डेली न्यूज़ (26 Mar, 2021)



किशोर न्याय संशोधन विधेयक, 2021

चर्चा में क्यों?

हाल ही में लोकसभा में किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2021 [Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Amendment Bill, 2021] पारित किया गया है जो बच्चों की सुरक्षा और उन्हें गोद लेने के प्रावधानों को मज़बूत करने और कारगर बनाने का प्रयास करता है।

  • यह विधेयक किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 [Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015) में संशोधन करता है। इस विधेयक में उन बच्चों से संबंधित प्रावधान हैं जिन्होंने कानूनन कोई अपराध किया हो और जिन्हें देखभाल एवं संरक्षण की आवश्यकता हो। विधेयक में बाल संरक्षण को मज़बूती प्रदान करने के उपाय किये गए हैं।

प्रमुख बिंदु:

संशोधन की आवश्यकता:

  • राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (National Commission for Protection of Child Rights- NCPCR) द्वारा वर्ष 2020 में बाल देखभाल संस्थानों (Child Care Institutions- CCIs) का ऑडिट किया गया जिसमें पाया गया कि वर्ष 2015 के संशोधन के बाद भी 90% बाल देखभाल संस्थानों का संचालन  NGOs द्वारा किया जा रहा है  तथा 39% CCI पंजीकृत नहीं थे।
  • ऑडिट में पाया गया कि लड़कियों हेतु CCI की संख्या 20% से भी कम है जिनमें , 26% बाल कल्याण अधिकारियों की अनुपस्थित है तथा कुछ राज्यों में लड़कियों हेतु CCI स्थापित ही नहीं किये गए हैं। 
    • इसके अलावा ⅗ में शौचालय, 1/10 में पीने का पानी तथा 15% में अलग बिस्तर और डाइट प्लान (Diet Plans) का अभाव पाया गया।  
  • कुछ बाल देखभाल संस्थानों का प्राथमिक लक्ष्य बच्चों का पुनर्वास न होकर धन प्राप्त करना है क्योंकि इस प्रकार के संस्थानों में बच्चों को अनुदान प्राप्त करने हेतु रखा जाता है।

प्रस्तावित विधेयक में प्रमुख संशोधन: 

  • गंभीर अपराध: गंभीर अपराधों में वे अपराध भी शामिल होंगे जिनके लिये सात वर्ष से अधिक के कारावास का प्रावधान है तथा न्यूनतम सज़ा निर्धारित नहीं की गई है ।
    • गंभीर अपराध वे हैं जिनके लिये भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य कानून के तहत सज़ा तथा तीन से सात वर्ष के कारावास का प्रावधान है।
    • किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board) उस बच्चे की छानबीन करेगा  जिस पर गंभीर अपराध का आरोप है।
  • गैर-संज्ञेय अपराध: 
    • एक्ट में प्रावधान है कि जिस अपराध के लिये तीन से सात वर्ष की जेल की सज़ा हो, वह संज्ञेय (जिसमें वॉरंट के बिना गिरफ्तारी की अनुमति होती है) और गैर जमानती होगा।
      • विधेयक इसमें संशोधन करता है और प्रावधान करता है कि ऐसे अपराध गैर संज्ञेय होंगे।
  • गोद लेना/एडॉप्शन: एक्ट में भारत और किसी दूसरे देश के संभावित दत्तक (एडॉप्टिव) माता-पिता द्वारा बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया निर्दिष्ट की गई है। संभावित दत्तक माता-पिता द्वारा बच्चे को स्वीकार करने के बाद एडॉप्शन एजेंसी सिविल अदालत में एडॉप्शन के आदेश प्राप्त करने के लिये आवेदन करती है। अदालत के आदेश से यह स्थापित होता है कि बच्चा एडॉप्टिव माता-पिता का है। बिल में प्रावधान किया गया है कि अदालत के स्थान पर ज़िला मजिस्ट्रेट (अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट सहित) एडॉप्शन का आदेश जारी करेगा।
  • अपील: विधेयक में प्रावधान किया गया है कि ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा पारित गोद लेने/एडॉप्शन के आदेश से असंतुष्ट कोई भी व्यक्ति इस तरह के आदेश के पारित होने की तारीख से 30 दिनों के भीतर संभागीय आयुक्त के समक्ष अपील दायर कर सकता है। 
    • इस प्रकार की अपीलों को दायर करने की तारीख से चार सप्ताह के भीतर निपटाया जाना चाहिये।
  • ज़िला मजिस्ट्रेट के अतिरिक्त कार्यों में शामिल हैं: (i) ज़िला बाल संरक्षण इकाई की निगरानी करना  (ii) बाल कल्याण समिति के कामकाज की त्रैमासिक समीक्षा करना।
  • अधिकृत न्यायालय:  इस विधेयक में प्रस्ताव किया गया है कि पहले के अधिनियम के तहत सभी अपराधों को बाल न्यायालय के अंतर्गत शामिल किया जाए।
  • बाल कल्याण समितियांँ (CWCs): इस अधिनियम में प्रावधान है कि कोई व्यक्ति CWCs का सदस्य बनने के योग्य नहीं होगा यदि:
    • उसका मानव अधिकारों या बाल अधिकारों के उल्लंघन का कोई रिकॉर्ड हो। 
    • अगर उसे नैतिक अधमता (भ्रष्टता) से जुड़े अपराध हेतु दोषी ठहराया गया हो और उस आरोप को पलटा न गया हो।
    • उसे केंद्र सरकार या राज्य सरकार या सरकार के स्वामित्व वाले किसी उपक्रम से हटाया अथवा बर्खास्त किया गया हो। 
    • वह ज़िले के बाल देखभाल संस्थान में प्रबंधन का एक हिस्सा हो।  
  • सदस्यों को हटाना: समिति के किसी भी सदस्य को राज्य सरकार की जांँच के बाद हटा दिया जाएगा यदि वह बिना किसी वैध कारण के तीन महीने तक लगातार CWCs की कार्यवाही में भाग नहीं लेता है या यदि एक वर्ष के भीतर संपन्न बैठकों में उसकी उपस्थिति तीन-चौथाई से कम रहती है ।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 

  • यह अधिनियम किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 का स्थान लेता है।
  • शब्दावली में परिवर्तन:
    • इस अधिनियम में पूर्ववर्ती अधिनियम की शब्दावली में परिवर्तन करते हुए ‘किशोर’ शब्द को ‘बालक’ अथवा ‘ कानून से संघर्षरत बालक’ के साथ परिवर्तित कर दिया गया है। इसके अलावा ‘किशोर’ शब्द से जुड़े नकारात्मक अर्थ को भी समाप्त कर दिया गया है।
    • इसमें कई नई और स्पष्ट परिभाषाएँ भी शामिल हैं जैसे- अनाथ, परित्यक्त और आत्मसमर्पण करने वाले बच्चे तथा बच्चों द्वारा किये गए छोटे, गंभीर एवं जघन्य अपराध।
  • 16-18 की आयु वर्ग हेतु विशेष प्रावधान:
    • 16-18 वर्ष की आयु समूह में जघन्य अपराध करने वाले बाल अपराधियों से निपटने हेतु विशेष प्रावधानों को शामिल किया गया है।
  • जस्टिस बोर्ड हेतु अनिवार्य प्रावधान: 
    • यह विधेयक प्रत्येक ज़िले में किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समितियों के गठन का प्रावधान करता है। दोनों (किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समिति) में कम-से-कम एक महिला सदस्य शामिल होनी चाहिये।
  • दत्तक से संबंधित खंड:
    • अनाथ, परित्यक्त और आत्मसमर्पण करने वाले बच्चों हेतु दत्तक/एडॉप्शन प्रक्रियाओं को कारगर बनाने के लिये दत्तक या  प्रक्रियाओं पर एक अलग नया अध्याय को शामिल किया गया है।
    • इसके अलावा केंद्रीय 'केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण' (Central Adoption Resource Authority- CARA) को एक वैधानिक निकाय का दर्जा प्रदान किया गया है ताकि वह अपने कार्य अधिक प्रभावी ढंग से कर सके।
    • अधिनियम में कहा गया है कि बच्चे को गोद लेने का अदालत का आदेश अंतिम होगा। वर्तमान में विभिन्न अदालतों में 629 दत्तक ग्रहण के मामले लंबित हैं।
  • बाल देखभाल संस्थान (CCI):
    • सभी बाल देखभाल संस्थान, चाहे वे राज्य सरकार अथवा स्वैच्छिक या गैर-सरकारी संगठनों द्वारा संचालित हों, अधिनियम के लागू होने की तारीख से 6 महीने के भीतर अधिनियम के तहत अनिवार्य रूप से पंजीकृत होने चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


राष्ट्रीय संबद्ध और स्वास्थ्य देख-रेख वृत्ति आयोग विधेयक, 2020

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘राष्ट्रीय संबद्ध और स्वास्थ्य देख-रेख वृत्ति आयोग विधेयक, 2020’ को लोकसभा ने सर्वसम्मति से पारित किया है।

  • इस विधेयक का उद्देश्य ‘संबद्ध और स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों’ की शिक्षा और कार्यों को विनियमित और मानकीकृत करना है।
  • देश में संबद्ध पेशेवरों का बड़ा समूह है और यह विधेयक उनकी भूमिकाओं को गरिमा प्रदान करके इस क्षेत्र को विनियमित करने का प्रयास कर रहा है।

प्रमुख बिंदु:

संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवर:

  • यह विधेयक ‘संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवर’ को किसी भी बीमारी, चोट या हानि के निदान और उपचार करने के लिये एक प्रशिक्षित सहयोगी, तकनीशियन या प्रौद्योगिकीविद् के रूप में परिभाषित करता है।
  • ऐसे पेशेवर के पास डिप्लोमा या डिग्री होनी चाहिये।
    • डिग्री/डिप्लोमा की अवधि कम-से-कम 2,000 घंटे (दो से चार वर्ष की अवधि में) होनी चाहिये।

स्वास्थ्य पेशेवर:

  • एक ‘स्वास्थ्य पेशेवर’ की परिभाषा में एक वैज्ञानिक, चिकित्सक या अन्य पेशेवर शामिल होते हैं, जो अध्ययन, सलाह, शोध, पर्यवेक्षण करते हैं, या निवारक, उपचारात्मक, पुनर्वास, चिकित्सकीय विज्ञापन संबंधी स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करते हैं। 
  • ऐसे पेशेवर के पास डिप्लोमा या डिग्री होनी चाहिये।
    • इस डिग्री की अवधि कम से कम 3,600 घंटे (तीन से छह वर्ष की अवधि में) होनी चाहिये।

संबद्ध एवं स्वास्थ्य देख-रेख वृत्ति:

  • यह विधेयक मान्यता प्राप्त श्रेणियों के रूप में ‘संबद्ध और स्वास्थ्य व्यवसायों’ की कुछ श्रेणियों को निर्दिष्ट करता है।   
  • विधेयक की अनुसूची में इसका उल्लेख किया गया है। इन व्यवसायों में जीवन विज्ञान संबंधी पेशेवर, ट्रॉमा और बर्निंग केयर संबंधी पेशेवर, सर्जिकल और एनेस्थीसिया प्रौद्योगिकी संबंधित पेशेवर, फिज़ियोथेरेपिस्ट और पोषण विज्ञान संबंधी पेशेवर शामिल हैं।
  • केंद्र सरकार ‘संबद्ध और स्वास्थ्य पेशेवरों के लिये राष्ट्रीय आयोग’ से परामर्श के बाद इस अनुसूची में संशोधन कर सकती है।

    राष्ट्रीय संबद्ध और स्वास्थ्य देख-रेख वृत्ति आयोग: यह विधेयक राष्ट्रीय संबद्ध और स्वास्थ्य देख-रेख वृत्ति आयोग के गठन का प्रावधान करता है।

    • संरचना:
      • इसमें एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों/मंत्रालयों का प्रतिनिधित्व करने वाले पाँच सदस्य, स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय का एक प्रतिनिधि, विभिन्न चिकित्सा संस्थानों से तीन उप निदेशक या चिकित्सा अधीक्षक रोटेशनल आधार पर नियुक्त होंगे और अन्य सदस्यों में राज्य परिषदों का प्रतिनिधित्व करने वाले 12 अंशकालिक सदस्य नियुक्त होंगे।
    • कार्य: संबद्ध और स्वास्थ्य पेशेवरों के संबंध में आयोग निम्नलिखित कार्य करेगा:
      • सभी पंजीकृत पेशेवरों का एक ऑनलाइन केंद्रीय रजिस्टर बनाना और उसे बनाए रखना।
      • शिक्षा, पाठ्यक्रम, करिकुलम, स्टाफ योग्यता, परीक्षा, प्रशिक्षण, विभिन्न श्रेणियों के लिये देय अधिकतम शुल्क के बुनियादी मानकों को तय करना।
    • पेशेवर परिषद:
      • यह आयोग संबद्ध और स्वास्थ्य व्यवसायों की हर मान्यता प्राप्त श्रेणी के लिये एक व्यावसायिक परिषद का गठन करेगा।
      • व्यावसायिक परिषद में एक अध्यक्ष और चार से लेकर 24 तक सदस्य होंगे, जो मान्यता प्राप्त श्रेणी में प्रत्येक व्यवसाय का प्रतिनिधित्व करेंगे। 
      • आयोग अपने किसी भी कार्य को इस परिषद को सौंप सकता है।

    राज्य परिषद:

    • विधेयक के पारित होने के छह महीने के भीतर राज्य सरकारें ‘राज्य से संबद्ध स्वास्थ्य परिषद’ का गठन करेंगी।
    • यह राष्ट्रीय आयोग के कामकाज का पूरक होगा और राज्य रजिस्टर को बनाए रखेगा।

    संस्थानों की स्थापना के लिये अनुमति:

    • राज्य परिषद की पूर्व अनुमति निम्नलिखित के लिये आवश्यक होगी:
      • एक नई संस्था स्थापित करने के लिये।
      • नए पाठ्यक्रम, प्रवेश क्षमता में वृद्धि या मौजूदा संस्थानों में छात्रों के नए बैच के प्रवेश हेतु।
    • यदि अनुमति नहीं ली जाती है, तो ऐसी संस्थाओं से किसी छात्र को दी गई कोई भी योग्यता (डिग्री, डिप्लोमा) विधेयक के तहत मान्यता प्राप्त नहीं होगी। 

    अपराध और दंड:

    • राज्य रजिस्टर या राष्ट्रीय रजिस्टर में नामांकित व्यक्तियों के अलावा किसी को भी एक योग्य सहयोगी और स्वास्थ्य देखभाल व्यवसायी के रूप में कार्य करने की अनुमति नहीं है। 
    • जो भी व्यक्ति इस प्रावधान का उल्लंघन करेगा, उसे 50,000 रुपए के जुर्माने से दंडित किया जाएगा। ।

    स्रोत-द हिंदू


    भ्रष्टाचार विरोधी रणनीतियाँ

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में भारत के लोकपाल (Lokpal of India) ने ‘ब्रिंगिंग सिनर्जीज़ इन एंटी-करप्शन स्ट्रेटजीज़’ (Bringing Synergies in Anti-Corruption Strategy) विषय पर वेबिनार का आयोजन किया।

    प्रमुख बिंदु

    • भ्रष्टाचार को निजी लाभ के लिये शक्ति के दुरुपयोग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यह देश के विकास को विभिन्न तरीकों से प्रभावित कर सकता है।

    भ्रष्टाचार का प्रभाव:

    • राजनीतिक लागत: इससे राजनीतिक संस्थानों के प्रति लोगों के विश्वास और राजनीतिक भागीदारी में कमी, चुनावी प्रक्रिया में विकृति, नागरिकों के लिये उपलब्ध राजनीतिक विकल्प सीमित हो जाते हैं तथा लोकतांत्रिक प्रणाली की वैधता को हानि होती है।
    • आर्थिक लागत: भ्रष्टाचार, रेंट सीकिंग (Rent Seeking) गतिविधियों के पक्ष में संसाधनों के गलत आवंटन और सार्वजनिक लेन-देन की लागत में वृद्धि करता है, साथ ही व्यापार पर एक अतिरिक्त कर के रूप में कार्य करता है, जिससे निवेश तथा वास्तविक व्यापार प्रतिस्पर्द्धा  में कमी लाकर अंततः आर्थिक दक्षता को कम करता है।

    रेंट सीकिंग

    • यह सार्वजनिक पसंद के एक सिद्धांत के साथ-साथ अर्थशास्त्र की एक अवधारणा भी है, जिसके अंतर्गत नए निवेश के बिना मौजूद संपत्ति को बढ़ाया जाता है।
    • इसके परिणामस्वरूप संसाधनों की कमी, धनार्जन में कमी, सरकारी राजस्व में कमी, आय में असमानता और संभावित आर्थिक गिरावट के माध्यम से आर्थिक दक्षता में कमी आती है।
    • सामाजिक लागत: भ्रष्टाचार मूल्य प्रणालियों को विकृत करता है और गलत तरीके से उन व्यवसायों को ऊँचा दर्जा देता है जिनके पास रेंट सीकिंग के अवसर हैं। इससे जनता का एक कमज़ोर नागरिक समाज (Civil Society) से मोहभंग होता है, साथ ही बेईमान राजनीतिक नेता इसकी तरफ आकर्षित होते हैं।
    • पर्यावरणीय लागत: पर्यावरणीय रूप से विनाशकारी परियोजनाओं के वित्तपोषण को  प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि यह सार्वजनिक धन को निजी हित में उपयोग करने का आसान तरीका है।
    • राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे: सुरक्षा एजेंसियों के भीतर भ्रष्टाचार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा बन सकता है, जिसमें धनशोधन, अयोग्य व्यक्तियों की भर्ती, देश में हथियारों और आतंकवादी तत्त्वों की तस्करी को सुविधा प्रदान करना आदि शामिल हैं।

    भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये कानूनी ढाँचा:

    • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (Prevention of Corruption Act), 1988 में लोक सेवकों द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार के संबंध में दंड का प्रावधान है और उन लोगों के लिये भी जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में शामिल हैं।
      • वर्ष 2018 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया, जिसके अंतर्गत रिश्वत लेने के साथ ही रिश्वत देने को भी अपराध की श्रेणी के तहत रखा गया।
    • धन शोधन निवारण अधिनियम (Prevention of Money Laundering Act), 2002 का उद्देश्य भारत में धन शोधन (Money Laundering) के मामलों को रोकना और आपराधिक आय के उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है।
      • इसमें धन शोधन के अपराध के लिये  सख्त सज़ा का प्रावधान है, जिसमें 10 साल तक की कैद और आरोपी व्यक्तियों की संपत्ति की कुर्की (यहाँ तक कि जाँच के प्रारंभिक चरण में ही) भी शामिल है।
    • कंपनी अधिनियम (The Companies Act), 2013 कॉर्पोरेट क्षेत्र को स्वनियमन का अवसर देकर इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी की रोकथाम करता है। 'धोखाधड़ी' शब्द की एक व्यापक परिभाषा है, इसे कंपनी अधिनियम के अंतर्गत एक दंडनीय (Criminal) अपराध माना गया है।
      • विशेष रूप से धोखाधड़ी से जुड़े मामलों के लिये भारत सरकार के कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (Ministry of Corporate Affair) के अंतर्गत गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (Serious Frauds Investigation Office) की स्थापना की गई है, जो  सफेदपोश (White Collar) और कंपनियों में अपराधों से निपटने हेतु ज़िम्मेदार है।
      • SFIO कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत जाँच करता है।
    • भारतीय दंड संहिता (The Indian Penal Code- IPC), 1860 के अंतर्गत रिश्वत, धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात से संबंधित मामलों को कवर किया गया है।
    • विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 व्यक्तियों, संगठनों और कंपनियों को विदेशी योगदान की मंज़ूरी और उपयोग को विनियमित करता है।
      • विदेशी योगदान की प्राप्ति के लिये गृह मंत्रालय का पूर्व अनुमोदन आवश्यक है और इस तरह के अनुमोदन की अनुपस्थिति में विदेशी योगदान की प्राप्ति को अवैध माना जा सकता है।

    नियामक ढाँचा:

    • लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम (The Lokpal and Lokayukta Act), 2013 में केंद्र और राज्य सरकारों के लिये एक लोकपाल की स्थापना का प्रावधान किया गया है।

      इन निकायों को सरकार से स्वतंत्र रूप से कार्य करने की आवश्यकता है जिसके लिये इसे लोक सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करने का अधिकार दिया गया है, इसमें प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री भी शामिल हैं।

    • हालाँकि केंद्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission) को सरकार ने फरवरी 1964 में स्थापित किया था जिसे बाद में संसद द्वारा अधिनियमित केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 द्वारा सांविधिक दर्जा प्रदान किया गया।
      • यह योग भ्रष्टाचार या कार्यालय के दुरुपयोग से संबंधित शिकायतें सुनता है और इस दिशा में उपयुक्त कार्रवाई की सिफारिश करता है।

    लोकपाल और लोकायुक्त

    • लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम, 2013 ने संघ (केंद्र) के लिये लोकपाल और राज्यों के लिये लोकायुक्त संस्था की व्यवस्था की है।
      • इस अधिनियम को वर्ष 2013 में संसद के दोनों सदनों ने पारित किया, जो 16 जनवरी, 2014 को लागू हुआ।
    • ये संस्थाएँ बिना किसी संवैधानिक दर्जे वाले वैधानिक निकाय हैं।
    • ये "लोकपाल" (Ombudsman) का कार्य करते हैं और कुछ निश्चित श्रेणी के सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करते हैं।
    • लोकपाल एवं लोकायुक्त शब्द प्रख्यात विधिवेत्ता डॉ. एल.एम. सिंघवी ने पेश किया।

    संरचना:

    • लोकपाल एक बहु-सदस्यीय निकाय है जिसका गठन एक चेयरपर्सन और अधिकतम 8 सदस्यों से हुआ है।
    • आठ अधिकतम सदस्यों में से आधे न्यायिक सदस्य तथा न्यूनतम 50 प्रतिशत सदस्य अनु. जाति/अनु. जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/अल्पसंख्यक और महिला श्रेणी से होने चाहिये।
    • लोकपाल संस्था का चेयरपर्सन या तो भारत का पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश या असंदिग्ध सत्यनिष्ठा व उत्कृष्ट योग्यता वाला प्रख्यात व्यक्ति होना चाहिये।
      • लोकपाल संस्था के चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु तक होता है।
      • लोकपाल के क्षेत्राधिकार में प्रधानमंत्री, मंत्री, संसद सदस्य, समूह ए, बी, सी और डी अधिकारी तथा केंद्र सरकार के अधिकारी शामिल हैं।
    • लोकपाल का क्षेत्राधिकार प्रधानमंत्री पर केवल भ्रष्टाचार के उन आरोपों तक सीमित रहेगा जो कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, सुरक्षा, लोक व्यवस्था, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष से संबद्ध न हों।
    • संसद में कही गई किसी बात या दिये गए वोट के मामले में मंत्रियों या सांसदों पर लोकपाल का क्षेत्राधिकार नहीं होगा।

    आगे की राह

    • निरीक्षण संस्थानों को आवश्यक संसाधनों तक पहुँचने के लिये मज़बूत होना चाहिये, साथ ही भ्रष्टाचार-रोधी प्राधिकरणों और निरीक्षण संस्थानों के पास अपने कर्तव्यों के निर्वाह हेतु पर्याप्त धन, संसाधन तथा स्वतंत्रता होनी चाहिये।
    • सूचनाओं तक आसान, समय पर और सार्थक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये प्रासंगिक आँकड़ों को प्रकाशित किया जाना चाहिये।
    • भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये सभी एजेंसियों के सहयोग और निवारक भ्रष्टाचार उपायों की सराहना करनी चाहिये तथा इसे "रोकथाम इलाज से बेहतर है" (Prevention is Better Than Cure) के रूप में अपनाया जाना चाहिये।

    स्रोत: पी.आई.बी.


    संविधान (125वाँ संशोधन) विधेयक, 2019

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में गृह मंत्रालय (MHA) ने लोकसभा को यह सूचित किया कि फिलहाल असम (संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत आने वाला राज्य) में पंचायती राज प्रणाली को लागू करने का कोई प्रस्ताव नहीं है

    • जनवरी 2019 में 125वें संविधान संशोधन विधेयक, 2019 को वित्त आयोग और संविधान की छठी अनुसूची से संबंधित प्रावधानों में संशोधन के लिये राज्यसभा में पेश किया गया था।
    • संविधान की छठी अनुसूची में असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्रों के लिये प्रसाशनिक व्यवस्था की गई है।

    प्रमुख बिंदु :

    प्रस्तावित संशोधन:

    • ग्राम और नगरपालिका परिषद:
      • यह ग्राम और नगरपालिका परिषद को ज़िला और क्षेत्रीय परिषदों के साथ जोड़ने का प्रावधान करता हैग्रामीण क्षेत्रों के गाँवों या गाँव समूहों के लिये ग्राम परिषद की स्थापना की जाएगी और प्रत्येक ज़िले के शहरी क्षेत्रों में नगरपालिका परिषद की स्थापना की जाएगी।
    • संरचना:
      • ज़िला परिषदें  विभिन्न मुद्दों पर कानून बना सकती हैं, जिनमें शामिल हैं :
        • गठित ग्राम और नगरपालिका परिषदों की संख्या और उनकी संरचना
        • ग्राम और नगरपालिका परिषदों  के चुनाव के लिये  निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन
        • ग्राम और नगरपालिका परिषदों की शक्तियाँ एवं  कार्य
    • शक्तियों के हस्तांतरण के नियम:
      • ग्राम और नगर पालिका परिषदों की शक्तियों और उत्तरदायित्व के हस्तांतरण संबंधी नियम राज्यपाल द्वारा बनाए जा सकते हैं।
      • इस तरह के नियमों को निम्नलिखित के संबंध में बनाया जा सकता है:
        • आर्थिक विकास के लिये योजनाओं की तैयारी। 
        • भूमि सुधारों का कार्यान्वयन
        • शहरी और नगर नियोजन।
        • अन्य कार्यों के साथ भूमि-उपयोग का विनियमन।
    • राज्य वित्त आयोग:
      • विधेयक एक वित्त आयोग का गठन कर इन राज्यों के ज़िला, ग्राम और नगर परिषदों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करेगा 
      • आयोग निम्नलिखित के बारे में सिफारिशें करेगा:
          • राज्यों और ज़िला परिषदों के बीच करों का वितरण
          • राज्य के समेकित कोष से ज़िला, ग्राम और नगरपालिका परिषदों को अनुदान सहायता प्रदान करना
    • परिषदों के चुनाव:
      • राज्यपाल द्वारा गठित  राज्य चुनाव आयोग द्वारा असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा के ज़िला परिषदों, क्षेत्रीय परिषदों, ग्राम परिषदों और नगरपालिका  परिषदों के चुनाव कराए जाएंगे।    
    • परिषदों के सदस्यों की अयोग्यता: 
      • छठी अनुसूची राज्यपाल को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह ज़िला और क्षेत्रीय परिषदों के गठन के साथ-साथ इन परिषदों के सदस्यों के निर्वाचन के लिये योग्यता संबंधी नियम बना सकता है।
      • विधेयक में कहा गया है कि राज्यपाल दल-बदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के लिये नियम बना सकता है।

    छठी अनुसूची:

    परिचय: 

    • छठी अनुसूची मूल रूप से अविभाजित असम के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों (90% से अधिक आदिवासी आबादी) के लिये लागू की गई थी। ऐसे क्षेत्रों को ‘भारत सरकार अधिनियम, 1935’ के तहत "बहिष्कृत क्षेत्रों"  (Excluded Areas) के रूप में वर्गीकृत किया गया थाये क्षेत्र राज्यपाल के सीधे नियंत्रण में थे।
    • संविधान की छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजातीय आबादी के अधिकारों की रक्षा के लिये इन जनजातीय क्षेत्रों के स्वायत्त स्थानीय प्रशासन का अधिकार प्रदान करती है। 
    • यह विशेष प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 244 (2) और अनुच्छेद 275 (1) के तहत प्रदान किया गया है। 
    • छठी अनुसूची ‘स्वायत्त ज़िला परिषदों’ (ADCs) के माध्यम से इन क्षेत्रों के प्रशासन को स्वायत्तता प्रदान करती है।
      • इन परिषदों (ADCs) को अपने अधिकार क्षेत्र के तहत आने वाले क्षेत्रों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार है, जिनमें भूमि, जंगल, खेती, विरासत, आदिवासियों के स्वदेशी रीति-रिवाजों और परंपराओं आदि से संबंधित कानून शामिल हैं, साथ ही इन्हें भूमि राजस्व तथा कुछ अन्य करों को इकट्ठा करने का भी अधिकार प्राप्त है।
      • ADCs शासन की तीनों शाखाओं (विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के संबंध में विशिष्ट शक्तियाँ और ज़िम्मेदारियाँ रखते हुए एक लघु राज्य की तरह कार्य करते हैं

    स्वायत्त ज़िले:

    परिचय:

    • राज्यपाल को स्वायत्त ज़िलों को व्यवस्थित करने और फिर से संगठित करने की शक्ति प्राप्त है अर्थात् वह ज़िले के क्षेत्रों को बढ़ाने या घटाने, उनके नाम परिवर्तित करने अथवा सीमाओं का सीमांकन कर सकता है
    • यदि किसी स्वायत्त ज़िले में विभिन्न जनजातियाँ हैं, तो राज्यपाल उस ज़िले को कई स्वायत्त क्षेत्रों में विभाजित कर सकता है।

    संरचना:

    • प्रत्येक स्वायत्त जिले में एक ज़िला परिषद होती है जिसमें 30 सदस्य होते हैं, इनमें से चार सदस्य राज्यपाल द्वारा नामित किये जाते हैं और शेष 26 वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। निर्वाचित सदस्य पाँच साल के कार्यकाल के लिये पद धारण करते हैं (यदि परिषद को इससे पहले भंग नहीं किया जाता है) और मनोनीत सदस्य राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद पर बने रहते हैं।
    • प्रत्येक स्वायत्त क्षेत्र में एक अलग क्षेत्रीय परिषद भी होती है।
      • ज़िला और क्षेत्रीय परिषदें अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों का प्रशासन संभालती हैं। 
      • अपने क्षेत्राधिकार में ज़िला और क्षेत्रीय परिषदें, जनजातियों के मध्य मुकदमों एवं मामलों की सुनवाई के लिये ग्राम परिषदों या अदालतों का गठन कर सकती हैं। ये अदालतें उनकी अपीलों की सुनवाई करती हैं
      • इन मुकदमों और मामलों पर उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है।

    छठी अनुसूची क्षेत्र:

    Meghalaya

    पंचायती राज संस्थाएँ (PRIs)

    परिचय: 

    • भारतीय संविधान के नीति निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत अनुच्छेद-40 में पंचायतों का प्रावधान किया गया है
    • 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के माध्यम से पंचायती राज संस्थान को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई

    अनुसूचित क्षेत्र:

    • संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूची  के अंतर्गत आदिवासी बहुल राज्यों को इस संबंध में पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान की गई है कि वे या तो पंचायती राज संस्थान को लागू कर सकते हैं अथवा अपने पारंपरिक स्थानीय स्वशासन को जारी रख सकते हैं।
    • भारत के सभी राज्यों (5वीं और 6वीं अनुसूची के तहत जम्मू-कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, मिज़ोरम और असम एवं त्रिपुरा के स्वायत्त क्षेत्रों को छोड़कर) ने 73वें संशोधन अधिनियम के प्रावधानों को समायोजित करने के लिये अपने पंचायती राज अधिनियम में संशोधन किया।

    पीआरआई के प्रावधान:

    • एक त्रि-स्तरीय ढाँचे की स्थापना (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति या मध्यवर्ती पंचायत तथा ज़िला पंचायत)
    • ग्राम स्तर पर ग्राम सभा की स्थापना तथा हर पाँच वर्ष में पंचायतों के नियमित चुनाव
    • अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिये उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण
    • महिलाओं के लिये एक-तिहाई सीटों का आरक्षण
    • पंचायतों की निधियों में सुधार के लिये उपाय सुझाने हेतु राज्य वित्त आयोगों का गठन

    पंचायतों की शक्तियाँ:

    • 73वाँ संशोधन अधिनियम पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में काम करने हेतु आवश्यक शक्तियांँ और अधिकार देने के लिये राज्य सरकार को शक्तियाँ प्रदान करता है। ये शक्तियांँ और अधिकार इस प्रकार हो सकते हैं-
      • संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्व 29 विषयों के संबंध में आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनाएँ तैयार करना और उनका निष्पादन करना।
      • कर, डयूटीज़, टोल टैक्स, शुल्क आदि लगाने और उसे वसूल करने का पंचायतों को अधिकार।
      • राज्यों द्वारा एकत्र करों, ड्यूटीज़, टोल टैक्स और शुल्कों का पंचायतों को हस्तांतरण।

    स्रोत: द हिंदू


    'डबल म्यूटेंट' कोरोना वायरस वेरिएंट

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में कोरोना वायरस के एक नए 'डबल म्यूटेंट' (Double Mutant) वेरिएंट का पता चला है जो भारत के अलावा विश्व के किसी अन्य देश में नहीं देखा गया है। 

    प्रमुख बिंदु:

    उत्परिवर्तन का अर्थ:

    • उत्परिवर्तन (Mutation) का आशय एक जीवित जीव या किसी वायरस की कोशिका के आनुवंशिक पदार्थ (जीनोम) में परिवर्तन से है जो अधिकांशत: स्थायी होता है तथा कोशिका या वायरस के वंशजों में प्रसारित/संचारित होता है। 
    • जीवों के सभी जीनोम डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (Deoxyribonucleic Acid- DNA) से बने होते हैं, जबकि वायरस के जीनोम DNA या फिर राइबोन्यूक्लिक एसिड ( Ribo Nucleic Acid- RNA) से निर्मित हो सकते हैं। 

    डबल म्यूटेंट:

    • भारतीय सार्स-सीओवी-2 जीनोमिक कंसोर्टिया (Indian SARS-CoV-2 Consortium on Genomics- INSACOG) द्वारा महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब और गुजरात राज्यों में वायरस के नमूनों के जीनोम अनुक्रमण (Genome sequencing) के दौरान एक साथ दो म्यूटेंट- E484Q और L452R की उपस्थिति का पता चला है।
    • INSACOG द्वारा इन वेरिएंट का विवरण ग्लोबल इनिशिएटिव ऑन शेयरिंग एवियन इन्फ्लूएंज़ा डेटा (GISAID) नामक एक वैश्विक कोष हेतु प्रस्तुत किया जाएगा और यदि यह प्रभावित करता है, तो इसे वेरिएंट ऑफ कंसर्न (Variant of Concern- VOC) के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा।
      • अब तक केवल तीन वैश्विक VOCs की पहचान की गई है जिनमें यू.के. वेरिएंट (B.1.1.7), दक्षिण अफ्रीकी वेरिएंट (B.1.351) और ब्राज़ील वेरिएंट (P.1) शामिल हैं।

    वेरिएंट ऑफ कंसर्न:

    • ये ऐसे वेरिएंट हैं जो संक्रामकता में वृद्धि, अधिक गंभीर बीमारी, पिछले संक्रमण या टीकाकरण में कम एंटीबॉडी के  निर्माण, उपचार या टीके की कम प्रभावशीलता या लक्षणों का सही से पता लगाने की विफलता के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं।

    डबल म्यूटेंट की चुनौतियाँ:

    • डबल म्यूटेंट वायरस के स्पाइक प्रोटीन (Spike Protein) वाले क्षेत्रों में जोखिम को बढ़ा सकता है।
      • स्पाइक प्रोटीन वायरस का वह हिस्सा है जिसका उपयोग वह मानव कोशिकाओं में प्रवेश करने हेतु करता है।
    • एक VOC या संदिग्ध VOC की उपस्थिति का मतलब यह नहीं है कि वह वायरस के प्रकोप का कारण है, बल्कि यह रोकथाम हेतु सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करती है।
    • जबकि डबल म्यूटेंट को टीके की प्रभावकारिता में कमी के साथ-साथ संक्रामकता के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। इनके संयुक्त प्रभाव और जैविक निहितार्थ को अभी तक नहीं समझा गया है।

    अन्य वेरिएंट: 

    • केरल में किये गए जीनोम वेरिएशन ( Genome Variation ) अध्ययन में अन्य प्रकार के उत्परिवर्तनों की उपस्थिति का पता चला है। 
      • यह कोरोनावायरस से बचने में मदद करने वाली एंटीबॉडी से संबंधित है।
    • N440K वेरिएंट्स जो प्रतिरक्षा से संबंधित है यूके, डेनमार्क, सिंगापुर, जापान और ऑस्ट्रेलिया सहित 16 अन्य देशों में पाया गया है।

    समाधान:

    • अधिकाधिक परीक्षणों हेतु एक समान महामारी विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिक्रिया बढ़ाने की आवश्यकता होगी। निकट संपर्क की व्यापक स्तर पर ट्रेकिंग, कोविड पॉज़िटिव के मामलों को अतिशीघ्र अलग करने के साथ-साथ राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में  ‘राष्ट्रीय नैदानिक प्रोटोकॉल’ (National Treatment Protocol) के अनुसार उपचार किया जाना चाहिये।

    भारतीय सार्स सीओवी-2 जीनोमिक कंसोर्टिया (INSACOG): 

    •  INSACOG प्रयोगशालाओं, एजेंसियों का एक अखिल भारतीय नेटवर्क है जो SARS-CoV-2 में जीनोमिक विभिन्नताओं का निरीक्षण करता है।
    • यह वायरस के विकसित होने और उसके प्रसार के कारणों का पता लगाने में सहायक है।  
    • जीनोमिक निगरानी (Genomic Surveillance) राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर रोगज़नक संचरण और विकास पर नज़र रखने हेतु जानकारी का एक समृद्ध स्रोत प्रदान कर सकती है।

    जीनोमिक अनुक्रमण: 

    • वायरस के केस में यह एक जीव के पूरे आनुवंशिक कोड की मैपिंग करने हेतु परीक्षण प्रक्रिया है।
    • वायरस का आनुवंशिक कोड निर्देश पुस्तिका की तरह कार्य करता है।
    • वायरस में उत्परिवर्तन का होना एक सामान्य घटना है लेकिन उनमें से अधिकांश महत्त्वहीन होते हैं जो किसी भी प्रकार के खतरनाक संक्रमण फैलाने या पैदा करने की क्षमता में परिवर्तन करने में सक्षम नहीं होते हैं।
    • लेकिन ब्रिटेन या दक्षिण अफ्रीका में पाए गए वायरस वेरिएंट में उत्परिवर्तन, वायरस को अधिक संक्रामक और कुछ मामलों में घातक भी बना सकते हैं।

    एवियन इन्फ्लूएंज़ा का डेटा साझा करने हेतु वैश्विक पहल: 

    • ग्लोबल इनिशिएटिव ऑन शेयरिंग एवियन इन्फ्लूएंज़ा डेटा (GISAID) पहल सभी इन्फ्लूएंज़ा वायरस और कोरोना वायरस के डेटा के तीव्र साझाकरण को बढ़ावा देती है। 
    • आनुवंशिकी अनुक्रमों के तीव्र साझाकरण ने शोधकर्त्ताओं को वायरस के प्रसार का तीव्रता से पता लगाने में मदद की है। 
    • GISAID ने नैदानिक किट के विकास, अनुसंधान हेतु प्रोटोटाइप वायर, टीके और एंटीबॉडी जैसे सुरक्षात्मक चिकित्सा उपचारों के विकास को भी बढ़ावा दिया है।
    • मई 2008 में 60वीं विश्व स्वास्थ्य सभा के अवसर पर GISAID प्लेटफाॅर्म को लॉन्च किया गया था। 
      • अपने लॉन्च के बाद से GISAID ने डब्लूएचओ ग्लोबल इन्फ्लूएंज़ा सर्विलांस एंड रिस्पॉन्स सिस्टम (GISRS) द्वारा द्वि-वार्षिक इन्फ्लूएंज़ा वैक्सीन वायरस की सिफारिशों हेतु  विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के सहयोग केंद्रों और राष्ट्रीय इन्फ्लूएंज़ा केंद्रों के बीच डेटा साझा करने में एक अहम भूमिका निभाई है।

    स्रोत: द हिंदू