डेली न्यूज़ (07 Oct, 2025)



भारत में महिला श्रम बल भागीदारी

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल के वर्षों में भारत की महिला श्रम बल भागीदारी दर (FLFPR) में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। हालाँकि यह लैंगिक समानता के लिये आशाजनक प्रतीत होता है, लेकिन गहराई से देखने पर महिलाओं के लिये रोज़गार की गुणवत्ता, वेतन और क्षेत्रीय वितरण में लगातार चुनौतियाँ सामने आती हैं।

भारत में महिला श्रम बल भागीदारी के रुझान क्या हैं?

  • FLFPR:  FLFPR में वे महिलाएँ शामिल हैं जो या तो कार्यरत हैं या सक्रिय रूप से कार्य की तलाश में हैं। इस मानक में वृद्धि अनिवार्य रूप से आर्थिक समावेशन में सुधार को नहीं दर्शाती यदि किया गया कार्य अवैतनिक या गैर-पारिश्रमिक हो।
    • आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) (2023-24) के अनुसार, FLFPR वर्ष 2011-12 में 31.2% से घटकर 2017-18 में 23.3% हो गया, जो महिलाओं के श्रम बाज़ार से पीछे हटने की अवधि को दर्शाता है।
    • हालाँकि, वर्ष 2023-24 में यह तेज़ी से बढ़कर 41.7% हो गया, जो आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की नए सिरे से भागीदारी का संकेत देता है।
  • ग्रामीण महिलाओं द्वारा वृद्धि: FLFPR में हालिया वृद्धि मुख्यतः ग्रामीण महिलाओं के कारण हुई है, न कि शहरी भागीदारी के कारण।
    • ग्रामीण संकट, मुद्रास्फीति और घरेलू आय में वृद्धि की आवश्यकता ने अधिक महिलाओं को कार्य-संबंधी गतिविधियों में संलग्न होने के लिये मज़बूर किया है।
    • हालाँकि, ये आवश्यक रूप से औपचारिक या वेतनभोगी नौकरियाँ नहीं हैं; इस वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा अवैतनिक या स्व-रोज़गार भूमिकाओं के कारण है।
  • विविधीकरण के बजाय कृषि की ओर वापसी: संरचनात्मक परिवर्तन की अपेक्षाओं के विपरीत, महिलाएँ कृषि से बाहर निकलने के बजाय इसमें लौट रही हैं।
    • कृषि में ग्रामीण महिलाओं की हिस्सेदारी वर्ष 2018-19 में 71.1% से बढ़कर वर्ष 2023-24 में 76.9% हो गई, जबकि औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति में गिरावट आई है।
    • यह एक विपरीत संरचनात्मक बदलाव को दर्शाता है जो प्राय: महिलाओं के लिये सीमित गैर-कृषि अवसरों से जुड़ा होता है।
  • अवैतनिक और स्व-रोजगार में वृद्धि: महिलाओं की भागीदारी मुख्य रूप से अवैतनिक पारिवारिक श्रम और स्व-रोज़गार कार्यों में बढ़ी है, न कि वेतनभोगी या  मजदूरी वाले रोज़गार में।
    • वर्ष 2017-18 और वर्ष 2023-24 के बीच, ‘घरेलू कर्त्तव्यों’ की रिपोर्ट करने वाली महिलाओं की संख्या 57.8% से घटकर 35.7% हो गई, लेकिन ‘घरेलू उद्यमों में सहायक’ की संख्या 9.1% से बढ़कर 19.6% और ‘स्व-रोज़गार कार्यकर्त्ता और नियोक्ता’ की संख्या 4.5% से बढ़कर 14.6% हो गई।
    • इस प्रकार यह वृद्धि अवैतनिक घरेलू कार्य से अवैतनिक या कम वेतन वाले स्व-रोज़गार की ओर बदलाव को दर्शाती है।
    • यह दर्शाता है कि बढ़ी हुई भागीदारी बेहतर आय सुरक्षा या नौकरी की गुणवत्ता में परिवर्तित नहीं हुई है।
    • इसलिये भागीदारी में वृद्धि वास्तविक आर्थिक समावेशन के बजाय आर्थिक संकट को दर्शाती है।

कौन-सी संरचनात्मक बाधाएँ महिलाओं के श्रम बाज़ार परिणामों को कमज़ोर कर रही हैं?

  • कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों में अत्यधिक प्रतिनिधित्व: महिलाओं की एक बड़ी संख्या कृषि और अनौपचारिक क्षेत्रों में केंद्रित है, जिससे उच्च वेतन वाली, स्थिर नौकरियों तक उनकी पहुँच सीमित हो जाती है।
    • भारत में विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में वृद्धि के बावजूद, ये क्षेत्र पुरुष-प्रधान बने हुए हैं तथा कई ग्रामीण महिलाओं के लिये दुर्गम हैं।
  • दोहरा भार: ग्रामीण भारत में, महिलाओं की घरेलू और आर्थिक भूमिकाएँ प्राय: एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं, जिससे उनके कार्य को ‘रोज़गार’ के रूप में स्पष्ट रूप से वर्गीकृत करना मुश्किल हो जाता है।
    • कई महिलाएँ निर्वाह या परिवार-आधारित उद्यमों में लगी हुई हैं, जिन्हें प्राय: अवैतनिक माना जाता है या आधिकारिक आँकड़ों में कम गिना जाता है, जिससे वास्तविक सशक्तीकरण को दर्शाए बिना FLFPR के आँकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाते हैं।
      • आर्थिक सर्वेक्षण 2024 दर्शाता है कि महिलाओं का अवैतनिक देखभाल कार्य सकल घरेलू उत्पाद में 3.1% का योगदान देता है।
    • ऐसा 'अदृश्य' श्रम शायद ही कभी आय या परिसंपत्ति स्वामित्व में योगदान देता है, जिससे सशक्तीकरण का कोई मार्ग नहीं मिलता।
  • लैंगिक मानदंड और गतिशीलता से  जुड़ी बाधाएँ: महिलाओं की भूमिकाओं को लेकर सामाजिक अपेक्षाएँ, सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन तक सीमित पहुँच तथा बच्चों की देखभाल के बुनियादी ढाँचे का अभाव उनकी गतिशीलता और नौकरी के विकल्पों को काफी हद तक सीमित कर देता है।
    • महिलाएँ प्राय: घर-आधारित या आस-पास के कार्य को प्राथमिकता देती हैं, जिससे उन्हें कम वेतन वाले अनियमित क्षेत्रों में और भी अधिक कार्य करना पड़ता है।
  • अनौपचारिकता और सामाजिक सुरक्षा का अभाव: भारत में कार्यरत महिलाओं में से 90% से अधिक महिलाएँ अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करती हैं, जहाँ सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व लाभ या कानूनी सुरक्षा उपायों तक उनकी पहुँच न के बराबर है।
    • ऐसा रोज़गार आमतौर पर अनियमित, मौसमी और परिवार या स्थानीय नेटवर्क पर निर्भर होता है, जिससे महिलाओं की आय अस्थिर और निर्भर हो जाती है।

भारत FLFPR में वृद्धि को गुणात्मक आर्थिक समावेशन में कैसे बदल सकता है?

  • रोज़गार मापदंडों का पुनःनिर्धारण करना: सिर्फ भागीदारी दर (Participation Rate) के आधार पर मूल्यांकन करने के बजाय, आय, कार्य स्थितियाँ, कार्य के घंटे और संपत्तियों पर नियंत्रण जैसे पहलुओं को भी शामिल किया जाना चाहिये।
    • अवैतनिक देखभाल कार्य को शामिल करने तथा 'उत्पादक श्रम' की परिभाषा को पुनः परिभाषित करने के लिये राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) के समय उपयोग सर्वेक्षणों को एकीकृत करना।
    • 'रोजगार' को पुनः परिभाषित करना ताकि इसमें केवल गतिविधि ही नहीं, बल्कि मूल्यवर्द्धित कार्य भी प्रतिबिंबित हो।
  • लक्षित औपचारिक रोज़गार सृजन: महिलाओं के लिये वेतन आधारित रोज़गार सृजन हेतु प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (PLI), मेक इन इंडिया और MSME सहायता योजनाओं के तहत लैंगिक-संवेदनशील प्रोत्साहन शुरू किये जाएँ, ताकि महिलाओं के लिये अधिक वेतन आधारित रोज़गार के अवसर उत्पन्न किये जा सकें।
    • निकटता-आधारित रोज़गार को सुविधाजनक बनाने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम-प्रधान उद्योगों (जैसे, वस्त्र, खाद्य प्रसंस्करण) को बढ़ावा देना।
    • महिलाओं से संबंधित विशिष्ट कार्यों (जैसे, वनरोपण, वृद्धों की देखभाल) के लिये मनरेगा जैसी योजनाओं का विस्तार करना।
  • देखभाल संबंधी बुनियादी ढाँचे और सामाजिक सेवाओं को बढ़ाना: महिलाओं के अवैतनिक बोझ को कम करने के लिये सामुदायिक बाल देखभाल केंद्र, वृद्ध देखभाल सेवाएँ और सार्वजनिक खाना पकाने की सुविधाएँ स्थापित करना।
    • ये सेवाएँ 'सामाजिक बुनियादी ढाँचे' के रूप में कार्य करती हैं, जिससे महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी बढ़ जाती है।
  • कौशल और डिजिटल समावेशन में निवेश: स्वास्थ्य, शिक्षा, लॉजिस्टिक्स और डिजिटल सेवाओं जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए क्षेत्र-विशिष्ट, मांग-आधारित कौशल कार्यक्रम शुरू करना।
    • विनियामक सुरक्षा उपायों और डिजिटल पहुँच के साथ महिलाओं को प्लेटफॉर्म और गिग इकॉनमी की नौकरियों में शामिल होने के लिये सशक्त बनाना।
  • स्व-रोज़गार वाली महिलाओं को मान्यता देना और समर्थन करना: स्वयं सहायता समूहों (SHG) को मज़बूत करना और उन्हें औपचारिक ऋण और बाज़ार मंचों से जोड़ना।
    • स्वरोज़गार को अधिक टिकाऊ बनाने के लिये उद्यम प्रशिक्षण, ई-कॉमर्स लिंकेज और डिजिटल वित्तीय साक्षरता प्रदान करना।
  • गहरी जड़ें जमा चुकी लैंगिक मान्यताओं को चुनौती देना: सार्वजनिक जन जागरूकता अभियान, स्कूल स्तर पर जागरूकता और मीडिया के माध्यम से साझा घरेलू ज़िम्मेदारियों और गैर-पारंपरिक नौकरियों में महिला रोल मॉडल को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

भारत में महिलाओं की बढ़ती श्रम शक्ति भागीदारी सशक्तीकरण नहीं, बल्कि लचीलेपन को दर्शाती है। वास्तविक प्रगति तब होगी जब इस संख्या वृद्धि को गुणवत्तापूर्ण रोज़गार, उचित वेतन और समान अवसरों तक पहुँच में बदला जाए। इस परिवर्तन को प्राप्त करना सतत् विकास लक्ष्य 5: लैंगिक समानता (SDG 5: Gender Equality) का मूल तत्त्व है, जो आर्थिक जीवन में महिलाओं की पूर्ण तथा प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में महिलाओं की श्रम भागीदारी में वृद्धि, सशक्तीकरण को नहीं, बल्कि लचीलेपन को दर्शाती है। महिलाओं के रोज़गार की गुणवत्ता के संदर्भ में चर्चा कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. भारत की वर्तमान महिला श्रम बल भागीदारी दर (FLFPR) क्या है?
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) 2023-24 के अनुसार, भारत का FLFPR 41.7% है, जो वर्ष 2017-18 में 23.3% था।

2. FLFPR में वृद्धि किस समूह के कारण हुई है?
यह वृद्धि मुख्य रूप से ग्रामीण महिलाओं के कारण हो रही है, जो अक्सर आर्थिक संकट और घरेलू आय की ज़रूरतों के कारण कार्यबल में प्रवेश करती हैं।

3. भारत में महिलाओं के रोज़गार में कौन से क्षेत्र प्रमुख हैं?
लगभग 76.9% ग्रामीण महिलाएँ कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं तथा उद्योग एवं सेवा क्षेत्र में उनकी भागीदारी घट रही है।

4. FLFPR में वृद्धि को संकट से प्रेरित क्यों माना जाता है?
अधिकांश नए कार्य अवैतनिक या स्व-रोज़गार में हैं, जो औपचारिक रोज़गार सृजन के बजाय आर्थिक मजबूरी को दर्शाता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)

प्रिलिम्स

प्रश्न. प्रच्छन्न बेरोज़गारी का आमतौर पर अर्थ होता है- (2013)

(a) बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार रहते हैं

(b) वैकल्पिक रोज़गार उपलब्ध नहीं है

(c) श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य है

(d) श्रमिकों की उत्पादकता कम है

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न: भारत में सबसे ज्यादा बेरोज़गारी प्रकृति में संरचनात्मक है। भारत में बेरोज़गारी की गणना के लिये अपनाई गई पद्धतियों का परीक्षण कीजिये और सुधार के सुझाव दीजिये। (2023)

प्रश्न: हाल के समय में भारत में आर्थिक संवृद्धि की प्रकृति का वर्णन अक्सर नौकरीहीन संवृद्धि के तौर पर किया जाता है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत कीजिये। (2015)

प्रश्न: "जिस समय हम भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) को शान से प्रदर्शित करते हैं, उस समय हम रोज़गार-योग्यता की पतनशील दरों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।" क्या हम ऐसा करने में कोई चूक कर रहे हैं? भारत को जिन जॉब्स की बेसब्री से दरकार है, वे जॉब कहाँ से आएंगी? स्पष्ट कीजिये। (2014)


जन योजना अभियान (PPC) 2025–26

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों? 

पंचायती राज मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जन योजना अभियान (PPC) 2025-26: ‘सबकी योजना, सबका विकास’ शुरू किया।

जन योजना अभियान (PPC) क्या है?

  • परिचय: 2 अक्तूबर, 2018 को शुरू की गई PPC (जिसे जन योजना अभियान के रूप में भी जाना जाता है) का उद्देश्य ग्राम, ब्लॉक और ज़िला स्तर पर पंचायत विकास योजनाओं (PDP) को तैयार करने में नागरिकों को शामिल करके भागीदारीपूर्ण, पारदर्शी तथा  जवाबदेह स्थानीय शासन को मज़बूत करना है।
  • उद्देश्य:
    • समावेशी और अभिसारी विकास योजनाएँ (ग्राम PDP, ब्लॉक PDP, ज़िला PDP) तैयार करना।
    • यह अभियान सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के नौ विषयगत दृष्टिकोणों को PDP में एकीकृत करके और स्वयं सहायता समूहों (SHG) संघों द्वारा तैयार की गई ग्राम समृद्धि एवं लचीलापन योजनाओं (VPRP) को शामिल करके सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के प्रभावी स्थानीयकरण को प्राप्त करने का प्रयास करता है।
    • महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों (WER) और सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से लैंगिक -संवेदनशील शासन को बढ़ावा देना।
    • यह जन सूचना अभियानों और ग्राम सभा के खुलासों के माध्यम से पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।
  • PPC उपलब्धि: ई-ग्रामस्वराज पोर्टल के अनुसार जुलाई 2025 तक वर्ष 2019-20 से 2025-26 तक 18.13 लाख से अधिक PDP अपलोड किये गए हैं।
  • PPC 2025–26 की मुख्य विशेषताएँ:
    • ग्राम सभाएँ ई-ग्राम स्वराज, मेरी पंचायत ऐप और पंचायत निर्णय का उपयोग करते हुए पिछले GPDP की समीक्षा करेंगी, प्रगति का आकलन करेंगी, देरी का समाधान करेंगी तथा अधूरी परियोजनाओं को प्राथमिकता देंगी; विशेष रूप से वे परियोजनाएँ जो अप्रयुक्त केंद्रीय वित्त आयोग अनुदानों से जुड़ी हैं।
      • यह प्रक्रिया सभासार द्वारा समर्थित पंचायत उन्नति सूचकांक (PAI) द्वारा निर्देशित होगी, जिसका ध्यान पंचायतों के स्वयं के स्रोत राजस्व (OSR) में सुधार लाने तथा सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाने पर केंद्रित होगा।
    • यह अभियान आदि कर्मयोगी अभियान के माध्यम से जनजातीय सशक्तीकरण, पारदर्शिता, जवाबदेही और समावेशी ग्रामीण विकास को बढ़ाने पर केंद्रित है।

भारत के विकास ढाँचे में पंचायतों की क्या भूमिका है?

  • संवैधानिक दायित्व: त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की आधारभूत इकाई के रूप में ग्राम पंचायत को ग्रामीण भारत में सहभागी लोकतंत्र और विकेंद्रीकृत शासन को मज़बूत करने के लिये 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा संस्थागत रूप दिया गया।
    • अनुच्छेद 243G पंचायतों को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये कार्यक्रमों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने का अधिकार देता है, जिससे वे स्थानीय स्वशासन की स्वायत्त इकाइयाँ बन जाती हैं।
  • सेवा वितरण एवं कल्याण: पंचायतें आवश्यक बुनियादी ढाँचे और सेवाएँ प्रदान करने के लिये सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं, जिनमें जल आपूर्ति, स्वच्छता, सड़क, स्ट्रीट लाइटिंग, स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण शामिल हैं तथा कल्याणकारी योजनाओं और सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को लागू करना शामिल है।
  • विकास नियोजन: वार्षिक ग्राम पंचायत विकास योजनाएँ (GPDP) सहभागी ग्राम सभाओं में तैयार की जाती हैं, जिसमें स्थानीय प्राथमिकताओं को शामिल करना सुनिश्चित किया जाता है।
    • योजनाएँ व्यापक हैं, जिनमें ग्यारहवीं अनुसूची के 29 विषयों को शामिल किया गया है तथा संसाधन-संरेखित हैं, जिनमें केंद्रीय और राज्य निधियों का उपयोग किया गया है।
    • ब्लॉक (BPDP) और ज़िला पंचायत विकास योजनाएँ (DPDP) पहलों के अभिसरण, समन्वय तथा प्रभावी पैमाने को सुनिश्चित करती हैं।
  • जन योजना: स्वयं सहायता समूह (SHG) ग्राम समृद्धि और लचीलापन योजनाओं (VPRP) के माध्यम से योगदान करते हैं, जिसमें समुदाय-संचालित, लिंग-संवेदनशील और सामाजिक रूप से समावेशी विकास दृष्टिकोण शामिल होते हैं।
  • सतत् विकास लक्ष्यों का स्थानीयकरण: पंचायतें सतत् विकास लक्ष्यों (गरीबी मुक्त, स्वस्थ, बाल-अनुकूल, पर्याप्त जल, स्वच्छ एवं हरित, आत्मनिर्भर अवसंरचना, सामाजिक रूप से सुरक्षित, सुशासन और महिला-अनुकूल गाँव) के नौ विषयगत दृष्टिकोणों को स्थानीय योजनाओं में एकीकृत करके महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
    • इन सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) विषयों को शामिल करके, पंचायतें राष्ट्रीय और वैश्विक विकास लक्ष्यों को ज़मीनी स्तर पर मापने योग्य तथा प्रभावशाली परिणामों में परिवर्तित करने के लिये आवश्यक साधन के रूप में कार्य करती हैं।

PPC की प्रभावशीलता में सुधार हेतु प्रमुख चुनौतियाँ और कार्यान्वयन योग्य रणनीतियाँ क्या हैं?

चुनौतियाँ

कार्रवाई योग्य रणनीतियाँ 

  • ग्राम पंचायतों में प्रभावी योजना के लिये प्रशिक्षित कर्मी और तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव है, जैसा कि दूसरी प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने बताया गया है।
  • राज्य ग्रामीण विकास और पंचायती राज संस्थानों (SIRD&PRs) के माध्यम से पंचायत अधिकारियों और फसिलिटेटरों को प्रशिक्षित करना।
  • पंचायतें केवल 1% राजस्व करों के माध्यम से वित्त एकत्रित करती हैं। उनका अधिकांश राजस्व केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा प्रदान किये जाने वाले अनुदानों से आता है। 
  • सीमित स्वयं संचालित राजस्व (OSR) विकास प्राथमिकताओं को लागू करने में स्वायत्तता कम करता है। 
  • कुछ क्षेत्रों में प्रमुख योजनाओं के तहत निधि न मिलने की भी रिपोर्टें हैं, जिससे उनकी कार्यप्रणाली प्रभावित होती है।
  • 15वीं वित्त आयोग द्वारा अनुशंसित OSR जुटाने और प्रदर्शन-आधारित अनुदानों को प्रोत्साहित करना।
  • दूरदराज के क्षेत्रों में खराब कनेक्टिविटी ई-गवर्नेंस और eGramSwaraj जैसे प्लेटफार्मों के माध्यम से वास्तविक समय निगरानी को प्रभावित करती है।
  • भारतनेट का विस्तार करना, डिजिटल अवसंरचना मज़बूत करना और ई-ग्राम स्वराज, पंचायत निर्णय, मेरी पंचायत ऐप पर हितधारकों को प्रशिक्षित करना।
  • बहु-विभागीय समन्वय कमज़ोर है, जिससे समग्र योजना प्रभावित होती है।

निष्कर्ष:

जन योजना अभियान सामुदायिक भागीदारी को डिजिटल नियोजन के साथ जोड़कर विकेंद्रीकरण को मज़बूत कर रहा है। PPC 2025-26 पंचायती राज को और अधिक पारदर्शी, समावेशी और जवाबदेह बना सकता है, जिससे समतामूलक ग्रामीण विकास को बढ़ावा मिलेगा और वर्ष 2047 तक भारत के विकसित भारत के विज़न को आगे बढ़ाया जा सकेगा।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: जन योजना अभियान पंचायत स्तर पर सहभागी शासन को किस प्रकार मज़बूत करता है?

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs):

पीपल्स प्लान कैंपेन (PPC) क्या है?
पीपल्स प्लान कैंपेन (PPC), जिसे वर्ष 2018 में लॉन्च किया गया था, एक राष्ट्रीय पहल है जो ग्राम, ब्लॉक और ज़िला पंचायत विकास योजनाओं के माध्यम से सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही वाले स्थानीय शासन को बढ़ावा देती है।

कौन-सा संवैधानिक प्रावधान PPC के तहत पंचायतों को अधिकार प्रदान करता है?
73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के अनुच्छेद 243G पंचायतों को स्थानीय स्तर पर आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये कार्यक्रमों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने का अधिकार प्रदान करता है।

PPC 2025–26 में योजना और निगरानी के लिये कौन-से डिजिटल उपकरण उपयोग किये जाते हैं?
ई-ग्राम स्वराज, पंचायत निर्णय, मेरी पंचायत ऐप, साथ ही पंचायत उन्नयन सूचकांक (Panchayat Advancement Index – PAI) और सभा सार (SabhaSaar) जैसे प्लेटफॉर्म योजना निर्माण, प्रगति मूल्यांकन और सामुदायिक सहभागिता को समर्थन देते हैं।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न1. स्थानीय स्वशासन की सर्वोत्तम व्याख्या यह की जा सकती है कि यह एक प्रयोग है (2017)

(a) संघवाद का

(b) लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का

(c) प्रशासकीय प्रत्यायोजन का

(d) प्रत्यक्ष लोकतंत्र का

उत्तर: (b)


प्रश्न 2. पंचायती राज व्यवस्था का मूल उद्देश्य क्या सुनिश्चित करना है? (2015)

  1. विकास में जन-भागीदारी 
  2. राजनीतिक जवाबदेही 
  3. लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण 
  4. वित्तीय संग्रहण (फ़ाइनेंशियल मोबिलाइज़ेशन)

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 3

(b) केवल 2 और 4

(c) केवल 1 और 3

(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न 1. भारत में स्थानीय शासन के एक भाग के रूप में पंचायत प्रणाली के महत्त्व का आकलन कीजिये। विकास परियोजनाओं के वित्तीयन के लिये पंचायतें सरकारी अनुदानों के अलावा और किन स्रोतों को खोज सकती हैं? (2018)

प्रश्न 2. आपकी राय में भारत में शक्ति के विकेंद्रीकरण ने ज़मीनी-स्तर पर शासन परिदृश्य को किस सीमा तक परिवर्तित किया है? (2022)

प्रश्न 3. सुशिक्षित और व्यवस्थित स्थानीय स्तर शासन-व्यवस्था की अनुपस्थिति में 'पंचायतें' और 'समितियाँ' मुख्यतः राजनीतिक संस्थाएँ बनी रही हैं न कि शासन के प्रभावी उपकरण। समालोचनापूर्वक चर्चा कीजिये। (2015)