भारत की नई निर्यात योजनाओं की पुनर्कल्पना | 22 Nov 2025
यह एडिटोरियल “Export subsidies will help but we should aim to be globally competitive” पर आधारित है, जो 16/11/2025 को द हिंदू बिज़नेस लाइन में प्रकाशित हुआ था। यह लेख भारत की नई निर्यात सहायता योजनाओं की सीमाओं को रेखांकित करता है। लेख बताता है कि अतिरिक्त फंडिंग मिलने के बावजूद, उच्च लॉजिस्टिक्स लागत, जटिल नियामकीय प्रक्रियाएँ और कमज़ोर व्यापार एकीकरण जैसी गहरी संरचनात्मक चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। इसका तर्क है कि सतत् निर्यात वृद्धि केवल सब्सिडियों से नहीं, बल्कि व्यापक संरचनात्मक सुधारों और वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में मज़बूत भागीदारी से ही संभव है।
प्रिलिम्स के लिए: निर्यात संर्वर्द्धन मिशन, उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना , भारत-यूके व्यापक आर्थिक और व्यापार समझौता (CETA , भारत-EFTA (यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ) FTA, राष्ट्रीय रसद नीति (NLP), पीएम गतिशक्ति राष्ट्रीय मास्टर प्लान, विश्व बैंक का रसद प्रदर्शन सूचकांक, यूरोपीय संघ का कार्बन सीमा समायोजन तंत्र ।
मेन्स के लिये: भारत के एक्सपोर्ट लैंडस्केप को बदलने वाले डेवलपमेंट, भारत के एक्सपोर्ट सेक्टर से जुड़े मुख्य मुद्दे।
भारत सरकार ने ₹25,060 करोड़ का एक्सपोर्ट प्रमोशन मिशन और निर्यातकों के लिये ₹20,000 करोड़ की क्रेडिट गारंटी स्कीम शुरू की है, लेकिन पिछले अनुभव बताते हैं कि केवल नई फंडिंग से बड़े बदलाव की गारंटी नहीं मिलती। कई सरकारी पहलों के बावजूद, पिछले दस वर्षों में भारत का मर्चेंडाइज़ एक्सपोर्ट मुश्किल से 3% की CAGR तक पहुँच पाया है और वैश्विक बाज़ार में इसकी हिस्सेदारी लगभग 1.8% पर ही स्थिर बनी हुई है। भारत की निर्यात प्रतिस्पर्द्धा लगातार इसलिये कमज़ोर पड़ रही है क्योंकि लॉजिस्टिक्स लागत अत्यधिक है, नियामकीय प्रक्रिया जटिल हैं तथा शुल्क ढाँचा भी कई बार प्रतिकूल साबित होता है। इसलिये, सतत् निर्यात वृद्धि का आधार सिर्फ सब्सिडी नहीं हो सकती, इसके लिये व्यापक संरचनात्मक सुधार, नियमों का सरलीकरण, व्यापार सुगमता में सुधार और वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में गहरे एकीकरण की आवश्यकता होगी।
कौन-से बड़े विकास भारत के निर्यात को नई दिशा दे रहे हैं?
- हाई-टेक और वैल्यू-एडेड एक्सपोर्ट में बढ़ोतरी : उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना (PLI) योजना एडवांस्ड मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देकर, पारंपरिक कम कीमत वाले वस्तुओ से आगे बढ़कर, भारत के मर्चेंडाइज एक्सपोर्ट बास्केट को पूरी तरह से नया आकार दे रहा है ।
- हाई-टेक सेक्टर में यह बदलाव भारत को ग्लोबल वैल्यू चेन (GVCs) में मज़बूती से जोड़ने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुओं के निर्यात में 32.47% की तीव्र वृद्धि दर्ज की गई है, जो FY 2023-24 के USD 29.12 बिलियन से बढ़कर USD 38.58 बिलियन पर पहुँच गया है। यह उछाल PLI योजना के मज़बूत प्रभाव को दर्शाता है, और इसी के साथ इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर अब भारत की तीसरी सबसे बड़ी निर्यात श्रेणी के रूप में उभर आया है। (इलेक्ट्रॉनिक्स एवं कंप्यूटर सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (ESC) और वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अनुसार)।
- सेवा निर्यात (सर्विसेज़ एक्सपोर्ट) में लगातार तेज़ी: सेवा निर्यात (सर्विसेज़ एक्सपोर्ट) में निरंतर मज़बूती बनी हुई है। भारत वैश्विक सेवाओं के क्षेत्र में अपनी अग्रणी स्थिति बरकरार रखे हुए है, जो वस्तु व्यापार में आने वाले चक्रीय उतार-चढ़ाव के प्रभाव को संतुलित करने में मदद करती है और देश की कुशल मानव संसाधन क्षमता तथा डिजिटल अर्थव्यवस्था की शक्ति को उजागर करती है।
- वैश्विक स्तर पर कमज़ोर मांग को देखते हुए, यह मज़बूती कुल निर्यात की गति बनाए रखने और चालू खाते में सकारात्मक संतुलन बनाए रखने के लिये अत्यंत आवश्यक है।
- वित्त वर्ष 2024-25 में सेवाओं का निर्यात बढ़कर रिकॉर्ड 387.5 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया, जो वर्ष 2023-24 की तुलना में 13.6% की प्रभावशाली वृद्धि दर्शाता है। यह उछाल मुख्यतः IT और BPO सेवाओं की लगातार मज़बूत प्रदर्शन से प्रेरित है।
- मुक्त व्यापार समझौते (FTAs): फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (FTA) तेज़ी से आगे बढ़ाए जा रहे हैं ताकि विशेष बाज़ारों तक बेहतर पहुँच मिले, बढ़ते संरक्षणवाद का सामना किया जा सके और अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों पर निर्भरता कम करते हुए व्यापार साझेदारों में विविधता लाई जा सके।
- ये समझौते भारतीय उत्पादों पर लगने वाली टैरिफ बाधाओं को कम करने में अहम भूमिका निभाते हैं, जिससे निर्यातकों को प्रमुख विकसित और विकासशील बाज़ारों में बेहतर प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ मिलता है।
- भारत-यूके व्यापक आर्थिक एवं व्यापार समझौता (CETA) और हाल ही में लागू भारत-EFTA (यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ) FTA विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ब्रिटेन ने 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाकर 120 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँचाने का लक्ष्य तय किया है।
- नॉन-पेट्रोलियम, नॉन-गोल्ड एक्सपोर्ट (NPG) पर पॉलिसी: नॉन-ऑयल और नॉन-गोल्ड मर्चेंडाइज एक्सपोर्ट पर दिया जा रहा जोर यह दर्शाता है कि भारत का निर्यात ढाँचा अब अधिक स्वस्थ, विविधीकृत और दीर्घकालिक रूप से सतत् बन रहा है, जिससे कमोडिटी की उतार–चढ़ाव वाली कीमतों पर निर्भरता घटती है।
- जिससे कमोडिटी की अस्थिर कीमतों पर निर्भरता कम होती है।
- नए उत्पादों और नए बाज़ारों में यह विस्तार भारत की वैश्विक स्थिति को सुदृढ़ करता है और ऊर्जा व बुलियन से जुड़े बाहरी उतार-चढ़ावों से अर्थव्यवस्था को अधिक स्थिरता प्रदान करता है।
- नॉन-पेट्रोलियम निर्यात में लगभग 4% की बढ़ोतरी दर्ज की गई और यह USD 219.90 बिलियन तक पहुँच गया, जिसका मुख्य कारण मीट, डेयरी, पोल्ट्री और मरीन उत्पादों जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में मज़बूत वृद्धि है।
- लॉजिस्टिक्स और व्यापार अवसंरचना को सुदृढ़ बनाना: राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति (NLP) और PM गतिशक्ति राष्ट्रीय मास्टर प्लान के शुभारंभ का उद्देश्य भारतीय निर्यातकों के लिये उच्च लॉजिस्टिक्स लागत को काफी कम करना है, जिससे उनकी वैश्विक मूल्य प्रतिस्पर्द्धात्मकता में वृद्धि होगी।
- महत्वाकांक्षी निर्यात लक्ष्यों को प्राप्त करने और कारखाने से बंदरगाह तक आपूर्ति शृंखला को सुव्यवस्थित करने के लिये बहु-मॉडल अवसंरचना के माध्यम से कनेक्टिविटी में सुधार करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- नीति का उद्देश्य लॉजिस्टिक्स लागत को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी स्तर तक लाना तथा वर्ष 2030 तक विश्व बैंक के लॉजिस्टिक्स प्रदर्शन सूचकांक (LPI) में भारत की रैंकिंग को बेहतर बनाकर शीर्ष 25 देशों में शामिल करना है, जो वस्तु की आवाजाही को आसान बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- निर्यात संवर्द्धन मिशन और व्यापार वित्त सहायता: सरकार ने महत्त्वपूर्ण समस्याओं, विशेष रूप से MSME के लिये किफायती वित्त और वैश्विक बाज़ार नेविगेशन तक पहुँच, जो भारतीय निर्यात की रीढ़ हैं, के समाधान के लिये व्यापक, परिणाम-संचालित मिशन शुरू किये हैं।
- निर्यात संवर्द्धन मिशन (EPM) सहित यह संरचित, एकल-तंत्र दृष्टिकोण, वैश्विक व्यापार व्यवधानों पर तेज़ी से प्रतिक्रिया करने के लिये खंडित योजनाओं का स्थान लेता है, जिससे व्यापार निरंतरता सुनिश्चित होती है।
- 25,060 करोड़ रुपये की नई EPM 2025-26 से शुरू की जा रही है, जिसमें निर्यात प्रोत्साहन के लिये एक महत्त्वपूर्ण घटक शामिल है, जिसका उद्देश्य ब्याज अनुदान और ऋण वृद्धि जैसे साधनों के माध्यम से MSME की किफायती व्यापार वित्त तक पहुँच में सुधार करना है।
- वैश्विक व्यापार में प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच अनुकूलता: भारतीय निर्यातक व्यापक वैश्विक मांग में कमी और प्रमुख भागीदारों की ओर से नई टैरिफ बाधाओं के बावजूद सकारात्मक वृद्धि बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण अनुकूलनशीलता का प्रदर्शन तथा नीतिगत समर्थन का उपयोग कर रहे हैं और अपने बाज़ारों में विविधता ला रहे हैं।
- मिश्रित प्रदर्शन, बाह्य संरक्षणवाद और भू-राजनीतिक तनावों के प्रभाव को कम करने के लिये निरंतर और नीतिगत समर्थन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
- नए टैरिफ के बाद अक्तूबर, 2025 में अमेरिका को निर्यात में 8.58% की गिरावट (अक्तूबर 2024 की तुलना में) के बावजूद, वित्त वर्ष 2024-25 के लिये भारत का समग्र कुल निर्यात (वस्तु + सेवाएँ) 6.01% बढ़कर रिकॉर्ड 824.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया, जो अंतर्निहित अनुकूलता को दर्शाता है।
भारत के निर्यात क्षेत्र से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- उच्च लॉजिस्टिक्स और लेनदेन लागत: भारत की घरेलू लॉजिस्टिक्स लागत एक प्रमुख प्रतिस्पर्द्धात्मक नुकसान बनी हुई है, जो निर्यातकों के मार्जिन को कम कर रही है तथा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बेची जाने वाली वस्तुओं की लागत में वृद्धि कर रही है, जिससे वे कुशल पूर्वी एशियाई प्रतिस्पर्धियों की तुलना में कम आकर्षक बन रहे हैं।
- नौकरशाही लॉजिस्टिक्स नेटवर्क को और अधिक जटिल बना देती है, उच्च इन्वेंट्री होल्डिंग और स्लो टर्नअराउंड टाइम में महत्त्वपूर्ण रूप से योगदान देता है, जो सीधे निर्यात मूल्य को प्रभावित करता है।
- हालाँकि हाल के अध्ययनों में सुधार दिखाई देता है, फिर भी लॉजिस्टिक्स लागत का अनुमान सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 7.97% (2023-24) है, जो विकसित देशों के 6-7% के वैश्विक बेंचमार्क से काफी अधिक है, जिससे भारतीय निर्मित वस्तुओं की मूल्य प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है।
- वैश्विक मूल्य शृंखलाओं (GVCs) में सतही एकीकरण: भारतीय विनिर्माण कंपनियाँ, विशेषकर MSME, वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के उच्च-मूल्य वाले ‘बैकवर्ड लिंकेंज’ में बहुत कम भागीदारी करती हैं। वे एकीकृत कम्पोनेंट आपूर्तिकर्त्ता बनने के बजाय मुख्यतः अंतिम उत्पाद निर्यातक के रूप में कार्य करती हैं।
- यह कम इंटीग्रेशन एक्सपोर्टर्स को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, स्केल इकॉनमी और ग्लोबल डिज़ाइन नेटवर्क से फायदा उठाने से रोकता है, जिससे एक्सपोर्ट बास्केट का वैल्यू एडिशन और डाइवर्सिफ़िकेशन सीमित हो जाता है।
- इस वजह से, भारत वियतनाम या मेक्सिको जैसे कॉम्पिटिटर्स की तुलना में GVC इनकम का बहुत कम हिस्सा हासिल कर पाता है।
- वैश्विक मांग में मंदी और संरक्षणवाद का प्रभाव: प्रमुख विकसित बाज़ारों (यूरोपीय संघ और अमेरिका) में वैश्विक मांग में नरमी और लक्षित टैरिफ एवं व्यापार-प्रतिबंधात्मक उपायों में वृद्धि ने भारत के श्रम-गहन और पारंपरिक निर्यात वस्तुओं की मांग को सीधे प्रभावित किया है।
- यह बाह्य दबाव महत्त्वपूर्ण अस्थिरता उत्पन्न करता है, जिससे निर्यातकों को तेज़ी से विविधीकरण करने के लिये मज़बूर होना पड़ता है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप अक्सर स्थापित बाज़ारों में अल्पकालिक निर्यात संकुचन होता है।
- अक्तूबर, 2025 में भारत का समग्र व्यापारिक निर्यात वर्ष-दर-वर्ष 11.8% की तीव्र गिरावट के साथ कम हो गया।
- मंदी ने विशेष रूप से कपड़ा, चमड़ा और इंजीनियरिंग वस्तुएँ जैसे क्षेत्रों को प्रभावित किया है, जो पश्चिमी बाज़ारों पर बहुत अधिक निर्भर हैं।
- बढ़ता भू-राजनीतिक विखंडन वैश्विक मूल्य शृंखलाओं को नए सिरे से पुनर्गठित कर रहा है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों में निर्यात की पुनर्बहाली और अधिक अनिश्चित और असमान होती जा रही है।
- एमएसएमई के लिए सस्ते निर्यात वित्त तक पहुँच चुनौतीपूर्ण: सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME), जो भारत के कुल निर्यात में लगभग आधी हिस्सेदारी रखते हैं, को समय पर और किफायती प्री-शिपमेंट तथा पोस्ट-शिपमेंट ऋण प्राप्त करने में लगातार कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
- बैंक विलंबित भुगतान चक्र और संपार्श्विक आवश्यकताओं के कारण MSME व्यापार वित्त को उच्च जोखिम वाला मानते हैं, जिससे बड़े या दीर्घकालिक निर्यात ऑर्डरों को कुशलतापूर्वक निष्पादित करने की उनकी क्षमता में बाधा आती है।
- इस सतत् चुनौती को इस तथ्य से मापा जा सकता है कि MSME क्षेत्र में ऋण अंतराल हाल ही में 20 से 25 लाख करोड़ रुपये के बीच होने का अनुमान लगाया गया था, जिसमें MSME ऋण मांग का लगभग 47% हिस्सा अभी भी अधूरा है।
- गैर-टैरिफ बाधाओं (NTB) का बढ़ता खतरा: भारतीय निर्यातकों को उत्पाद मानकों, स्वच्छता और पादप स्वच्छता (SPS) उपायों और विकसित बाज़ारों में जटिल प्रमाणन प्रक्रियाओं से संबंधित कठोर गैर-टैरिफ बाधाओं (NTB) के माध्यम से बाज़ार पहुँच चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
- यूरोपीय संघ के कार्बन बॉर्डर समायोजन तंत्र (CBAM) जैसे उभरते वैश्विक गुणवत्ता और पर्यावरण मानकों का अनुपालन, कई छोटे निर्यातकों के लिये एक उच्च लागत वाली बाधा है।
- यद्यपि यूरोपीय संघ को भारत का CBAM-प्रभावित निर्यात देश के जीडीपी का केवल 0.2% है, फिर भी लोहा और इस्पात इनमें लगभग 90% हिस्सा रखते हैं। ये क्षेत्र अब एक नई अनुपालन लागत के दायरे में आ गए हैं, जो प्रमाणित हरित उत्पादन प्रक्रियाओं के अभाव में निर्यातकों के लिए अधिक कर भार में बदल सकती है।
- मुक्त व्यापार समझौतों (FTA) का उप-इष्टतम उपयोग: संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया जैसे साझेदारों के साथ नए FTA पर हस्ताक्षर करने के बावजूद, जटिल उत्पत्ति नियमों (ROO) की आवश्यकताओं, जागरूकता की कमी और प्रशासनिक ओवरहेड्स के कारण भारतीय निर्यातकों द्वारा वास्तविक उपयोग दर कम बनी हुई है ।
- अध्ययनों से लगातार यह संकेत मिलता है कि भारत के मौजूदा FTA की उपयोग दर अक्सर 25% से कम है, जिसका अर्थ है कि यदि निर्यातक आवश्यक दस्तावेज़ीकरण और स्थानीय मूल्य-संवर्द्धन नियमों का पूरी तरह से पालन करते हैं, तो निर्यात की एक महत्त्वपूर्ण मात्रा कम टैरिफ पर भागीदार देशों में प्रवेश कर सकती है।
भारत के निर्यात क्षेत्र में स्थायी परिवर्तन लाने के लिये कौन-से उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- ‘अगली पीढ़ी के व्यापार सुविधा पारिस्थितिकी तंत्र’ का निर्माण: भारत को निर्यात प्रक्रिया में मौजूद अवरोधों को दूर करने के लिये सीमा शुल्क, बंदरगाह, जीएसटी, मानक निर्धारण संस्थाएँ और बैंक—इन सभी को जोड़कर एक सुगम, कागज रहित और एकल-खिड़की आधारित व्यापार प्रणाली विकसित करनी चाहिये।
- अनुपालन अनिश्चितता को कम करने के लिये एक एकीकृत डिजिटल इंटरफेस को AI-आधारित जोखिम मूल्यांकन, स्वचालित अनुमोदन, वास्तविक समय कार्गो ट्रैकिंग और पूर्वानुमानित निकासी प्रणालियों का लाभ उठाना चाहिये।
- इससे एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र निर्मित होता है जहाँ निर्यातक न्यूनतम नौकरशाही बाधा और अधिकतम पारदर्शिता के साथ काम करते हैं।
- राज्यों और बंदरगाहों के बीच सीमा-प्रक्रियाओं में समानता लाने से वर्तमान विखंडन कम होगा। ऐसी व्यवस्था समय और लागत की दक्षता को संस्थागत बनाती है, नियामकीय पूर्वानुमान क्षमता को मज़बूत करती है तथा एक व्यापारिक भागीदार के रूप में भारत की विश्वसनीयता बढ़ाती है।
- वैश्विक मूल्य शृंखलाओं (GVC) में गहन एकीकरण में तेज़ी लाना: भारत को अंतिम-असेंबली निर्यात से आगे बढ़कर, घटक निर्माण, डिज़ाइन-गहन प्रक्रियाओं और सीमा-पार उत्पादन अधिदेशों को आकर्षित करने के लिये लक्षित नीतियों की आवश्यकता है। आपूर्तिकर्त्ता नेटवर्क का रणनीतिक सह-स्थान, सुसंगत मानक और प्लग-एंड-प्ले औद्योगिक क्लस्टर भारत को उच्च-मूल्य वाले GVC नोड्स में स्थापित कर सकते हैं।
- वैश्विक प्रमुख फर्मों के साथ दीर्घकालिक आपूर्तिकर्त्ता विकास कार्यक्रम प्रौद्योगिकी प्रसार और परिचालन बेंचमार्किंग को बढ़ावा दे सकते हैं।
- मज़बूत बौद्धिक संपदा संरक्षण और नियामक स्थिरता भारत को बहु-स्तरीय उत्पादन के लिये एक विश्वसनीय गंतव्य बनाएगी। यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि निर्यात वृद्धि मूल्य-समृद्ध, विविध और अनुकूल हो।
- सब्सिडी-आधारित से क्षमता-आधारित निर्यात वृद्धि की ओर बदलाव: लघु-चक्र प्रोत्साहनों के बजाय, भारत को संस्थागत निर्यात क्षमताओं, डिज़ाइन विशेषज्ञता, उत्पाद प्रमाणन, उन्नत परीक्षण प्रयोगशालाओं और गुणवत्ता उन्नयन प्रणालियों में निवेश करना चाहिये।
- निर्यात गुणवत्ता आश्वासन के लिये एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम भारतीय उत्पादों को कम लागत वाले विकल्प के रूप में नहीं, बल्कि प्रीमियम के रूप में पुनः स्थापित कर सकता है।
- हरित परिवर्तन, इको-लेबलिंग और स्थिरता अनुपालन के लिये समर्थन, उभरते वैश्विक मानदंडों के प्रति भारतीय निर्यातकों को भविष्य में सुरक्षित बनाएगा।
- पैकेजिंग, ब्रांडिंग, बिक्री के बाद की सेवाओं और बौद्धिक संपदा में MSME के लिये क्षमता निर्माण से वैश्विक ब्रांड विश्वसनीयता बढ़ सकती है।
- यह बदलाव राजकोषीय सहायता पर निर्भरता के बजाय दीर्घकालिक प्रतिस्पर्द्धात्मकता की संस्कृति को पोषित करता है।
- एक मजबूत और किफायती व्यापार वित्त ढाँचा तैयार करना: जोखिम-शमन आधारित निर्यात ऋण को बढ़ाने के लिये संरचनात्मक सुधार आवश्यक है, जिसमें मिश्रित वित्त, डिजिटल अंडरराइटिंग और आपूर्ति-शृंखला व्यवहार पर आधारित वैकल्पिक क्रेडिट-स्कोरिंग मॉडलों का उपयोग किया जाए।
- भारत को फिनटेक-सक्षम व्यापार वित्त प्लेटफॉर्म का विस्तार करना चाहिये, जो निर्यातकों, बैंकों, बीमा कंपनियों और सीमा शुल्क को जोड़कर संपार्श्विक पर निर्भरता को कम करें।
- जोखिम-साझाकरण तंत्र के साथ एक समर्पित निर्यात ऋण गारंटी केंद्र MSME व्यापार ऋण के प्रति बैंकों की अरुचि को कम कर सकता है।
- ब्याज समकारी नीति में स्थिरता और पूर्वानुमानित पुनर्वित्त व्यवस्था कार्यशील पूंजी प्रवाह में सुधार ला सकती है। ये उपाय सुनिश्चित करते हैं कि तरलता की कमी निर्यात क्षमता को कभी बाधित न करे।
- रणनीतिक रूप से बाज़ार पहुँच का विस्तार करना और गैर-टैरिफ बाधाओं को कम करना: भारत को प्रमुख निर्यात गंतव्यों के साथ मानकों का पूर्वानुमान लगाने, बातचीत करने और सामंजस्य स्थापित करने के लिये एक सक्रिय नियामक कूटनीति रणनीति अपनानी चाहिये।
- अनुरूपता मूल्यांकन, स्थिरता प्रमाणन और कार्बन लेखांकन के लिये घरेलू क्षमता का निर्माण करने से निर्यातकों को उभरते NTB/BAT (सीमा समायोजन कर) आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिलेगी।
- FTA को वास्तविक समय समर्थन प्रकोष्ठों द्वारा पूरित किया जाना चाहिये, जो निर्यातकों को उत्पत्ति के नियमों, डिजिटल दस्तावेज़ीकरण और अनुपालन नेविगेशन पर मार्गदर्शन प्रदान करना।
- वैश्विक मानक-निर्धारण मंचों पर भारत की आवाज़ को मज़बूत करने से प्रतिकूल नियामकीय प्रभावों को कम किया जा सकता है। इससे एक वैश्विक रूप से संरेखित निर्यात पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होता है जो प्रतिस्पर्द्धा के लिये तैयार है।
- उच्च उत्पादकता, प्रतिस्पर्द्धी निर्यात क्लस्टर विकसित करना: भारत को एकीकृत लॉजिस्टिक्स, प्लग-एंड-प्ले विनिर्माण, एम्बेडेड कौशल केंद्रों और सीमा शुल्क सुविधा क्षेत्रों के साथ क्षेत्र-विशिष्ट निर्यात पारिस्थितिकी तंत्र डिज़ाइन करना चाहिये।
- क्लस्टर प्रशासन का नेतृत्व स्वायत्तता, प्रदर्शन मानकों और वास्तविक समय में समस्या समाधान के अधिकार वाली पेशेवर एजेंसियों द्वारा किया जाना चाहिये।
- साझा अवसंरचना - टूल रूम, परीक्षण प्रयोगशालाएँ, अनुसंधान एवं विकास केंद्र तथा सामान्य लॉजिस्टिक्स केंद्र, लागत संबंधी अक्षमताओं को काफी हद तक कम कर सकते हैं।
- उद्योग, शिक्षा जगत और वैश्विक फर्मों के बीच सहयोग निरंतर नवाचार चक्रों को सक्षम बना सकता है। यह स्थानिक संकेंद्रण पैमाने को बढ़ाता है, लेन-देन की लागत कम करता है तथा वैश्विक स्तर पर मानकीकृत निर्यात केंद्र बनाता है।
- वैश्विक व्यापार के लिये भविष्य हेतु तैयार कार्यबल का निर्माण: भारत को एक राष्ट्रीय निर्यात कौशल मिशन की आवश्यकता है जो रसद प्रबंधन, उन्नत विनिर्माण कौशल, पार-सांस्कृतिक संचार, डिजिटल व्यापार, स्थिरता अनुपालन और आपूर्ति-शृंखला विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- निर्यात से जुड़े कौशल को वैश्विक निर्माताओं की साझेदारी के साथ औद्योगिक समूहों, विशेष आर्थिक क्षेत्रों और प्रशिक्षण संस्थानों में शामिल किया जाना चाहिये।
- निर्यात प्रबंधकों, अनुपालन विशेषज्ञों और डिजिटल-व्यापार पेशेवरों का एक समर्पित कैडर फर्म की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ा सकता है।
- निरंतर शिक्षण ढाँचे और प्रमाणन कार्यक्रम भारतीय कामगारों को वैश्विक उद्योग मानदंडों के अनुरूप ढालेंगे। एक कुशल कार्यबल एक लचीले, नवाचार-संचालित निर्यात परिवर्तन की रीढ़ बन जाता है।
निष्कर्ष:
भारत के निर्यात के पुनरुद्धार का आधार क्षणिक प्रोत्साहनों पर नहीं बल्कि गहन संरचनात्मक सुधार, क्षमता निर्माण और वैश्विक एकीकरण पर होगा। लॉजिस्टिक्स, अनुपालन क्षमता, वित्तीय ढाँचे और कार्यबल कौशल को मज़बूत करना भारत के आकार को वास्तविक प्रतिस्पर्द्धात्मकता में बदल सकता है। एक स्थायी निर्यात पारिस्थितिकी तंत्र के लिये नीति स्थिरता, संस्थागत सामंजस्य और लगातार नवाचार आवश्यक हैं। “राष्ट्र बाज़ारों में सब्सिडी से नहीं बल्कि प्रणाली से जीतता है — जहाँ दक्षता उसकी संस्कृति हो और प्रतिस्पर्द्धात्मकता उसका चरित्र।”
| दृष्टि मेन्स प्रश्न: “कई एक्सपोर्ट-प्रमोशन स्कीम के बावजूद, भारत की निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता संरचनात्मक चुनौतियों से बाधित है।” हाल के नीतिगत विकासों के आलोक में चर्चा कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. एक्सपोर्ट प्रमोशन मिशन क्या है और यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?
निर्यात संवर्द्धन मिशन/एक्सपोर्ट प्रमोशन मिशन एक एकीकृत, परिणाम‑उन्मुख तंत्र है, जो बिखरी हुई योजनाओं को एक ही फ्रेमवर्क में समाहित करने, निर्यात प्रतिस्पर्द्धा को मज़बूत करने, MSME के लिये व्यापार वित्त तक पहुँच बढ़ाने और वैश्विक व्यापार व्यवधानों के समय तुरंत समर्थन प्रदान करने हेतु बनाया गया है।
2. कई स्कीम के बावजूद भारत कीमर्चेंडाइज निर्यात वृद्धि कम क्यों हो रही है?
उच्च लॉजिस्टिक्स लागत, नियमों की जटिलता, इनवर्टेड ड्यूटी संरचना, सीमित ग्लोबल वैल्यू चेन (GVC) एकीकरण और प्रमुख व्यापार ब्लॉकों में कम पहुँच जैसी संरचनात्मक बाधाएँ की वजह से वृद्धि मामूली बनी हुई है।
3. PLI स्कीम भारत के निर्यात बास्केट को नया आकार कैसे दे रही है?
PLI स्कीम निर्यात को उच्च-तकनीक और मूल्य-वर्धित क्षेत्रों की ओर ले जा रही है, क्योंकि यह उन्नत विनिर्माण को प्रोत्साहित करती है, इलेक्ट्रॉनिक्स और फार्मास्यूटिकल्स को बढ़ा रही है, और भारत को वैश्विक मूल्य‑शृंखलाओं से गहराई से जोड़ रही है।
4. भारत के व्यापारिक प्रदर्शन के लिये सेवा निर्यात क्यों आवश्यक हैं?
सेवा निर्यात वैश्विक वस्तु‑बाज़ार की अस्थिरता के खिलाफ स्थिरता प्रदान करता है, चालू खाता संतुलन का समर्थन करता है, और भारत की डिजिटल कौशल, IT, और ज्ञान‑गहन क्षेत्रों में ताकत का उपयोग करता है।
5. भारत के व्यापार प्रदर्शन (ट्रेड परफॉर्मेंस) में सर्विस (सेवाओं) के निर्यात क्यों महत्त्वपूर्ण हैं:
UK और EFTA जैसे साझेदारों के साथ नए मुक्त‑व्यापार समझौते (FTAs) टैरिफ बाधाओं को कम कर रहे हैं, नए बाज़ार खोल रहे हैं, उच्च‑जोखिम क्षेत्रों पर निर्भरता घटा रहे हैं और भारत की विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाओं तक पहुँच में सुधार कर रहे हैं।
6. भारत की निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रतिबंधित करने वाली प्रमुख लॉजिस्टिक्स चुनौतियाँ क्या हैं?
भारत उच्च लॉजिस्टिक्स लागत, खंडित परिवहन नेटवर्क, धीमी कार्गो टर्नअराउंड और असंगत सीमा प्रक्रियाओं का सामना करता है, जो भारतीय माल की मूल्य प्रतिस्पर्द्धात्मकता को कम कर देती हैं।
7. वैश्विक मूल्य‑शृंखला में भारत का इंटीग्रेशन सीमित क्यों है?
“घटक/कंपोनेंट निर्माण में कम भागीदारी, कमज़ोर आपूर्तिकर्त्ता पारिस्थितिकी तंत्र, सीमित टेक्नोलॉजी एब्ज़ॉर्प्शन और असंगत गुणवत्ता मानक गहरे‑मूल्य GVC सेगमेंट में अधिक एकीकरण को रोकते हैं।
8. गैर‑टैरिफ बाधाएँ भारतीय निर्यातकों को कैसे प्रभावित करते डालते हैं?
कठोर मानक, SPS नियम, जटिल प्रमाणन और CBAM जैसे नए पर्यावरणीय नियम अनुपालन लागत बढ़ाते हैं तथा विशेष रूप से MSME के लिये बाज़ार तक पहुँच को कठिन बना देते हैं।
9. MSMEs के लिये निर्यात वित्त तक पहुँच मुश्किल क्यों है?
उच्च मान्यता-जोखिम, कोलैटरल-हैवी लेंडिंग, पेमेंट में देरी और शिपमेंट से पहले और बाद के सस्ते क्रेडिट की कम उपलब्धता, MSMEs के लिये बड़ी वित्तीय बाधाएँ पैदा करती हैं।
10. सतत् निर्यात वृद्धि के लिये कौन‑से दीर्घकालीन सुधार आवश्यक हैं?
भारत को प्रणालीगत व्यापार सुगमता, GVC एकीकरण, गुणवत्ता उन्नयन, विनियमों में सरलीकरण, लॉजिस्टिक्स आधुनिकीकरण, FTA उपयोग, कुशल कार्यबल विकास और सब्सिडी‑नेतृत्व प्रतिस्पर्द्धा के बजाय क्षमता‑नेतृत्व प्रतिस्पर्द्धा की ओर परिवर्तन की आवश्यकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रश्न 1. निरपेक्ष तथा प्रति व्यक्ति वास्तविक GNP में वृद्धि आर्थिक विकास की ऊँची स्तर का संकेत नहीं करती, यदि: (2018)
(a) औद्योगिक उत्पादन कृषि उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(b) कृषि उत्पादन औद्योगिक उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(c) निर्धनता और बेरोज़गारी में वृद्धि होती है।
(d) निर्यात की अपेक्षा आयात तेज़ी से बढ़ता है।
उत्तर: (c)
प्रश्न 2. फरवरी 2006 से प्रभाव में आए SEZ अधिनियम, 2005 के कुछ निर्धारित उद्देश्य हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2010)
- अवसंरचना सुविधाओं का विकास।
- विदेशी स्रोतों से निवेश को बढ़ावा देना।
- केवल सेवाओं के निर्यात को बढ़ावा देना।
उपर्युक्त में से कौन-से इस अधिनियम के उद्देश्य हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (a)
प्रश्न 3. "बंद अर्थव्यवस्था" एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें: (2011)
(a) मुद्रा की आपूर्ति पूरी तरह से नियंत्रित होती है।
(b) घाटे का वित्तपोषण होता है।
(c) केवल निर्यात होता है।
(d) न तो निर्यात और न ही आयात होता है।
उत्तर: (d)