सावलकोट जलविद्युत परियोजना
पहलगाम आतंकी हमले (2025) के बाद सिंधु जल संधि (IWT) के निलंबन के पश्चात् चिनाब नदी पर लंबित सावलकोट जलविद्युत परियोजना को जम्मू-कश्मीर (J&K) के लिये रणनीतिक और ऊर्जा महत्त्व की परियोजना मानते हुए तीव्र गति से मंज़ूरी प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू की गई है।
- सावलकोट जलविद्युत परियोजना: यह 1,856 मेगावाट की "रन-ऑफ-द-रिवर" (जिसमें नदी के प्राकृतिक प्रवाह का उपयोग किया जाता है और बहुत कम या नगण्य जल भंडारण होता है) जलविद्युत परियोजना है, जो जम्मू-कश्मीर के रामबन ज़िले में चिनाब नदी (IWT के अंतर्गत पश्चिमी नदी) पर स्थित है।
- इस परियोजना की शुरुआत वर्ष 1984 में हुई थी और वर्षों से यह कई तरह की देरी का सामना करती रही है
- इसे राष्ट्रीय महत्त्व की परियोजना घोषित किया गया है, जिसमें एक कंक्रीट ग्रेविटी डैम और जलाशय का निर्माण शामिल है।
- परियोजना शुरू होने के बाद सावलकोट से प्रतिवर्ष 7,000 मिलियन यूनिट से अधिक बिजली उत्पादन होने की उम्मीद है, जिससे यह भारत की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं में से एक बन जाएगी।
- रणनीतिक महत्त्व: IWT (सिंधु जल संधि) के निलंबन की स्थिति में इस परियोजना को चिनाब नदी की जलविद्युत क्षमता का उपयोग करने और IWT की पश्चिमी नदियों पर भारत के नियंत्रण को मज़बूत करने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण जा रहा है। यह जल संसाधनों के इष्टतम उपयोग और ऊर्जा सुरक्षा को सुदृढ़ करने की दृष्टि से एक रणनीतिक प्राथमिकता है
- चिनाब नदी पर जलविद्युत परियोजनाएँ: चिनाब नदी पर किश्तवाड़ में 390 मेगावाट की दुलहस्ती परियोजना, रामबन में 890 मेगावाट की बगलिहार परियोजना और रियासी में 690 मेगावाट की सलाल परियोजना स्थित है। ये परियोजनाएँ क्षेत्र की ऊर्जा आपूर्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।
सिंधु जल संधि (IWT)
- यह संधि 1960 में कराची में हस्ताक्षरित हुई थी और इसकी मध्यस्थता विश्व बैंक द्वारा की गई थी। IWT के तहत पूर्वी नदियाँ (रावी, ब्यास, सतलुज) भारत को और पश्चिमी नदियाँ (सिंधु, झेलम, चिनाब) पाकिस्तान को आवंटित की गईं, जिससे पाकिस्तान को लगभग 80% जल प्राप्त होता है।
- भारत पश्चिमी नदियों का उपयोग सीमित, गैर-उपभोगी उद्देश्यों के लिये कर सकता है, जैसे—जलविद्युत उत्पादन, नौवहन और सिंचाई, बशर्ते संधि की शर्तों का पालन किया जाए।
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हिमालयी कस्तूरी मृग
केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (CZA) की एक रिपोर्ट के अनुसार, मान्यता प्राप्त चिड़ियाघरों में कोई भी हिमालयी कस्तूरी मृग (मॉस्कस क्राइसोगास्टर) बंदी मृग/हिरण नहीं है, जिससे यह संकेत मिलता है कि वर्ष 1982 की हिमालयी कस्तूरी परियोजना के बावजूद कोई प्रजनन कार्यक्रम शुरू नहीं किया गया है।
हिमालयी कस्तूरी मृग
- परिचय: यह एक हिरण प्रजाति है जो भारत के हिमालयी क्षेत्र में 2,500 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले अल्पाइन क्षेत्रों के साथ-साथ नेपाल, भूटान और चीन में भी पाई जाती है।
- शारीरिक विवरण: इनमें सींग नहीं होते और इनमें पित्ताशय (गॉलब्लैडर) पाया जाता है, जो इन्हें अन्य हिरणों से अलग करता है।
- भारत में बंदी प्रजनन: वर्ष 1982 में केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य में कस्तूरी मृग प्रजनन केंद्र की स्थापना की गई थी, जिसमें शुरुआत में 5 मृग थे। वर्ष 2006 तक इनकी संख्या बढ़कर 28 हो गई, लेकिन उसी वर्ष केंद्र को बंद कर दिया गया और अंतिम मृग को दार्जिलिंग चिड़ियाघर भेज दिया गया। वर्तमान में भारत के पास "फाउंडर स्टॉक" (प्रजनन कार्यक्रम शुरू करने के लिये आवश्यक प्रारंभिक जोड़े) की कमी है।
- व्यवहार और संचार (Behavior & Communication): ये एकाकी, स्थिर और संध्याकालीन (सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सक्रिय) होते हैं। क्षेत्र चिह्नित करने के लिये पूँछ ग्रंथि (Caudal Gland) का उपयोग करते हैं। इनकी विशिष्ट छलांग वाली चाल (Bounding Gait) होती है और यह शिकारियों से बचने के लिये 6 मीटर छलांग लगाने में सक्षम हैं।
संरक्षण स्थिति:
- IUCN रेड लिस्ट में संकटग्रस्त (Endangered)।
- कस्तूरी थैली के लिये शिकार (इत्र और औषधियों में उपयोग) जनसंख्या घटने का मुख्य कारण है।
- CITES परिशिष्ट I में सूचीबद्ध।
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अर्जुन 2025 PN7: पृथ्वी का नवीनतम अर्द्ध-उपग्रह
खगोलविदों ने पृथ्वी के एक नए अर्द्ध-उपग्रह अर्जुन 2025 PN7 की खोज की है, जिसे पहली बार हवाई स्थित पैन-स्टार्स 1 दूरबीन द्वारा देखा गया।
- 2025 PN7 अर्जुन समूह के क्षुद्रग्रहों में से एक है, जिसका नाम महाभारत के पौराणिक पात्र अर्जुन के नाम पर रखा गया है, जो इसकी तेज, मायावी प्रकृति का प्रतीक है।
- अर्द्ध-उपग्रह वर्गीकरण (Quasi-Satellite Classification): 2025 PN7 पृथ्वी का सातवाँ ज्ञात अर्द्ध-उपग्रह है।
- इन पिंडों को अर्द्ध-चंद्रमा (quasi-moons) माना जाता है क्योंकि उनका सूर्य के चारों ओर का कक्षीय मार्ग पृथ्वी की कक्षा के समान है, हालाँकि ये ग्रह के गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से बाहर हैं।
- पृथ्वी का अर्द्ध-उपग्रह (quasi-satellite) वह पिंड है जो सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के समान मार्ग में घूर्णन करता है, लेकिन पृथ्वी से गुरुत्वाकर्षण द्वारा बंधा नहीं होता।
- मिनी-मून और अर्द्ध-चंद्रमा में अंतर: मिनी-मून अस्थायी रूप से पृथ्वी के चारों ओर घूर्णन करते हैं, जबकि अर्द्ध-चंद्रमा (quasi-moons) सैकड़ों से हज़ारों वर्षों तक पृथ्वी की कक्षा के साथ संतुलन बनाए रखते हैं।
- इन पिंडों को अर्द्ध-चंद्रमा (quasi-moons) माना जाता है क्योंकि उनका सूर्य के चारों ओर का कक्षीय मार्ग पृथ्वी की कक्षा के समान है, हालाँकि ये ग्रह के गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से बाहर हैं।
- कक्षा (Orbit): 1.003 खगोलीय इकाई (Astronomical Unit – AU) के अर्द्ध-मुख्य अक्ष (semi-major axis) के साथ (जो लगभग पृथ्वी की कक्षा के समान है), 2025 PN7 दीर्घवृत्ताकार (elliptical) कक्षा में सूर्य के चारों ओर घूर्णन करता है।
- 2025 PN7 सूर्य के चारों ओर घूर्णन करता है, पृथ्वी के चारों ओर नहीं, लेकिन 1:1 कक्षीय अनुनाद (orbital resonance) के कारण पृथ्वी के पास बना रहता है, जिसका अर्थ है कि यह सूर्य के चारों ओर एक कक्षा पूरी करने में उतना ही समय लेता है जितना पृथ्वी लेती है।
- महत्त्व: 2025 PN7 अपने अर्द्ध-उपग्रह स्थिति में 128 वर्षों तक रहेगा, जो वैज्ञानिक अध्ययन के लिये पर्याप्त समय प्रदान करता है।
- यह कक्षीय अनुनाद, गुरुत्वाकर्षण इंटरैक्शन और पृथ्वी के निकट पिंडों (near-Earth objects) की गतिशीलता का अध्ययन करने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है तथा खगोलविदों के लिये एक प्राकृतिक प्रयोगशाला के रूप में कार्य करता है।
- इसकी पृथ्वी जैसी कक्षा इसे भविष्य की अंतरिक्ष मिशनों, क्षुद्रग्रह खनन और पुनर्निर्देशन तकनीकों के लिये संभावित लक्ष्य बनाती है, जबकि इसके गति का अध्ययन क्षुद्रग्रह प्रभाव जोखिम का मूल्यांकन करके ग्रह सुरक्षा (planetary defense) में सुधार करने में मदद करता है।
- यह कक्षीय अनुनाद, गुरुत्वाकर्षण इंटरैक्शन और पृथ्वी के निकट पिंडों (near-Earth objects) की गतिशीलता का अध्ययन करने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है तथा खगोलविदों के लिये एक प्राकृतिक प्रयोगशाला के रूप में कार्य करता है।
अर्जुन क्षुद्रग्रह वर्ग (Arjuna Asteroid Class):
- अर्जुन क्षुद्रग्रह वर्ग में वह क्षुद्रग्रह शामिल हैं जिनकी कक्षाएँ पृथ्वी जैसी होती हैं, जिन्हें सबसे पहले क्षुद्रग्रह 1991 VG की खोज के साथ पहचाना गया था।
- ये क्षुद्रग्रह पृथ्वी के सबसे नजदीकी पिंडों में से हैं और कभी-कभी अस्थायी मिनी-मून बन जाते हैं, जो कुछ समय के लिये पृथ्वी के पास रहते हैं और फिर दूर चले जाते हैं।
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चरम नाभिकीय क्षणिक घटनाएँ
चरम नाभिकीय क्षणिक घटनाओं (Extreme Nuclear Transients - ENTs) को ब्रह्मांडीय विस्फोटों की एक नई श्रेणी के रूप में प्रस्तावित किया गया है, जो गामा-किरण विस्फोटों (GRBs) से भी अधिक शक्तिशाली हैं, जिन्हें अब तक का सबसे तीव्र विद्युत चुंबकीय विकिरण माना जाता है, GRBs अब तक की ब्रह्मांड की सबसे शक्तिशाली और तीव्र ऊर्जावान घटनाओं में से हैं।
ENTs
- परिचय: चरम नाभिकीय क्षणिक घटनाऍं (ENTs) तब होती हैं, जब एक विशाल तारा (जिसका द्रव्यमान सूर्य से कम से कम तीन गुना अधिक हो) किसी महाविशाल ब्लैक होल के बहुत करीब आ जाता है।
- क्रियाविधि: ब्लैक होल के तीव्र गुरुत्वाकर्षण बल के कारण तारा खिंचता है और टुकड़ों में बिखर जाता है (यह प्रक्रिया टिडाल डिसरप्शन इवेंट का एक चरम रूप है), तारे के मलबे का कुछ हिस्सा ब्लैक होल की ओर सर्पिल गति से गिरता है, जिससे अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा और प्रकाश उत्सर्जित होता है।
- विशेषताएँ: ENTs रेडियो तरंगदैर्ध्य के रूप में कई वर्षों तक दिखाई देता है, इन्हें अधिक दूरी से भी देखा जा सकता है।
- यद्यपि ENTs ज्वारीय विघटन घटनाओं (TDEs) के साथ समानताएँ साझा करते हैं, फिर भी उनमें अंतर यह है कि TDEs बड़ी मेजबान आकाशगंगाओं में होते हैं और अधिक विशाल केंद्रीय ब्लैक होल से जुड़े होते हैं।
- तीव्र एक्स-रे क्षणिक (FXTs) ENT की तुलना में अल्पकालिक और कम ऊर्जावान होते हैं, जो सुपरनोवा से उत्पन्न होते हैं, न कि अति विशाल ब्लैक होल के साथ अंतःक्रिया से।
- महत्त्व: ENTs का अवलोकन सुपरमासिव ब्लैक होल्स, विशेषकर निष्क्रिय ब्लैक होल्स तथा चरम ब्रह्मांडीय भौतिकी का अध्ययन करने में मदद करता है।
- भविष्य के दूरबीन: आने वाले दूरबीन, जैसे वेरा सी. रुबिन ऑब्ज़र्वेटरी और नैंसी ग्रेस रोमन स्पेस टेलीस्कोप (2027) ENTs के अवलोकन और प्रारंभिक ब्रह्मांड की समझ को और बढ़ाएंगे।
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