वन अधिकार अधिनियम को सुगम बनाने हेतु FRA सेल्स की स्थापना
प्रिलिम्स के लिये:वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006, वनवासी, लघु वनोपज (MFP), वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 (FCA) मेन्स के लिये:ज़िला-स्तरीय वन अधिकार अधिनियम (FRA) सेल्स से संबंधित महत्त्व और चुनौतियाँ, वन अधिकार अधिनियम, चुनौतियाँ एवं उपाय। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय ने धरती आबा जनजाति ग्राम उत्कर्ष अभियान (DAJGUA) के तहत वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के कार्यान्वयन को सुगम बनाने के लिये 18 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में 324 ज़िला-स्तरीय FRA सेल स्थापित करने की मंज़ूरी प्रदान की है।
ज़िला-स्तरीय वन अधिकार अधिनियम (FRA) सेल क्या हैं?
- परिचय: ज़िला-स्तरीय FRA सेल प्रशासनिक सहायता इकाइयाँ हैं, जिन्हें वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के कार्यान्वयन को सुगम बनाने हेतु DAJGUA योजना के तहत स्थापित किया गया है।
- इन सेल्स को केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा अनुदान-सहायता (Grants-in-aid) के माध्यम से केंद्रीय रूप से वित्तपोषित किया जाता है।
- उद्देश्य: विशेष रूप से आदिवासी बहुल ज़िलों में वन अधिकार दावों को तैयार करने और प्रस्तुत करने में आदिवासी दावेदारों और ग्राम सभाओं की सहायता करना, जिसका उद्देश्य दस्तावेज़ीकरण, क्षेत्र सुविधा और डेटा प्रबंधन में सुधार करके देरी और अस्वीकृति को कम करना है।
- कानूनी आधार: ये सेल DAJGUA दिशा-निर्देशों के तहत कार्य करते हैं, न कि FRA अधिनियम के तहत।
- प्रमुख कार्य:
- वन भूमि के सीमांकन और वन बस्तियों तथा अवर्गीकृत गाँवों को राजस्व गाँवों में परिवर्तित करने की सुविधा प्रदान करना।
- FRA रिकॉर्ड्स के डिजिटलीकरण और राज्य एवं केंद्रीय पोर्टलों पर समय से अपलोड करने में सहयोग प्रदान करना।
- FRA प्रक्रियाओं को सुचारू बनाने के लिये राज्य जनजातीय कल्याण विभागों, स्थानीय प्रशासन और ग्राम सभाओं के साथ समन्वय स्थापित करना।
- नए FRA सेल से संबंधित प्रमुख चिंताएँ:
- FRA सेल्स के निर्माण से वन अधिकार अधिनियम के वैधानिक ढाँचे के बाहर एक समानांतर प्रणाली का गठन हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों के संबंध में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
- इस बात का जोखिम है कि FRA ,सेल ग्राम सभा वन अधिकार समितियों (FRC), उप-मंडल स्तरीय समितियों (SDLC) ज़िला स्तरीय समितियों (DLC) और राज्य निगरानी समितियों जैसे मौजूदा वैधानिक निकायों के साथ दावेदार सहायता, दस्तावेजीकरण, समन्वय और रिकॉर्ड रखने जैसी भूमिकाओं में ओवरलैप हो सकते हैं , जिससे ज़िम्मेदारियों के बारे में भ्रम पैदा हो सकता है और सुचारू कार्यान्वयन में बाधा आ सकती है।
- SDLC और DLC की अनियमित बैठकें तथा वन विभागों द्वारा स्वीकृत दावों के क्रियान्वयन में देरी जैसे संरचनात्मक मुद्दों का समाधान अकेले नए FRA सेल्स द्वारा संभव नहीं है।
वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 क्या है?
- अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 या वन अधिकार अधिनियम (FRA), वन में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों (ST) और अन्य पारंपरिक वन निवासियों (OTFD) द्वारा सामना किये गए ऐतिहासिक अन्याय को ठीक करने का प्रयास करता है, जिनके पास वन भूमि और संसाधनों पर कानूनी स्वामित्व नहीं था।
- उद्देश्य : पात्र वनवासी समुदायों को वन भूमि अधिकार प्रदान करना, आजीविका सुरक्षा, समुदाय आधारित वन प्रशासन और बेदखली के विरुद्ध कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित करना।
- प्रमुख प्रावधान:
- स्वामित्व अधिकार: लघु वन उपज (MFP) पर स्वामित्व प्रदान करता है। वन उपज के संग्रह, उपयोग और निपटान की अनुमति देता है।
- MFP से तात्पर्य वनस्पति मूल के सभी गैर-लकड़ी वन उत्पादों से है, जिसमें बाँस, झाड़-झंखाड़, स्टंप और बेंत शामिल हैं।
- सामुदायिक अधिकार: इसमें निस्तार (सामुदायिक वन संसाधन का एक प्रकार) जैसे पारंपरिक उपयोग अधिकार शामिल हैं।
- पर्यावास अधिकार: आदिम जनजातीय समूहों और पूर्व-कृषि समुदायों के उनके पारंपरिक पर्यावासों के अधिकारों की रक्षा करता है।
- सामुदायिक वन संसाधन (CFR): समुदायों को पारंपरिक रूप से संरक्षित वन संसाधनों की रक्षा, पुनर्जनन और स्थायी प्रबंधन करने में सक्षम बनाता है।
- यह अधिनियम सरकार द्वारा प्रबंधित लोक कल्याण परियोजनाओं के लिये वन भूमि के उपयोग की सुविधा प्रदान करता है, जो ग्राम सभा की मंज़ूरी के अधीन है।
- स्वामित्व अधिकार: लघु वन उपज (MFP) पर स्वामित्व प्रदान करता है। वन उपज के संग्रह, उपयोग और निपटान की अनुमति देता है।
- विकेंद्रीकृत ढाँचा: FRA नीचे से ऊपर की ओर शासन मॉडल का अनुसरण करता है, जो ग्राम सभा को दावों को आरंभ करने और सत्यापित करने का अधिकार देता है।
- गाँव स्तर पर दावों पर कार्रवाई करने के लिये ग्राम सभा द्वारा वन अधिकार समितियों (FRC) का गठन किया जाता है।
- इन दावों की समीक्षा उप-मंडल स्तरीय समितियों (SDLC) द्वारा की जाती है और ज़िला स्तरीय समितियों (DLC) द्वारा अनुमोदित की जाती है। राज्य निगरानी समितियाँ समग्र कार्यान्वयन की देखरेख करती हैं।
वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 का महत्त्व क्या है?
- ऐतिहासिक अधिकारों की मान्यता: वन अधिकार अधिनियम, 2006 ऐतिहासिक अन्याय को सुधारते हुए वन भूमि और संसाधनों पर अनुसूचित जनजातियों (ST) और अन्य पारंपरिक वनवासियों (OTFD) के व्यक्तिगत अधिकारों (पात्र ST और OTFD के लिये अधिकतम 4 हेक्टेयर तक) और सामुदायिक अधिकारों (चराई, मछली पकड़ना, लघु वनोपज, जल निकाय आदि) को कानूनी रूप से मान्यता देता है, जिन्हें औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक वन कानूनों के तहत नज़रअंदाज़ किया गया था।
- यह अधिनियम PVTG के आवासीय अधिकारों और घुमंतू समुदायों के लिये मौसमी सुलभता को भी मान्यता देता है।
- विकेन्द्रीकृत शासन के माध्यम से सशक्तीकरण: यह अधिनियम ग्राम सभा को अधिकार प्रदान करता है कि वह दावों का सत्यापन करे, सामुदायिक वन संसाधनों (CFR) का प्रबंधन करे, जैव विविधता का संरक्षण करे तथा सतत् वन शासन की निगरानी करे, जिससे विकेन्द्रीकृत और सहभागी निर्णय-निर्माण प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है।
- बेदखली से संरक्षण और विकास का अधिकार: भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के साथ मिलकर, यह अधिनियम वनवासियों को पुनर्वास के बिना बेदखल किये जाने से संरक्षण प्रदान करता है, और शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास जैसी आवश्यक सामुदायिक बुनियादी सुविधाओं के लिये वन भूमि के आवंटन की अनुमति देता है।
- समावेशी और सतत् संरक्षण: वनों, वन्यजीवों, जल स्रोतों और पारिस्थितिक क्षेत्रों के संरक्षण के लिये अधिकार धारकों और ग्राम सभाओं को ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, विशेष रूप से PVTG और कमज़ोर वन समुदायों के लिये पारंपरिक ज्ञान को सतत् उपयोग के साथ मिश्रित किया गया है।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 पर अधिक जानकारी
वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
पढ़ने के लिये क्लिक कीजिये: FRA, 2006 के कार्यान्वयन से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ
वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन को सशक्त बनाने के लिये क्या कदम उठाए जाने चाहिये?
पढ़ने के लिये क्लिक कीजिये: FRA के कार्यान्वयन को सशक्त बनाने हेतु उठाए जाने वाले कदम
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. एक केंद्रीय योजना के तहत FRA सेल बनाने के कानूनी और प्रशासनिक प्रभावों की चर्चा कीजिये, जबकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 राज्य-नेतृत्व वाले कार्यान्वयन का प्रावधान करता है। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन सा मंत्रालय नोडल एजेंसी है? (a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय उत्तर: (d) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) |
दलहन में आत्मनिर्भरता
प्रिलिम्स के लिये :दलहन, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), अल नीनो, दलहन में आत्मनिर्भरता मिशन, प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा) योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, पीएम-आशा योजना, किसान उत्पादक संगठन (FPO), कृषि विज्ञान केंद्र (KVKs), इंटरक्रॉपिंग, ज़ीरो-टिल फार्मिंग। मेन्स के लिये:भारत के दालों के उत्पादन और आयात में रुझान, भारत के दालों के उत्पादन और आयात से संबंधित मुद्दे, दालों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिये आवश्यक उपाय। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) निर्धारित किये जाने के बावजूद अपर्याप्त खरीद के कारण किसान खुले बाज़ार में कम कीमत पर दालें बेचने को मज़बूर हैं।
- बाज़ार में आयात में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है, जिससे घरेलू कीमतों में गिरावट आई है, परिणामस्वरूप दलहन का उत्पादन करने वाले किसानों को MSP खरीद में उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है, जो एक गंभीर संकट को दर्शाता है।
दलहन के संबंध में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- दलहन फलीदार पौधों के खाद्य बीज हैं, जिनकी कटाई केवल उनके सूखे दानों के लिये की जाती है , और ये लेग्युमिनोसी (फैबेसी) परिवार से संबंधित हैं।
- दलहनों में प्रोटीन, फाइबर और पोषक तत्त्व अधिक होते हैं, वसा कम होती है, ये नाइट्रोजन-फिक्सिंग फसलों के रूप में कार्य करती हैं जो मिट्टी की उर्वरता में सुधार करती हैं, और सूखने पर इनका शेल्फ जीवन लंबा होता है।
- जलवायु परिस्थितियाँ: दलहन उत्पादन के लिये 20-27 डिग्री सेल्सियस तापमान, 25-60 से.मी. वर्षा और रेतीली-दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है तथा इनकी खेती वर्ष भर की जाती है।
- रबी दलहन (60% से अधिक योगदान): चना (काबुली चना), चना (देशी चना), मसूर (लेंस); इन फसलों को बुवाई के लिये हल्की सर्दी, वृद्धि के लिये ठंडा मौसम तथा कटाई के समय गर्म मौसम की आवश्यकता होती है।
- खरीफ दलहन: मूँग (हरी मूँग), उड़द (काली दाल), अरहर (तुअर); इन फसलों को पूरे वृद्धि चक्र के दौरान गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है।
- भारत की उत्पादन स्थिति: भारत विश्व स्तर पर दलहन का सबसे बड़ा उत्पादक (25%), उपभोक्ता (27%) और आयातक (14%) है। शीर्ष उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक हैं।
- दलहन खाद्यान्न क्षेत्र के 20% हिस्से को कवर करती हैं, लेकिन कुल उत्पादन में केवल 7–10% का योगदान देती हैं। इनमें चना (लगभग 40%) प्रमुख फसल है, इसके बाद तूर/अरहर (15–20%) और उड़द व मूँग (प्रत्येक 8–10%) का स्थान आता है।
- भारत की दलहन आयात स्थिति: वर्ष 2024-25 में भारत का दलहन आयात 7.3 मिलियन टन तक पहुँच गया, जिसकी कीमत 5.5 अरब अमेरिकी डॉलर रही, यह अब तक का सर्वाधिक आयात है, जिसने वर्ष 2016-17 के पिछले रिकॉर्ड 6.6 मिलियन टन और 4.2 अरब डॉलर को पार कर लिया।
- भारत के लिये दालों के प्रमुख स्रोत कनाडा, रूस, ऑस्ट्रेलिया, मोज़ाम्बिक, तंज़ानिया, म्याँमार और अमेरिका थे।
- वर्ष 2017-18 के बाद दलहन आयात औसतन 2.6 मिलियन टन (1.7 अरब डॉलर) तक घट गया था, लेकिन वर्ष 2023-24 में अल नीनो के कारण पड़े सूखे ने आत्मनिर्भरता को प्रभावित किया, जिससे उत्पादन घटकर 24.2 मिलियन टन रह गया। हालाँकि, 2024-25 में यह आंशिक रूप से सुधरकर 25.2 मिलियन टन तक पहुँच गया।
भारत में दलहनों के निम्न उत्पादन के प्रमुख कारण क्या हैं?
- न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और नीतिगत पक्षपात: सरकार की MSP नीति गेहूँ और चावल के पक्ष में है, जबकि जल, विद्युत और उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी जल-प्रधान फसलों जैसे धान को प्रोत्साहित करती है। इससे किसान दलहनों की बजाय धान जैसी फसलों की कृषि ज्यादा करते हैं।
- गेहूँ और चावल की तरह दलहनों की सरकारी खरीद सुसंगत नहीं है, जिससे इसकी कृषि और हतोत्साहित होती है।
- जलवायु की अस्थिरता: दलहनों की कृषि अधिकतर वर्षा-आश्रित क्षेत्रों में होती है, जिससे यह मानसून वर्षा पर अत्यधिक निर्भर होती है।
- यह फसलें चरम मौसम की परिस्थितियों (जैसे अनावृष्टि, बेमौसम वर्षा, अनियमित मानसून) के प्रति कम सहनशील होती हैं और प्रायः क्षतिग्रस्त हो जाती हैं।
- कम उत्पादकता और स्थिर उपज दर: भारत में दलहनों की औसत उत्पादकता केवल 660 किग्रा/हेक्टेयर है, जो वैश्विक औसत 909 किग्रा/हेक्टेयर से काफी कम है। इसका कारण है—खराब बीज गुणवत्ता, उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYV) की कमी और उन्नत तकनीकों को अपनाने में बाधा।
- चावल और गेहूँ जैसे अनाजों की तुलना में दलहनों में अनुसंधान एवं विकास की वृद्धि धीमी रही है।
- विखंडित कृषि प्रणाली: अधिकांश दलहन किसान छोटे और सीमांत किसान हैं (जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है)। इससे उनके पास आर्थिक पैमाने का लाभ नहीं होता और वे बेहतर बीज, सिंचाई व्यवस्था और उर्वरकों में निवेश नहीं कर पाते।
- मृदा और कीट संबंधी चुनौतियाँ: दलहन फसलें प्रोटीन, अमीनो एसिड तथा सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से भरपूर होने के कारण कीटों को अधिक आकर्षित करती हैं, जिससे इनमें कीट और रोगों का प्रकोप अन्य फसलों की तुलना में अधिक होता है।
- उन्हें मृदा की लवणता, पोषक तत्त्वों की कमी और लागत की कमी के कारण फसल संरक्षण प्रौद्योगिकियों के सीमित उपयोग जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है।
दलहन उत्पादन बढ़ाने हेतु भारत की क्या पहल हैं?
दलहन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिये क्या उपाय आवश्यक हैं?
- उत्पादकता में वृद्धि: बेहतर उपज और बेहतर पोषण के लिये उच्च उत्पादक, जलवायु-प्रतिरोधी एवं रोग-प्रतिरोधी किस्मों जैसे अरहर की संकर और जैव-सशक्त दलहन (जैसे आयरन युक्त मसूर) को बढ़ावा देना।
- प्रमुख दलहन उत्पादक राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र) में सूक्ष्म सिंचाई (ड्रिप/स्प्रिंकलर) का विस्तार करना और खरीफ के बाद की खाली पड़ी धान की भूमि का उपयोग दलहन उत्पादन के लिये करना।
- मृदा स्वास्थ्य कार्ड, सेंसर-आधारित सिंचाई और AI-संचालित कीट प्रबंधन के माध्यम से परिशुद्ध कृषि (प्रिसिज़न फार्मिंग) को प्रोत्साहित करना।
- नीति एवं MSP सुधार: दालों की समय पर खरीद सुनिश्चित करके MSP खरीद को सुदृढ़ करना तथा अधिक किसानों को कवर करने के लिये पीएम-आशा योजना का विस्तार करना।
- दलहन को प्रोत्साहन देने के लिये जल-गहन फसलों (चावल, गन्ना) के लिये सहायता में कमी करके सब्सिडी को पुनः संतुलित करना तथा प्रोत्साहनों के माध्यम से धान-गेहूँ की एकल खेती से दालों और बाजरा की खेती में फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना।
- भंडारण सुधार: दलहनों के फसलोत्तर क्षति (वर्तमान में 5-10%) को कम करने के लिये आधुनिक वेयरहाउसिंग, साइलो और हर्मेटिक भंडारण का विस्तार करना। साथ ही खेतों के नज़दीक मिनी दाल मिल्स, फोर्टिफिकेशन और पैकेजिंग को समर्थन देकर प्रसंस्करण अवसंरचना को सुदृढ़ करना।
- किसानों को मध्यस्थों से बचने में सहायता करने के लिये किसान उत्पादक संगठनों (FPO) को प्रोत्साहित करके प्रत्यक्ष बाज़ार संपर्क को बढ़ावा देना।
- अनुसंधान एवं विस्तार सेवाओं को बढ़ावा देना: बहुफसली खेती के लिये शीघ्र पकने वाली मूंग जैसी अल्पावधि, उच्च उपज वाली किस्मों को विकसित करने हेतु अनुसंधान एवं विकास निधि में वृद्धि करना।
- कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) का विस्तार किया जाए ताकि किसानों को अंतरफसल प्रणाली (जैसे कपास और दलहन), शून्य जुताई कृषि, तथा एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM) में प्रशिक्षण दिया जा सके।
- बफर स्टॉक नीति: 2.5–3 मिलियन टन का गतिशील बफर स्टॉक बनाए रखा जाए ताकि मूल्य झटकों को कम किया जा सके। अधिशेष वाले वर्षों में आयात पर टैरिफ लगाकर उसे नियंत्रित किया जाए, जबकि कमी के समय आयात की अनुमति दी जाए।
निष्कर्ष
भारत के दलहन क्षेत्र को निम्न MSP पर खरीद, जलवायु असुरक्षा, और बढ़ते आयात जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद किसानों को नुकसान हो रहा है। आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिये, नीति सुधार, बेहतर सरकारी खरीद, उच्च उपज वाली किस्मों पर अनुसंधान एवं विकास (R&D), और भंडारण अवसंरचना का विकास अत्यंत आवश्यक है। घरेलू प्रोत्साहनों के साथ आयात में संतुलन स्थापित करने से मूल्य स्थिरता, किसानों की आय में वृद्धि, और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: "दलहनों का सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद, भारत भारी मात्रा में आयात पर निर्भर है।" भारत के दलहन क्षेत्र में प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के उपाय सुझाइए। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारत में दालों के उत्पादन के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (a) मेन्सप्रश्न. भारत में स्वतंत्रता के बाद कृषि क्षेत्र में हुई विभिन्न प्रकार की क्रांतियों की व्याख्या कीजिये। इन क्रांतियों ने भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार मदद की है? (2017) |