भारत में एक साथ चुनाव
प्रिलिम्स के लिये: केंद्रीय मंत्रिमंडल, एक साथ चुनाव, लोकसभा, राज्य विधानसभाएँ, एक राष्ट्र, एक चुनाव, नगर पालिकाएँ, पंचायतें, भारत निर्वाचन आयोग, राज्य निर्वाचन आयोग, ईवीएम, VVPATs, विधि आयोग, आदर्श आचार संहिता
मेन्स के लिये: एक साथ चुनावों की आवश्यकता और संबंधित चिंताएँ।
चर्चा में क्यों?
16वें वित्त आयोग के अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने कहा कि बार-बार चुनाव होने से सुधारों में बाधा आती है साथ ही उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एक साथ चुनाव कराने से शासन और नीति कार्यान्वयन में सुधार होता है।
एक साथ चुनाव का तात्पर्य क्या हैं?
- विषय: एक साथ चुनाव (एक राष्ट्र, एक चुनाव) का तात्पर्य लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक ही समय पर करने से है। इसका मतलब यह नहीं है कि पूरे देश में एक ही दिन मतदान होगा, चुनाव कई चरणों में भी हो सकते हैं।
- पहले चार चुनाव के दौरान (1952-1967), लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे, लेकिन बाद में संसद और विधानसभाओं के बार-बार समय से पहले भंग होने से यह चक्र बाधित हो गया, जिसके परिणामस्वरूप चुनावों में देरी हुई।
- "एक राष्ट्र, एक चुनाव" को प्रभावी बनाने के लिये एक साथ चुनाव संबंधी उच्च-स्तरीय समिति, 2023 की सिफारिशों के बाद संविधान (129वाँ संशोधन) विधेयक, 2024 और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक, 2024 पेश किये गए।
- दोनों विधेयकों को विस्तृत जाँच के लिये संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया है।
- विधेयक के मुख्य प्रावधान:
- संविधान (129वाँ) संशोधन विधेयक, 2024: यह विधेयक अनुच्छेद 82A को शामिल करता है, जिससे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को एकसमान किया जा सके। यह चुनाव आयोग (ECI) को एक साथ चुनाव कराने का अधिकार तथा चुनाव कार्यक्रम घोषित करते समय प्रत्येक राज्य विधानसभा के कार्यकाल की समाप्ति तिथि तय करने की शक्ति प्रदान करता है।
- विधेयक में अनुच्छेद 83 में संशोधन का प्रस्ताव है, जिसके अनुसार यदि लोकसभा अपना पूरा कार्यकाल पूरा करने से पहले भंग हो जाती है, तो अगली लोकसभा केवल शेष बचे कार्यकाल के लिये ही चलेगी।
- इसी प्रकार के संशोधन अनुच्छेद 172 में भी प्रस्तावित हैं, जो राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल की अवधि से संबंधित है।
- केंद्रशासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक, 2024: यह विधेयक केंद्रशासित प्रदेश शासन अधिनियम, 1963, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली शासन अधिनियम, 1991 तथा जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 में संशोधन का प्रस्ताव करता है, ताकि केंद्रशासित प्रदेशों की विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा के कार्यकाल के अनुरूप किया जा सके।
- प्रस्तावित विधेयक में स्थानीय निकायों (नगरपालिकाओं और पंचायतों) को शामिल नहीं किया गया है।
- संविधान (129वाँ) संशोधन विधेयक, 2024: यह विधेयक अनुच्छेद 82A को शामिल करता है, जिससे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को एकसमान किया जा सके। यह चुनाव आयोग (ECI) को एक साथ चुनाव कराने का अधिकार तथा चुनाव कार्यक्रम घोषित करते समय प्रत्येक राज्य विधानसभा के कार्यकाल की समाप्ति तिथि तय करने की शक्ति प्रदान करता है।
एक साथ चुनाव पर उच्च-स्तरीय समिति, 2023
- पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने दो चरणों में एक साथ चुनाव कराने का चक्र बहाल करने का प्रस्ताव रखा, पहले लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराया जाए और उसके बाद 100 दिनों के भीतर नगरपालिका और पंचायत चुनावों को एक साथ कराया जाए।
- इसने सिफारिश की कि चुनावों को एक साथ कराने के लिये, राष्ट्रपति लोकसभा की पहली बैठक को "नियत तिथि" घोषित करेंगे। इस तिथि के बाद निर्वाचित राज्य विधानसभाएँ अगले संसदीय चुनावों तक ही कार्य करेंगी, जिससे भविष्य में एक साथ चुनाव सुनिश्चित होंगे।
- त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव जैसे मामलों में, शेष कार्यकाल के लिये नए सिरे से चुनाव कराए जाएँगे।
- इसने एक साथ चुनावों के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करने के लिये चुनाव आयोग और राज्य चुनाव निकायों द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई एकल मतदाता सूची और फोटो पहचान पत्र प्रणाली का भी आह्वान किया।
भारत में बार-बार होने वाले चुनाव शासन को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
- नीतिगत दबाब: केंद्र सरकार सुधारों में देरी कर सकती है क्योंकि उसे आने वाले राज्य चुनावों में राजनीतिक नुकसान का डर होता है।
- परियोजना कार्यान्वयन में बाधा: भारत निर्वाचन आयोग (ECI) की आदर्श आचार संहिता (MCC) चुनावी अवधि में खरीद, परियोजनाओं के क्रियान्वयन और नीतिगत फैसलों पर रोक लगा देती है।
- अल्पकालिक राजकोषीय फोकस: सरकारें दीर्घकालिक वित्तीय योजना बनाने के बजाय चुनाव जीतने के लिये लोकलुभावन खर्च और सब्सिडी पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
- पाँच वर्षों के दोरान चुनावी चक्र राजकोषीय दबाव को कई गुना बढ़ा देते हैं, जिससे संसाधनों का असमान आवंटन होता है।
- पहचान की राजनीति और सामाजिक विखंडन: बार-बार होने वाले चुनाव जाति, वर्ग या धर्म आधारित पहचान की राजनीति को गति प्रदान करते हैं, जिससे सामाजिक विभाजन गहरा तथा दीर्घकालिक राष्ट्रीय एकता कमज़ोर होती है।
- प्रशासनिक बाधाएँ: वित्त आयोग जैसी परामर्शी और प्रशासनिक गतिविधियाँ चुनावों के दौरान बाधित या विलंबित हो सकती हैं।
- लोकतांत्रिक भागीदारी में कमी: लगातार चुनाव होने से मतदाताओं में थकान (voter fatigue) उत्पन्न होती है, जिससे उनका उत्साह घटता है और मतदान प्रतिशत में कमी आती है। इसका परिणाम यह होता है कि लोकतांत्रिक भागीदारी की गुणवत्ता और समावेशिता प्रभावित होती है।
भारत में एक साथ चुनाव की क्या आवश्यकता है?
- शासन में स्थिरता को बढ़ावा देता है: चुनाव प्रचार से हटकर विकासात्मक गतिविधियों और नीति कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित होता है। एक साथ चुनाव, कई चुनाव चक्रों से जुड़े व्यय को कम कर देते हैं, जिससे संसाधन आर्थिक विकास के लिये निशुल्क हो जाते हैं।
- नीति पक्षाघात को रोकता है: आदर्श आचार संहिता (MCC) के लंबे समय तक पालन को कम करता है और सरकारों को नीतियों के सुचारू कार्यान्वयन तथा शासन में बेहतर निरंतरता सुनिश्चित करने की अनुमति देता है।
- पार्टियों को निरंतर चुनावों के बजाय जनकल्याण के कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलता है।
- संसाधनों के विचलन को कम करना: मतदान अधिकारियों और सिविल सेवकों की बार-बार तैनाती को सीमित करना तथा उन्हें मुख्य कर्त्तव्यों के लिये मुक्त करना।
- राजनीतिक अवसरों में वृद्धि: एक साथ चुनाव कराने से सभी स्तरों पर अधिक उम्मीदवारों की आवश्यकता होती है, जिससे नए नेताओं को उभरने का अवसर मिलता है और कुछ बड़े नामों का प्रभुत्व कम होता है, साथ ही पार्टियों के भीतर समावेशिता एवं व्यापक प्रतिनिधित्व को बढ़ावा मिलता है।
भारत में एक साथ चुनाव कराने पर समिति/आयोग की सिफारिशें
- भारतीय चुनाव आयोग (1983): लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की।
- विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट (1999): दो चरणों में एक साथ चुनाव कराने के तरीके सुझाए गए।
- विधि एवं न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति (2015): लागत बचत और सुचारू शासन का हवाला देते हुए इस विचार का समर्थन किया। राजनीतिक सहमति और क्रमिक कार्यान्वयन की आवश्यकता पर बल दिया।
- विधि आयोग की मसौदा रिपोर्ट (2018): मसौदा रिपोर्ट में कहा गया है कि एक साथ चुनाव कराने के लिये संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता है और दो चरणों में समन्वित चुनाव कराने का प्रस्ताव दिया गया है।
एक साथ चुनाव से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?
- लॉजिस्टिक भार: एक साथ 96 करोड़ से अधिक मतदाताओं के लिये चुनाव कराना मतलब 1 मिलियन से अधिक मतदान केंद्रों का प्रबंधन करना, विशाल सुरक्षा बलों की व्यवस्था करना और अभूतपूर्व स्तर पर कार्मिकों की तैनाती करना होगा।
- मतदाता सूची को अद्यतन करना, कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना, सुरक्षा का समन्वय करना और सभी राज्यों में एक साथ मतदाता जागरूकता अभियान चलाना अत्यंत जटिल कार्य होगा।
- प्रौद्योगिकी अवसंरचना: केवल वर्ष 2024 के चुनावों में ही 1.7 मिलियन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें (EVMs) और 1.8 मिलियन वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल्स (VVPATs) का उपयोग किया गया। एक साथ चुनाव कराने के लिये इससे भी अधिक मशीनों, बैकअप और पूरी तरह सुरक्षित प्रणालियों की आवश्यकता होगी।
- संघीय चिंताएँ: चुनाव चक्रों के सामंजस्य हेतु राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल घटाना या बढ़ाना, संविधान की संघीय मूल भावना को आहत कर सकता है।
- जवाबदेही: चुनावों की आवृत्ति घटने से सरकारों और नेताओं की जवाबदेही पर जनता का नियंत्रण कम हो सकता है।
- कानूनी अनिश्चितता: संशोधनों और नई प्रक्रियाओं को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, जिससे कार्यान्वयन में देरी या जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
- क्षेत्रीय असमानताएँ: छोटे राज्यों और क्षेत्रीय पार्टियों को बड़े ‘राष्ट्रीयकृत’ चुनावों में नज़रअंदाज किये जाने का भय होता है।
- राष्ट्रीय मुद्दे और बड़ी पार्टियाँ चुनाव प्रचार में अधिक प्रभावशाली हो सकती हैं, जिससे स्थानीय समस्याओं एवं क्षेत्रीय पार्टियों पर ध्यान कम हो सकता है।
- आवश्यक संवैधानिक संशोधन: एक साथ चुनाव के लिये लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को निर्धारित करने तथा समय से पहले उनके भंग को रोकने हेतु अनुच्छेद 83, 85, 172 और 174 में संशोधन करना आवश्यक होगा।
- अनुच्छेद 356 में भी संशोधन की आवश्यकता होगी, ताकि राष्ट्रपति शासन जैसी परिस्थितियों को संभाला जा सके, जो राज्य विधानसभाओं को समय से पहले भंग कर सकता है।
भारत में एक साथ चुनाव कराने में कौन-से सुधार सहायक हो सकते हैं?
- कानूनी स्पष्टता: समन्वित चुनावों (Synchronized elections) के लिये स्पष्ट प्रक्रियाएँ, कार्यक्रम और आवश्यक संवैधानिक संशोधन स्थापित करना।
- समयपूर्व विघटन और उपचुनावों से निपटने के लिये स्पष्ट प्रावधान स्थापित करना।
- निर्वाचन अवसंरचना को सुदृढ़ बनाना: सभी तीनों स्तरों के लिये एकीकृत मतदाता सूची तैयार करना, मतदाता सत्यापन और परिणामों के लिये तकनीक का उपयोग करना तथा EVM व VVPAT प्रबंधन को उन्नत करना।
- जन-जागरूकता अभियान: राष्ट्रव्यापी अभियानों, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से नागरिकों को एक साथ चुनावों की प्रक्रिया तथा उसके लाभों के विषय में शिक्षित करना।
- क्षमता निर्माण: नए प्रौद्योगिकी और प्रक्रियाओं पर चुनाव अधिकारियों को प्रशिक्षित करना, ताकि कार्यान्वयन सुचारु एवं प्रभावी हो सके।
- चुनाव समय-सारिणी समायोजन: समन्वित चुनाव सुनिश्चित करने के लिये कुछ राज्यों के मतदान कार्यक्रम को आगे बढ़ाना या स्थगित करना।
निष्कर्ष
एक साथ चुनाव की अवधारणा सुव्यवस्थित चुनाव प्रबंधन और कुशल शासन की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। हालाँकि इसके कार्यान्वयन के लिये सावधानीपूर्वक संवैधानिक संशोधनों और राजनीतिक सहमति की आवश्यकता है, यह प्रशासनिक दक्षता, वित्तीय विवेकशीलता तथा निरंतर नीतिगत एकाग्रता का वादा करता है, जिससे भारत का लोकतांत्रिक ढाँचा मज़बूत होता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. एक राष्ट्र, एक चुनाव से राजकोषीय लागत कम हो सकती है, लेकिन संघवाद कमज़ोर हो सकता है। एक साथ चुनाव कराने के हालिया प्रस्तावों के संदर्भ में चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा कारक किसी उदार लोकतंत्र में स्वतंत्रता की सर्वोत्तम सुरक्षा को नियत करता है? (2021)
(a) एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका
(b) शक्तियों का केंद्रीकरण
(c) निर्वाचित सरकार
(d) शक्तियों का पृथक्करण
उत्तर: (d)
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)
- भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो प्रत्याशियों को किसी एक लोकसभा चुनाव में तीन निर्वाचन-क्षेत्रों से लड़ने से रोकता है।
- 1991 में लोकसभा चुनाव में श्री देवी लाल ने तीन लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था।
- वर्तमान नियमों के अनुसार, यदि कोई प्रत्याशी किसी एक लोकसभा चुनाव में कई निवार्चन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ता है, तो उसकी पार्टी को उन निर्वाचन-क्षेत्रों के उप-चुनावों का खर्च उठाना चाहिये, जिन्हें उसने खाली किया है बशर्ते वह सभी निर्वाचन-क्षेत्रों से विजयी हुआ हो।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 3
(d) 2 और 3
उत्तर: (b)
मेन्स
प्रश्न. राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में व्यक्तिगत सांसद की भूमिका में कमी आ रही है, जिसके परिणामस्वरूप बहस की गुणवत्ता एवं परिणाम पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। चर्चा कीजिये। (2019)
प्रश्न: “भारत में स्थानीय स्वशासन प्रणाली, शासन का प्रभावी उपकरण सिद्ध नहीं हुई है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण करते हुए इस स्थिति में सुधार हेतु उपाय बताइये। (2017)
वॉइस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट में भारत की भूमिका
प्रिलिम्स के लिये: संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, ब्रिक्स, क्वाड,
मेन्स के लिये: बहुपक्षवाद और वैश्विक शासन सुधार की चुनौतियाँ, वैश्विक दक्षिण की चिंताओं का प्रतिनिधित्व करने में भारत की भूमिका
चर्चा में क्यों?
भारत के विदेश मंत्री ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 80वें सत्र के दौरान समान विचारधारा वाले वैश्विक दक्षिण देशों की उच्च स्तरीय बैठक बुलाई।
- इस बैठक का उद्देश्य एकजुटता को मज़बूत करना, संयुक्त राष्ट्र सुधारों को आगे बढ़ाना और यह सुनिश्चित करना था कि वैश्विक शासन व्यवस्था विकासशील देशों की प्राथमिकताओं को प्रतिबिंबित करे। बैठक में यह भी संकेत दिया गया कि बहुपक्षवाद कमज़ोर हो रहा है, जबकि वैश्विक दक्षिण को इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: ग्लोबल साउथ क्या है? |
वॉइस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट में भारत क्या भूमिका निभा रहा है?
- वैश्विक मंचों में विभाजनों को कम करना: भारत जलवायु परिवर्तन, व्यापार और सुरक्षा मुद्दों पर उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा है। यह खुद को “विश्व बंधु” के रूप में प्रस्तुत करता है तथा वैश्विक शासन में समावेशिता का समर्थन करता है।
- भारत की G20 अध्यक्षता (2023) के दौरान, अफ्रीकी संघ को स्थायी सदस्य के रूप में शामिल करना सुनिश्चित किया गया, जो दक्षिणी प्रतिनिधित्व के लिये एक ऐतिहासिक कदम है।
- BRICS, Quad और वॉइस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट में भारत की सक्रिय भागीदारी वैश्विक शासन सुधार और रणनीतिक संतुलन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
- बहुपक्षीय सुधारों का समर्थन: भारत लगातार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC), विश्व बैंक और IMF जैसे वैश्विक संस्थानों में सुधार की मांग कर रहा है ताकि विकासशील देशों की आवाज़ को प्रतिबिंबित किया जा सके।
- सततता और जलवायु नेतृत्व: भारत विकासशील देशों में सतत् विकास प्रयासों का नेतृत्व कर रहा है। मिशन LiFE, अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) और राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिशन भारत के सतत् विकास नेतृत्व को दर्शाते हैं।
- पवन और सौर ऊर्जा का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक होने के नाते, भारत सुरक्षित देशों के लिये जलवायु न्याय को समर्थन दे रहा है।
- डिजिटल और तकनीकी नवाचार: भारत डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) में वैश्विक नेता है। आधार और UPI जैसे प्लेटफॉर्म्स ने 12 से अधिक देशों को समान प्रणाली अपनाने के लिये प्रेरित किया, जिससे वैश्विक दक्षिण में डिजिटल समानता और समावेशन बढ़ा।
- मानवीय और विकास सहायता: भारत वैश्विक संकटों में प्रथम उत्तरदाता के रूप में उभर रहा है, जैसे कि ऑपरेशन दोस्त (तुर्की), ऑपरेशन करुणा (म्याँमार) और ऑपरेशन कावेरी (सूडान), जो इसे एक प्रमुख विकास भागीदार के रूप में मज़बूत करते हैं।
- भारत ने 42 अफ्रीकी देशों को 12 बिलियन USD की लाइन ऑफ क्रेडिट (LOCs) के माध्यम से विकास वित्त पहल का समर्थन भी दिया है।
- रणनीतिक स्वायत्तता और विदेश नीति संतुलन: भारत रणनीतिक स्वायत्तता की नीति अपनाता है, जिसमें वह पश्चिमी देशों और वैश्विक दक्षिण दोनों से जुड़ा रहता है, लेकिन किसी गुट में शामिल नहीं होता।
- भारत ने विकासशील देशों के आत्मनिर्णय को बढ़ावा देने के लिये गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- चीन की आक्रामक कूटनीति के विपरीत, भारत एक परामर्शात्मक और अहानिकर नेतृत्व मॉडल प्रस्तुत करता है।
वर्तमान विश्व व्यवस्था में वैश्विक दक्षिण की चिंताएँ क्या हैं?
- वैश्विक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अभाव: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) अब भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की शक्ति संरचना को दर्शाती है। विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश और एक प्रमुख अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत दशकों से प्रयास करने पर भी अभी तक सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता प्राप्त नहीं कर सका है।
- प्रमुख शक्तियों (जैसे अमेरिका) द्वारा संयुक्त राष्ट्र प्रणाली को कमजोर करने के कारण छोटे देशों के पास क्षेत्रीय संघर्षों या आर्थिक शिकायतों को सुलझाने के लिये कोई तटस्थ मंच नहीं बचा है।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक के प्रशासन पर विकसित देशों का प्रभुत्व है, जिससे विकासशील देशों की आवाज और प्रभाव सीमित हो जाता है।
- अनुचित वैश्विक व्यापार नियम: विश्व व्यापार संगठन (WTO) की विवाद समाधान प्रणाली पंगु हो गई है, जिससे नियम-आधारित व्यापार पर निर्भर रहने वाली छोटी अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान हो रहा है।
- बढ़ते संरक्षणवाद और उच्च टैरिफ से निर्यात पर निर्भर विकासशील देशों को नुकसान पहुंचता है।
- यूरोपीय संघ के कार्बन बॉर्डर समायोजन तंत्र (CBAM) जैसे पर्यावरणीय मानक ग्रीन टैरिफ लगाते हैं, जो भारत और अफ्रीका जैसे देशों के निर्यातकों को नुकसान पहुँचाते हैं तथा अक्सर विकसित अर्थव्यवस्थाओं को लाभ पहुँचाते हैं।
- बहुपक्षवाद का कमज़ोर होना: बहुपक्षीय संस्थाओं को वैधता के संकट और धन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। महामारी के दौरान कथित पक्षपात और शीघ्र कार्रवाई न करने के कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन की आलोचना हुई, जिससे विश्वास कम हुआ।
- वैश्विक उत्तर और दक्षिण के बीच आम सहमति के अभाव के कारण विश्व व्यापार संगठन के सुधार रुके हुए हैं।
- जलवायु विषमता: ग्लोबल साउथ जलवायु परिवर्तन में सबसे कम योगदान देता है, लेकिन इसके प्रभावों (जैसे, बाढ़, सूखा, खाद्य असुरक्षा) से सबसे अधिक पीड़ित होता है।
- ग्लोबल नॉर्थ द्वारा आश्वासन दिया गया जलवायु वित्त (जैसे, 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर/वर्ष) विलंबित और अपर्याप्त बना हुआ है।
- वैश्विक दक्षिणी देशों पर ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी या विकास आवश्यकताओं पर विचार किये बिना उत्सर्जन को कम करने का दबाव बढ़ रहा है।
- परस्पर निर्भरता का हथियारीकरण: आपूर्ति शृंखला, ऊर्जा और वित्त का उपयोग भू-राजनीतिक दबाव के उपकरण के रूप में तेज़ी से किया जा रहा है।
- संवेदनशील देश तकनीकी प्रतिबंधों या प्रतिबंधात्मक कार्रवाइयों का सामना करते हैं, भले ही उनका सीधा संबंध संघर्षों से न हो। उदाहरण के लिये रूस के यूक्रेन पर आक्रमण के बाद अफ्रीका और दक्षिण एशिया को अनाज तथा यूरिया निर्यात बाधित होने के कारण खाद्य एवं उर्वरक की कमी का सामना करना पड़ा।
- ऋण संकट और वित्तीय असुरक्षा: श्रीलंका जैसे कई वैश्विक दक्षिण के देशों को उच्च बाह्य ऋण का सामना करना पड़ रहा है, जिसे कोविड-19 और मुद्रास्फीति ने और गंभीर बना दिया है।
- प्रौद्योगिकी तक असमान पहुँच: डिजिटल विभाजन बढ़ रहा है क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता, सेमीकंडक्टर और हरित प्रौद्योगिकी के पेटेंट अमेरिका, यूरोपीय संघ एवं चीन में केंद्रित हैं, जिससे अधिकांश वैश्विक दक्षिण के सबसे कम विकसित देश (LDC) पहुँच व नवाचार से वंचित रह जाते हैं।
- भू-राजनीतिक समूहों का उदय और रणनीतिक बहिष्कार: वैश्विक दक्षिण के देशों पर अमेरिका-चीन या अमेरिका-रूस प्रतिद्वंद्विताओं में पक्ष चुनने का दबाव बढ़ रहा है। यह उनकी रणनीतिक स्वायत्तता को कमज़ोर करता है और विकास लक्ष्यों से ध्यान भटकाता है।
- सामान्यीकृत दोहरे मानक: वैश्विक दक्षिण पश्चिम पर मानवाधिकारों के मामले में चयनात्मक रुख अपनाने की आलोचना करता है, जैसे यूक्रेन पर कार्रवाई करना जबकि गाज़ा और अन्य वैश्विक दक्षिण के देशों को अनदेखा करना। इन देशों को प्राय: आंतरिक मामलों में बाह्य हस्तक्षेप का सामना करना पड़ता है।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग (SSC) किस प्रकार उत्तर-दक्षिण को पूरक एवं चुनौती देता है?
पूरक पहलू
- विकास अंतर को पाटना: SSC वित्त, प्रौद्योगिकी और क्षमता निर्माण में उन अंतरालों को दूर करने में सहायता करता है जिन्हें उत्तर-दक्षिण सहायता प्राय: पूरा नहीं कर पाती।
- इंडिया-UN डेवलपमेंट पार्टनरशिप फंड जैसी पहलें प्रशांत द्वीप समूह देशों और अफ्रीका को मांग-आधारित सहायता प्रदान कर चुकी हैं, जो अनुकूलन एवं संदर्भ-विशिष्ट समर्थन देती हैं।
- स्थानीय समाधान के माध्यम से सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को बढ़ावा देना: एक समान मॉडल के बजाय, SSC वर्ष 2030 एजेंडा के अनुरूप संदर्भ-विशिष्ट और स्थाई समाधान प्रदान करता है ताकि सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित हो सके।
- उदाहरण के लिये, भुखमरी से लड़ने की कोलंबियाई रणनीति और ब्राज़ील की कृषि प्रौद्योगिकी को अफ्रीकी संदर्भों में सफलतापूर्वक दोहराया गया है।
- त्रिकोणीय सहयोग के रूप में मध्यम मार्ग: SSC विकसित देशों के साथ त्रिकोणीय सहयोग के माध्यम से भी कार्य करता है, जिसमें उत्तरी साझेदार दक्षिणी नेतृत्व वाली पहलों का समर्थन करते हैं।
- यह प्रतिस्पर्द्धा की बजाय सहक्रियाशीलता उत्पन्न करता है, जैसा कि FAO द्वारा नेतृत्व किये गए और चीन के समर्थन से लैटिन अमेरिका में लागू किये गए कृषि परियोजनाओं में देखा गया है।
- संकट के दौरान एकजुटता: SSC ने वैश्विक आपात स्थितियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत की कोविड-19 वैक्सीन कूटनीति इस बात का उदाहरण है कि कैसे एकजुटता पर आधारित उपायों ने उत्तर-दक्षिण प्रयासों की कमी को पूरा किया।
- वैश्विक अनुकूलन मज़बूत करना: अनुकूल, सहकर्मी-संचालित समाधानों को सक्षम करके, SSC देशों को जलवायु परिवर्तन, महामारी और ऋण संकट जैसे अतिव्यापी संकटों का सामना करने में सहायता करता है।
चुनौतीपूर्ण पहलू
- भू-राजनीतिक पुनर्संरेखण: दक्षिण-दक्षिण व्यापार और निवेश (चीन-अफ्रीका, भारत-आसियान) वैश्विक आर्थिक संतुलन को बदल रहे हैं तथा उत्तर की केंद्रित स्थिति को चुनौती दे रहे हैं।
- नई दक्षिणी शक्तियों (जैसे, भारत, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका) का उदय वैश्विक शासन के केंद्र को बदल रहा है और पश्चिमी नेतृत्व वाले गठबंधनों को चुनौती दे रहा है।
- चयनात्मक शर्तों की आलोचना: कई वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) देशों ने पश्चिम द्वारा सहायता को शासन या नीति सुधार से जुड़ी शर्तों के साथ प्रभाव के साधन के रूप में उपयोग करने पर चिंता जताई है।
- SSC एक ऐसा प्रति-मॉडल प्रस्तुत करता है जो बिना किसी शर्त के और संप्रभुता का सम्मान करने वाला है।
- व्यापार और निवेश पैटर्न में बदलाव: विकासशील देशों से उच्च तकनीक निर्यात का लगभग 60% वैश्विक दक्षिण के भीतर कारोबार किया जाता है, जो पारंपरिक उत्तर-दक्षिण प्रवाह से परे बढ़ती अंतर-दक्षिण आर्थिक अंतर-निर्भरता को दर्शाता है।
- विकास नेतृत्व को पुनर्परिभाषित करना: अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) जैसी पहलों में भारत जैसी दक्षिणी शक्तियों का उदय इस धारणा को चुनौती देता है कि विकास नेतृत्व और समाधान वैश्विक उत्तर से आना चाहिये।
भारत के नेतृत्व में वैश्विक दक्षिण की भूमिका को कौन-से उपाय मज़बूत कर सकते हैं?
- सामूहिक मंचों का निर्माण: भारत, वॉइस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट जैसे मंचों को नियमित वार्षिक/अर्धवार्षिक फोरम के रूप में संस्थागत बना सकता है, ताकि विकासशील देशों की वैश्विक शासन पर बहस में एकजुट भूमिका सुनिश्चित हो सके।
- वैश्विक संस्थाओं में सुधार: भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के विस्तार, IMF और विश्व बैंक में सुधार के प्रयासों का नेतृत्व करना चाहिये, ताकि वैश्विक दक्षिण को निर्णय लेने में उचित प्रतिनिधित्व एवं मतदान अधिकार मिल सके।
- विकास वित्त को सक्रिय करना: जापान और बहुपक्षीय बैंकों जैसे साझेदारों के समर्थन से, भारत ग्लोबल साउथ डेवलपमेंट फंड का नेतृत्व कर सकता है, जो दक्षिणी देशों में अवसंरचना, डिजिटल परिवर्तन और जलवायु सहनशीलता परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिये कार्य करेगा।
- दक्षिण-दक्षिण व्यापार और कनेक्टिविटी को बढ़ावा देना: भारत टैरिफ बाधाओं को कम करने और अंतर-दक्षिण व्यापार समझौतों को बढ़ावा देने के लिये कार्य कर सकता है तथा व्यापार प्रवाह में वैश्विक असमानताओं का मुकाबला करने के लिये एशिया-अफ्रीका विकास कॉरिडोर (AAGC) जैसी पहलों का विस्तार कर सकता है।
- सहसंगठित शांति और सुरक्षा भूमिका: भारत वैश्विक दक्षिण को संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना, संघर्ष मध्यस्थता और समावेशी शांति निर्माण में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने के लिये संगठित कर सकता है, जिससे वैश्विक स्थिरता में दक्षिणी देशों के योगदान को उजागर किया जा सके।
- वैश्विक साझेदारियों में संतुलन: भारत की बहु-संरेखण रणनीति वैश्विक दक्षिण को वैश्विक उत्तर के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ने में सहायता कर सकती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि व्यापार, जलवायु और वित्त पर दक्षिणी चिंताओं को पश्चिमी-प्रभुत्व वाले मंचों में दरकिनार नहीं किया जाएँ।
निष्कर्ष
एक मज़बूत वैश्विक दक्षिण के लिये एकता, विश्वसनीय नेतृत्व और वैश्विक शासन में समान भागीदारी आवश्यक है। वसुधैव कुटुम्बकम ("एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य") के भारतीय सिद्धांत से प्रेरित होकर, भारत समावेशिता और संतुलन के साथ दक्षिणी प्राथमिकताओं को आगे बढ़ा सकता है। इसका नेतृत्व वैश्विक दक्षिण को एक निष्क्रिय भूमिका से विश्व व्यवस्था के एक सक्रिय निर्माता के रूप में बदलने में सहायता कर सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. वैश्विक विकास अंतरालों को दूर करने में दक्षिण-दक्षिण सहयोग किस प्रकार पारंपरिक उत्तर-दक्षिण ढाँचे को पूरक या चुनौती देता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
मेन्स
प्रश्न. "यदि विगत कुछ दशक एशिया की विकास की कहानी के रहे, तो परवर्ती कुछ दशक अफ्रीका के हो सकते हैं।" इस कथन के आलोक में, हाल के वर्षों में अफ्रीका में भारत के प्रभाव की परीक्षण कीजिये। (2021)
प्रश्न. शीतयुद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के संदर्भ में, भारत की पूर्वोन्मुखी नीति के आर्थिक और सामरिक आयामों का मूल्यांकन कीजिये। (2016)
भारत की SDG 3 प्रगति
चर्चा में क्यों?
भारत ने सतत् विकास लक्ष्य (SDG) सूचकांक 2025 में अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ 167 देशों में 99वाँ स्थान प्राप्त किया है, जो वर्ष 2024 में 109वें स्थान से बेहतर है। यह सुधार बुनियादी ढाँचे और बुनियादी सेवाओं में प्रगति को दर्शाता है।
- इसके बावजूद, विशेष रूप से ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में लगातार बनी स्वास्थ्य असमानताओं के कारण SDG- 3 (अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण) को प्राप्त करने से संबंधित चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
SDG-3 पर भारत की प्रगति की स्थिति क्या है?
- मातृ स्वास्थ्य: मातृ मृत्यु अनुपात (MMR) वर्तमान में 100,000 जीवित जन्मों पर 97 मृत्यु है, जो 70 के लक्ष्य से काफी अधिक है।
- बाल मृत्यु दर: पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 1,000 जीवित जन्मों पर 32 है, जबकि लक्ष्य 25 है।
- जीवन प्रत्याशा: औसत जीवन प्रत्याशा वर्तमान में 70 वर्ष है, जो 73.63 वर्ष के लक्ष्य से कम है।
- वित्तीय बोझ: स्वास्थ्य सेवाओं पर जेब से होने वाला व्यय कुल उपभोग का 13% है, जो 7.83% के लक्ष्य से लगभग दोगुना है।
- टीकाकरण: वर्तमान में कवरेज 93.23% है, जो उच्च है, लेकिन अभी भी सार्वभौमिक 100% लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाया है।
SDG- 3 लक्ष्यों को प्राप्त करने में अंतराल के क्या कारण हैं?
- पहुँच से संबंधित समस्याएँ: ग्रामीण क्षेत्रों में कमज़ोर स्वास्थ्य अवसंरचना और आर्थिक बाधाएँ कई लोगों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त करने से रोकती हैं।
- गैर-आर्थिक कारक: कुपोषण, अपर्याप्त स्वच्छता और अस्वास्थ्यकर जीवनशैली जैसी चुनौतियाँ रोग भार में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।
- सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ: सांस्कृतिक प्रथाएँ और भेदभाव, विशेषकर मानसिक और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों के आसपास, अक्सर समुदायों को उपलब्ध चिकित्सकीय सेवाओं का उपयोग करने से रोकते हैं।
- बीमारियों का दोहरा बोझ: भारत अब भी मलेरिया, डेंगू और कुष्ठ जैसे संक्रामक रोगों से जूझ रहा है, वहीं मधुमेह और हृदय संबंधी रोगों जैसे असंक्रामक रोगों (NCDs) की बढ़ती समस्या स्वास्थ्य प्रणाली पर अतिरिक्त दबाव डालती है।
- कोविड-19 महामारी का व्यवधान: इससे टीकाकरण, मातृ देखभाल और रोग नियंत्रण जैसी सेवाओं से संसाधन हट गए, जिसके चलते समय पर निदान नहीं हो पाया, उपचार बाधित हुआ, संस्थागत प्रसवों में कमी आई जिससे टीकाकरण कवरेज भी घट गया।
SDG 3 की प्रगति बढ़ाने हेतु भारत को क्या उपाय अपनाने चाहिये?
- सर्वव्यापी स्वास्थ्य बीमा: जेब से होने वाले व्यय को कम करने और समावेशी स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच बढ़ाने के लिये सर्वव्यापी स्वास्थ्य बीमा लागू करना।
- प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) और डिजिटल स्वास्थ्य को सुदृढ़ बनाना: प्रारंभिक रोग पहचान के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सुदृढ़ करना और दूरदराज़ क्षेत्रों में पहुँच बढ़ाने के लिये टेलीमेडिसिन व डिजिटल रिकॉर्ड का उपयोग करना।
- स्कूल स्वास्थ्य शिक्षा: स्कूलों में एक सुव्यवस्थित स्वास्थ्य शिक्षा पाठ्यक्रम लागू करना, जिसमें पोषण, स्वच्छता, प्रजनन स्वास्थ्य, सड़क सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य शामिल हों।
- उदाहरण के लिये, फिनलैंड ने स्कूल स्वास्थ्य शिक्षा के माध्यम से हृदय संबंधी मृत्यु दर कम की और जापान ने स्वच्छता एवं दीर्घायु में सुधार किया।
- विभागीय समन्वय: एकीकृत पोषण, जल एवं स्वच्छता, पर्यावरणीय स्वास्थ्य और स्वास्थ्य देखभाल के लिये स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास, जल शक्ति तथा पर्यावरण विभाग के बीच समन्वय को मज़बूत करना।
- स्वास्थ्य पहलों के प्रबंधन एवं जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये पंचायत राज संस्थाओं तथा शहरी स्थानीय निकायों को सशक्त बनाना और सामाजिक ऑडिट आयोजित करने की क्षमता देना।
- योजनाओं के कार्यान्वयन में तेज़ी लाना: आयुष्मान भारत (प्रति परिवार 5 लाख रुपए स्वास्थ्य कवर), पोषण अभियान (स्टंटिंग, अल्पपोषण में कमी), मिशन इंद्रधनुष (बाल टीकाकरण) और LaQshya (लेबर रूम और मातृत्व देखभाल की गुणवत्ता में सुधार) जैसी योजनाओं के कार्यान्वयन में तेज़ी लाना।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. SDG 3 (अच्छा स्वास्थ्य एवं कल्याण) के अंतर्गत भारत की प्रगति की समीक्षा कीजिये और वर्ष 2030 तक मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य लक्ष्यों को प्राप्त करने में आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न. धारणीय विकास, भावी पीढ़ियों के अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के सामर्थ्य से समझौता किये बगैर, वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करता है। इस परिप्रेक्ष्य में धारणीय विकास का सिद्धान्त निम्नलिखित में से किस एक सिद्धांत के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है ? (2010)
(a) सामाजिक न्याय एवं. सशक्तीकरण
(b) समावेशी विकास
(c) वैश्वीकरण
(d) धारण क्षमता
उत्तर: (d)
मेन्स
प्रश्न. वहनीय, विश्वसनीय, सतत् और आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।” भारत में इस संबंध में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018)