एडिटोरियल (02 Mar, 2023)



जलवायु हेतु वित्तपोषण में आत्मनिर्भरता

यह एडिटोरियल 27/02/2023 को ‘हिंदू बिजनेस लाइन’ में प्रकाशित “Being atmanirbhar in climate finance” लेख पर आधारित है। इसमें जलवायु वित्तपोषण के मुद्दे और इसे संबोधित करने के तरीकों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

जलवायु वित्त (Climate finance) उन वित्तीय संसाधनों को संदर्भित करता है जो जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों को संबोधित करने के लिये आवंटित किये जाते हैं। इसमें जलवायु शमन और अनुकूलन उपायों का समर्थन करने वाले वित्तीय साधनों एवं तंत्रों की एक विस्तृत शृंखला शामिल है। निम्न-कार्बन और जलवायु-प्रत्यास्थी अर्थव्यवस्थाओं की ओर देशों के संक्रमण तथा पेरिस समझौते में निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु उन्हें सक्षम बनाने के लिये जलवायु वित्त महत्त्वपूर्ण है।

  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अनुकूल बनने और सतत विकास को आगे बढ़ाने में विकासशील देशों का समर्थन करने के लिये यह वित्तपोषण आवश्यक है ।
  • जलवायु वित्त कार्य समूह (Climate Finance Working Group) के अनुसार, जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिये 118 ट्रिलियन रुपए की आवश्यकता है, जिनमें 64 ट्रिलियन रुपए उपलब्ध हैं जबकि 54 ट्रिलियन रुपए अप्रतिबंधित हैं। इस अंतराल को घरेलू और विदेशी ऋण के माध्यम से पूरा करना होगा। भारत के विकास वित्तीय संस्थानों (DFIs) और वाणिज्यिक बैंकों को घरेलू धन जुटाने एवं विदेशों से संसाधन प्राप्त करने में योगदान देना होगा।
  • जलवायु वित्त की चुनौतियों का समाधान करने के लिये भारत को पश्चिमी देशों द्वारा निर्धारित शर्तों पर कार्य करने के बजाय अपनी स्वयं की रूपरेखा और विभिन्न प्रकार की वित्तपोषण प्रणालियाँ विकसित करने की आवश्यकता है।

जलवायु वित्तपोषण से संबद्ध प्रमुख चुनौतियाँ

  • पश्चिम से धन की कमी:
    • विकसित देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के अधिकांश भाग के लिये ऐतिहासिक रूप से ज़िम्मेदार हैं जिससे जलवायु परिवर्तन की स्थिति बनी है।
    • लेकिन विभिन्न विकसित देश विकासशील देशों को जलवायु कार्रवाई हेतु पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान करने में विफल रहे हैं।
    • इसने एक महत्त्वपूर्ण वित्तपोषण अंतराल को जन्म दिया है और विकासशील देशों के लिये जलवायु परिवर्तन शमन एवं अनुकूलन उपायों को लागू करना कठिन हो गया है।
  • वित्त तक पहुँच का अभाव:
    • कई विकासशील देश और छोटे द्वीप राज्य दुर्बल वित्तीय प्रणाली, अपर्याप्त नियामक ढाँचों और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों तक सीमित पहुँच जैसे विभिन्न कारकों के कारण वित्तपोषण तक व्यापक पहुँच नहीं रखते हैं।
  • वित्तपोषण की उच्च लागत:
    • जलवायु संबंधी परियोजनाओं के लिये प्रायः उल्लेखनीय अग्रिम लागत और दीर्घावधिक वित्तपोषण की आवश्यकता होती है, जिन्हें सस्ती दरों पर प्राप्त करना कठिन सिद्ध हो सकता है। यह निवेशकों को, विशेष रूप से विकासशील देशों में, ऐसी परियोजनाओं के वित्तपोषण से हतोत्साहित कर सकता है।
  • अनिश्चितता और जोखिम:
    • नियामक एवं नीतिगत रुपरेखा, बदलती प्रौद्योगिकी और प्राकृतिक आपदाओं के संबंध में व्याप्त अनिश्चितता के कारण जलवायु संबंधी निवेश जोखिमपूर्ण हो सकता है। इससे निवेशकों के लिये अपने निवेश पर संभावित रिटर्न का सटीक आकलन करना कठिन सिद्ध हो सकता है।
  • क्षमता और तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव:
    • कई विकासशील देशों में प्रभावी जलवायु परियोजनाओं को अभिकल्पित एवं कार्यान्वित करने हेतु तकनीकी विशेषज्ञता एवं क्षमता की कमी है, जिससे परियोजना कार्यान्वयन में देरी और अक्षमता की स्थिति बन सकती है।
  • राजनीतिक और नीतिगत बाधाएँ:
    • राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी जैसी राजनीतिक एवं नीतिगत बाधाएँ जलवायु वित्तपोषण प्रयासों में बाधक बन सकती हैं।
  • निजी क्षेत्र की अपर्याप्त भागीदारी:
    • जलवायु वित्तपोषण को बढ़ाने के लिये निजी क्षेत्र का निवेश महत्त्वपूर्ण है, लेकिन सीमित बाज़ार प्रोत्साहन, नियामक ढाँचे की कमी और जलवायु जोखिमों के बारे में सीमित जागरूकता जैसे विभिन्न कारकों के कारण निजी क्षेत्र की भागीदारी अभी भी अपर्याप्त है।

संबंधित पहलें

  • राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कोष (NAFCC):
    • इसे वर्ष 2015 में भारत के उन राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के लिये जलवायु परिवर्तन अनुकूलन की लागत को पूरा करने के लिये स्थापित किया गया था जो विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति संवेदनशील हैं।
  • राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष (NCEF):
    • इसे स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये स्थापित किया गया था और इसे उद्योगों द्वारा कोयले के उपयोग पर एक आरंभिक कार्बन टैक्स के माध्यम से वित्तपोषित किया गया था।
    • यह एक अंतर-मंत्रालयी समूह द्वारा शासित होता है जिसका अध्यक्ष वित्त सचिव होता है।
    • इसे जीवाश्म और गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित क्षेत्रों में नवीन स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी के अनुसंधान एवं विकास को वित्तपोषित करने का कार्यभार सौंपा गया है।
  • राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAF):
    • इसकी स्थापना वर्ष 2014 में 100 रुपए के कोष के साथ की गई थी जहाँ लक्ष्य था आवश्यकता और उपलब्ध धन के बीच की खाई को दूर करना।
    • यह कोष पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC ) के अंतर्गत संचालित है।

जलवायु वित्तपोषण के लिये आगे की राह

  • DFIs से संसाधन जुटाना:
    • कम व्यावसायिक अपील के कारण बैंकिंग प्रणाली द्वारा जलवायु शमन एवं अनुकूलन निवेशों को वित्तपोषित करने की संभावना नज़र नहीं आती, इसलिये जलवायु वित्त को शामिल करने के लिये प्राथमिकता क्षेत्र को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना महत्त्वपूर्ण है।
    • हालाँकि दीर्घावधिक संसाधनों को विकास वित्तीय संस्थानों (DFIs) से जुटाने की आवश्यकता होगी क्योंकि एक बड़ा वित्तपोषण अंतराल मौजूद है।
      • DFIs ने पूर्व में घरेलू निधियों से प्रतिस्पर्द्धा और उच्च हेजिंग लागतों (hedging costs) के कारण विदेशी मुद्रा ऋणों से परहेज रखा है।
    • जलवायु निवेश के लिये आवश्यक धन उपलब्ध कराने के लिये DFIs को प्रोत्साहित करने के हेतु सरकार को हेजिंग लागत का प्रबंधन करने के उद्देश्य से उपयुक्त कदम उठाने होंगे।
  • निजी क्षेत्र से निवेश:
    • जलवायु शमन एवं अनुकूलन परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिये निजी क्षेत्र का निवेश महत्त्वपूर्ण है ।
    • कुछ निवेशों को बैंक क्रेडिट तक पहुँच के माध्यम से वित्तपोषित किया जा सकता है, लेकिन कई अन्य औसत से कम रिटर्न, लंबी पूर्णता अवधि और उच्च वित्तीय जोखिमों के कारण ब्याज लागत को पूरा कर सकने में सक्षम नहीं भी हो सकते हैं।
  • मिश्रित वित्तपोषण को बढ़ावा देना:
    • जलवायु वित्तपोषण के समर्थन के लिये मिश्रित वित्त (Blended finance) का उपयोग विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है।
      • मिश्रित वित्त एक नवीन वित्तपोषण दृष्टिकोण है जो विकास उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सार्वजनिक और निजी पूंजी को संयुक्त करता है।
    • उदाहरण के लिये, इसका उपयोग नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं, हरित अवसंरचना और जलवायु-कुशल कृषि के वित्तपोषण के लिये किया जा सकता है। इसका उपयोग जलवायु अनुकूलन परियोजनाओं, जैसे समुद्री दीवारों के निर्माण या जल प्रबंधन प्रणालियों में सुधार के लिये वित्तपोषण प्रदान करने के लिये भी किया जा सकता है।
  • उत्प्रेरक या स्टार्ट-अप फंडिंग:
    • उत्प्रेरक वित्तपोषण (Catalytic funding) का उपयोग प्रमुख आर्थिक गतिविधियों को हरित गतिविधियों में ‘पुनरुद्देशित’ करने के लिये किया जाना चाहिये, जो ऐसा विषय है जिसे पश्चिमी वित्त और इसकी रूपरेखा अपने वर्गीकरण के अनुसार चिह्नित नहीं भी करती है।
    • सरल और अनुल्लंघनीय वर्गीकरण ढाँचे, निरीक्षण और क्षमता निर्माण तंत्र द्वारा समर्थित पुनर्उद्देश्य (Re-purposing) उल्लेखनीय रूप से कम मात्रा के निवेश के साथ मौजूदा आर्थिक गतिविधियों को हरित गतिविधियों में बदल सकता है।
  • नवोन्मेषी वित्तपोषण तंत्र की आवश्यकता:
    • ऐसे नवोन्मेषी वित्तपोषण तंत्र की आवश्यकता है जो विशेष रूप से विकासशील देशों में जलवायु संबंधी परियोजनाओं के लिये धन उपलब्ध करा सके।
    • इनमें से कुछ तंत्रों में ग्रीन बॉण्ड, जलवायु कोष और कार्बन बाज़ार शामिल हैं।

अभ्यास प्रश्न: वैश्विक जलवायु संकट से निपटने के लिये जलवायु वित्त को जुटाने और इसका प्रभावी ढंग से उपयोग कर सकने में किन प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा

Q. वर्ष 2015 में पेरिस में UNFCCC बैठक में हुए समझौते के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (वर्ष 2016)

  1. समझौते पर संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गए थे और यह वर्ष 2017 में लागू हुआ था।
  2. समझौते का उद्देश्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करना है ताकि इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2ºC या 1.5ºC से अधिक न हो।
  3. विकसित देशों ने ग्लोबल वार्मिंग में अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को स्वीकार किया और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने हेतु वर्ष 2020 से सालाना 1000 अरब डॉलर की मदद के लिये प्रतिबद्ध हैं।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: b

व्याख्या:

  • पेरिस समझौते को दिसंबर 2015 में पेरिस, फ्राँस में COP21 में पार्टियों के सम्मेलन (COP) द्वारा संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) के माध्यम से अपनाया गया था।
  • समझौते का उद्देश्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करना है ताकि इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस या 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो। अत: कथन 2 सही है।
  • पेरिस समझौता 4 नवंबर, 2016 को लागू हुआ, जिसमें वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को अनुमानित 55% तक कम करने के लिये अभिसमय हेतु कम-से-कम 55 पार्टियों ने अनुसमर्थन, , अनुमोदन या परिग्रहण स्वीकृति प्रदान की थी। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • इसके अतिरिक्त समझौते का उद्देश्य अपने स्वयं के राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिये देशों की क्षमता को मज़बूत करना है।
  • पेरिस समझौते के लिये सभी पक्षों को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के माध्यम से अपने सर्वोत्तम प्रयासों को आगे बढ़ाने और आने वाले वर्षों में इन प्रयासों को मज़बूत करने की आवश्यकता है। इसमें यह भी शामिल है कि सभी पक्ष अपने उत्सर्जन और उनके कार्यान्वयन प्रयासों पर नियमित रूप से रिपोर्ट करें।
  • समझौते के उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में सामूहिक प्रगति का आकलन करने और पार्टियों द्वारा आगे की व्यक्तिगत कार्रवाइयों को सूचित करने के लिये प्रत्येक 5 साल में एक वैश्विक समालोचना भी होगा।
  • वर्ष 2010 में कनकुन समझौतों के माध्यम से विकसित देशों को विकासशील देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष संयुक्त रूप से 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य हेतु प्रतिबद्ध किया।
  • इसके अलावा वे इस बात पर भी सहमत हुए कि वर्ष 2025 से पहले पेरिस समझौते के लिये पार्टियों की बैठक के रूप में सेवारत पार्टियों का सम्मेलन प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर से एक नया सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य निर्धारित करेगा। अत: कथन 3 सही नहीं है।

अतः विकल्प (b) सही है।


मुख्य परीक्षा

प्रश्न. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के पार्टियों के सम्मेलन (COP) के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई वचनबद्धताएँ क्या हैं? (वर्ष 2021)