सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉण्ड पर लगाईं रोक | 19 Feb 2024

यह एडिटोरियल 16/02/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Democracy’s Guardian Angel” लेख पर आधारित है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम के उल्लंघन का हवाला देते हुए चुनावी बॉण्ड योजना को निरस्त कर दिये जाने के बारे में विचार किया गया है। मामले में न्यायालय द्वारा सरकार की दलीलों को खारिज कर दिया गया और इस बात पर बल दिया गया कि संविधान इसके संभावित दुरुपयोग की अनदेखी नहीं कर सकता।

प्रिलिम्स के लिये:

चुनावी बॉण्ड, भारत का सर्वोच्च न्यायालय, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, भारत निर्वाचन आयोग (ECI), वित्त अधिनियम 2017, अनुच्छेद 19, 14 और 21

मेन्स के लिये:

चुनाव प्रक्रिया पर चुनावी बॉण्ड का प्रभाव, चुनावी बॉण्ड योजना की परिकल्पना और कार्यान्वयन से उत्पन्न मुद्दे।

सर्वोच्च न्यायालय (SC) की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने एक सर्वसम्मत निर्णय में चुनावी बॉण्ड मामले में हर पहलू पर हर चुनौती को बरकरार रखा और इस योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसने SBI को चुनावी बॉण्ड जारी करना तुरंत बंद करने और बिक्री किये गए बॉण्ड से संबंधित सभी जानकारी और सभी दाताओं एवं प्राप्तकर्त्ताओं के नाम भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को सौंपने का आदेश दिया।

चुनावी बॉण्ड योजना (Electoral Bond Scheme) क्या है?

  • चुनावी बॉण्ड (Electoral Bonds):
    • चुनावी बॉण्ड वचन पत्र की तरह के धन साधन हैं, जिन्हें भारत में कंपनियों एवं व्यक्तियों द्वारा भारतीय स्टेट बैंक (SBI) से खरीदा जा सकता है और इन्हें किसी राजनीतिक दल को दान दिया जा सकता है, जो फिर इन बॉण्डों को भुना सकता है।
    • कोई व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से ये बॉण्ड खरीद सकता है।
  • चुनावी बॉण्ड योजना:
    • भारत में राजनीतिक फंडिंग को भ्रष्टाचार-मुक्त करने के लिये वर्ष 2018 में चुनावी बॉण्ड योजना शुरू की गई थी।
    • चुनावी बॉण्ड योजना के पीछे का मुख्य विचार भारत में चुनावी वित्तपोषण में पारदर्शिता लाना था।
    • सरकार ने इस योजना को ‘कैशलेस-डिजिटल अर्थव्यवस्था’ की ओर आगे बढ़ रहे देश में एक आवश्यक ‘चुनावी सुधार’ बताया था।
  • केवल नागरिकों के सशक्तीकरण के बारे में नहीं है, अपितु यह आवश्यक रूप से जवाबदेही की संकल्पना को पुनपर्रिभाषित करता है।" विवेचना कीजिये। (2018)

  • वर्ष 2022 में योजना में किये गए संशोधन:

    • 15 दिनों की अतिरिक्त अवधि:
      • इसके तहत एक नया पैरा पेश किया गया, जिसमें कहा गया कि राज्यों की विधानसभा और विधानमंडल वाले केंद्रशासित प्रदेशों के आम चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा पंद्रह दिनों की अतिरिक्त अवधि निर्दिष्ट की जाएगी।
      • वर्ष 2018 में जब चुनावी बॉण्ड योजना शुरू की गई थी तो ये बॉण्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर माह में से प्रत्येक में 10 दिनों की अवधि के लिये उपलब्ध कराए गए थे, जैसा कि केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है।
      • लोकसभा के आम चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि निर्दिष्ट की जानी थी।
    • वैधता (Validity):
      • चुनावी बॉण्ड जारी होने की तिथि से पंद्रह कैलेंडर दिनों के लिये वैध होंगे और यदि वैधता अवधि समाप्त होने के बाद चुनावी बॉण्ड जमा किया जाता है तो किसी भी भुगतान प्राप्तकर्त्ता राजनीतिक दल को कोई भुगतान नहीं किया जाएगा।
      • किसी अर्हित राजनीतिक दल द्वारा उसके खाते में जमा किया गया चुनावी बॉण्ड उसी दिन भुना दिया जाएगा।
    • पात्रता (Eligibility):
      • केवल वे राजनीतिक दल जो जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (RPA, 1951) की धारा 29A के तहत पंजीकृत हैं और जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में या राज्य विधानसभा के चुनाव में कम से कम 1% मत हासिल किये थे, चुनावी बॉण्ड प्राप्त करने के पात्र होंगे।

सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉण्ड योजना को क्यों निरस्त कर दिया?

  • सूचना के अधिकार का उल्लंघन:
    • न्यायालय ने माना कि यह योजना गुमनाम या गुप्त राजनीतिक दान की अनुमति देकर संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत सूचना के मूल अधिकार का उल्लंघन करती है।
      • न्यायालय ने कहा कि ऐसा अधिकार केवल वाक् एवं अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की पूर्ति करने तक ही सीमित है, बल्कि सरकार को जवाबदेह बनाकर सहभागी लोकतंत्र को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस प्रकार, यह केवल साध्य का साधन नहीं है, बल्कि स्वयं में एक साध्य है।
  • निर्णय में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि धन एवं राजनीति के बीच गहरे संबंध के कारण आर्थिक असमानता राजनीतिक संलग्नता के विभिन्न स्तरों का निर्माण करती है। इसके परिणामस्वरूप, इस बात की वैध संभावना बनती है कि किसी राजनीतिक दल को वित्तीय दान देने से ‘बदले में कुछ प्राप्त करने’ या प्रतिदान व्यवस्था (quid pro quo arrangements) का निर्माण होगा।
  • काले धन पर अंकुश लगाने में आनुपातिक रूप से उचित नहीं:
    • के.एस. पुट्टास्वामी मामले में अपने वर्ष 2017 के निर्णय में निर्दिष्ट आनुपातिकता परीक्षण (proportionality test) पर भरोसा करते हुए—जिसने निजता के अधिकार को बरकरार रखा था, न्यायालय ने रेखांकित किया कि सरकार ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये न्यूनतम प्रतिबंधात्मक तरीका नहीं अपनाया है।
      • ऐसे न्यूनतम प्रतिबंधात्मक तरीकों के उदाहरण के रूप में मुख्य न्यायाधीश ने गुप्त दान पर 20,000 रुपए की सीमा और चुनावी ट्रस्ट (Electoral Trusts) की अवधारणा का हवाला दिया जो दानकर्त्ताओं से राजनीतिक दान प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करता है।
    • न्यायालय याचिकाकर्त्ताओं की इस दलील से भी सहमत हुआ कि चूँकि काले धन पर अंकुश लगाने के उद्देश्य की पुष्टि अनुच्छेद 19(2) के तहत निर्दिष्ट किसी भी युक्तियुक्त निर्बंध से नहीं की जा सकती, इसलिये इसे सूचना के मूल अधिकार को प्रतिबंधित करने का वैध उद्देश्य नहीं माना जा सकता है।
  • दानकर्त्ता की गोपनीयता का अधिकार उसके द्वारा दिये गए दान तक विस्तारित नहीं है:
    • न्यायालय ने माना कि राजनीतिक दलों को वित्तीय दान आम तौर पर दो कारणों से दिया जाता है- समर्थन की अभिव्यक्ति के रूप में और दूसरा, प्रतिदान के उपाय के रूप में।
      • हालाँकि, इसने इस बात पर बल दिया कि कॉर्पोरेशन एवं कंपनियों द्वारा दिये गए भारी राजनीतिक दान को आबादी के किसी अन्य वर्ग- छात्र, दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी, कलाकार या एक शिक्षक द्वारा किये गए वित्तीय योगदान से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाना चाहिये।
    • इस प्रकार, मुख्य न्यायाधीश ने माना कि राजनीतिक संबद्धता की गोपनीयता का अधिकार उन योगदानों तक विस्तारित नहीं है, जो नीतियों को प्रभावित करने के लिये किये जा सकते हैं। इसका विस्तार केवल राजनीतिक समर्थन के वास्तविक रूप में किये गए योगदान तक ही सीमित है।
  • असीमित कॉर्पोरेट दान स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की भावना का उल्लंघन करता है:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 में किया गया संशोधन, जो कंपनियों द्वारा असीमित राजनीतिक दान की अनुमति देता है, स्पष्ट रूप से मनमाना है।
      • यह प्रावधान भारतीय कंपनियों को विशिष्ट शर्तों के तहत राजनीतिक दलों को वित्तीय दान देने की अनुमति देता है। हालाँकि, वित्त अधिनियम 2017 के माध्यम से कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दान देने की पूर्व-सीमा (पिछले तीन वित्तीय वर्षों के औसत मुनाफे का 7.5%) को हटाने सहित कई महत्त्वपूर्ण बदलाव पेश किये गए।
      • इसके अतिरिक्त, कंपनियों के लिये उन राजनीतिक दलों के नामों का खुलासा अपने लाभ एवं हानि खातों (Profit and Loss accounts) में करने की आवश्यकता भी समाप्त कर दी गई जिन्हें उन्होंने दान दिया है।
    • मुख्य न्यायाधीश ने इस बात पर प्रकाश डाला कि धारा 182 व्यक्तियों द्वारा दिये गए राजनीतिक दान को कंपनियों द्वारा दिये गए दान के समान मानने में गलती करती है क्योंकि कंपनियाँ प्रायः प्रतिदान के इरादे से ये दान करते हैं।
  • RPA 1951 की धारा 29C में किये गए संशोधन को रद्द किया गया:
    • आरंभ में, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29C में राजनीतिक दलों को 20,000 रुपए से अधिक के सभी दानों की घोषणा करने और यह निर्दिष्ट करने की आवश्यकता थी कि वे कहाँ से प्राप्त हुए (व्यक्तिगत व्यक्तियों की ओर से या कंपनियों की ओर से)।
      • लेकिन वित्त अधिनियम 2017 ने एक अपवाद के निर्माण के लिये इस प्रावधान में संशोधन कर दिया, जिसमें ऐसी आवश्यकता चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त दान पर लागू नहीं होगी।
    • इस संशोधन को रद्द करते हुए न्यायालय ने कहा कि 20,000 रुपए से अधिक के दान का खुलासा करने की मूल आवश्यकता ने मतदाताओं के सूचना के अधिकार को दानकर्त्ताओं के गोपनीयता के अधिकार के साथ प्रभावी ढंग से संतुलित किया है, विशेष रूप से जबकि इस सीमा से नीचे के दान राजनीतिक निर्णयों को प्रभावित करने की बहुत कम संभावना रखते हैं।
  • SC द्वारा की गई अन्य टिप्पणियाँ:
    • SBI को आदेश दिया गया है कि वह आगे चुनावी बॉण्ड को जारी करने पर तुरंत रोक लगाए और 12 अप्रैल 2019 से राजनीतिक दलों द्वारा खरीदे गए ऐसे सभी बॉण्डों का विवरण 6 मार्च 2024 तक ECI को प्रस्तुत करे।
      • इस तरह के विवरण में प्रत्येक बॉण्ड की खरीद की तिथि, बॉण्ड के खरीदार का नाम और खरीदे गए बॉण्ड का मूल्य शामिल होना चाहिये।
      • ECI भारतीय स्टेट बैंक द्वारा साझा की गई ऐसी सभी सूचनाओं को 13 मार्च 2024 तक अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करे।
    • वे चुनावी बॉण्ड जो अभी पंद्रह दिनों की वैधता अवधि के भीतर हैं, लेकिन अभी तक राजनीतिक दल द्वारा भुनाए नहीं गए हैं, उन्हें वापस करना होगा, जिसके बाद जारीकर्त्ता बैंक खरीदार के खाते में राशि वापस कर देगा।

चुनावी बॉण्ड के संबंध में कौन-सी चिंताएँ व्यक्त की गईं?

  • इसे लाए जाने के मूल विचार के विरुद्ध:
    • चुनावी बॉण्ड योजना की मुख्य आलोचना यह है कि यह जो करने का उद्देश्य रखती है—यानी चुनावी वित्तपोषण में पारदर्शिता लाना, उसके ठीक विपरीत काम करती है।
    • उदाहरण के लिये, आलोचकों का तर्क है कि चुनावी बॉण्ड की गुमनामी या अनामिकता केवल व्यापक जनता और विपक्षी दलों के लिये है।
  • जबरन वसूली की संभावना:
    • चूँकि ऐसे बॉण्ड सरकारी स्वामित्व वाले बैंक (SBI) के माध्यम से बेचे जाते हैं, सरकार के लिये यह जानने का अवसर बनता है कि उसके विरोधियों का वित्तपोषण कौन कर रहा है।
    • यह, बदले में, ऐसी संभावना उत्पन्न करता है कि तत्कालीन सरकार धन की जबरन वसूली करे (विशेष रूप से बड़ी कंपनियों से) या सत्तारूढ़ दल को धन न देने के लिये उन्हें पीड़ित करे, जहाँ इन दोनों ही रूपों में सत्तारूढ़ दल को अनुचित लाभ प्राप्त होता है।
  • लोकतंत्र पर आघात:
    • वित्त अधिनियम 2017 में संशोधन के माध्यम से केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त दान का खुलासा करने से छूट दे दी है।
    • इसका अर्थ यह है कि मतदाताओं को यह पता नहीं होगा कि किस व्यक्ति, कंपनी या संगठन ने किस दल को और कितनी मात्रा में धन दिया है। एक प्रतिनिधि लोकतंत्र में नागरिक उन लोगों के लिये मतदान करते हैं जो संसद में उनका प्रतिनिधित्व करेंगे।
  • जानने के अधिकार (Right to Know) से समझौता:
    • भारतीय सर्वोच्च न्यायालय लंबे समय से यह मानता रहा है कि ‘जानने का अधिकार’, विशेष रूप से चुनावों के संदर्भ में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का एक अभिन्न अंग है।
  • स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध:
    • चुनावी बॉण्ड नागरिकों को कोई विवरण प्रदान नहीं करते हैं। हालाँकि, उक्त गुमनामी तत्कालीन सरकार पर लागू नहीं होती है, जो SBI से डेटा की मांग कर दानकर्त्ता विवरण तक पहुँच सकती है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि सत्तारूढ़ सरकार इस जानकारी का लाभ उठा सकती है और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों को बाधित कर सकती है।
  • ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ (Crony Capitalism):
    • चुनावी बॉण्ड योजना राजनीतिक दान पर सभी पूर्व-मौजूदा सीमाओं को हटा देती है और प्रभावी रूप से संसाधन-संपन्न निगमों को चुनावों को वित्तपोषित करने की अनुमति देती है, जिससे आगे ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ का मार्ग प्रशस्त होता है।
    • क्रोनी कैपिटलिज्म: ऐसी आर्थिक प्रणाली जो कारोबारियों और सरकारी अधिकारियों के बीच घनिष्ठ एवं पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंधों से चिह्नित होती है।
  • एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) रिपोर्ट 2023 में जताई गई चिंताएँ:
    • दान और धन स्रोतों के विषम अनुपात का विश्लेषण:
      • चुनावी बॉण्ड के माध्यम से सबसे अधिक दान (कुल 3,438.8237 करोड़ रुपए) वर्ष 2019-20 में प्राप्त हुआ जो आम चुनाव का वर्ष था।
      • वर्ष 2021-22 (जिसमें 11 विधानसभा चुनाव संपन्न हुए) में चुनावी बॉण्ड के माध्यम से 2,664.2725 करोड़ रुपए का दान प्राप्त हुआ।
      • विश्लेषण में शामिल 31 राजनीतिक दलों को प्राप्त कुल 16,437.635 करोड़ रुपए के दान में से 55.90% चुनावी बॉण्ड से, 28.07% कॉर्पोरेट क्षेत्र से और 16.03% अन्य स्रोतों से प्राप्त हुआ।
    • राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल:
      • वित्त वर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच राष्ट्रीय दलों को चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त दान में 743% की वृद्धि हुई।
      • इसके विपरीत, इसी अवधि के दौरान राष्ट्रीय दलों को प्राप्त कॉर्पोरेट दान में केवल 48% की वृद्धि हुई।
      • क्षेत्रीय दलों को भी चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त दान का बड़ा हिस्सा मिला।
    • चुनावी बॉण्ड का सत्ता-पक्षपाती दान:
      • राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में सत्तारूढ़ दल को सबसे अधिक दान प्राप्त हुआ। सत्तारूढ़ दल को प्राप्त कुल दान का 52% से अधिक भाग चुनावी बॉण्ड से प्राप्त हुआ, जिसकी राशि 5,271.9751 करोड़ रुपए थी।
      • प्रमुख विपक्षी दल 952.2955 करोड़ रुपए के साथ चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त दान के मामले में दूसरे स्थान पर रहा (उसे प्राप्त कुल दान का 61.54%), जबकि देश की तीसरे सबसे बड़े दल को चुनावी बॉण्ड के माध्यम से 767.8876 करोड़ रुपए (उसे प्राप्त कुल दान का 93.27%) प्राप्त हुए।

भारत में चुनावी वित्तपोषण के संबंध में कुछ प्रमुख सुझाव

  • दान का विनियमन:
    • कुछ व्यक्तियों या संगठनों, उदाहरण के लिये विदेशी नागरिकों या कंपनियों के दान पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। दान की सीमाएँ भी निर्धारित की जा सकती हैं, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना हो कि किसी दल पर कुछ बड़े दानकर्त्ताओं—चाहे वे व्यक्ति हों, निगम हों या नागरिक समाज संगठन हों, का अतिशय प्रभाव न हो।
    • कुछ देश राजनीति में धन के प्रभाव को विनियमित करने के लिये योगदान सीमा पर भरोसा करते हैं। अमेरिकी संघीय कानून विभिन्न प्रकार के दानदाताओं पर अलग-अलग योगदान सीमाएँ आरोपित करता है। कुछ अन्य देश, जैसे कि यूके, योगदान सीमा तो आरोपित नहीं करते, लेकिन व्यय पर एक सीमा रखते हैं।
  • व्यय की सीमा:
    • व्यय पर आरोपित सीमाएँ राजनीति को वित्तीय होड़ से बचाती हैं। वे मतों के लिये प्रतिस्पर्द्धा शुरू करने से पहले ही धन के लिये प्रतिस्पर्द्धा करने के दबाव से राजनीतिक दलों को मुक्त कर देती हैं।
    • इसलिये, कुछ देश राजनीतिक दलों पर व्यय सीमा आरोपित करते हैं। उदाहरण के लिये, यूके में राजनीतिक दलों को प्रति सीट 30,000 यूरो (लगभग 30 लाख रुपए) से अधिक खर्च करने की अनुमति नहीं है।
    • संयुक्त राज्य अमेरिका में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रथम संशोधन (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) की व्यापक व्याख्या से व्यय सीमा आरोपित करने के विधायी प्रयासों को बाधा पहुँची है।
  • राजनीतिक दलों को सार्वजनिक धन उपलब्ध कराना:
    • सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली विधि है पूर्व निर्धारित मानदंड निर्धारित करना। उदाहरण के लिये, जर्मनी में राजनीतिक दलों को राजनीतिक व्यवस्था में उनके महत्त्व के आधार पर सार्वजनिक धन प्रदान किया जाता है।
    • आम तौर पर इसे पिछले चुनावों में उन्हें प्राप्त मतों, सदस्यता शुल्क और निजी स्रोतों से प्राप्त दान के आधार पर मापा जाता है। जर्मन ‘पॉलिटिकल पार्टी फ़ाउंडेशन’ को दल-संबद्ध पॉलिसी थिंक टैंक के रूप में अपने कार्य के लिये समर्पित विशेष राज्य निधि प्राप्त होती है।
    • सार्वजनिक वित्तपोषण में एक अपेक्षाकृत नवीन प्रयोग ‘डेमोक्रेसी वाउचर्स’ (democracy vouchers) का है, जिसका उपयोग सिएटल (अमेरिका) में स्थानीय चुनावों में किया जाता है। सरकार पात्र मतदाताओं को एक निश्चित संख्या में वाउचर्स वितरित करती है, जिनमें से प्रत्येक एक निश्चित राशि का मूल्य रखता है।
    • मतदाता इन वाउचर्स का उपयोग अपनी पसंद के उम्मीदवार को दान देने के लिये कर सकते हैं। ये वाउचर्स सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित हैं, लेकिन धन आवंटित करने का निर्णय व्यक्तिगत मतदाता का होता है। सरल शब्दों में कहें तो मतदाता बैलेट के रूप में वोट देने से पहले अपने धन के रूप में ‘वोट’ देते हैं।
  • प्रकटीकरण आवश्यकताएँ:
    • विनियमन उपाय के रूप में प्रकटीकरण (Disclosure) इस धारणा पर आधारित है कि सूचना आपूर्ति एवं सार्वजनिक संवीक्षा राजनेताओं के निर्णयों और मतदाताओं के मतों को प्रभावित कर सकती है। हालाँकि, दलों को दिये गए दान का अनिवार्य प्रकटीकरण हमेशा वांछनीय नहीं होता है।
    • कई बार दानकर्त्ता गुमनामी उनकी सुरक्षा के उपयोगी उद्देश्य को पूरा करती है। उदाहरण के लिये, दानकर्त्ताओं को सत्तारूढ़ दलों द्वारा प्रतिशोध या जबरन वसूली के भय का सामना करना पड़ सकता है। प्रतिशोध का यह खतरा दानकर्त्ताओं को अपनी पसंद के दलों को धन दान करने से हतोत्साहित कर सकता है।
    • कई देशों को पारदर्शिता और गुमनामी की इन दो वैध चिंताओं के बीच उचित संतुलन बनाने में संघर्ष का सामना करना पड़ा है। इस मुद्दे को भी भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में संबोधित किया है।
  • चिली का प्रयोग:
    • ‘आरक्षित योगदान’ (reserved contributions) की चिली की प्रणाली के तहत, दानकर्त्ता राजनीतिक दलों को दान हेतु इच्छित धनराशि को ‘चिली इलेक्टोरल सर्विस’ को हस्तांतरित कर सकते हैं जो दाता की पहचान का खुलासा किये बिना दल को वह राशि अग्रेषित कर देता है।
    • यदि यह पूरी गुमनामी प्रणाली सुचारू रूप से कार्य करे तो राजनीतिक दल किसी विशिष्ट दाता द्वारा दान की गई राशि का पता लगाने में सक्षम नहीं होंगे और फिर प्रतिदान व्यवस्था का निर्माण करना अत्यंत कठिन होगा।
    • हालाँकि, यह दानकर्त्ताओं (जो सरकारी संरक्षण चाहते हैं) और राजनीतिक दलों (जिन्हें धन की आवश्यकता है) के हित में होगा कि वे उन दानकर्त्ताओं द्वारा दान की गई राशि का पता लगाने के लिये अनौपचारिक रूप से पहले से ही समन्वय करें। वस्तुतः जैसा कि वर्ष 2014-15 में हुए विभिन्न घोटालों से खुलासा हुआ, चिली के राजनेताओं और दानकर्त्ताओं ने पूर्ण गुमनामी की व्यवस्था को प्रभावी ढंग से अप्रभावी करने के लिये एक-दूसरे के साथ समन्वय किया था।
  • पारदर्शिता और गुमनामी को संतुलित करना:
    • सबसे प्रमुख प्रतिक्रियाओं में से एक यह होगा कि पारदर्शिता और गुमनामी में वैध सार्वजनिक हितों को संतुलित किया जाए। कई देश छोटे दानकर्त्ताओं को गुमनाम बने रहने की अनुमति देकर इस संतुलन को कायम रखते हैं, जबकि बड़े दान के खुलासे की आवश्यकता होती है।
    • यूके में, किसी राजनीतिक दल को एक कैलेंडर वर्ष में एक ही स्रोत से प्राप्त कुल 7,500 पाउंड से अधिक के दान की रिपोर्ट करने की आवश्यकता होती है। जर्मनी में यह सीमा 10,000 यूरो है।
    • इस दृष्टिकोण के पक्ष में तर्क यह है कि छोटे दानकर्त्ताओं की सरकार में सबसे कम प्रभावशाली होने और पक्षपातपूर्ण उत्पीड़न के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होने की संभावना होती है, जबकि बड़े दानकर्त्ताओं द्वारा राजनीतिक दलों के साथ प्रतिदान व्यवस्था का निर्माण करने की अधिक संभावना होती है।
  • राष्ट्रीय निर्वाचन कोष की स्थापना करना:
    • एक अन्य विकल्प यह है कि एक राष्ट्रीय निर्वाचन कोष (National Election Fund) की स्थापना की जाए जिसमें सभी दानकर्त्ता दान दे सकें। राजनीतिक दलों को उनके चुनावी प्रदर्शन के आधार पर धन आवंटित किया जा सकता है। इससे दानकर्त्ताओं से प्रतिशोध के बारे में तथाकथित चिंता समाप्त हो जाएगी।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान एक नए मुद्दे को भी चिह्नित किया जो था आतंक या हिंसक विरोध प्रदर्शन जैसी गतिविधियों के लिये राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त धन के दुरुपयोग की संभावना और उसने केंद्र से पूछा कि क्या धन के अंतिम उपयोग पर उसका कोई नियंत्रण है।

राजनीतिक दलों के वित्तपोषण पर प्रमुख अनुशंसाएँ

  • चुनाव के राज्य वित्तपोषण पर इंद्रजीत गुप्ता समिति, 1998:
    • कम वित्तीय संसाधनों वाले दलों के लिये निष्पक्ष अवसर के निर्माण के लिये राज्य द्वारा चुनावों के वित्तपोषण का समर्थन किया गया।
    • अनुशंसित सीमाएँ:
      • राज्य वित्त केवल राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय दलों को आवंटित किया जाएगा, स्वतंत्र उम्मीदवारों को नहीं।
      • आरंभ में राज्य वित्तपोषण को साधन के रूप में प्रदान किया जाए जहाँ मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को कुछ सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं।
      • समिति ने आर्थिक बाधाओं को स्वीकार किया और पूर्ण राज्य वित्तपोषण के बजाय आंशिक वित्तपोषण की वकालत की।
  • निर्वाचन आयोग की अनुशंसाएँ:
    • निर्वाचन आयोग की वर्ष 2004 की रिपोर्ट में राजनीतिक दलों के लिये अपने खातों को वार्षिक रूप से प्रकाशित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया ताकि आम जनता और संबंधित संस्थाओं द्वारा इसकी संवीक्षा की अनुमति मिल सके।
      • नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा अनुमोदित फर्मों द्वारा ऑडिट किये जाने के साथ, परिशुद्धता सुनिश्चित करते हुए ऑडिट किये गए खातों को सार्वजनिक किया जाना चाहिये।
  • विधि आयोग, 1999:
    • इसने चुनावों के लिये कुल राज्य वित्तपोषण को इस शर्त के तहत ‘वांछनीय’ बताया कि राजनीतिक दलों को अन्य स्रोतों से धन प्राप्त करने से प्रतिबंधित किया जाए।
    • विधि आयोग की वर्ष 1999 की रिपोर्ट में राजनीतिक दल के खातों के रखरखाव, ऑडिट एवं प्रकाशन के लिये और ग़ैर-अनुपालन के लिये दंड के साथ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन करने का प्रस्ताव किया गया (धारा 78A का प्रवेश कराते हुए)।

निष्कर्ष

15 फ़रवरी 2024 भारत के लोकतंत्र में एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉण्ड योजना को निरस्त करते हुए एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। न्यायालय ने लोकतंत्र को संविधान की मूल संरचना के रूप में बरकरार रखते हुए, इसके समक्ष प्रस्तुत हर चुनौती को संबोधित करते हुए, सर्वसम्मत निर्णय में इस योजना को असंवैधानिक बताया। इस निर्णय के अनुसार सरकार को चुनावी बॉण्ड जारी करना तुरंत बंद करना होगा और भारत के निर्वाचन आयोग के समक्ष सभी प्रासंगिक सूचना का प्रकटीकरण करना होगा। न्यायालय के निर्णय में इस योजना में सूचना के अधिकार के उल्लंघन को उजागर किया गया और सरकार के तर्कों को खारिज कर दिया गया, जहाँ न्यायालय ने बलपूर्वक कहा कि संविधान संभावित दुरुपयोग की अनदेखी नहीं कर सकता है।

अभ्यास प्रश्न: चुनावी बॉण्ड योजना को निरस्त करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के महत्त्व और भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता के लिये इसके निहितार्थ के संबंध में चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत ‘निजता का अधिकार’ संरक्षित है?

(a) अनुच्छेद-15
(b) अनुच्छेद-19
(c) अनुच्छेद-21
(d) अनुच्छेद-29

उत्तर: (c)

मेन्स:

प्रश्न. "सूचना का अधिकार अधिनियम केवल नागरिकों के सशक्तीकरण के बारे में नहीं है, अपितु यह आवश्यक रूप से जवाबदेही की संकल्पना को पुनपर्रिभाषित करता है।" विवेचना कीजिये। (2018)