मध्यस्थता अधिनियम, 2023: न्यायपालिका के कार्यभार को सुगम बनाना | 28 Sep 2023

यह एडिटोरियल 23/09/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘A clear message to industry on dispute resolution’’ लेख पर आधारित है। इसमें मध्यस्थता अधिनियम, 2023 के बारे में चर्चा की गई है जिसका उद्देश्य वाणिज्यिक विवादों के मामले में मध्यस्थता और माध्यस्थम के बीच एक लिंक को बढ़ावा देना है, जिससे भारतीय न्यायालयों पर बोझ कम हो सके।

प्रिलिम्स के लिये:

मध्यस्थता, सर्वोच्च न्यायालय, पंचाट, समाधान, सुलह, मध्यस्थता परिषद, सामुदायिक मध्यस्थता, ऑनलाइन मध्यस्थता, नीति आयोग, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, सिंगापुर कन्वेंशन, ADR तंत्र, मध्यस्थता से संबंधित विभिन्न कानून

मेन्स के लिये:

मध्यस्थता अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ, संस्थागत मध्यस्थता, विवाद निवारण तंत्र, मध्यस्थता प्रक्रिया, इससे संबंधित विधियाँ, मुद्दे और आगे की  राह।

संसद के हालिया मानसून सत्र में दोनों सदनों द्वारा मध्यस्थता विधेयक, 2023 (Mediation Bill, 2023) पारित किया गया, जिसे भारत के राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त होने के बाद मध्यस्थता अधिनियम, 2023 (Mediation Act, 2023) के रूप में जाना जाता है। यह अधिनियम मध्यस्थता, विशेष रूप से संस्थागत मध्यस्थता, को बढ़ावा देने और मध्यस्थता के माध्यम से निपटान समझौतों (mediated settlement agreements) को लागू करने के लिये एक तंत्र प्रदान करने की मंशा रखता है।

मध्यस्थता क्या है?

  • मध्यस्थता (Mediation) एक स्वैच्छिक, बाध्यकारी प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष और तटस्थ मध्यस्थ (mediator) विवादित पक्षों को समझौते तक पहुँचने में मदद करता है।
  • यहाँ मध्यस्थ द्वारा समाधान थोपा नहीं जाता बल्कि ऐसे अनुकूल माहौल का निर्माण किया जाता है जिसमें विवाद में शामिल पक्ष अपने सभी विवादों को सुलझा सकते हैं।
  • मध्यस्थता विवाद समाधान का एक ‘ट्राइड एंड टेस्टेड’ वैकल्पिक तरीका है। दिल्ली, रांची, जमशेदपुर, नागपुर, चंडीगढ़ और औरंगाबाद शहरों में यह बेहद सफल सिद्ध हुई है।
  • मध्यस्थता एक संरचित प्रक्रिया (structured process) है जहाँ एक तटस्थ व्यक्ति विशेष संचार और समझौता वार्ता तकनीकों का उपयोग करता है। मध्यस्थता प्रक्रिया में भागीदार वादियों (Litigants) ने मुखर रूप से इसका समर्थन किया है।
  • मध्यस्थता के अलावा विवाद समाधान के कुछ अन्य तरीके भी हैं, जैसे पंचाट(Arbitration), समझौता वार्ता (Negotiation) और सुलह (Conciliation)।

नवीन अधिनियम के प्रमुख प्रावधान

  • वाद-पूर्व मध्यस्थता (Pre-litigation Mediation):
    • पक्षकारों द्वारा किसी न्यायालय या किसी निश्चित न्यायाधिकरण के पास पहुँचने से पहले मध्यस्थता द्वारा अपने सिविल या वाणिज्यिक विवादों को निपटान का प्रयास करना चाहिये।
    • भले ही वे वाद-पूर्व मध्यस्थता के माध्यम से किसी समझौते तक पहुँचने में विफल रहें, न्यायालय या न्यायाधिकरण प्रक्रिया के किसी भी स्तर पर संलग्न पक्षकारों को मध्यस्थता के लिये भेज सकता है।
  • वे विवाद जो मध्यस्थता के लिये उपयुक्त नहीं:
    • अधिनियम में उन विवादों की सूची दी गई है जो मध्यस्थता के लिये उपयुक्त नहीं माने गए हैं। इनमें निम्नलिखित विषयों से संबंधित विवाद शामिल हैं:
      • अल्पवयस्क या विकृत चित्त के व्यक्तियों के विरुद्ध दावों से संबंधित,
      • जहाँ आपराधिक अभियोजन शामिल है, और
      • जहाँ तीसरे पक्ष के अधिकार प्रभावित हो रहे हैं।
    • केंद्र सरकार के पास इस सूची में संशोधन कर सकने की शक्ति है।
  • प्रयोज्यता (Applicability):
    • यह अधिनियम भारत में आयोजित ऐसी मध्यस्थताओं पर लागू होगा:
      • जहाँ केवल घरेलू पक्षकार संलग्न हैं,
      • कम से कम एक विदेशी पक्ष संलग्न और यह वाणिज्यिक विवाद से संबंधित है,
      • यदि मध्यस्थता समझौते में यह कहा गया है कि मध्यस्थता इस अधिनियम के अनुसार होगी।
  • मध्यस्थता प्रक्रिया (Mediation Process):
    • मध्यस्थता की कार्यवाही गोपनीय होगी और इसे 180 दिनों के भीतर पूरा कर लेना होगा (पक्षकारों द्वारा इसे 180 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है)।
    • कोई पक्षकार दो सत्रों के बाद मध्यस्थता से पीछे भी हट सकता है।
  • मध्यस्थ (Mediators):
    • मध्यस्थों की नियुक्ति निम्नलिखित रूप में की जा सकती है:
      • पक्षकारों द्वारा समझौते या सहमति के माध्यम से, अथवा
      • एक मध्यस्थता सेवा प्रदाता द्वारा।
    • मध्यस्थों को हितों के किसी भी ऐसे टकराव का खुलासा करना होगा जो उनकी स्वतंत्रता पर संदेह उत्पन्न कर सकता है।
  • भारतीय मध्यस्थता परिषद (Mediation Council of India):
    • केंद्र सरकार भारतीय मध्यस्थता परिषद की स्थापना करेगी।
    • इस परिषद में शामिल होंगे-
      • एक अध्यक्ष,
      • दो पूर्णकालिक सदस्य (जो मध्यस्थता या ADR में अनुभव रखते हैं),
      • तीन पदेन सदस्य (कानून सचिव और व्यय सचिव सहित), और
      • किसी औद्योगिक निकाय से एक अंशकालिक सदस्य।
    • परिषद के कार्यों में शामिल हैं: (i) मध्यस्थों का पंजीकरण, और (ii) मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं और मध्यस्थता संस्थानों को मान्यता प्रदान करना।
  • मध्यस्थता के माध्यम से निपटान समझौता (Mediated Settlement Agreement):
    • मध्यस्थता (सामुदायिक मध्यस्थता को छोड़कर) से उत्पन्न समझौते न्यायालय के निर्णय की तरह ही अंतिम, बाध्यकारी और प्रवर्तनीय होंगे।
    • हालाँकि इन्हें निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी जा सकती है:
      • धोखा (fraud)
      • भ्रष्टाचार (corruption)
      • ग़लत पहचान (impersonation)
      • उन विवादों के मामले में जो मध्यस्थता के लिये उपयुक्त नहीं हैं।
  • सामुदायिक मध्यस्थता (Community Mediation):
    • किसी इलाके के निवासियों के बीच शांति और सद्भाव को प्रभावित करने वाले विवादों को सुलझाने के लिये सामुदायिक मध्यस्थता का प्रयास किया जा सकता है।
    • इसका आयोजन तीन मध्यस्थों के एक पैनल द्वारा किया जाएगा।

भारत को मध्यस्थता को बढ़ावा देने की आवश्यकता क्यों है?

  • लंबित मामलों के समाधान हेतु:
    • मई 2022 तक की स्थिति के अनुसार, भारतीय न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों के न्यायालयों के समक्ष 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित पड़े हैं। उनमें से 87.4% अधीनस्थ न्यायालयों में और 12.4% उच्च न्यायालयों में लंबित पड़े हैं।
    • इस परिदृश्य में, लंबित मामलों की संख्या को कम करने के लिये भारत के सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता और सुलह परियोजना समिति (Mediation and Conciliation Project Committee) ने मध्यस्थता को संघर्ष समाधान के लिये एक ‘ट्राइड एंड टेस्टेड’ विकल्प के रूप में देखा है।
  • मध्यस्थता पर ‘स्टैंडअलोन’ या स्वतंत्र विधियों का अभाव:
    • ऐसे कई विधियाँ मौजूद हैं जिनमें मध्यस्थता प्रावधान शामिल हैं, जैसे
    • उपरोक्त विधियों के बावजूद, भारत में कोई समर्पित स्टैंडअलोन या स्वतंत्र मध्यस्थता विधि मौजूद नहीं है।
    • ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और इटली सहित विभिन्न देशों में मध्यस्थता पर स्टैंडअलोन कानून मौजूद हैं।
  • वास्तविक न्याय और सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में मध्यस्थता:
    • मध्यस्थता सरल भाषा के माध्यम से न्याय प्रदान करना आसान बनाती है और पारंपरिक तरीकों की एक लागत-प्रभावी विकल्प साबित होती है।
    • मध्यस्थता के दौरान प्राप्त समाधान व्यक्तियों के लिये वास्तविक न्याय सुनिश्चित करता है जहाँ विचारों के आदान-प्रदान और सूचना के प्रवाह के माध्यम से सामाजिक मानदंडों को संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप बनाया जाता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र बनने की आकांक्षाएँ:
    • मध्यस्थता पर सिंगापुर कन्वेंशन (Singapore Convention on Mediation) मध्यस्थता के माध्यम से प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय निपटान समझौतों के लिये एक सार्वभौमिक और कुशल ढाँचा है।
    • चूँकि भारत भी वर्ष 2019 से इसका हस्ताक्षरकर्ता है, इसलिये देश में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता को नियंत्रित करने वाले एक कानून का निर्माण करना उपयुक्त होगा।
    • यह अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (International Mediation Hub) बन सकने के लिये भारत की साख को बढ़ावा देगा।

अधिनियम से संबद्ध प्रमुख मुद्दे और चिंताएँ 

  • वाद-पूर्व मध्यस्थता की अनिवार्यता:
    • अधिनियम के अनुसार, कोई भी मुक़दमा दायर करने या अदालत में कार्यवाही शुरू करने से पहले दोनों पक्षकारों के लिये वाद-पूर्व मध्यस्थता से गुज़रना अनिवार्य है, चाहे उनके बीच मध्यस्थता समझौता हो या नहीं हो।
    • हालाँकि, संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार न्याय तक पहुँच एक मूल अधिकार है जिसे सीमित या प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।
  • मध्यस्थों का सीमित प्रासंगिक अनुभव:
    • जबकि परिषद के पूर्णकालिक सदस्यों के पास मध्यस्थता या ADR कानूनों एवं तंत्रों से संबंधित ज्ञान या अनुभव होने की शर्त रखी गई है, आवश्यक नहीं है कि वे उल्लेखनीय अनुभव रखने वाले पेशेवर मध्यस्थ हों।
    • उदाहरण के लिये, अधिनियम की शर्तों के अधीन किसी ‘आर्बिट्रेटर’ को परिषद के पूर्णकालिक सदस्य के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन संभव है कि मध्यस्थों के पेशेवर आचरण के मानकों को निर्धारित करने जैसे कार्य करने के लिये वह उपयुक्त नहीं हो।
  • विनियमन जारी करने से पहले केंद्र सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता:
    • अधिनियम के तहत, परिषद विनियमन जारी कर अपने प्रमुख कार्यों का निर्वहन करेगी। ऐसे विनियमन जारी करने से पहले उसे केंद्र सरकार से मंज़ूरी लेनी होगी।
    • इस प्रकार, यदि परिषद को अपने मुख्य कार्यों के लिये केंद्र सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी तो इससे उसकी प्रभावशीलता सीमित हो सकती है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग और बार काउंसिल ऑफ इंडिया जैसे समकक्ष संगठनों को विनियमन जारी करने से पहले पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय निपटान को लागू करने में चुनौतियाँ:
    • यह अधिनियम अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता को घरेलू मानता है जब यह भारत में आयोजित हो और निपटान या निपटारे को न्यायालय के निर्णय या डिक्री के रूप में मान्यता दी जाती है।
    • सिंगापुर कन्वेंशन उन निपटानों पर लागू नहीं होता है जो पहले से ही निर्णय या डिक्री का दर्जा रखते हैं। इसके परिणामस्वरूप, भारत में सीमा-पार मध्यस्थता आयोजित करने से विश्वव्यापी प्रवर्तनीयता के व्यापक लाभ अपवर्जित हो जाएँगे।
  • मध्यस्थों के लिये विविध पंजीकरण आवश्यक:
    • मध्यस्थों को इन सभी चार स्थानों पर पंजीकृत/सूचीबद्ध होना होगा:
      • भारतीय मध्यस्थता परिषद,
      • न्यायालय द्वारा अनुलग्न मध्यस्थता केंद्र,
      • एक मान्यता प्राप्त मध्यस्थता सेवा प्रदाता, और
      • एक विधिक सेवा प्राधिकरण।
    • यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे मध्यस्थों के लिये इनमें से किसी भी एक शर्त को पूरा करना पर्याप्त क्यों नहीं है।
  • अपरिभाषित शब्दावली:
    • अधिनियम का खंड 8 किसी पक्षकार को केवल ‘असाधारण परिस्थितियों’ में ही अंतरिम राहत के लिये मध्यस्थता की शुरुआत से पहले या इसके दौरान न्यायालय में जाने का अधिकार देता है।
    • अधिनियम में ‘असाधारण परिस्थिति’ शब्द अपरिभाषित है।
  • ऑनलाइन मध्यस्थता से संबंधित मुद्दे:
    • नीति आयोग की एक हाल की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के केवल 55% लोगों के पास इंटरनेट तक पहुँच है और केवल 27% के पास उपयुक्त इंटरनेट डिवाइस मौजूद हैं।
    • इससे आबादी के एक बड़े हिस्से के लिये पहुँच या अभिगम्यता की समस्या उत्पन्न होती है।
  • सामुदायिक मध्यस्थता से जुड़े मुद्दे:
    • सामुदायिक मध्यस्थता के मामले में यह अधिनियम तीन मध्यस्थों का एक पैनल रखना अनिवार्य बनाता है।
      • सामुदायिक मध्यस्थता एक शक्तिशाली साधन है जो लोगों को प्रबंधित संचार के माध्यम से विवादों को सुलझाने का अवसर प्रदान करता है।
    • तीन मध्यस्थों के एक पैनल की आवश्यकता अनावश्यक लगती है और यह मध्यस्थता प्रक्रिया में निहित लचीलेपन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

आगे की राह

  • अनिवार्य वाद-पूर्व मध्यस्थता का चरणबद्ध प्रवेश:
    • अनिवार्य वाद-पूर्व मध्यस्थता को चरणबद्ध तरीके से शुरू करना उपयुक्त होगा जहाँ पहले विवादों की कुछ चिह्नित श्रेणियों को और फिर अंततः विवादों की एक विस्तृत शृंखला दायरे में लिया जाए।
  • समय-सीमा कम करना:
  • क्षमता निर्माण:
    • नीति आयोग ने माना है कि भारत में अनिवार्य वाद-पूर्व मध्यस्थता के लिये एक रूपरेखा तैयार करने में उपलब्ध मध्यस्थों की संख्या और बड़ी संख्या में मध्यस्थ प्रदान कर सकने की पारिस्थितिक तंत्र की क्षमता को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
    • सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता और सुलह परियोजना समिति ने मॉडल मध्यस्थता कोड निर्धारित करने, देश भर में मध्यस्थों के प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान करने और सभी ज़िलों में प्रक्रिया को विनियमित करने के लिये आवश्यक कदमों की सिफ़ारिश की है।
  • अभिगम्यता में वृद्धि करना:
    • ऑनलाइन मध्यस्थता को सफल बनाने के लिये हमें अपनी बैंडविड्थ पहुँच को देश के दूरदराज के हिस्सों तक व्यापक रूप से बढ़ाना होगा।
    • विधिक सहायता (legal aid) की स्थापना करने या पर्याप्त IT अवसंरचना के साथ जस्टिस क्लीनिक (justice clinics) तक पहुँच बढ़ाने के माध्यम से इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
  • महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों (Disruptive Technologies) का उपयोग:
    • अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम (International Arbitration- IA) और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) पारंपरिक अभ्यासों के प्रमुख विकल्प हैं। IA पारंपरिक विवाद समाधान विधियों को प्रतिस्थापित करता है, जबकि AI पारंपरिक प्रदर्शन दृष्टिकोण को प्रतिस्थापित करता है।
    • AI माध्यस्थम प्रक्रिया और इसके उपयोगकर्ताओं के लिये अत्यधिक लाभ प्रदान कर सकता है। AI-संचालित सेवाएँ मानव संज्ञानात्मक क्षमताओं को बढ़ाकर वकीलों को मसौदा तैयार करने, बेहतर प्राधिकारों की पहचान करने, दस्तावेजों की समीक्षा करने आदि में सहायता कर सकती हैं।

निष्कर्ष

भारत में मध्यस्थता का भविष्य सामाजिक परिवर्तन को उस तरीके से प्रभावित करने की क्षमता में निहित है जिस तरह से कानून नहीं कर पाता है। इस अधिनियम को रूप की बजाय भावना में अधिक लागू किया जाना चाहिये, जैसा कि एक प्रसिद्ध न्यायविद् ने उपयुक्त ही कहा है कि ‘‘यह भावना है, न कि रूप, जो न्याय को जीवंत बनाये रखती है।"

अभ्यास प्रश्न: विवाद समाधान के एक तंत्र के रूप में मध्यस्थता के विभिन्न लाभ होने के बावजूद, भारत में इसका अधिक उपयोग नहीं किया गया है। मध्यस्थता अधिनियम, 2023 के विशेष संदर्भ में उपर्युक्त कथन का विश्लेषण कीजिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स

प्रश्न लोक अदालतों के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है? 

(a )लोक अदालतों के पास पूर्व-मुकदमेबाजी के स्तर पर मामलों को निपटाने का अधिकार क्षेत्र है, न कि उन मामलों को जो किसी भी अदालत के समक्ष लंबित हैं। 
(b) लोक अदालतें उन मामलों से निपट सकती हैं जो दीवानी हैं और फ़ौजदारी प्रकृति के नहीं हैं। 
(c) प्रत्येक लोक अदालत में या तो केवल सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी होते हैं और कोई अन्य व्यक्ति नहीं होता है। 
(d) ऊपर दिये गए कथनों में से कोई भी सही नहीं है।

उत्तर: (d)


प्रश्न लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)

  1. लोक अदालत द्वारा दिया गया निर्णय सिविल कोर्ट का फैसला माना जाता है और उसके खिलाफ किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती।
  2. लोक अदालत के अंतर्गत वैवाहिक/पारिवारिक विवाद शामिल नहीं हैं।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (a)


मेन्स

प्रश्न. राष्ट्रपति द्वारा हाल में प्रख्यापित अध्यादेश के द्वारा माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 में क्या प्रमुख परिवर्तन किये गए हैं? यह भारत के विवाद समाधान यांत्रिकत्व को किस सीमा तक सुधारेगा? चर्चा कीजिये।(2015)