रदर्शन से संबंधित केंद्रीकृत, अद्यतन एवं विस्तृत आँकड़ों की कमी के कारण इनके उपयोग और प्रभावशीलता की समग्र एवं राष्ट्रीय स्तर की तस्वीर प्रस्तुत करना कठिन हो जाता है।
- मुकदमेबाज़ी में वृद्धि: विधिक जागरूकता और जनहित याचिकाओं (PIL) में वृद्धि के साथ-साथ निराधार मामलों के कारण भी मुकदमेबाज़ी में वृद्धि हो रही है।
- लंबित मामलों में लगभग 50 प्रतिशत मामले सरकारी विभागों से संबंधित हैं, जहाँ निर्णय में विलंब और नियमित अपीलें लंबित मामलों के बोझ को और बढ़ा देती हैं।
- संरचनात्मक एवं प्रक्रियागत बाधाएँ: अपर्याप्त न्यायालय कक्ष, कार्मिकों की कमी, कमज़ोर सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) अवसंरचना, प्रकरण प्रबंधन प्रणालियों का अभाव, बार-बार स्थगन, गवाहों एवं साक्ष्यों में विलंब।
भारत में न्यायिक सुधारों से संबंधित प्रमुख पहल क्या हैं?
- न्याय प्रदायगी और विधिक सुधार के लिये राष्ट्रीय मिशन (2011): न्याय तक पहुँच, दक्षता एवं जवाबदेही बढ़ाने के उद्देश्य से सुधारात्मक उपायों को लागू करना।
- ई-कोर्ट परियोजना: न्यायालयों का डिजिटलीकरण, जिसमें पेपरलेस फाइलिंग, वर्चुअल सुनवाई और मामलों के शीघ्र निपटारे की सुविधा शामिल है।
- भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण: देशभर में एक समान न्यायिक अवसंरचना के विकास और अनुरक्षण हेतु प्रस्तावित संस्था।
- फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट: चुनिंदा प्रकार के मामलों के त्वरित सुनवाई एवं निपटारे के लिये समर्पित न्यायालय।
- वैकल्पिक विवाद निपटान (ADR) तंत्र: मुकदमेबाज़ी के तेज़ और किफायती विकल्प के रूप में मध्यस्थता, पंचाट और सुलह की सुविधा प्रदान करता है।
- टेली-लॉ: तकनीक के माध्यम से हाशिये पर स्थित लोगों को दूरस्थ कानूनी परामर्श से जोड़ता है।
- न्याय बंधु (प्रो बोनो): स्वैच्छिक वकीलों द्वारा ज़रूरतमंदों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करना।
- न्यायिक रिक्तियों की पूर्ति: वर्ष 2014 से 2024 के बीच सर्वोच्च न्यायालय में 62 तथा उच्च न्यायालयों में 976 न्यायाधीश नियुक्त किये गए, जिनमें से 745 को स्थायी नियुक्ति दी गई। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या 906 से बढ़कर 1,114 हो गई, जबकि ज़िला न्यायालयों में यह संख्या 19,518 से बढ़कर 25,609 हो गई, जो न्यायिक क्षमता बढ़ाने और लंबित मामलों को कम करने के प्रयासों को दर्शाता है।
वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र क्या हैं?
पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये: वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र
भारत की न्यायिक प्रणाली को मज़बूत करने के लिये क्या उपाय किये जाने चाहिये?
- न्यायिक क्षमता एवं नियुक्तियों को मज़बूत करना: उच्च न्यायालयों और ज़िला न्यायालयों में त्वरित नियुक्तियाँ करना तथा वर्ष 1987 के विधि आयोग की सिफारिश के अनुसार न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात को 50 प्रति मिलियन तक बढ़ाना।
- कोलेजियम की पारदर्शिता में सुधार, सेवानिवृत्ति आयु में वृद्धि, न्यायाधीशों की संख्या में विस्तार, और विशेषीकृत न्यायालयों का गठन।
- द्वितीय (ARC) के राष्ट्रीय न्यायिक परिषद के प्रस्तावों को लागू करना, जिससे सरल विधानों का निर्माण, समयबद्ध सुनवाई, मामलों का शीघ्र निपटारा, न्यायालयों का विस्तार, तथा सूचना प्रौद्योगिकी और प्रशिक्षण का उन्नत उपयोग संभव हो सके।
- अवसंरचना एवं प्रौद्योगिकी सुधार: राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIA) की स्थापना से न्यायालय सुविधाओं का मानकीकरण किया जा सकेगा।
- ई-कोर्ट परियोजना के विस्तार, FASTER जैसे उपकरणों के उपयोग, तथा कार्मिकों के निरंतर प्रशिक्षण से डिजिटलीकरण, आभासी सुनवाई, और वाद प्रबंधन की दक्षता में वृद्धि होगी।
- प्रक्रियात्मक एवं केस प्रबंधन सुधार: स्थगनों की सीमा तय करना, संक्षिप्त मुकदमों को बढ़ावा देना, पूर्व-वाद सम्मेलन आयोजित करना, तथा समयबद्ध सुनवाई सुनिश्चित करना, इन उपायों से न्याय प्रक्रिया में तीव्रता लाई जा सकती है।
- परिभाषित समय-सीमा के साथ मामलों के वर्गीकरण, सूचीकरण और अनुवर्तन हेतु कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) उपकरणों का एकीकरण न्यायपालिका में दक्षता और पारदर्शिता को सुदृढ़ करेगा।
- ADR और विधिक पहुँच को बढ़ावा देना: मध्यस्थता, पंचाट और सुलह जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्रों का विस्तार न्यायालयों का बोझ कम करने में सहायक हो सकता है।
- मध्यस्थता अधिनियम, 2023 के प्रभावी क्रियान्वयन तथा लोक अदालतों का विस्तार, जिन्होंने वर्ष 2021 से वर्ष 2025 के बीच 27.5 करोड़ मामलों का निपटान किया, न्यायालय के बाहर विवाद समाधान की संभावनाओं को रेखांकित करता है।
- टेली-लॉ, मोबाइल क्लीनिक तथा NALSA की व्यापक पहुँच के माध्यम से निःशुल्क विधिक सहायता को मज़बूत करना वंचित वर्गों के लिये न्याय तक पहुँच को सुदृढ़ करेगा।
निष्कर्ष:
भारतीय न्यायपालिका एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है, जहाँ सुधारों को परिणामों में परिवर्तित करना आवश्यक है। न्याय में विलंब जन-विश्वास और संवैधानिक मूल्यों को निरंतर क्षीण करता रहता है। वादों में निरंतर वृद्धि और क्षमता के बीच के अंतराल को कम करना, ADR तंत्र को मज़बूत करना, तथा बुनियादी ढाँचे और प्रक्रियाओं का आधुनिकीकरण करना केवल नीतिगत विकल्प नहीं हैं, अपितु विधि के शासन को बनाए रखने और समय पर, सुलभ न्याय सुनिश्चित करने के लिये संवैधानिक दायित्व हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. न्यायिक लंबितता भारत की विधिक प्रणाली में गंभीर विकृति के लक्षण हैं। लंबित मामलों की उच्च संख्या के लिये उत्तरदायी संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक बाधाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये तथा इस चुनौती से निपटने के लिये व्यापक सुधारों का सुझाव दीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
- भारत के संविधान के 44वें संशोधन द्वारा लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के निर्वाचन को न्यायिक पुनर्विलोकन के परे कर दिया।
- भारत के संविधान के 99वें संशोधन को भारत के उच्चतम न्यायालय ने अभिखंडित कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता था।
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1, न ही 2
उत्तर: (b)
प्रश्न. राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013)
- इसका उद्देश्य समान अवसरों के आधार पर समाज के कमज़ोर वर्गों को निःशुल्क एवं सक्षम विधिक सेवाएँ उपलब्ध कराना है।
- यह देश-भर में विधिक कार्यक्रमों और योजनाओं को लागू करने के लिये राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों को निर्देश जारी करता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: (c)
मेन्स:
प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोगअधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)
प्रश्न. निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करने के हकदार कौन है? निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रतिपादन में राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (NALSA) की भूमिका का आकलन कीजिये। (2023)
भारत में ESG पर्यवेक्षण
प्रिलिम्स के लिये: गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (SFIO), राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (NFRA), व्यावसायिक उत्तरदायित्व और स्थिरता रिपोर्ट, कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व
मेन्स के लिये: ESG और सतत् आर्थिक विकास, ग्रीनवाशिंग, भारत के औद्योगिक क्षेत्रों में पर्यावरणीय शासन चुनौतियाँ।
चर्चा में क्यों?
वित्त संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय (MCA) को एक पृथक ESG (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) पर्यवेक्षण निकाय स्थापित करने की सिफारिश की है। यह कदम ग्रीनवाशिंग को लेकर बढ़ती चिंताओं के बीच उठाया गया है।
ESG (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) क्या है?
- परिचय: ESG किसी संगठन के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव का आकलन करने के मानकों को संदर्भित करता है।
- भारत के लिये ESG का महत्त्व:
- जलवायु: भारत बाढ़, हीटवेव और समुद्र-स्तर वृद्धि के प्रति संवेदनशील है (विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (CSE) के अनुसार, वर्ष 2024 में भारत में 366 दिनों में से 322 दिन चरम मौसमी घटनाएँ दर्ज की गईं)।
- मज़बूत पर्यावरणीय प्रथाओं, स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग और उत्सर्जन में कटौती करने वाली कंपनियाँ इन जोखिमों को कम कर सकती हैं।
- सामाजिक: भारत गरीबी, असमानता और बुनियादी आवश्यकताओं की कमी जैसी सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहा है।
- जो कंपनियाँ सामाजिक उत्तरदायित्व को प्राथमिकता देती हैं, वे सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन ला सकती हैं, तथा अधिक समावेशी अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सकती हैं।
- शासन: पारदर्शिता और नैतिक आचरण पर आधारित मज़बूत कॉर्पोरेट गवर्नेंस विश्वास का पुनर्निर्माण करने, निवेश आकर्षित करने और स्थिर, सतत आर्थिक विकास को समर्थन देने में मदद करता है।
- जलवायु: भारत बाढ़, हीटवेव और समुद्र-स्तर वृद्धि के प्रति संवेदनशील है (विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (CSE) के अनुसार, वर्ष 2024 में भारत में 366 दिनों में से 322 दिन चरम मौसमी घटनाएँ दर्ज की गईं)।
- संसदीय स्थायी समिति की सिफारिशें: समिति ने MCA के भीतर एक ESG निरीक्षण निकाय बनाने की सिफारिश की है, जिससे कंपनियों द्वारा किये जाने वाले सतत् विकास के दावों की सत्यता सुनिश्चित की जा सके।
- इस निकाय में धोखाधड़ी का पता लगाने, क्षेत्र-विशिष्ट ESG दिशानिर्देश निर्धारित करने और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) को ESG प्रथाओं को अपनाने में मदद करने के लिये फोरेंसिक विशेषज्ञ होने चाहिये।
- इसमें कंपनी अधिनियम, 2013 में संशोधन का प्रस्ताव है, ताकि ESG को निदेशकों का मुख्य कर्त्तव्य बनाया जा सके, तथा सटीक और सार्थक ESG कार्यों के लिये मज़बूत नियमों के साथ व्यापार रणनीति में स्थिरता को शामिल किया जा सके।
- इसमें ग्रीनवाशिंग को रोकने के लिये मिथ्यापूर्ण ESG दावों के लिये कठोर एवं तीव्र दंड की भी मांग की गई है।
- इसके अतिरिक्त, पैनल ने वित्तीय अपराधों से शीघ्र निपटने के लिए रणनीति विकसित करने तथा गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (SFIO) और राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (NFRA) को मज़बूत करने का आग्रह किया है।
- इसमें कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) निगरानी प्रणाली की पारदर्शिता और प्रभावशीलता में सुधार पर भी ज़ोर दिया गया।
- ESG से संबंधित भारत की पहल: भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) ने शीर्ष 1,000 सूचीबद्ध कंपनियों को बिज़नेस रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग (BRSR) फ्रेमवर्क के माध्यम से अपने ESG प्रदर्शन का खुलासा करना अनिवार्य कर दिया है।
- यह फ्रेमवर्क ग्लोबल रिपोर्टिंग इनिशिएटिव (GRI) और सस्टेनेबिलिटी अकाउंटिंग स्टैंडर्ड्स बोर्ड (SASB) जैसे वैश्विक मानकों के अनुरूप है।
ग्रीनवॉशिंग क्या है?
- परिचय: ग्रीनवॉशिंग उस भ्रामक प्रथा को कहते हैं, जिसमें कंपनियाँ अपने उत्पादों के बारे में झूठे या बढ़ा-चढ़ाकर पर्यावरण संबंधी दावे करती हैं, ताकि यह गलत धारणा बनाई जा सके कि वे पर्यावरण के अनुकूल हैं।
- इस रणनीति का उपयोग उन उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिये किया जाता है जो सतत् और पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों को प्राथमिकता देते हैं।
- इसमें उत्पाद की पुनर्चक्रण-योग्यता, पर्यावरण-अनुकूल सामग्री और स्थिरता संबंधी प्रथाओं को लेकर झूठा विज्ञापन, अस्पष्ट लेबल या भ्रमित करने वाला संदेश शामिल होता है।
- ग्रीनवॉशिंग के प्रचलन में योगदान देने वाले कारक:
- बढ़ता पर्यावरण-उपभोक्तावाद: जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के प्रति बढ़ती जागरूकता, विशेषकर भारतीय युवाओं में, सतत् उत्पादों की मांग में तेज़ी लाई है।
- इस रुझान का लाभ उठाने के लिये, कुछ ब्रांड बिना प्रमाणपत्र या वास्तविक सतत् प्रथाओं के, पर्यावरण-अनुकूल या प्राकृतिक जैसे अस्पष्ट शब्दों का उपयोग करते हैं।
- कमज़ोर नियामक प्रवर्तन: भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) का इको-मार्क प्रमाणन उपभोक्ताओं को पर्यावरण-अनुकूल उत्पाद पहचानने में सहायता करता है, लेकिन इसका उपयोग अनिवार्य नहीं है और कई उत्पाद अब भी इस प्रमाणन से वंचित हैं।
- प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियमों का उद्देश्य प्लास्टिक अपशिष्ट को कम करना है, लेकिन प्लास्टिक कटौती के दावों से संबंधित ग्रीनवाशिंग से पूरी तरह निपटना नहीं है।
- ESG से संबंधित आवश्यकताएँ कई कानूनों और दिशानिर्देशों में बिखरी हुई हैं, लेकिन कोई एकीकृत अनुपालन ढाँचा मौजूद नहीं है।
- झूठे ESG दावों पर सख्त दंड के अभाव से ग्रीनवॉशिंग के खिलाफ रोकथाम कमज़ोर पड़ती है।
- सांस्कृतिक शोषण: भारत में कुछ कंपनियाँ आयुर्वेद या जैविक कृषि जैसी पारंपरिक प्रणालियों का उपयोग अपने उत्पादों को पर्यावरण-अनुकूल के रूप में बाज़ार में पेश करने के लिये करती हैं।
- वे ‘प्राकृतिक’ या ‘आयुर्वेदिक’ जैसे लेबल का इस्तेमाल उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिये करती हैं, भले ही उनके कच्चे माल की प्राप्ति या उत्पादन के तरीके स्थाई न हों और पर्यावरण के लिये हानिकारक हों।
- CSR और विपणन: कंपनियाँ प्राय: वृक्षारोपण जैसी प्रतीकात्मक CSR गतिविधियों को उजागर करती हैं, जबकि वे पर्यावरण के लिये हानिकारक कार्यों को जारी रखती हैं, विशेषकर जीवाश्म ईंधन या भारी विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में।
- बढ़ता पर्यावरण-उपभोक्तावाद: जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के प्रति बढ़ती जागरूकता, विशेषकर भारतीय युवाओं में, सतत् उत्पादों की मांग में तेज़ी लाई है।
- ग्रीनवॉशिंग से संबंधित भारत की पहलें:
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019: केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA) भ्रामक पर्यावरणीय दावों को नियंत्रित करता है।
- ग्रीन रेटिंग प्रोजेक्ट: विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (CSE) के तहत, यह परियोजना उद्योगों को उनके पर्यावरणीय प्रदर्शन के आधार पर रेटिंग देती है।
- भारतीय विज्ञापन मानक परिषद के दिशानिर्देश: ग्रीन दावों वाले विज्ञापन स्पष्ट, सटीक और भ्रामक नहीं होने चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. ग्रीनवाशिंग जितना एक नियामक मुद्दा है, उतना ही एक नैतिक मुद्दा भी है। इस संदर्भ में, कॉर्पोरेट स्थिरता को बढ़ावा देने में पर्यावरण, सामाजिक और शासन की भूमिका पर चर्चा कीजिये। UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित में कौन-सा एक ‘‘ग्रीनवाशिंग’’ शब्द का सर्वोत्तम वर्णन है? (2022) (a) मिथ्या रूप से यह प्रभाव व्यक्त करना कि कंपनी के उत्पाद पारिस्थितिक-अनुकूली (ईको-फ्रेंडली) और पर्यावरणीय रूप से उपयुक्त हैं उत्तर: (a) |
भारत का भूजल संदूषण संकट
प्रिलिम्स के लिये: केंद्रीय भूजल बोर्ड, जल प्रदूषक, विश्व स्वास्थ्य संगठन, अटल भूजल योजना
मेन्स के लिये: जल संसाधन प्रबंधन और भूजल संदूषण, संरक्षण
चर्चा में क्यों?
केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) की वर्ष 2024 की वार्षिक भूजल गुणवत्ता रिपोर्ट में भारत के भूजल में व्यापक संदूषण का खुलासा हुआ है। 600 मिलियन से अधिक भारतीय दैनिक रूप से भूजल पर निर्भर हैं, इसलिये यह प्रदूषण केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बन गया है।
भारत में भूजल संदूषण संकट के क्या कारण हैं?
- औद्योगिक प्रदूषण: उद्योगों से भारी धातुओं (सीसा, कैडमियम, क्रोमियम, पारा) और विषैले रसायनों का अनियमित निर्वहन(Discharge) भूजल को प्रदूषित करता है।
- कानपुर (उत्तर प्रदेश) और वापी (गुजरात) जैसे औद्योगिक क्लस्टरों के पास भूजल में विषाक्तता अत्यंत उच्च स्तर पर है, जिससे ‘मृत्यु क्षेत्र’ बन गए हैं। विषैले जल का निकास गुर्दे की विफलता का कारण बना है।
- उर्वरकों का अधिक उपयोग: नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग नाइट्रेट प्रदूषण को बढ़ावा देता है। फॉस्फेट उर्वरक भूजल में यूरेनियम प्रदूषण का कारण बनते हैं।
- असंगत स्वच्छता और अपशिष्ट प्रबंधन: सेप्टिक टैंकों और सीवेज सिस्टम से रिसाव होने पर रोगजनकों के साथ भूजल प्रदूषित होता है। खराब सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स जलजनित बीमारियों के स्थानीय प्रकोपों को जन्म देते हैं।
- प्राकृतिक (भू-जनित) संदूषण: फ्लोराइड, आर्सेनिक और यूरेनियम कुछ भौगोलिक संरचनाओं में प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं, विशेषकर राजस्थान, बिहार, पंजाब तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में।
- अत्यधिक पम्पिंग से जल स्तर कम हो जाता है और संदूषण एकत्रित हो जाते हैं, जिससे जलभृत भूजनित विषाक्त पदार्थों तथा लवणता के अतिक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
- खंडित और कमज़ोर नियामक ढाँचा: जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 में भूजल की काफी अनदेखी की गई है तथा भूजल प्रदूषण पर इसका प्रवर्तन अपर्याप्त है, जिससे प्रदूषकों को खामियों का फायदा उठाने का मौका मिल जाता है।
- CGWB के पास वैधानिक प्राधिकार का अभाव है एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCB) के पास संसाधन की कमी है तथा वे तकनीकी रूप से सीमित हैं।
- CGWB, CPCB, SPCB और जल शक्ति मंत्रालय जैसी एजेंसियाँ अलग-अलग कार्य करती हैं, जिससे प्रयासों में दोहराव होता है तथा समन्वय की कमी के कारण एकीकृत कार्रवाई नहीं हो पाती।
- कमज़ोर निगरानी और जन-जागरूकता: डेटा संग्रहण कम होता है और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं होता, जिससे प्रदूषण का पता लगाने तथा प्रतिक्रिया में देरी होती है। स्थानीय समुदायों और पंचायतों की भूजल गुणवत्ता की निगरानी एवं प्रबंधन में भागीदारी भी कमज़ोर है।
भारत के भूजल प्रबंधन में शामिल प्रमुख निकाय
- केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (CGWA): यद्यपि जल राज्य का विषय है, भूजल विनियमन केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर होता है।
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत वर्ष 1997 में स्थापित CGWA संपूर्ण भारत में भूजल का नियमन और नियंत्रण करता है।
- केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB): जल शक्ति मंत्रालय के अंतर्गत एक बहु-विषयक वैज्ञानिक निकाय। यह भूजल संसाधनों की खोज और निगरानी करता है।
- केंद्रीय जल आयोग (CWC): जल संसाधन के लिये भारत का प्रमुख तकनीकी निकाय, जल शक्ति मंत्रालय के अधीन कार्यरत। मुख्यालय नई दिल्ली में।
- यह बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, नौवहन, पेयजल और जल विद्युत परियोजनाओं पर राज्य सरकारों के साथ समन्वय करता है।
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB): जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 को लागू करता है।
- यह जल की गुणवत्ता को बनाए रखता है, प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण एवं वायु गुणवत्ता में सुधार के संबंध में केंद्र सरकार को सलाह देता है।
दूषित भूजल के प्रभाव क्या हैं?
- स्वास्थ्य:
- फ्लोराइड संदूषण: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की 1.5 मिलीग्राम/लीटर की सीमा से ऊपर, जिससे स्केलेटल फ्लोरोसिस, जोड़ों में दर्द, अस्थियों में विकृति तथा विकास अवरुद्ध हो सकता है।
- विशेषकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में इससे लगभग 66 मिलियन लोग प्रभावित हैं।
- आर्सेनिक विषाक्तता: बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका स्तर 200 µg/L तक पहुँच गया है, जो हज़ारों कैंसर मामलों से संबंधित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 10 µg/L की सीमा से ऊपर, आर्सेनिक विषाक्तता से त्वचा पर घाव, श्वसन संबंधी समस्याएँ और कैंसर हो सकता है।
- नाइट्रेट संदूषण: विश्व स्वास्थ्य संगठन की सुरक्षित सीमा 45 मि.ग्रा./ली. से ऊपर होने पर, यह शिशुओं में “ब्लू बेबी सिंड्रोम” (मेथेमोग्लोबिनेमिया) का कारण बनता है, जिसकी वजह से पंजाब, हरियाणा और कर्नाटक में अस्पतालों में भर्ती होने वाले शिशुओं की संख्या बढ़ रही है।
- यूरेनियम संदूषण: विश्व स्वास्थ्य संगठन की 30 µg/L की सीमा से ऊपर, जिससे दीर्घकालिक अंग क्षति और किडनी की विषाक्तता हो सकती है।
- भारी धातुएँ (सीसा, कैडमियम, क्रोमियम, पारा): कानपुर और वापी जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में इसका उच्च स्तर विकासात्मक विलंबता, एनीमिया, तंत्रिका संबंधी और प्रतिरक्षा क्षति का कारण बनता है।
- रोगजनक संदूषण: सीवेज़ रिसाव से बैक्टीरिया और वायरस फैलते हैं, जिससे हैजा, दस्त, हेपेटाइटिस A और E के प्रकोप होते हैं।
- पंजाब के मालवा क्षेत्र में 66% नमूने सुरक्षित स्तर से अधिक हैं।
- फ्लोराइड संदूषण: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की 1.5 मिलीग्राम/लीटर की सीमा से ऊपर, जिससे स्केलेटल फ्लोरोसिस, जोड़ों में दर्द, अस्थियों में विकृति तथा विकास अवरुद्ध हो सकता है।
- कृषि: दूषित भूजल भारी धातुओं और विषाक्त पदार्थों जैसे हानिकारक पदार्थों को खाद्य शृंखला में शामिल करके फसल की पैदावार को कम कर देता है।
- तटीय क्षेत्रों में भूजल के अत्यधिक दोहन से लवणता में वृद्धि होती है, जिससे कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय कमी आती है।
- पारिस्थितिकी तंत्र स्थिरता: प्रदूषित भूजल जल स्रोतों को दूषित करके, आवासों को बाधित करके और जैवविविधता को प्रभावित करके स्थानीय वन्यजीवों को नुकसान पहुँचाता है, जिसके परिणामस्वरूप स्वच्छ जल पर निर्भर प्रजातियों में कमी आती है।
भूजल प्रदूषण संकट से निपटने के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?
- राष्ट्रीय भूजल प्रदूषण नियंत्रण ढाँचा (NGPCF): NGPCF की स्थापना कर स्पष्ट भूमिकाएँ परिभाषित की जाएँ तथा केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) को नियामकीय अधिकार प्रदान किये जाएँ।
- आधुनिक निगरानी प्रणाली: भूजल की निगरानी को रीयल-टाइम सेंसर, रिमोट सेंसिंग, राष्ट्रीय जलाभृत मानचित्रण एवं प्रबंधन कार्यक्रम तथा ओपन डाटा प्लेटफॉर्म के माध्यम से उन्नत किया जाए। इसे हेल्थ मैनेजमेंट इन्फ़ॉर्मेशन सिस्टम जैसे स्वास्थ्य निगरानी तंत्र से एकीकृत कर प्रारंभिक पहचान सुनिश्चित की जाए।
- लक्षित उपचार: जल जीवन मिशन (JJM) के अंतर्गत सामुदायिक जल शुद्धिकरण संयंत्र (CWPP) (आर्सेनिक एवं फ्लोराइड निवारण संयंत्र) का विस्तार और स्थापना की जाए तथा सुरक्षित पाइप जलापूर्ति का दायरा बढ़ाया जाए।
- कठोर औद्योगिक एवं अपशिष्ट विनियमन: जीरो लिक्विड डिस्चार्ज (ZLD) को अनिवार्य किया जाए, लैंडफिल का कठोर नियमन हो तथा CGWB को अवैध उत्सर्जन पर दंड लागू करने का अधिकार दिया जाए।
- कृषि-रसायन सुधार: परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) जैसी योजनाओं के माध्यम से जैविक कृषि को प्रोत्साहित किया जाए।
- रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग को नियंत्रित व कम कर नाइट्रेट एवं भारी धातु प्रदूषण से बचाव किया जाए।
- सामुदायिक-केंद्रित भूजल शासन: पंचायतों, जल उपभोक्ता समूहों एवं विद्यालयों जैसी स्थानीय संस्थाओं को भूजल निगरानी और प्रबंधन में सक्रिय भागीदारी के लिये सशक्त किया जाए।
- अटल भूजल योजना (ATAL JAL) जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से समुदाय-आधारित सतत् भूजल प्रबंधन को जागरूकता, क्षमता निर्माण एवं केंद्र-राज्य प्रयासों के अभिसरण के जरिये बढ़ावा दिया जाए, ताकि दीर्घकालिक जल सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में भूजल प्रदूषण के प्रमुख कारणों और स्वास्थ्य परिणामों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:
प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से भारत के कुछ भागों में पीने के जल में प्रदूषक के रूप में पाए जाते हैं? (2013)
- आर्सेनिक
- सारबिटॉल
- फ्लुओराइड
- फार्मेल्डिहाइड
- यूरेनियम
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये।
(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2, 4 और 5
(c) केवल 1, 3 और 5
(d) 1, 2, 3, 4 और 5
उत्तर: C
मेन्स
प्रश्न. जल संरक्षण और जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020)
प्रश्न. भारत में घटते भूजल संसाधनों का आदर्श समाधान जल संचयन प्रणाली है। इसे शहरी क्षेत्रों में कैसे प्रभावी बनाया जा सकता है? (2018)