भारत में उत्तरदायी और नागरिक-केंद्रित पुलिसिंग का भविष्य-निर्माण | 06 Dec 2025
यह एडिटोरियल 04/12/2025 को द हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित “Police reforms and the making of Viksit Bharat” पर आधारित है। यह लेख औपनिवेशिक काल की पुलिसिंग मानसिकता को त्यागकर नागरिक-केंद्रित, सेवा-उन्मुख पुलिस बल के निर्माण की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालता है। इसके लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनिवार्य सुधारों को लागू करना, स्वायत्तता सुनिश्चित करना और जनता का विश्वास पुनर्स्थापित करने के लिये पुलिसिंग का आधुनिकीकरण करना आवश्यक है।
प्रिलिम्स के लिये: भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम, भारतीय न्याय संहिता (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA), प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामला, राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण, इंडिया जस्टिस रिपोर्ट- 2025, भारत का पुलिस बल
मेन्स के लिये: भारत की पुलिस प्रणाली का विकास, भारत में प्रभावी पुलिसिंग में बाधा डालने वाले प्रणालीगत मुद्दे
भारतीय पुलिस बल के बारे में जनता की धारणा बदलने के लिये भारत के प्रधानमंत्री का हालिया आह्वान एक गंभीर चुनौती को उजागर करता है: स्वतंत्रता के 78 वर्ष बाद भी, हम औपनिवेशिक काल की पुलिस व्यवस्था से जूझ रहे हैं, जिसे लोकतांत्रिक मूल्यों की नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति के लिये तैयार किया गया है। एक विकसित भारत के निर्माण के लिये आर्थिक प्रगति से कहीं अधिक, न्याय और जनता के विश्वास पर आधारित विधि-व्यवस्था की ठोस नींव की आवश्यकता है। इस परिवर्तन के लिये एक व्यापक, बहुआयामी प्रयास की आवश्यकता है, जिसकी शुरुआत स्वयं पुलिस से हो, जिसे औपनिवेशिक रवैये के स्थान पर शिष्टाचार, व्यावसायिकता और उत्तरदायित्व से युक्त सेवा-उन्मुख मानसिकता अपनाने की आवश्यकता है। परिचालन स्वायत्तता सुनिश्चित करने, राजनीतिक हस्तक्षेप को समाप्त करने और आधुनिक बुनियादी अवसंरचना एवं तकनीक में निवेश करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनिवार्य सुधारों को लागू करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।
भारत में पुलिस प्रणाली के विकास को कौन-से प्रमुख परिवर्तन परिभाषित करते हैं?
- विधायी ‘विउपनिवेशीकरण’ (2023-24): 160 से अधिक वर्षों तक, भारतीय पुलिस व्यवस्था भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम और दंड प्रक्रिया संहिता पर आधारित रही।
- सबसे महत्त्वपूर्ण हालिया परिवर्तन ‘भारतीय’ संहिताओं के पक्ष में इन औपनिवेशिक कानूनों को निरस्त करना है, जो दंड (दंड) से ‘न्याय’ (न्याय) की ओर एक प्रतीकात्मक एवं प्रक्रियात्मक बदलाव को दर्शाता है।
- नए कानून, भारतीय न्याय संहिता (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) 7+ वर्ष की सजा वाले सभी अपराधों में फोरेंसिक के उपयोग को अनिवार्य करते हैं, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को प्राथमिक साक्ष्य के रूप में मान्यता देते हैं तथा सामुदायिक सेवा को दंड के रूप में पेश करते हैं।
- इससे पुलिस को ‘स्वीकारोक्ति-आधारित’ जाँच (जो प्रायः थर्ड-डिग्री टॉर्चर का कारण बनती है) से हटकर साक्ष्य-आधारित पुलिसिंग की ओर जाने के लिये बाध्य होना पड़ता है, जिसके लिये वैज्ञानिक क्षमताओं में बड़े पैमाने पर उन्नयन की आवश्यकता होती है।
- प्रकाश सिंह वाटरशेड (न्यायिक सक्रियता): संरचनात्मक सुधार के लिये सबसे निर्णायक क्षण सर्वोच्च न्यायालय का वर्ष 2006 का प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामला का निर्णय था।
- इससे पहले, पुलिस सुधारों पर मुख्यतः समिति की रिपोर्टों (जैसे राष्ट्रीय पुलिस आयोग, 1977 ) में अकादमिक चर्चाएं होती थीं।
- न्यायालय ने विधायी निष्क्रियता को दरकिनार कर दिया तथा पुलिस को राजनीतिक दबाव से बचाने के लिये महत्त्वपूर्ण बाध्यकारी निर्देश जारी किये।
- निश्चित कार्यकाल: राजनीतिक रूप से प्रेरित स्थानांतरण को रोकने के लिये DGP और SP का न्यूनतम 2 वर्ष तक कार्यकाल सुनिश्चित करना।
- शाखाओं का पृथक्करण: विधि एवं व्यवस्था शाखा (भीड़ नियंत्रण के लिये) से अलग जाँच शाखा (अपराध समाधान के लिये) को अनिवार्य बनाया गया है, हालाँकि इसका कार्यान्वयन अभी भी अपूर्ण है।
- पुलिस स्थापना बोर्ड (PEB): स्थानांतरण संबंधी निर्णय राजनेताओं के हाथों से लेकर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को देना।
- डिजिटल लीप - थाना रिकॉर्ड से CCTNS तक: ऐतिहासिक रूप से, भारतीय पुलिस व्यवस्था असंबद्ध थी; एक ज़िले का अपराधी अगले ज़िले की पुलिस के लिये अनजान होता था। 26/11 के मुंबई हमलों के बाद, एक बड़े पैमाने पर डिजिटल परिवर्तन शुरू हुआ।
- नेटवर्क पुलिसिंग: अपराध और अपराधी ट्रैकिंग नेटवर्क एवं सिस्टम (CCTNS) के गठन से 17,000 से अधिक पुलिस स्टेशनों को एकल डिजिटल ग्रिड में जोड़ा गया।
- डेटा-संचालित इंटेलिजेंस: यह इंटर-ऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (ICJS) के रूप में विकसित हुआ, जो अब पुलिस, अदालतों, कारागारों और फोरेंसिक डेटा को एकीकृत करता है।
- यह परिवर्तन पूर्वानुमानित पुलिसिंग और त्वरित पृष्ठभूमि जाँच की अनुमति देता है, जो 20वीं सदी के मैनुअल रजिस्टरों से बहुत दूर है।
- विशेषीकृत पुलिसिंग का केंद्रीकरण: यद्यपि संविधान के तहत पुलिस राज्य का विषय है, आधुनिक अपराध (आतंकवाद, धन शोधन) की प्रकृति कोई सीमा नहीं मानती।
- एक प्रमुख परिवर्तन विशेषीकृत केंद्रीय एजेंसियों के माध्यम से जाँच का संघीयकरण रहा है।
- राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (NIA) (वर्ष 2008 के बाद) का उदय और सशक्त प्रवर्तन निदेशालय (ED) की बढ़ी हुई शक्तियाँ यह संकेत देती हैं कि उच्च जोखिम वाले अपराधों एवं संवेदनशील जाँचों का दायित्व अब अधिकाधिक केंद्र के हाथों में केंद्रित हो रहा है, जिससे राज्यों की पुलिस-क्षमताओं की सीमाएँ अप्रत्यक्ष रूप से परे हो रही हैं।
- स्मार्ट पुलिसिंग का प्रतिमान: वर्ष 2014 में, प्रधानमंत्री ने संक्षिप्त नाम SMART (Strict and Sensitive, Modern and Mobile, Alert and Accountable, Reliable and Responsive, Techno-savvy and Trained) संकल्पना प्रस्तुत की गयी जिसने पुलिस प्रशासन को सख्ती और संवेदनशीलता, आधुनिकता और गतिशीलता, सतर्कता और जवाबदेही, विश्वसनीयता और त्वरित प्रतिक्रिया तथा तकनीक-सक्षमता और प्रशिक्षण जैसे गुणों की दिशा में अग्रसर किया।
- सॉफ्ट स्किल्स एवं समुदाय: यह चरण पुलिसिंग की पारंपरिक बल-केंद्रित प्रवृत्ति से सेवा-उन्मुख दृष्टिकोण की ओर सैद्धांतिक परिवर्तन का प्रतीक था।
- केरल की जनमैत्री सुरक्षा परियोजना तथा तमिलनाडु की फ्रेंड्स ऑफ पुलिस जैसी पहलें पुलिस एवं समुदाय के बीच विश्वास-निर्माण तथा सहकार्यपूर्ण साझेदारी को बढ़ाने के प्रयोग के रूप में सामने आयीं।
- प्रौद्योगिकी एकीकरण: इस नए प्रतिमान के अंतर्गत बॉडी कैमरा, भीड़-नियंत्रण हेतु ड्रोन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता-आधारित फेस रिकग्निशन सिस्टम जैसी तकनीकों को अपनाने पर बल दिया गया जिनका उद्देश्य मानव-जनित त्रुटियों एवं अंतर्निहित पक्षपात को कम करके निर्णय-प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और सटीक बनाना था।
- सॉफ्ट स्किल्स एवं समुदाय: यह चरण पुलिसिंग की पारंपरिक बल-केंद्रित प्रवृत्ति से सेवा-उन्मुख दृष्टिकोण की ओर सैद्धांतिक परिवर्तन का प्रतीक था।
भारत में प्रभावी पुलिसिंग में कौन-से व्यवस्थागत मुद्दे बाधा डालते हैं?
- राजनीतिक दखलंदाज़ी और संचालनात्मक स्वायत्तता का अभाव: पुलिस बल स्थानांतरण-पोस्टिंग उद्योग से बुरी तरह प्रभावित है, जहाँ राजनीतिक अधिकारी जाँच को नियंत्रित करने और असहमति को दबाने के लिये कार्यकाल में हेर-फेर करते हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के प्रकाश सिंह निर्देशों का उल्लंघन है।
- कार्यात्मक स्वायत्तता की कमी के कारण अधिकारी विधि के शासन की अपेक्षा राजनीतिक निष्ठा को प्राथमिकता देने को बाध्य होते हैं, जिससे जनता का विश्वास और निष्पक्ष न्याय प्रदान करने की क्षमता कम हो जाती है।
- उदाहरण के लिये, अक्तूबर 2024 में, संवेदनशील आर्मस्ट्रांग हत्या मामले की जाँच कर रहे तमिलनाडु के एक DSP का अचानक तबादला कर दिया गया (जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी), जिसके कारण राजनीतिक हस्तक्षेप की आलोचना हुई।
- स्थायी कार्मिक की कमी और अत्यधिक बोझ से दबा कार्यबल: भारत में पुलिस-जनसंख्या अनुपात अत्यंत कम बना हुआ है, जिससे सक्रिय बल के बजाय प्रतिक्रियात्मक बल का निर्माण हो रहा है, जिसपर निरंतर अत्यधिक भार होता है, जिसके परिणामस्वरूप निम्नस्तरीय गुणवत्ता वाली जाँच और विलंबित न्याय होता है।
- यह जनशक्ति की कमी मौजूदा कर्मचारियों को अमानवीय घंटों तक काम करने के लिये विवश करती है, जिससे सामुदायिक पुलिसिंग या खुफिया जानकारी जुटाने में उनकी दक्षता एवं क्षमता पर सीधा असर पड़ता है।
- इंडिया जस्टिस रिपोर्ट- 2025 में बताया गया है कि वास्तविक पुलिस संख्या प्रति 100,000 जनसंख्या पर लगभग 155 है, जो स्वीकृत संख्या 197 से काफी कम है।
- सरकार की वर्ष 2021 की रिपोर्ट के अनुसार राज्य पुलिस बलों में 5.3 लाख से अधिक रिक्तियाँ हैं।
- विषाक्त कार्य संस्कृति और मानसिक स्वास्थ्य संकट: कांस्टेबुलरी कल्चर निम्न श्रेणी के कार्मिकों को पेशेवर संपत्ति के बजाय अधीनस्थ श्रमिक के रूप में मानती है तथा उन्हें 14 घंटे का कार्यदिवस, छुट्टियों से वंचित करना और अपमानजनक पदानुक्रम के अधीन रखती है।
- इस प्रणालीगत उपेक्षा ने गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट को जन्म दिया है जहाँ तनाव और थकान सामान्यीकृत हो चुके हैं तथा आत्महत्या और आपसी हिंसा की घटनाएँ बढ़ रही हैं।
- उदाहरण के लिये, कर्नाटक में एक सब-इंस्पेक्टर की अगस्त 2024 में स्थानांतरण को लेकर कथित उत्पीड़न के बाद तनाव-प्रेरित हृदयाघात से मृत्यु हो गई, जिससे राज्यव्यापी आक्रोश फैल गया।
- जबकि CISF ने वर्ष 2024 में आत्महत्याओं में गिरावट दर्ज की है, CAPF और राज्य पुलिस में आत्महत्या की दर चिंताजनक बनी हुई है।
- लैंगिक असमानता और पुरुषवादी पुलिस संरचना: भारत में पुलिस व्यवस्था अभी भी गहन रूप से पितृसत्तात्मक है, जिसमें महिलाओं को सक्रिय युद्ध या जाँच भूमिकाओं के बजाय बड़े पैमाने पर डेस्क जॉब या महिला सहायता डेस्क तक सीमित रखा गया है, जिससे लैंगिक रूप से संवेदनशील अपराधों से निपटने में पुलिस बल की क्षमता सीमित हो जाती है।
- भर्ती और पोस्टिंग में प्रणालीगत पूर्वाग्रह यह सुनिश्चित करता है कि पुलिस बल उस समाज की विविधता को प्रतिबिंबित नहीं करता है जिसकी वह सेवा करता है, जिससे 50% आबादी के साथ प्रभावी संचार में बाधा उत्पन्न होती है।
- उदाहरण के लिये, कर्नाटक में पुलिस बल में केवल 8.91% महिलाएँ हैं, जो राष्ट्रीय औसत 12.73% से काफी कम है तथा बिहार जैसे राज्यों से भी काफी पीछे है, जहाँ यह हिस्सेदारी सबसे अधिक 23.66% है।
- यह स्थिति तब है जब कर्नाटक सरकार ने महिलाओं के लिये 25% पद आरक्षित कर रखे हैं, जैसा कि नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU), बेंगलुरु द्वारा किये गए एक परियोजना अध्ययन में बताया गया है।
- बुनियादी अवसंरचना में कमी बनाम स्मार्ट पुलिसिंग के दावे: जबकि सरकार स्मार्ट पुलिसिंग और AI एकीकरण पर ज़ोर दे रही है, ज़मीनी हकीकत यह है कि बुनियादी अवसंरचना चरमरा रहा है, जहाँ ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी स्टेशनों में फोरेंसिक उपकरण, वाहन, साइबर-प्रयोगशालाएँ और डिजिटल साधन अनेक स्थानों पर उपलब्ध ही नहीं हैं।
- यह स्थिति जुलाई वर्ष 2024 से लागू नये दंड संहिताओं के उन प्रावधानों को अव्यवहारिक बना देती है जिनमें वीडियो-रिकॉर्डिंग अनिवार्य की गयी है जबकि कई ज़िलों में क्लाउड स्टोरेज तथा उपकरण तक उपलब्ध नहीं हैं।
- हालिया सरकारी आँकड़ों के अनुसार देश के 63 थानों के पास कोई वाहन नहीं है, 628 थानों में लैंडलाइन फोन नहीं है और 285 थाने वायरलेस सेट या मोबाइल फोन के बिना काम कर रहे हैं।
- 2017 की शुरुआत में देश भर के 273 पुलिस स्टेशनों के पास एक भी परिवहन वाहन नहीं था।
- हिरासत में हिंसा और जवाबदेही का अभाव: दंड से मुक्ति की संस्कृति कायम है, जहाँ थर्ड-डिग्री यातना को एक वैध जाँच उपकरण के रूप में देखा जाता है, जो वैज्ञानिक पूछताछ कौशल के अभाव में त्वरित परिणाम देने के दबाव से प्रेरित है।
- आंतरिक जवाबदेही तंत्र कमज़ोर है और संयुक्त राष्ट्र प्रताड़ना-विरोधी कन्वेंशन का अनुसमर्थन न करने से मानवाधिकार उल्लंघन निरंतर जारी रहते हैं जिससे विशेष रूप से वंचित समुदायों में गहरा अविश्वास उत्पन्न होता है।
- स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट वर्ष 2025 में पाया गया कि 38 प्रतिशत कर्मी लघु अपराधों के लिये भी न्यायेतर दंड का समर्थन करते हैं।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के अनुसार वर्ष 2021–22 में न्यायिक हिरासत में 2150 से अधिक और पुलिस हिरासत में 155 मौतें दर्ज की गयीं।
- औपनिवेशिक विधि विरासत और रुकी हुई सुधार-प्रक्रिया: वर्ष 2024 में भारतीय न्याय संहिता की शुरुआत के बावजूद, मुख्य प्रशासनिक कार्यढाँचा वर्ष 1861 के औपनिवेशिक पुलिस अधिनियम से बंधा हुआ है, जिसे नागरिकों की सेवा करने के बजाय प्रजा पर शासन करने के लिये तैयार किया गया है।
- राज्यों द्वारा मॉडल पुलिस एक्ट 2006 को लागू करने से निरंतर परहेज तथा जाँच शाखा को विधि-व्यवस्था शाखा से पृथक न करना इस स्थिति को और जटिल बनाता है।
- वर्ष 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार कोई भी भारतीय राज्य पुलिस सुधारों के लिये सर्वोच्च न्यायालय के 14 साल पुराने निर्देशों का पूरी तरह से अनुपालन नहीं कर रहा है।
भारत में पुलिस सुधार पर प्रमुख समितियाँ/आयोग कौन से हैं?
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समिति/आयोग/निर्णय |
प्रस्तावित प्रमुख सुधार |
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गोर समिति (1971) |
पेशेवर, सेवा-उन्मुख पुलिस व्यवस्था की ओर बदलाव। प्रशिक्षण में मानवाधिकारों और नैतिकता पर ज़ोर दिया गया । |
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राष्ट्रीय पुलिस आयोग (NPC) (1977-1981) |
जाँच को कानून और व्यवस्था से अलग करना, वरिष्ठ अधिकारियों के लिये निश्चित कार्यकाल सुनिश्चित करना तथा वर्ष 1861 अधिनियम के स्थान पर एक नए मॉडल पुलिस अधिनियम का मसौदा तैयार करना। |
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रिबेरो समिति (1998) और पद्मनाभैया समिति (2000) |
पहले की सिफारिशों को सुदृढ़ किया गया, स्वतंत्र निरीक्षण निकायों, आधुनिक प्रशिक्षण और सामुदायिक पुलिसिंग का समर्थन किया गया। |
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मलिमथ समिति (2003) |
फॉरेंसिक तथा जाँच क्षमताओं को और सुदृढ़ करना, संघीय अपराधों के लिये एक समर्पित केंद्रीय कानून प्रवर्तन एजेंसी की स्थापना करना तथा एक प्रभावी साक्षी संरक्षण योजना प्रस्तावित करना। |
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सर्वोच्च न्यायालय (प्रकाश सिंह निर्णय, 2006) |
7 निर्देश जारी किये गए:
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मॉडल पुलिस अधिनियम (2006) और NHRC सिफारिशें (2021) |
पुलिस स्वायत्तता, जवाबदेही और निगरानी के विनियमन पर ज़ोर देना। |
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स्मार्ट पुलिसिंग पहल (2015) |
पूर्वानुमानित पुलिसिंग के लिये प्रौद्योगिकी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और डेटा विश्लेषण का लाभ उठाना। सामुदायिक सहभागिता पर ध्यान केंद्रित करना। |
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पुलिस बलों की आधुनिकीकरण (MPF) योजना |
हथियारों, संचार प्रणालियों, फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं तथा साइबर अपराध से जुड़े बुनियादी ढाँचे का आधुनिकीकरण करना। |
पुलिस व्यवस्था में प्रभावी परिवर्तन लाने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- जाँच और विधि-व्यवस्था का संरचनात्मक पृथक्करण: न्यायिक प्रक्रिया को दैनिक प्रशासनिक तात्कालिकताओं से प्रभावित होने से रोकने के लिये राज्यों को विधि-व्यवस्था शाखा और जाँच शाखा के बीच कठोर कार्यात्मक पृथक्करण सुनिश्चित करना चाहिये।
- इसमें एक समर्पित जासूसी कैडर का गठन करना शामिल है, जिसे बंदोबस्त या सुरक्षा तैनाती जैसे कार्यों में न लगाया जाये तथा यह सुनिश्चित हो कि अपराध-सुलझाना एक विशिष्ट, निर्बाध फोकस बना रहे।
- विशिष्ट पदानुक्रम और संसाधनों के साथ जाँच शाखा को पेशेवर बनाकर, पुलिस राजनीतिक रैलियों या त्योहारों के व्यवधान के बिना उच्चतर दोषसिद्धि दर एवं वैज्ञानिक मामला प्रबंधन सुनिश्चित कर सकती है।
- आयुक्तालय प्रणाली में परिवर्तन से जवाबदेही एवं दक्षता और अधिक मज़बूत होती है तथा कार्यकारी पुलिसिंग और जाँच कार्यों के बीच स्पष्ट अंतर होता है।
- एल्गोरिदमिक जवाबदेही और पूर्वानुमानित पुलिसिंग को संस्थागत बनाना: बुनियादी डिजिटलीकरण से आगे बढ़ते हुए, पुलिस बल को पूर्वानुमानित पुलिसिंग मॉडल को अपनाना चाहिये जो CCTNS डेटाबेस से अपराध हॉटस्पॉट और पुनरावृत्ति पैटर्न का विश्लेषण करने के लिये AI का उपयोग करता है।
- डेटा-आधारित निर्णय लेने की ओर यह परिवर्तन प्रतिक्रियात्मक रूप से जल्दबाज़ी करने के बजाय संसाधनों की पूर्व-नियोजन की अनुमति देता है, जिससे अपराध घटित होने से पहले ही उसे प्रभावी रूप से रोका जा सकता है।
- अंतर-संचालनीय आपराधिक न्याय डेटा को एकीकृत करने से यह सुनिश्चित होता है कि ज़मीनी स्तर पर तैनात अधिकारियों को संदिग्धों के बारे में वास्तविक काल की खुफिया जानकारी प्राप्त हो, जिससे बीट कांस्टेबल एक स्मार्ट, सूचित प्रथम प्रत्युत्तरकर्त्ता में परिवर्तित हो जाता है।
- अनिवार्य फोरेंसिक-प्रथम जाँच प्रोटोकॉल: नए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) में फोरेंसिक साक्ष्य को अनिवार्य बनाए जाने के साथ, प्रत्येक ज़िले में मोबाइल फोरेंसिक इकाइयों की बड़े पैमाने पर, विकेंद्रीकृत शुरुआत होनी चाहिये।
- सुधार के लिये स्वीकारोक्ति-आधारित जाँच से ‘साक्ष्य-आधारित’ अभियोजन की ओर परिवर्तन की आवश्यकता है, जहाँ DNA और बैलिस्टिक का वैज्ञानिक संग्रह प्राथमिक उपकरण बन जाता है, जिससे थर्ड-डिग्री टॉर्चर अप्रचलित हो जाती है।
- इसके लिये प्रत्येक स्टेशन को बुनियादी फोरेंसिक किट और प्रशिक्षित वैज्ञानिक अधिकारियों से सुसज्जित करना आवश्यक है, ताकि अपराध स्थल से लेकर न्यायालय कक्ष तक कस्टडी की शृंखला को सुरक्षित रखा जा सके।
- समुदाय-नेतृत्व वाली सहभागी सुरक्षा आर्किटेक्चर: पुलिस-जनता के बीच संबंध सुधारने के लिये सामुदायिक पुलिसिंग को न केवल एक नरम पहल के रूप में, बल्कि एक मुख्य परिचालन रणनीति के रूप में संस्थागत बनाने की आवश्यकता है।
- वार्ड स्तर पर वैधानिक नागरिक-पुलिस संपर्क समितियाँ बनाकर, पुलिस खुफिया जानकारी एकत्रित कर सकती है तथा दंगों में बदलने से पहले स्थानीय तनाव को कम कर सकती है।
- यह सहयोगात्मक सुरक्षा मॉडल नागरिकों को निष्क्रिय व्यक्तियों से सुरक्षा के सक्रिय उपभोक्ता में परिवर्तित कर देता है, विश्वास की कमी को पूरा करता है तथा अत्यधिक बोझ से दबे पुलिस बल के लिये बल गुणक के रूप में कार्य करता है।
- स्वतंत्र स्थापना बोर्डों के माध्यम से परिचालन अलगाव: अपराध और राजनीति के बीच गठजोड़ को तोड़ने के लिये, स्थानांतरण और पोस्टिंग की शक्ति राजनीतिक कार्यपालिका के बजाय स्वतंत्र पुलिस स्थापना बोर्डों (PEB) में निहित होनी चाहिये।
- इससे यह सुनिश्चित होता है कि अधिकारियों का कार्यकाल राजनीतिक सनक के विरुद्ध सुरक्षित रहे तथा ईमानदार अधिकारी दंडात्मक स्थानांतरण के भय के बिना विधि का शासन लागू कर सकें।
- परिचालन संबंधी मामलों में पुलिस नेतृत्व को कार्यात्मक स्वायत्तता प्रदान करना, पेशेवर सत्यनिष्ठा और तटस्थ कानून प्रवर्तन की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- मानव पूंजी अनुकूलन और मनोवैज्ञानिक धैर्य: एक परिवर्तनकारी सुधार में 8 घंटे का कार्यदिवस और पुलिस बल के लिये साप्ताहिक अवकाश सुनिश्चित करने वाली शिफ्ट प्रणाली को अनिवार्य करके बर्नआउट के अदृश्य संकट का समाधान करना चाहिये।
- सेवा नियमों में मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य सहायता और नियमित तनाव प्रबंधन कार्यशालाओं को शामिल करने से भाई-भतीजावाद एवं आत्महत्या की खतरनाक दरों में कमी आएगी।
- निचले स्तर के कर्मचारियों को अकुशल श्रमिक के बजाय कुशल पेशेवर मानने से उनके आवास, भत्ते और सम्मान में सुधार होता है, जो सीधे तौर पर जनता के साथ उनके व्यवहार से संबंधित होता है।
- क्षमता विकास के मोर्चे पर, मिशन कर्मयोगी, अधिकारियों को नियम-आधारित दृष्टिकोण से भूमिका-आधारित मानसिकता की ओर ले जाने के लिये प्रशिक्षण देकर इस परिवर्तन को आगे बढ़ा रहा है।
- थाना स्तर पर साइबर-क्षमता एकीकरण: जैसे-जैसे अपराध डिजिटल क्षेत्र में स्थानांतरित हो रहा है, प्रत्येक पुलिस स्टेशन को साइबर-फर्स्ट रिस्पॉन्डर नोड में अपग्रेड किया जाना चाहिये, जो डिजिटल वित्तीय धोखाधड़ी और सोशल मीडिया अपराधों से निपटने में सक्षम हो।
- इसमें सभी मामलों को एक केंद्रीय साइबर सेल में भेजने के बजाय, प्रत्येक थाने में तकनीकी रूप से कुशल कर्मियों को नियुक्त करके एक विशेष साइबर डेस्क बनाना शामिल है।
- डिजिटल फोरेंसिक उपकरणों और क्लाउड-आधारित साक्ष्य प्रबंधन प्रणालियों के साथ स्थानीय पुलिस को सशक्त बनाना यह सुनिश्चित करता है कि हाइब्रिड युद्ध एवं ऑनलाइन खतरों के युग में पुलिस बल प्रासंगिक बना रहे।
निष्कर्ष:
भारत एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है जहाँ पुलिस व्यवस्था को औपनिवेशिक नियंत्रण से लोकतांत्रिक सेवा में बदलना आवश्यक हो गया है। सार्थक परिवर्तन के लिये पेशेवर स्वायत्तता, वैज्ञानिक अन्वेषण, सामुदायिक सहभागिता तथा मानवोचित कार्य-परिस्थितियाँ अनिवार्य हैं। नये दंड विधानों और डिजिटल प्रणालियों के माध्यम से न्याय व्यवस्था के स्वरूप में आ रहे परिवर्तन तभी प्रभावी सिद्ध होंगे जब उनका क्रियान्वयन उनके उद्देश्य के अनुरूप हो। इसी स्थिति में भारत ऐसी पुलिस व्यवस्था का निर्माण कर सकेगा जो केवल कानून का प्रवर्तन न करे बल्कि समाज का विश्वास भी अर्जित करे।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: “पुलिस सुधार उतने ही हद तक संस्थागत उत्तरदायित्व का प्रश्न हैं जितने कि पुलिस बल के भीतर सांस्कृतिक रूपांतरण का।” इस कथन की विवेचना कीजिये। |
प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रश्न 1. भारत में पुलिस सुधार की तत्काल आवश्यकता क्यों है?
आज भी वर्ष 1861 के औपनिवेशिक पुलिस अधिनियम की संरचना पर आधारित प्रणाली का उपयोग कर रहा है। पुरानी विधिक सिद्धांत, राजनीतिक हस्तक्षेप, कार्मिक की कमी तथा कमज़ोर उत्तरदायित्व-तंत्र प्रभावी और नागरिक-केंद्रित पुलिसिंग को बाधित करते हैं। एक विकसित और लोकतांत्रिक भारत के लिये इन सुधारों का होना अनिवार्य है।
प्रश्न 2. नये भारतीय आपराधिक कानून पुलिस व्यवस्था पर क्या प्रभाव डालते हैं?
BNS, BNSS तथा BSA पुलिसिंग को फॉरेंसिक-आधारित जाँच, डिजिटल साक्ष्य के उपयोग तथा त्वरित न्याय-प्रक्रिया की दिशा में अग्रसर करते हैं। इन कानूनों के माध्यम से स्वीकारोक्ति-प्रधान तरीकों से हटकर वैज्ञानिक, पारदर्शी तथा उत्तरदायी जाँच-पद्धतियों पर अधिक बल दिया गया है।
प्रश्न 3. प्रभावी पुलिस सुधारों में बाधा डालने वाली मुख्य चुनौतियाँ क्या हैं?
प्रमुख बाधाओं में राजनीतिकरण वाले स्थानांतरण, अपर्याप्त बुनियादी अवसंरचना, लैंगिक असंतुलन, कर्मचारियों की लगातार कमी, मानसिक स्वास्थ्य संकट और प्रकाश सिंह सुधार जैसे सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का कमज़ोर कार्यान्वयन शामिल हैं।
प्रश्न 4. सामुदायिक पुलिसिंग नागरिकों और पुलिस के बीच विश्वास किस प्रकार बढ़ा सकती है?
समुदाय-नेतृत्व वाले मॉडल सहयोग की भावना विकसित करते हैं, स्थानीय खुफिया जानकारी को प्रोत्साहित करते हैं, विवादों की रोकथाम में सहायक होते हैं तथा पुलिसिंग को अधिक मानवीय बनाते हैं। यह संबंध भय-आधारित दृष्टिकोण से हटकर विश्वास-आधारित पुलिस–नागरिक सहभागिता को सुदृढ़ करता है जिससे विधि-व्यवस्था के परिणाम बेहतर होते हैं।
प्रश्न 5. भविष्य के लिये भारत की पुलिस व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
पुलिस बल को सुदृढ़ बनाने के लिये विधि-व्यवस्था के कर्त्तव्यों को जाँच से अलग करना, पूर्वानुमानित पुलिसिंग को अपनाना, फोरेंसिक क्षमता को बढ़ाना, परिचालन स्वायत्तता सुनिश्चित करना, मानसिक स्वास्थ्य और प्रशिक्षण में निवेश करना तथा पुलिस को आधुनिक साइबर क्षमताओं से लैस करना आवश्यक है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
मेन्स
प्रश्न 1. मृत्यु दंडादेशों के लघुकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्रत्याख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014)
प्रश्न 2. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014)
