भारतीय न्याय प्रणाली को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता
यह एडिटोरियल 04/05/2025 को हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित “Towards fixing India’s flailing justice system” पर आधारित है। इस लेख के तहत भारत की न्याय व्यवस्था में व्याप्त गहन संरचनात्मक दोषों को उजागर किया गया है, जो पुरानी रिक्तियों और संसाधनों की कमियों से ग्रस्त हैं।
प्रिलिम्स के लिये:भारत की न्याय प्रणाली, अनुच्छेद 124, उच्च न्यायालय, सातवीं अनुसूची, प्रकाश सिंह निर्णय, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA), विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987, विधि आयोग, लोक अदालतें, मलिमथ समिति, कॉलेजियम प्रणाली मेन्स के लिये:भारतीय न्याय प्रणाली का संस्थागत कार्यढाँचा, भारत की न्याय प्रणाली से संबंधित प्रमुख मुद्दे। |
भारत की न्याय प्रणाली संरचनात्मक रूप से संसाधनों की कमी के कारण दोषपूर्ण है, जहाँ पुलिस, न्यायपालिका और कारागारों में चार में से एक पद रिक्त है। व्यस्त न्यायिक प्रक्रिया के कारण कारागारों में भीड़-भाड़ एक दशक में 18% से बढ़कर 30% हो गई है, जिसमें 76% कैदी दोषी नहीं बल्कि विचाराधीन हैं। समय पर और न्यायसंगत न्याय सुनिश्चित करने के लिये भारत को अपनी न्यायिक प्रणाली को सुधारने, संरचनात्मक अक्षमताओं को दूर करने तथा सभी स्तरों पर संस्थागत क्षमता बढ़ाने के लिये व्यापक सुधार की आवश्यकता है।
भारत की न्याय प्रणाली का संस्थागत कार्यढाँचा क्या है?
- सर्वोच्च न्यायालय: अनुच्छेद 124 के तहत स्थापित, सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च संवैधानिक प्राधिकरण है और संविधान का अंतिम व्याख्याकार है।
- यह मूल (अनुच्छेद 131), अपीलीय (अनुच्छेद 132-136) और सलाहकार क्षेत्राधिकार (अनुच्छेद 143) का प्रयोग करता है। इसमें वर्तमान में भारत के मुख्य न्यायाधीश और 33 अन्य न्यायाधीश शामिल हैं।
- उच्च न्यायालय: उच्च न्यायालय अनुच्छेद 214-231 के तहत राज्य स्तर पर कार्य करते हैं। उनके पास दीवानी मामलों और आपराधिक मामलों पर मूल एवं अपीलीय क्षेत्राधिकार है।
- भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं, जिनमें से कुछ एक से अधिक राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों को सेवाएँ देते हैं।
- अधीनस्थ न्यायालय: ज़िला स्तर पर, ज़िला एवं सत्र न्यायालय (अनुच्छेद 233) न्यायिक प्रणाली की रीढ़ के रूप में कार्य करते हैं।
- इनमें ज़िला, तालुका और महानगर स्तर पर दीवानी मामलों एवं आपराधिक मामलों की अदालतें शामिल हैं। न्यायिक रूप से उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ होने के बावजूद, उनका प्रशासन राज्य सरकारों द्वारा प्रबंधित किया जाता है।
- पुलिस और कानून प्रवर्तन: विधि और व्यवस्था सातवीं अनुसूची के तहत राज्य का विषय है। प्रत्येक राज्य का अपना पुलिस बल होता है, जो वर्ष 1861 के पुलिस अधिनियम और राज्य-विशिष्ट विधानों द्वारा शासित होता है।
- CBI, NIA, ED और अर्द्धसैनिक बलों जैसी केंद्रीय एजेंसियाँ राज्य के प्रयासों को पूरक बनाती हैं। प्रकाश सिंह निर्णय (वर्ष 2006) मामले ने प्रमुख पुलिस सुधारों को रेखांकित किया, हालाँकि कार्यान्वयन असमान रहा।
- अभियोजन प्रणाली: भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 18 के तहत नियुक्त सरकारी अभियोजक अभियोजन तंत्र बनाते हैं।
- कई राज्यों में अभियोजन निदेशालय है, हालाँकि स्वायत्तता की कमी और पुलिस के साथ अपर्याप्त समन्वय प्रभावशीलता को बाधित करता है।
- कारागार प्रशासन: कारागार राज्य सूची (सूची II) के अंतर्गत आते हैं और कारागार अधिनियम, 1894 तथा राज्य कारागार मैनुअल के अनुसार संबंधित गृह विभागों द्वारा प्रशासित होते हैं।
- कारागार में बंद कैदियों में विचाराधीन कैदी, दोषसिद्ध कैदी और निवारक बंदी शामिल हैं, जिनकी निगरानी ज़िला और उच्च न्यायालय स्तर पर न्यायिक अधिकारियों द्वारा की जाती है।
- कानूनी सहायता और न्याय तक पहुँच: विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत स्थापित राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) को अनुच्छेद 39A के तहत वंचितों को निशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करने का अधिकार है।
- प्रत्येक राज्य में ज़मीनी स्तर पर न्यायिक पहुँच को सुविधाजनक बनाने के लिये संबंधित राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (SLSA) और ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) हैं।
- अर्द्ध-न्यायिक और विशेष मंच: नियमित अदालतों पर बोझ कम करने और डोमेन-विशिष्ट न्याय प्रदान करने के लिये भारत ने NGT, CAT और DRT जैसे न्यायाधिकरणों के साथ-साथ फास्ट-ट्रैक कोर्ट, लोक अदालतें तथा POCSO, NDPS और भ्रष्टाचार के मामलों पर कार्रवाई करने के लिये विशेष अदालतें स्थापित की गई हैं।
भारत की न्याय प्रणाली से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- न्याय वितरण को कमज़ोर करने वाला बैकलॉग संकट: भारत में न्याय व्यवस्था व्यापक लंबित मामले की समस्या से ग्रस्त है जो विधि के शासन को कमज़ोर करती है और नागरिकों के विश्वास को समाप्त करती है।
- लंबित मामलों की विशाल मात्रा के कारण न्यायिक और प्रक्रियात्मक गतिरोध होता है।
- देश के विभिन्न न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय में 80,000 मामले शामिल हैं, वर्ष 2026 तक लंबित मामलों की संख्या 6 करोड़ तक (IJR 2025) पहुँच सकती है।
- रिक्तियाँ संस्थागत क्षमता को कमजोर कर रही हैं: न्यायपालिका, पुलिस और कारागारों में व्यापक रिक्तियाँ संस्थागत क्षमता को गंभीर रूप से बाधित करती हैं, जिससे विलंब, अपर्याप्त प्रवर्तन तथा कर्मचारियों में अत्यधिक मानसिक व शारीरिक थकावट (burnout) जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।
- इससे प्रत्येक स्तर पर न्याय वितरण कमज़ोर होता है। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट- 2025 के अनुसार, भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 15 न्यायाधीश हैं, जो विधि आयोग (वर्ष 1987) द्वारा अनुशंसित 50 न्यायाधीशों से बहुत कम है।
- यहाँ तक कि कर्नाटक जैसे शीर्ष प्रदर्शन करने वाले राज्यों को भी कानूनी सहायता और अदालती सहायक कर्मचारियों की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
- इससे प्रत्येक स्तर पर न्याय वितरण कमज़ोर होता है। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट- 2025 के अनुसार, भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 15 न्यायाधीश हैं, जो विधि आयोग (वर्ष 1987) द्वारा अनुशंसित 50 न्यायाधीशों से बहुत कम है।
- अपर्याप्त वित्तपोषण और विषम संसाधन आवंटन: लोकतंत्र में इसकी आधारभूत भूमिका के बावजूद न्याय कम बजट वाली प्राथमिकता बनी हुई है। अधिकांश निधि वेतन में फँसी हुई है, बुनियादी अवसंरचना, प्रशिक्षण या तकनीक में न्यूनतम निवेश है।
- उदाहरण के लिये, सत्र 2024-25 में न्याय के लिये राज्यों के बजट फंड का औसतन 4.3% आवंटित किया गया था। POCSO जैसी विशेषज्ञ अदालतें संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं।
- सीमांत वर्ग के लोगों के लिये दुर्गमता: भारत की न्याय प्रणाली प्रायः भौगोलिक स्थिति, लागत और सामाजिक पूंजी बाधाओं के कारण सीमांत समुदायों (गरीब, दलित, जनजाति, अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों) को अपवर्जित कर देती है जिनकी इसे रक्षा करनी चाहिये।
- कुल कारागारों में विचाराधीन कैदियों की संख्या 76% है, जो एक गहरे व्यवस्थागत संकट को दर्शाता है। समय पर जमानत और त्वरित सुनवाई तक पहुँच पाना कई लोगों के लिये दुर्लभ बना हुआ है।
- कानूनी सहायता सेवाएँ बड़े पैमाने पर शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं, जिससे ग्रामीण और सीमांत समुदायों को इससे वंचित रहना पड़ता है।
- कुल कारागारों में विचाराधीन कैदियों की संख्या 76% है, जो एक गहरे व्यवस्थागत संकट को दर्शाता है। समय पर जमानत और त्वरित सुनवाई तक पहुँच पाना कई लोगों के लिये दुर्लभ बना हुआ है।
- प्रक्रियागत अवैधता और हिरासत में हिंसा: हिरासत में मृत्यु, अवैध हिरासत और पुलिस की बर्बरता के लगातार मामले दण्ड से मुक्ति की संस्कृति की ओर इशारा करते हैं, जो अकुशल निगरानी और न्यूनतम कानूनी परिणामों के कारण और भी बदतर हो गई है।
- अनुमान है कि वर्ष 2019 में भारत में हिरासत में 1723 मौतें हुई हैं, जो प्रत्येक दिन 5 मौतों के बराबर है। सर्वोच्च न्यायालय के डी.के. बसु निर्णय (1997) में सुरक्षा उपायों को अनिवार्य बनाने के बावजूद, CCTV और गिरफ्तारी प्रोटोकॉल का अनुपालन अधिकांश राज्यों में असमान बना हुआ है।
- कानूनी सहायता में अंतराल और अप्रभावीता: संवैधानिक गारंटी (अनुच्छेद 39A) के बावजूद, कानूनी सहायता गुणवत्ता, अभिगम और धारणा के मामले में अनियमित बनी हुई है, जो प्रायः गरीबों के लिये विफल रह जाती है।
- उदाहरण के लिये, भारत कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति केवल 0.78 रुपए व्यय करता है, जो विश्व में सबसे कम है। इसके अलावा, अधिकांश कारागार कानूनी क्लीनिक संचालन में नहीं हैं।
- विचाराधीन कैदियों का संकट और कारागार में अत्यधिक भीड़: न्याय प्रणाली प्रणालीगत विलंब के कारण हज़ारों लोगों को लंबे समय तक पूर्व-परीक्षण हिरासत में रखती है।
- कई लोग बिना किसी दोषसिद्धि के कई वर्षों तक पूर्व-परीक्षण चरण में ही कारागार में बंद रहते हैं। अप्रभावी जमानत प्रक्रिया कारागारों में भीड़भाड़ बढ़ाने में और भी योगदान देती है।
- हालिया आँकड़ों से पता चलता है कि 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने वर्ष 2022 में कुल कारागार अधिभोग दर 100% से अधिक होने की सूचना दी है।
- लैंगिक और सामाजिक प्रतिनिधित्व अंतर: न्यायपालिका और पुलिस में महिलाओं, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यकों का कम प्रतिनिधित्व जनता के विश्वास को कमज़ोर करता है तथा सहानुभूतिपूर्ण न्याय प्रदान करने में बाधा डालता है।
- उदाहरण के लिये, भारत में सभी न्यायाधीशों में महिलाओं की संख्या 37.4% है– उच्च न्यायालयों में 14% और अधीनस्थ न्यायालयों में 38%।
- पिछले 75 वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय में केवल 11 महिला न्यायाधीश रहीं, जो कुल 276 न्यायाधीशों का मात्र 4% है।
- इसके अलावा, वर्ष 2018 और 2023 के दौरान, उच्च न्यायालय में केवल 17% नियुक्तियाँ SC, ST या OBC समुदायों से संबद्ध थीं।
- उदाहरण के लिये, भारत में सभी न्यायाधीशों में महिलाओं की संख्या 37.4% है– उच्च न्यायालयों में 14% और अधीनस्थ न्यायालयों में 38%।
- संस्थागत विखंडन और समन्वय की कमी: न्याय व्यवस्था के चार स्तंभ— पुलिस, न्यायपालिका, कारागार और कानूनी सहायता विखंडित होकर काम करते हैं, जिससे समग्र न्याय वितरण कमज़ोर हो जाता है। नीतिगत सुसंगतता और डेटा-साझाकरण सीमित है।
- इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के स्कोर में व्यापक अंतर देखने को मिलता है: पुलिस के मामले में उच्च रैंकिंग वाले राज्य न्यायपालिका या कारागारों में पिछड़े हुए हैं। संस्थानों में कोई साझा प्रदर्शन डैशबोर्ड या शिकायत प्रणाली मौजूद नहीं है।
- पारदर्शिता और प्रदर्शन मूल्यांकन का अभाव: न्यायिक और पुलिस जवाबदेही तंत्र कमज़ोर बने हुए हैं। अस्पष्ट नियुक्तियाँ, केस निपटान बेंचमार्क की अनुपस्थिति और सामुदायिक प्रतिक्रिया का अभाव संस्थागत जवाबदेही को कम करता है।
- उदाहरण के लिये, कॉलेजियम प्रणाली को अपारदर्शिता के लिये आलोचना का सामना करना पड़ता है। NJAC को वर्ष 2015 में समाप्त कर दिया गया था, लेकिन उसके बाद कोई सुधार नहीं हुआ।
न्याय प्रणाली में सुधार के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है?
- राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण का गठन: भारत की न्यायपालिका, विशेषकर अधीनस्थ न्यायालयों में, अभी भी अपर्याप्त अभिगम के साथ जीर्ण-शीर्ण भवनों में काम कर रही है।
- पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना द्वारा प्रस्तावित एक केंद्रीकृत NJIA, एक समान बुनियादी अवसंरचना के मानकों, समर्पित वित्त पोषण एवं डिजिटल कोर्ट रूम तथा बाधा मुक्त अभिगम जैसी आधुनिक सुविधाओं को सुनिश्चित कर सकता है।
- इससे राज्यों में बुनियादी अवसंरचना की योजना को संस्थागत रूप मिलेगा, अंतर-राज्यीय असमानताएँ कम होंगी और न्याय प्रणाली की गरिमा एवं कार्यक्षमता बढ़ेगी।
- पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना द्वारा प्रस्तावित एक केंद्रीकृत NJIA, एक समान बुनियादी अवसंरचना के मानकों, समर्पित वित्त पोषण एवं डिजिटल कोर्ट रूम तथा बाधा मुक्त अभिगम जैसी आधुनिक सुविधाओं को सुनिश्चित कर सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय पीठों की स्थापना: दिल्ली में केंद्रीकरण के कारण सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच भौगोलिक दृष्टि से विषम है।
- पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-पूर्व क्षेत्रों में क्षेत्रीय पीठों की स्थापना के लिये अनुच्छेद 130 को लागू करने की व्यवहार्यता का पता लगाने की आवश्यकता है, जिससे अपीलीय अभिगम का विकेंद्रीकरण होगा एवं लागत, समय और मामलों की अधिकता कम होगी।
- वर्ष 2023 की स्थायी समिति द्वारा समर्थित यह उपाय अनुच्छेद 21 के तहत न्याय तक पहुँच के मूल अधिकार को बढ़ावा देता है और न्यायिक पहुँच में संघीय इक्विटी को संचालित करता है।
- पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-पूर्व क्षेत्रों में क्षेत्रीय पीठों की स्थापना के लिये अनुच्छेद 130 को लागू करने की व्यवहार्यता का पता लगाने की आवश्यकता है, जिससे अपीलीय अभिगम का विकेंद्रीकरण होगा एवं लागत, समय और मामलों की अधिकता कम होगी।
- व्यापक पीड़ित अधिकार एवं मुआवज़ा कानून बनाना: भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली अभी भी अभियुक्त-केंद्रित बनी हुई है।
- एक समर्पित पीड़ित अधिकार कानून में मुकदमों में पीड़ितों की भागीदारी, राज्य द्वारा वित्तपोषित कानूनी परामर्श और लागू करने योग्य मुआवज़ा तंत्र की गारंटी होनी चाहिये।
- मलिमथ समिति द्वारा प्रस्तावित पीड़ित मुआवज़ा कोष को संस्थागत बनाया जाना चाहिये और संगठित या आर्थिक अपराधों से होने वाली आय से जोड़ा जाना चाहिये जिससे पीड़ित की गरिमा को न्याय वितरण के केंद्र में रखा जा सके।
- न्यायिक जवाबदेही को मजबूत करना: न्यायिक अस्पष्टता की धारणाओं का मुकाबला करने के लिये, भारत को निपटान दरों, आचरण और तर्क की गुणवत्ता का आकलन करने के लिये एक सुदृढ़ न्यायिक मूल्यांकन तंत्र की आवश्यकता है, साथ ही परिसंपत्तियों की वार्षिक घोषणा के लिये एक वैधानिक आवश्यकता भी होनी चाहिये।
- न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक (वर्ष 2010) से प्रेरित होकर, यह नैतिक अखंडता को बनाए रखेगा, आंतरिक मूल्यांकन में सुधार करेगा और न्यायपालिका को अन्य संवैधानिक प्राधिकरणों पर लागू पारदर्शिता मानदंडों के अनुरूप बनाएगा।
- न्यायालय की छुट्टियों को तर्कसंगत बनाना: न्यायालयों में लंबी छुट्टियों की औपनिवेशिक युग की प्रथा प्रभावी कार्य दिवसों को कम करती है और मामलों के निपटान में विलंब करती है।
- मलिमथ शैली की ‘बकाया उन्मूलन योजना’ के साथ-साथ क्रमिक अवकाश प्रणालियों और अवकाश बेंचों में बदलाव से समर्पित फास्ट-ट्रैक या लोक अदालतों के माध्यम से लंबे समय से लंबित मामलों को निपटाया जा सकता है।
- इससे सीधे तौर पर लंबित मामलों में कमी आएगी, न्यायिक समय का अनुकूलन होगा तथा न्याय तक निरंतर पहुँच के सिद्धांत को कायम रखा जा सकेगा।
- मलिमथ शैली की ‘बकाया उन्मूलन योजना’ के साथ-साथ क्रमिक अवकाश प्रणालियों और अवकाश बेंचों में बदलाव से समर्पित फास्ट-ट्रैक या लोक अदालतों के माध्यम से लंबे समय से लंबित मामलों को निपटाया जा सकता है।
- प्रौद्योगिकी और सामुदायिक मॉडल के माध्यम से कानूनी सहायता वितरण में सुधार: यद्यपि अनुच्छेद 39A निशुल्क कानूनी सहायता का वादा करता है, फिर भी इसका वितरण शहर-केंद्रित, अपर्याप्त वित्तपोषित और अकुशल निगरानी वाला है।
- AI-संचालित चैटबॉट (जैसा कि महाराष्ट्र में प्रायोगिक तौर पर किया गया है), मोबाइल कानूनी वैन और पंचायतों में एम्बेडेड प्रशिक्षित पैरालीगल स्वयंसेवक सुलभ न्याय के जाल को चौड़ा कर सकते हैं।
- यह सुधार विशेष रूप से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, महिलाओं और ग्रामीण गरीबों के लिये ‘न्याय को एक सेवा के रूप में’ क्रियान्वित करेगा।
- AI-संचालित चैटबॉट (जैसा कि महाराष्ट्र में प्रायोगिक तौर पर किया गया है), मोबाइल कानूनी वैन और पंचायतों में एम्बेडेड प्रशिक्षित पैरालीगल स्वयंसेवक सुलभ न्याय के जाल को चौड़ा कर सकते हैं।
- संरचनात्मक और फोरेंसिक सुधारों के साथ पुलिस जाँच का आधुनिकीकरण: कानून-व्यवस्था को जाँच से अलग करना, साइबर और वित्तीय अपराधों में विशेषज्ञता एवं फोरेंसिक प्रयोगशालाओं का विस्तार विश्वसनीय तथा समय पर अभियोजन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- मलीमथ समिति द्वारा अनुशंसित राष्ट्रीय फोरेंसिक ग्रिड और पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना से जाँच को पेशेवर बनाया जा सकेगा, हिरासत में ज्यादतियों में कमी आएगी तथा दोषसिद्धि की दर में वृद्धि होगी।
निष्कर्ष:
भारत की न्याय प्रणाली, संस्थागत रूप से अच्छी तरह से संरचित होने के बावजूद, गहरी अकुशलताओं से ग्रस्त है जो पहुँच, समानता एवं विश्वास से समझौता करती है। संरचनात्मक रिक्तियाँ, विलंब और सीमांत समुदाय के लोगों के अपवर्जन ने न्याय को अधिकार के बजाय विशेषाधिकार में बदल दिया है। न्याय प्रणाली में सुधार के लिये सभी स्तंभों– पुलिस, न्यायपालिका, कारागार और कानूनी सहायता में समन्वित, अच्छी तरह से वित्तपोषित एवं समावेशी उपायों की आवश्यकता है। तभी न्याय वास्तव में लोकतंत्र और सामाजिक परिवर्तन के स्तंभ के रूप में काम कर सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. “एक मज़बूत संस्थागत कार्यढाँचे के बावजूद, भारत की न्याय प्रणाली समय पर और न्यायसंगत न्याय से अस्वीकार करती रही है।” परीक्षण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्सप्रश्न 1. भारत में भीड़ हिंसा एक गंभीर कानून और व्यवस्था समस्या के रूप में उभर रही है। उपयुक्त उदाहरण देते हुये, इस प्रकार की हिंसा के कारणों एवं परिणामों का विश्लेषण कीजिये। (2015) |