डेली न्यूज़ (30 Apr, 2020)



ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा निर्मित बांधों का प्रभाव

प्रीलिम्स के लिये:

मेकांग नदी, मेकांग नदी आयोग, मेकांग गंगा सहयोग

मेन्स के लिये:

भारत-चीन नदी सहयोग 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में किये गए अध्ययन के अनुसार, मेकांग नदी पर चीन द्वारा बनाए गए बांधों के कारण अनुप्रवाह देशों में सूखे की स्थिति देखी गई। 

मुख्य बिंदु:

  • यह अध्ययन बैंकॉक में 'सस्टेनेबल इन्फ्रास्ट्रक्चर पार्टनरशिप' (Sustainable Infrastructure Partnership in Bangkok- SIPB) और ‘लोअर मेकांग इनिशिएटिव’ (Lower Mekong Initiative- LMI) द्वारा प्रकाशित किया गया था।  
  • इस अध्ययन को अमेरिकी सरकार द्वारा वित्त पोषित किया गया है। 
  • अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2012 से मेकांग नदी पर बनाए गए 6 बांधों के कारण नदी का प्राकृतिक प्रवाह प्रभावित हुआ है तथा इससे अनुप्रवाह क्षेत्रों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गई।
  • अध्ययन ने इस पर नवीन सवाल खड़े किये हैं कि क्या चीन में उत्पन्न होने वाली नदियों जैसे कि ‘ब्रह्मपुत्र’ आदि पर बनाए गए बांध अनुप्रवाह क्षेत्रों के देशों को मेकांग नदी की तरह ही प्रभावित कर सकते हैं।

मेकांग नदी: (Mekong River)

  • मेकांग नदी चीन से निकलकर म्यांमार, लाओस, थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम तक बहती है। 

Mekong-River

मेकांग नदी आयोग (Mekong River Commission- MRC):

  • MRC में कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। मेकांग नदी आयोग एकमात्र अंतर-सरकारी संगठन है जो संयुक्त रूप से साझा जल संसाधनों और मेकांग नदी के सतत् प्रबंधन की दिशा में कार्य करता है। 

मेकांग गंगा सहयोग (Mekong-Ganga Cooperation- MGC) :

  • मेकांग-गंगा सहयोग में छह देश जिसमें भारत और पाँच आसियान देश अर्थात् कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। 
  • यह पर्यटन, संस्कृति, शिक्षा, परिवहन और संचार में सहयोग की दिशा में प्रारंभ की गई एक पहल है। 
  • इसे वर्ष 2000 में लाओस के वियनतियाने (Vientiane) में प्रारंभ किया गया था।
  • गंगा और मेकांग दोनों ही नदियों में प्राचीन सभ्यताएँ पनपी हैं, अत: MGC पहल का उद्देश्य इन दो प्रमुख नदी घाटियों में बसे लोगों के बीच संपर्कों को सुविधाजनक बनाना है।

चीन द्वारा बनाए गए बांध:

  • वर्ष 2015 में चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी पर अपनी पहली पनबिजली परियोजना का संचालन ज़ंगमु (Zangmu) नामक स्थान पर किया गया तथा चीन द्वारा डागू (Dagu), जिएक्सु (Jiexu) और जिअचा (Jiacha) में तीन अन्य बांध विकसित किये जा रहे हैं।

समस्या का कारण:

  • भारत तथा चीन के मध्य कोई जल-साझाकरण समझौता नहीं हुआ है अत: नदियों के संबंध में व्यापक सूचना साझाकरण का अभाव रहता है, हालाँकि दोनों पक्ष जल विज्ञान (Hydrological) संबंधी आँकड़े साझा करते हैं।

भारत के हितों पर संभावित प्रभाव:

  • जलविद्युत परियोजनाओं के कारण ब्रह्मपुत्र नदी में पानी की कमी होने से भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। 
  • बांधों के निर्माण के पश्चात् चीन यदि मानसून समय अतिरिक्त पानी छोड़ने से ब्रह्मपुत्र नदी के जल प्रवाह में वृद्धि होने से अनुप्रवाह क्षेत्रों में बाढ़ की संभावना बढ़ सकती है। 
  • नदियों के आस-पास जल संबंधी परियोजनाओं के चलते चीन ने अपनी नदियों को काफी प्रदूषित किया है और इसके कारण चीन से भारत की ओर प्रवाहित होने वाली नदियों के जल की गुणवत्ता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। 
  • असम के ‘काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान’ और ‘पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य’; जो कि ब्रह्मपुत्र नदी के पानी पर निर्भर हैं, में भी पानी की आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।

आगे की राह:

  • भारत को चीन के साथ ब्रह्मपुत्र में नदी के पानी के मुद्दे को लगातार उठाना जारी रखना चाहिये क्योंकि यह एकमात्र तरीका है जो यह सुनिश्चित करेगा कि मेकांग नदी जिस प्रकार चीन के बांधों से प्रभावित हुई है उसी प्रकार का प्रभाव ब्रह्मपुत्र पर नहीं हो। 
  • भारतीय अधिकारियों का मानना है कि चीन द्वारा बनाए गए बांधों के कारण ब्रह्मपुत्र नदी का प्रवाह अधिक प्रभावित नहीं होगा क्योंकि चीन द्वारा केवल बिजली उत्पादन के लिये पानी का भंडारण किया जा रहा है। इसके अलावा ब्रह्मपुत्र नदी का प्रवाह पूर्णतया ऊपरी प्रवाह/अपस्ट्रीम पर निर्भर नहीं है तथा इसका लगभग 35% बेसिन भारत में है। अत: भारत को नदी प्रबंधन की दिशा में अधिक बेहतर कदम उठाने चाहिये 

स्रोत: द हिंदू


अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट

प्रीलिम्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग

मेन्स के लिये:

भारत में धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित मुद्दे 

चर्चा में क्यों?

अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (United States Commission on International Religious Freedom-USCIRF) की वर्ष 2020 की वार्षिक रिपोर्ट में भारत को ‘कंट्रीज़ ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न’ (प्रमुख चिंता वाले देशों) (Countries Of Particular Concern-CPC) की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है।

प्रमुख बिंदु:

  • उल्लेखनीय है कि धार्मिक आज़ादी के मामले में भारत को चीन, उत्तर कोरिया, पाकिस्तान और सउदी अरब जैसे देशों की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है।
    • ध्यातव्य है कि वर्ष 2019 में भारत को ‘टियर 2 कंट्री’ (Tier 2Country)  की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया था। 
  • गौरतलब है कि वर्ष 2004 के बाद से यह पहली बार है जब भारत को इस श्रेणी में रखा गया है।
  • USCIRF द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में नागरिकता संशोधन अधिनियम (Citizenship Amendment Act), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (National Register of Citizens- NRC) और जम्मू और कश्मीर की स्थितियों से संबंधित मुद्दों को केंद्र में रखा गया है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार ने मज़बूत बहुमत का उपयोग कर भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करने वाली राष्ट्रीय-स्तर की नीतियों का निर्माण किया है।
  • USCIRF की समिति के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकारों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पीड़न और हिंसा के राष्ट्रव्यापी अभियानों को जारी रखने की अनुमति  साथ ही द्वेषपूर्ण भाषण देने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
  • रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम (International Religious Freedom Act- IRFA) के तहत भारत के खिलाफ कड़ी करवाई करने का सुझाव दिया गया है।
  • रिपोर्ट में अमेरिकी प्रशासन से भारत सरकार की एजेंसियों पर लक्षित प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया गया है साथ ही मानवाधिकार के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघन के लिये ज़िम्मेदार अधिकारियों को अमेरिका में प्रवेश पर रोक लगाने का सुझाव भी दिया है। 
    • ध्यातव्य है कि वर्ष 2002 में गुजरात में दंगों के मद्देनज़र USCIRF ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था। 
  • समिति के 10 सदस्यों में से 3 सदस्य इस रिपोर्ट से असहमत हैं।

भारत का पक्ष:

  • भारत सरकार ने USCIRF की रिपोर्ट पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे "पक्षपाती" करार दिया है, साथ ही इसके अवलोकनों को खारिज कर दिया है।
  • भारत सरकार के आधिकारिक प्रवक्ता के अनुसार, USCIRF की वार्षिक रिपोर्ट में भारत पर की गई टिप्पणियों को अस्वीकार किया गया है। 
  • भारत सरकार के अनुसार, USCIRF की रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण है और भारत के खिलाफ टिप्पणी करना कोई नई बात नहीं है। 
  • विदेश मंत्रालय ने USCIRF के बयान को गलत बताते हुए खारिज कर दिया और भारत के आंतरिक मामलों में अमेरिकी निकाय की दखलंदाज़ी को लेकर सवाल उठाया है। 

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम

(International Religious Freedom Act-IRFA):

  • अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 1998, 105वीं अमेरिकी कॉन्ग्रेस (वर्ष 1997-99) द्वारा पारित किया गया था और 27 अक्तूबर, 1998 को तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा हस्ताक्षरित किये जाने के साथ ही कानून के रूप में लागू हुआ। यह विदेशों में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के संदर्भ में अमेरिका द्वारा व्यक्त चिंताओं का विवरण है।
  • इस अधिनियम के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:
    • संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति के तहत अमेरिकी पक्ष का मज़बूती से समर्थन करना।
    • विदेशों में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के जवाब में संयुक्त राज्य की कार्रवाई को अधिकृत करना।
    • डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिये राजदूत नियुक्त करना।

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग

(United States Commission on International Religious Freedom-USCIRF):

  • USCIRF एक सलाहकार और परामर्शदात्री निकाय है, जो अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित मुद्दों पर अमेरिकी कॉंग्रेस और प्रशासन को सलाह देता है।
  • USCIRF स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम (International Religious Freedom Act-IRFA) द्वारा स्थापित एक स्वतंत्र, अमेरिकी संघीय आयोग के रूप में वर्णित करता है।

स्रोत: द हिंदू


अमेरिका की ‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ में भारत

प्रीलिम्स के लिये 

बौद्धिक संपदा अधिकार

मेन्स के लिये

भारत में बौद्धिक संपदा अधिकार से संबंधित समस्याएँ

चर्चा में क्यों?

अमेरिका ने वर्ष 2020 में भी भारत को बौद्धिक संपदा (Intellectual property-IP) अधिकारों के संरक्षण एवं प्रवर्तन में कमी के कारण संयुक्त राज्य व्यापार प्रतिनिधि (United States Trade Representative-USTR) की ‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ (Priority Watch List) में बरकरार रखा है।

प्रमुख बिंदु

  • अमेरिका ने इस सूची में भारत तथा चीन समेत अपने 10 प्रमुख व्यापार साझेदारों को यह कहते हुए इस सूची में शामिल किया है कि इन देशों में बौद्धिक संपदा अधिकारों की स्थिति या तो अच्छी नहीं है या फिर इनमें पर्याप्त मात्रा में सुधार नहीं आया है, जिसके कारण अमेरिकी हितधारकों को निष्पक्ष और न्यायसंगत बाज़ार पहुँच में कठिनाई हो रही है।
    • अमेरिकी प्रशासन ने भारत के अतिरिक्त जिन देशों को ‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ में स्थान दिया है, उनमें अल्जीरिया, अर्जेंटीना, चिली, चीन, इंडोनेशिया, रूस, सऊदी अरब, यूक्रेन और वेनेज़ुएला शामिल हैं।
    • ध्यातव्य है कि कुवैत को इस वर्ष इस सूची में शामिल नहीं किया गया है, जबकि वर्ष 2019 में इस सूची में कुवैत समेत कुल 11 देश थे। वहीं वर्ष 2019 में अमेरिका ने कनाडा और थाईलैंड को सूची से हटा दिया था।
  • ‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ (Priority Watch List) के अलावा USTR की ‘वॉच लिस्ट’ (Watch List) भी है, जिसमें ब्राज़ील, कनाडा, कोलंबिया, पाकिस्तान और थाईलैंड समेत कुल 23 देशों को शामिल किया गया है।
  • ध्यातव्य है कि ‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ में चीन की निरंतरता ने बीजिंग की ज़बरन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (Forced Technology Transfer-FTT) नीति को लेकर अमेरिका की चिंताओं को स्पष्ट किया है।
    • ध्यातव्य है कि ज़बरन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (Forced Technology Transfer-FTT) की नीति में घरेलू सरकार द्वारा विदेशी व्यवसायों को बाज़ार पहुँच प्रदान करने के एवज़ में अपनी तकनीक साझा करने के लिये मज़बूर किया जाता है।
    • इस प्रकार की नीति चीन में काफी सामान्य है। जब कोई कंपनी चीन के बाज़ार में प्रवेश करना चाहती है, तो चीन की सरकार उस कंपनी को अपनी तकनीक को चीनी कंपनियों के साथ साझा करने के लिये मज़बूर करती है।
  • इस रिपोर्ट में भारत को IP के संरक्षण एवं प्रवर्तन के संबंध में दुनिया की सबसे चुनौतीपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में से एक कहा गया है।

कारण

  • अमेरिका के अनुसार, भारत ने लंबे समय से चली आ रही चुनौतियों और नई चुनौतियों का सामने करने के लिये अपने बौद्धिक संपदा ढाँचे में पर्याप्त सुधार नहीं किया है, जिसके कारण बीते वर्षों में अमेरिकी कंपनियों को नुकसान का सामना करना पड़ रहा है।
  • भारत में अमेरिकी व्यवसायों को लंबे समय से चली आ रही बौद्धिक संपदा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जो नवप्रवर्तकों के लिये भारत में पेटेंट प्राप्त करना, पेटेंट बनाए रखना और उन्हें लागू करना अपेक्षाकृत कठिन बनाती हैं, ऐसा विशेष रूप से फार्मास्यूटिकल्स उद्योग में देखा जाता है। 
    • इसके अलावा कंटेंट के निर्माण और व्यवसायीकरण को प्रोत्साहित करने में विफल रहीं कॉपीराइट नीतियाँ और पुराना तथा अपर्याप्त व्यापार रहस्य (Trade Secrets) कानूनी ढाँचा भी चिंता के विषय हैं। 
  • USTR ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पिछले एक वर्ष में भारत बौद्धिक संपदा (IP) संरक्षण एवं प्रवर्तन पर अपनी प्रगति में कुछ खास नहीं कर पाया है।

‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ और ‘वॉच लिस्ट’

  • संयुक्त राज्य व्यापार प्रतिनिधि (USRT) द्वारा प्रत्येक वर्ष ‘स्पेशल 301 रिपोर्ट’ (Special 301 Report) जारी की जाती है, जिसमें विभिन्न देशों में बौद्धिक संपदा कानूनों जैसे कॉपीराइट, पेटेंट और ट्रेडमार्क आदि के कारण अमेरिका की कंपनियों और उत्पादों के समक्ष उत्पन्न होने वाले व्यापार अवरोधों की पहचान की जाती है।
  • इस रिपोर्ट में ‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ और ‘वॉच लिस्ट’ शामिल होती हैं, जिसमें वे देश शामिल होते हैं जिनके बौद्धिक संपदा नियमों को अमेरिकी कंपनियों के लिये चिंता का विषय माना जाता है।
  • ‘प्रायोरिटी वॉच लिस्ट’ में USRT द्वारा उन देशों को शामिल किया जाता है, जिनके बौद्धिक संपदा अधिकार संबंधित नियमों में गंभीर कमियाँ होती हैं और जिन पर USRT द्वारा ध्यान दिया जाना अनिवार्य होता है।

बौद्धिक संपदा अधिकार

  • प्रत्येक व्यक्ति को उसके बौद्धिक सृजन के परिप्रेक्ष्य में प्रदान किये जाने वाले अधिकार ही बौद्धिक संपदा अधिकार कहलाते हैं। वस्तुतः ऐसा समझा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का बौद्धिक सृजन (जैसे साहित्यिक कृति की रचना, शोध, आविष्कार आदि) करता है तो सर्वप्रथम इस पर उसी व्यक्ति का अनन्य अधिकार होना चाहिये। चूँकि यह अधिकार बौद्धिक सृजन के लिये ही दिया जाता है, अतः इसे बौद्धिक संपदा अधिकार की संज्ञा दी जाती है।
  • बौद्धिक संपदा अधिकार दिये जाने का मूल उद्देश्य मानवीय बौद्धिक सृजनशीलता को प्रोत्साहन देना है। बौद्धिक संपदा अधिकारों का क्षेत्र व्यापक होने के कारण यह आवश्यक समझा गया कि क्षेत्र विशेष के लिये उसके संगत अधिकारों एवं संबद्ध नियमों आदि की व्यवस्था की जाए। इस आधार पर इन अधिकारों को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
    • कॉपीराइट
    • पेटेंट 
    • ट्रेडमार्क
    • औद्योगिक डिज़ाइन
    • भौगोलिक संकेतक

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


असंगठित क्षेत्र पर COVID-19 का प्रभाव

प्रीलिम्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ, COVID-19

मेन्स के लिये:

वैश्विक अर्थव्यवस्था पर COVID-19 के प्रभाव, असंगठित क्षेत्र और भारतीय अर्थव्यवस्था  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ (International Labour Organization-ILO) द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, COVID-19 के कारण वर्तमान में विश्व की आधी श्रमिक आबादी के लिये अपनी आजीविका खोने का खतरा बन गया है।

मुख्य बिंदु:   

  • वर्तमान में विश्व की कुल श्रमिक आबादी (लगभग 3.3 बिलियन) में से लगभग 2 बिलियन श्रमिक असंगठित क्षेत्र (Informal Sector) में कार्य करते हैं। 
  • COVID-19 की शुरुआत के पहले महीने में ही इन श्रमिकों की मज़दूरी में 60% तक की गिरावट देखी गई थी और वर्ष 2020 की दूसरी तिमाही में लगभग 1.6 बिलियन श्रमिकों के लिये अपनी आजीविका खोने की स्थिति बन गई है।
  • ILO प्रमुख के अनुसार, यह आँकड़े दर्शाते हैं कि वर्तमान में वैश्विक बेरोज़गारी संकट और इसके दुष्परिणाम ILO द्वारा तीन सप्ताह पहले जारी किये गए अनुमान से भी अधिक गहराते जा रहे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ

(International Labour Organization-ILO): 

  • अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ की स्थापना वर्ष 1919 में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात ‘वर्साय संधि’ (Treaty of Versailles) के तहत की गई थी 
  • यह संस्था वैश्विक स्तर पर श्रमिकों के अधिकारों को प्रोत्साहित करने और श्रम तथा रोज़गार से जुड़े मूद्दों पर संवाद स्थापित करने एवं सामाजिक संरक्षण आदि क्षेत्रों में कार्य करती है।
  • ILO का मुख्यालय जेनेवा (स्विट्ज़रलैंड) में स्थित है और वर्तमान में विश्व के 187 देश इस संगठन के सदस्य है।     

वैश्विक बेरोज़गारी:

  • COVID-19 के तीव्र प्रसार के कारण उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका बुरी तरह प्रभावित हुए है परंतु इस महामारी से यूरोप में भी अनुबंधित श्रमिकों और स्वरोज़गार से जुड़े लोगों की आजीविका प्रभावित हुई है।
  • ILO के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2020 की दूसरी तिमाही में अमेरिकी महाद्वीप और विश्व के अन्य हिस्सों में भी श्रमिकों के काम के घंटों/समय (Working Hours) में भारी गिरावट देखी जा सकती है।
  • इसके परिणामस्वरूप अमेरिकी महाद्वीप और अफ्रीका के देशों में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की आय में 81% तक की गिरावट हो सकती है, साथ ही एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों में 21.6% और यूरोप तथा मध्य एशिया में यह गिरावट 70% तक हो सकती है।

कारण: 

  • ILO के अनुसार, COVID-19 की महामारी के कारण विश्व के विभिन्न भागों में 43.6 करोड़ से अधिक व्यवसाय गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। 
  • इनमें से लगभग 23.2 करोड़ थोक/होलसेल (Whole Sale) और खुदरा व्यवसाय, 11.1 विनिर्माण क्षेत्र, 5.1 करोड़ आवास तथा खाद्य सेवाओं एवं 4.2 करोड़ रियल स्टेट (Real State) व अन्य व्यवसायों से जुड़े हैं।
  • COVID-19 की महामारी को रोकने के लिये विश्व के अधिकांश देशों में लागू लॉकडाउन के कारण यातायात और पर्यटन क्षेत्र से जुड़े रोज़गार गंभीर रूप से प्रभावित हुए है।  

भारत पर प्रभाव: 

  • वर्ष 2018 के आँकड़ों के अनुसार, भारतीय श्रमिकों में लगभग 81% असंगठित क्षेत्र से जुड़े हुए थे और इनमें से एक बड़ी आबादी उन अकुशल श्रमिकों की है जो दैनिक मज़दूरी पर काम करते हैं। 
  • हालाँकि वर्तमान में भारत में COVID-19 की महामारी के प्रभाव पश्चिमी देशों की तुलना में काफी कम रहे हैं, परंतु देशभर में लागू लॉकडाउन के कारण सभी क्षेत्रों में कामगारों की आय प्रभावित हुई है।
  • देश में विभिन्न क्षेत्रों के उद्योगों का मुनाफा स्थानीय व्यवसाय के साथ अन्य देशों में होने वाले निर्यात पर निर्भर करता है परंतु वैश्विक अर्थव्यवस्था पर COVID-19 के प्रभाव के कारण बाज़ार में मांग की कमी से निर्यात पर आश्रित व्यवसायों को काफी क्षति हुई है।  
  • COVID-19 के कारण शहरों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार न मिलने और  यातायात तथा मंडियों के पूर्ण रूप से सक्रिय न रहने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गंभीर क्षति होने का अनुमान है।  

समाधान: 

  • ILO के अनुसार, सरकारों को वर्तमान रोज़गार संकट को देखते हुए तात्कालिक रूप से सहायता उपलब्ध करनी चाहिये। 
  • इसके तहत सरकारों द्वारा विशेष रूप से छोटे उद्यमों, असंगठित क्षेत्र और अन्य कमज़ोर क्षेत्रों के श्रमिकों तथा व्यवसायों को सहयोग प्रदान करने के लिये लक्षित एवं आवश्यकता अनुरूप उपयुक्त प्रयास किये जाने चाहिये। 
  • इस आर्थिक चुनौती से सीख लेते हुए सरकारों को बदलते समय और श्रमिकों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए औद्योगिक गतिविधियों और अर्थव्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन करने चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


NEET के दायरे में अल्पसंख्यक मेडिकल संस्थान

प्रीलिम्स के लिये

राष्ट्रीय पात्रता सह-प्रवेश परीक्षा (NEET)

मेन्स के लिये

भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली से संबंधित चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की है कि मेडिकल पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों को अब निजी, गैर-मान्यता प्राप्त और अल्पसंख्यक व्यावसायिक कॉलेजों (Minority Vocational Colleges) में प्रवेश पाने के लिये राष्ट्रीय पात्रता सह-प्रवेश परीक्षा (National Eligibility-cum-Entrance Test-NEET) उत्तीर्ण करनी होगी।

प्रमुख बिंदु

  • जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली तीन जजों की न्यायपीठ ने कहा कि स्नातक और स्नातकोत्तर मेडिकल डेंटल पाठ्यक्रमों में NEET के माध्यम से भर्ती करना किसी भी प्रकार से अल्पसंख्यकों के मौलिक और धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है।
  • यह नियम अल्पसंख्यकों द्वारा प्रशासित किये जाने वाले सहायता प्राप्त तथा गैर-सहायता प्राप्त मेडिकल कॉलेजों दोनों के लिये लागू होगा।
  • न्यायालय ने कहा कि अल्पसंख्यकों के व्यापार तथा व्यवसाय अथवा धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी अधिकार, संस्थान में प्रवेश के मामले में पारदर्शिता लाने के मध्य एक बाधा के रूप में नहीं देखे जा सकते हैं।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यक संस्थान भी कानून के तहत लागू शर्तों का पालन करने के लिये समान रूप से बाध्य हैं।

पृष्ठभूमि

ध्यातव्य है कि देश भर के विभिन्न कॉलेजों ने एक समान प्रवेश परीक्षा को लेकर भारतीय चिकित्सा परिषद (Medical Council of India-MCI) और भारतीय दंत परिषद (Dental Council of India-DCI) द्वारा भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम 1956 की धारा 10D और दंत चिकित्सक अधिनियम, 1948 के तहत जारी की गई अधिसूचनाओं को चुनौती दी थी। MCI और DCI द्वारा जारी इन अधिसूचनाओं में NEET को सभी मेडिकल कॉलेजों पर लागू करने की बात की गई थी।

अल्पसंख्यक मेडिकल संस्थानों का तर्क

  • ध्यातव्य है कि इस संबंध में अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित विभिन्न मेडिकल संस्थानों के प्रबंधन ने यह तर्क दिया कि था यदि अल्पसंख्यक मेडिकल संस्थानों को NEET के दायरे में लाया जाता है तो इससे अल्पसंख्यकों के ‘व्यवसाय या व्यापार’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
  • ऐसे संस्थानों का मत था कि NEET के दायरे में लाने से धार्मिक स्वतंत्रता के उनके मौलिक अधिकार, धार्मिक मामलों के प्रबंधन के अधिकार और संस्थान के प्रशासन के अधिकार का उल्लंघन होगा। 
  • अल्पसंख्यक मेडिकल संस्थानों के प्रबंधन का मानना है कि यदि इस निर्णय को लागू किया जाता है तो इससे राज्य अल्पसंख्यकों के हित में कार्य करने के अपने दायित्त्व के निर्वाह में विफल होंगे।

महत्त्व

  • न्यायालय के इस निर्णय से मेडिकल संस्थानों में भर्ती को लेकर हो रहे भ्रष्टाचार को रोकने में मदद मिलेगी।
  • समान प्रवेश परीक्षा अर्थात् सभी पर NEET के नियम को लागू करना चिकित्सीय योग्यता को प्रोत्साहन देकर भविष्य के सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार सुनिश्चित करेगी। 
  • NEET के नियम को लागू करने का उद्देश्य अल्पसंख्यक मेडिकल संस्थानों में शिक्षा के शोषण, मुनाफाखोरी और व्यवसायीकरण को रोकना है।

स्रोत: द हिंदू


महिलाओं के मुद्दों और अधिकारों पर COVID-19 का प्रभाव

प्रीलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय महिला आयोग, COVID-19 

मेन्स के लिये:

वैश्विक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासचिव (United Nations Secretary General) एंटोनियो गुटेरेस (Antonio Guterres) ने एक लेख के माध्यम से विश्व भर में महिलाओं के लिये COVID-19 से उत्पन्न हुई चुनौतियों और उनकी समस्याओं पर चिंता व्यक्त की है।

मुख्य बिंदु:

  • वर्तमान में विश्व के विभिन्न देशों में COVID-19 के नियंत्रण के लिये लागू लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाओं में वृद्धि हुई है।
  • हाल ही में यूनाइटेड किंगडम में एक प्रमुख महिला सहायता हेल्पलाइन पर घरेलू हिंसा के मामलों की शिकायतों में 700% की वृद्धि दर्ज की गई।
  • लॉकडाउन के दौरान महिला हिंसा के मामलों में वृद्धि हुई है परंतु सार्वजनिक सेवाओं और यातायात के बाधित होने से महिला सहायता समूह सक्रिय रूप से अपनी सेवाएँ नहीं दे पा रहे हैं तथा कई अन्य आर्थिक दबाव के कारण कर्मचारियों की छँटनी करने या संस्था को बंद करने को विवश हुए हैं।
  • COVID-19 के कारण महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता के लिये उत्पन्न हुए खतरे शारीरिक हिंसा से कहीं अधिक हैं।
  • ध्यातव्य है कि हाल ही में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ (National Commission for Women- NCW) ने जानकारी दी थी कि देश में लागू लॉकडाउन के दौरान महिला और घरेलू हिंसा के मामलों में दोगुनी वृद्धि हुई है।  

असमान अवसर और प्रतिनिधित्व:    

  • वर्तमान में वैश्विक स्तर पर अधिकांश महिलाएँ ऐसे क्षेत्रों में कार्य करती हैं जहाँ उन्हें अन्य सुविधाओं के बगैर कम मज़दूरी पर कार्य करना पड़ता है। जैसे- घरेलू सहायक, दैनिक मज़दूर, स्ट्रीट वेंडर (Street Vendor) या हेयर ड्रेसर आदि। 
  • हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ द्वारा जारी अनुमान के अनुसार, अगले तीन महीनों में वैश्विक रूप से लगभग 200 मिलियन कामगारों को नौकरी गँवानी पड़ेगी और इनमें से बहुत से उन क्षेत्रों से संबंधित हैं जिनमें महिलाओं की भागीदारी अधिक है।
  • नौकरियों में कमी के कारण आय में कटौती के साथ ही स्कूल बंद होने, वृद्ध लोगों की ज़रूरतों और अस्पतालों के दबाव के कारण महिलाओं पर देखभाल की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ी हैं तथा बहुत सी छात्राओं को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी है। 
  • पश्चिमी अफ्रीका के देश ‘सिएरा लियोन’ (Sierra Leone) में इबोला महामारी के दौरान स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं का नामांकन 50% से घटकर 34% हो गया था।
  • COVID-19 के कारण पुरुषों को भी रोज़गार में कटौती का सामना करना पड़ रहा है, परंतु ऐसा देखा गया है कि सामान्य परिस्थितियों में भी महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक घरेलू कार्य करती हैं।
  • ऐसे में व्यावसायिक गतिविधियों के शुरू होने पर भी यदि बच्चों के स्कूल बंद रहते हैं तो आमतौर पर बच्चों की देखभाल के लिये महिलाओं को ही कहा जाएगा जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके रोज़गार और आय पर पड़ेगा।

नेतृत्व की भूमिकाओं में: 

  • स्वास्थ्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी जहाँ लगभग 70% है वहीं स्वास्थ्य क्षेत्र में ही प्रबंधन की भूमिकाओं/पदों में महिलाओं की संख्या पुरुषों की अपेक्षा बहुत ही कम है।
  • वैश्विक रूप से राजनीतिक नेतृत्त्व में भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की भागीदारी का अनुपात भी बहुत ही कम (लगभग 1/10) है।

समाधान:

  • संयुक्त राष्ट्र महासचिव के अनुसार, असुरक्षित नौकरियों में कार्यरत महिलाओं को शीघ्र ही एक बुनियादी सामाजिक सुरक्षा प्रदान किये जाने की आवश्यकता है, जिनमें स्वास्थ्य बीमा,  पेड सिक लीव (Paid Sick Leave), चाइल्डकेयर, इनकम प्रोटेक्शन, बेरोज़गारी भत्ता आदि शामिल है।   
  • इस महामारी से निपटने के लिये निर्णायक मंचों पर महिलाओं की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है जिससे इस महामारी की बदतर/सबसे खराब परिस्थितियों (संक्रमण की दूसरी लहर, श्रमिकों की कमी और सामाजिक अस्थिरता आदि) से बचा जा सके। 
  • कम आय पर काम करने और असमान प्रतिनिधित्व से महिलाओं के हितों की क्षति के साथ-साथ समाज और अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं।
  • COVID-19 की महामारी के पश्चात अर्थव्यवस्था को पुनः गति प्रदान करने के प्रयासों के तहत आसान दरों पर ऋण, कैश ट्रांसफर, ऋण माफी और अन्य योजनाओं में महिलाओं पर विशेष ध्यान देना चाहिये।  
  • देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका के महत्त्व को स्वीकार किया जाना चाहिये। 

निष्कर्ष: 

COVID-19 महामारी हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था के लिये ही एक चुनौती नहीं है बल्कि यह समानता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और मानव गरिमा की भी परीक्षा है। महिलाओं के मुद्दों और अधिकारों को सामने रखते हुए हम इस महामारी को आसानी से पीछे छोड़ सकते हैं और एक ऐसे समुदाय तथा समाज का निर्माण कर सकते हैं जिससे सभी को लाभ होगा।   

स्रोत: द हिंदू 


ग्लोबल रिपोर्ट ऑन इंटर्नल डिस्प्लेसमेंट, 2020

प्रीलिम्स के लिये:

इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर, ग्लोबल रिपोर्ट ऑन इंटर्नल डिस्प्लेसमेंट-2020

मेन्स के लिये:

ग्लोबल रिपोर्ट ऑन इंटर्नल डिस्प्लेसमेंट 2020 से संबंधित मुद्दे 

चर्चा में क्यों:

हाल ही में ‘इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनीटरिंग सेंटर’ (Internal Displacement Monitoring Centre-IDMC) ने ‘ग्लोबल रिपोर्ट ऑन इंटर्नल डिस्प्लेसमेंट-2020’ (Global Report on Internal Displacement-2020) शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है।

प्रमुख बिंदु:

  • उल्लेखनीय है कि ग्लोबल रिपोर्ट ऑन इंटर्नल डिस्प्लेसमेंट-2020 के अनुसार, वर्ष 2019 में वैश्विक स्तर पर ‘संघर्ष और हिंसा’ तथा ‘प्राकृतिक आपदा’ के कारण 50.8 मिलियन लोग विस्थापित हुए हैं। 
  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में 140 देशों और विभिन्न प्रांतों में कम-से-कम 33.4 मिलियन नए लोगों का विस्थापन हुआ है।
  • वर्ष 2019 में ‘संघर्ष और हिंसा’ के कारण विस्थापित लोगों की संख्या वर्ष 2012 की तुलना में तीन गुना हो गई है।
  • नाइजर और सोमालिया जैसे देशों में राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण आंतरिक विस्थापन हेतु नीतिगत रूपरेखा में सुधार हुआ है। साथ ही अफगानिस्तान, इराक और फिलीपींस जैसे अन्य देशों ने अपनी विकास योजनाओं में विस्थापन से संबंधित मुद्दे शामिल किये हैं।

प्राकृतिक आपदा से विस्थापन:

iDMC

  • वर्ष 2019 में 140 देशों और प्रांतों में प्राकृतिक आपदाओं से 24.9 मिलियन नए लोग विस्थापित हुए जिसमें 23.9 मिलियन लोग प्राकृतिक आपदा के कारण, जबकि शेष आगामी आपदा को देखते हुए विस्थापित हुए। 
  • भारत और बांग्लादेश में चक्रवात ‘फानी’ और ‘बुलबुल’ के कारण पाँच मिलियन से अधिक लोग विस्थापित हुए।

‘संघर्ष और हिंसा’ के कारण विस्थापन:

iDMC-Country

  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में तकरीबन 50 देशों में उत्पन्न नए संघर्षों के कारण लोग विस्थापित हुए हैं।  
  • सीरिया, यमन और लीबिया में लंबे समय से चल रहे संघर्षों के कारण मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में लोगों के विस्थापन में वृद्धि हुई है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, संघर्ष के कारण कम और मध्यम आय वाले देशों के अधिकांश हिस्सों में लोगों का विस्थापन हुआ है, जिसमें सीरिया, लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो तथा इथियोपिया शामिल हैं।
  • वर्ष 2019 में ‘संघर्ष और हिंसा’ के कारण विस्थापित कुल 45.7 मिलियन लोगों में से तीन-चौथाई (34.5 मिलियन) विस्थापित लोग केवल 10 देशों से संबंधित हैं।

भारत के संदर्भ में:

  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में भारत में लगभग पाँच मिलियन लोग विस्थापित हुए।
  • भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून के कारण 2.6 मिलियन से अधिक लोगों को विस्थापन का सामना करना पड़ा।
  • गौरतलब है कि रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1901 के बाद वर्ष 2019 सातवाँ सबसे गर्म वर्ष था साथ ही भारत ने वर्ष 2019 में आठ उष्णकटिबंधीय चक्रवातों का सामना किया।
  • उत्तर पश्चिमी मानसून के कारण चक्रवात ‘माहा’ से केरल और लक्षद्वीप क्षेत्र अत्यधिक प्रभावित हुए, जबकि चक्रवात ‘बुलबुल’ से ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल क्षेत्र अत्यधिक प्रभावित हुए। इन चक्रवातों के कारण 1.86 लाख लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा।
  • ‘त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल’ में ‘राजनीतिक और चुनावी हिंसा’ के कारण 7600 से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा।

‘इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनीटरिंग सेंटर’

(Internal Displacement Monitoring Centre-IDMC):

  • ‘इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनीटरिंग सेंटर’ को ‘नार्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल’ (Norwegian Refugee Council-NRC) के एक अन्य भाग के रूप में वर्ष 1998 में स्थापित किया गया था।
  • ‘इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनीटरिंग सेंटर’ के उद्देश्य:
    • विस्थापित लोगों का आँकड़ा एकत्रित कर उसका विश्लेषण करना।
    • विश्लेषित आँकड़ों की मदद से नीति निर्माण में देशों की मदद करना ताकि भविष्य में विस्थापन के जोखिम को कम किया जा सके। 
    • दुनिया भर में आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के जीवन में सुधार करना।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन

प्रीलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन का महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन' (National Infrastructure Pipeline- NIP) पर गठित ‘टास्क फोर्स’ (Task Force) द्वारा अपनी अंतिम रिपोर्ट वित्त मंत्री को सौंपी गई।

मुख्य बिंदु:

  • टास्क फोर्स ने वित्त वर्ष 2019-25 के लिये NIP पर अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश की है। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ‘टास्क फोर्स की सारांश’ रिपोर्ट वित्त मंत्री द्वारा 31 दिसंबर, 2019 को पहले ही जारी की जा चुकी है।
  • रिपोर्ट के अनुसार पाँच वित्तीय वर्षों में अर्थात वर्ष 2020-25 की अवधि के दौरान ‘अवसंरचना’ (Infrastructure) पर 111 लाख करोड़ रुपए के निवेश का अनुमान है।

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 2019 के स्वतंत्रता दिवस पर भारतीय प्रधानमंत्री ने कहा था कि अगले 5 वर्षों में आधारभूत अवसंरचना पर 100 लाख करोड़ रुपए का निवेश किया जाएगा। इसी का अनुसरण करते हुए 31 दिसंबर, 2019 को 103 करोड़ रुपए की लागत वाली राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन शुरू की गई। इसमें विभिन्न क्षेत्रों के अंतर्गत 6500 से अधिक परियोजनाएँ शुरू की जाएगी। 

विजन: 

  • अवसंरचना सेवाओं के माध्यम से लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना तथा वैश्विक मानकों के अनुरूप ‘जीवन सुगमता’ (Ease of Living) को प्राप्त करना।

मिशन (Mission):

  • प्रमुख क्षेत्रों में भारत की आधारभूत अवसंरचना के विकास की 5 वर्षीय योजना विकसित करना।  
  • वैश्विक मानकों के अनुसार सार्वजनिक अवसंरचना के डिज़ाइन, वितरण और रखरखाव को सुगम बनाना।   
  • सार्वजनिक अवसंरचना सेवाओं के विनियमन और प्रशासन में सुधार करना।  
  • सार्वजनिक अवसंरचना के क्षेत्र में वैश्विक रैंकिंग में भारत की स्थिति में सुधार करना। 

NIP में शामिल परियोजनाएँ:

  • ‘राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन’ में आवास, सुरक्षित पेयजल, स्वच्छ पेयजल, स्वच्छ और सस्ती ऊर्जा उपलब्धता और आधुनिक रेलवे स्टेशन जैसी परियोजनाएँ शामिल हैं।

टास्क फोर्स की रिपोर्ट से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य: 

  • रिपोर्ट के अनुसार ऊर्जा (24%), शहरी नियोजन (17%), रेलवे (12%) और सड़क (18%) जैसे क्षेत्रों पर कुल परियोजना पूंजीगत व्यय के 70% निवेश की आवश्यकता होगी।
  • NIP के कार्यान्वयन में केंद्र (39%) और राज्यों (39%) की लगभग समान हिस्सेदारी  होगी साथ ही निजी क्षेत्र से लगभग 22% तक सहयोग होने की उम्मीद है। 
  • NIP में 100 करोड़ रुपए से अधिक की लागत वाली सभी ग्रीनफील्ड या ब्राउनफील्ड परियोजनाओं को शामिल किया जाएगा।

ग्रीनफील्ड परियोजना (Greenfield Project):

  • ‘ग्रीनफील्ड परियोजना’ का तात्पर्य ऐसी परियोजना से है, जिसमें किसी पूर्व कार्य/परियोजना का अनुसरण नहीं किया जाता है। अवसंरचना में अप्रयुक्त भूमि पर तैयार की जाने वाली परियोजनाएँ जिनमें मौजूदा संरचना को फिर से तैयार करने या ध्वस्त करने की आवश्यकता नहीं होती है, उन्हें ‘ग्रीन फील्ड परियोजना’ कहा जाता है। 

ब्राउनफील्ड परियोजना (Brownfield project):

  • जिन परियोजनाओं को संशोधित या अपग्रेड किया जाता है, उन्हें ‘ब्राउनफील्ड परियोजना’ कहा जाता है।

वित्त प्रबंधन की दिशा में सिफारिशें:

  • अगले पाँच वर्षों में अवसंरचना क्षेत्र में निवेश को बढ़ाने के लिये ‘म्यूनिसपल बॉण्ड’  बाज़ार, परिसंपत्ति की बिक्री द्वारा आय, आधारभूत ढाँचे की संपत्ति का मुद्रीकरण, ‘कॉर्पोरेट बॉण्ड’ बाज़ार और आधारभूत अवसंरचना के क्षेत्र के लिये वित्तीय संस्थान की स्थापना करना जैसे उपायों को अपनाना होगा। 

समितियों का गठन:

  • NIP की प्रगति की निगरानी करने तथा कार्यों का समय पर पूरा करने की दिशा में एक समिति;
  • परियोजना में समन्वयन के लिये प्रत्येक अवसंरचना के लिये मंत्रालय स्तर पर एक संचालन समिति;
  • वित्तीय संसाधन जुटाने के लिये ‘आर्थिक मामलों का विभाग’ (Department of Economic Affairs- DEA) के नियंत्रण में एक संचालन समिति;   

NIP का महत्त्व एवं आवश्यकता:

  • आधारभूत अवसंरचना की कमी आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा है।
  • वर्तमान में सरकार, निजी क्षेत्र को एक प्रमुख भागीदार के रूप में देखती है। अत: सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों को एक साथ लाने के लिये एक प्रभावी मॉडल तैयार करने की आवश्यकता है।
  • प्राकृतिक आपदाओं तथा अप्रत्याशित घटनाओं में वृद्धि के कारण किसी भी देश की आपूर्ति श्रृंखला की लोचशीलता बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। 
  • आधारभूत संरचना की विकास के लिये वित्तपोषण वह मुद्दा है जिसका समाधान निकालना आवश्यक है। 

निष्कर्ष:

  • राष्ट्रीय अवसंरचना परियोजनाओं से देश की आधारभूत अवसंरचना सुदृढ़ होगी, जिससे देश में उत्पादन की दर बढ़ेगी और साथ ही निवेशकों को आकर्षित करने की बेहतर परिस्थितियों का निर्माण होगा।
  • अर्थव्यवस्था की मांग में वृद्धि होगी और रोज़गार के अवसर निर्मित होंगे फलतः सरकार के राजस्व में भी वृद्धि होगी। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था के पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का मार्ग प्रशस्त होगा। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 30 अप्रैल, 2020

ऋषि कपूर

भारतीय फिल्म जगत के प्रसिद्ध अभिनेता ऋषि कपूर का 67 वर्ष की उम्र में निधन हो गया है। ध्यातव्य है कि ऋषि कपूर कैंसर से पीड़ित थे और सितंबर 2019 में न्यूयॉर्क से उपचार के बाद वापस लौटे थे। ऋषि कपूर का जन्म 4 सितंबर, 1952 को बॉम्बे (वर्तमान मुंबई, महाराष्ट्र) में हुआ था। वे भारत के मशहूर निर्देशक और अभिनेता राज कपूर के बेटे थे। ऋषि कपूर ने अपने पिता राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ (वर्ष 1970) में एक बच्चे के रूप में अपने पिता की भूमिका निभाते हुए भारतीय फिल्म जगत में अपने कैरियर की शुरुआत की थी। मुख्य अभिनेता के तौर पर ऋषि कपूर की पहली फिल्म ‘बॉबी’ (वर्ष 1973) काफी लोकप्रिय रही और वे खासकर युवाओं के मध्य काफी लोकप्रिय हो गए। भारतीय फिल्म जगत में अपने पूर्ण कैरियर में ऋषि कपूर ने कुल 123 से अधिक फिल्में कीं, जिनमें बॉबी (वर्ष 1973), राजा (वर्ष 1975), कभी-कभी (वर्ष 1976), अमर अकबर एंथनी (वर्ष 1977), सरगम (वर्ष 1979), प्रेम रोग (वर्ष 1982) और बोल राधा बोल (वर्ष 1992) आदि काफी लोकप्रिय हैं। ऋषि कपूर को वर्ष 1974 ‘बॉबी’ फिल्म के लिये सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था, इसके अतिरिक्त उन्हें वर्ष 2008 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। 

सुरेश एन. पटेल

हाल ही में सुरेश एन. पटेल ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission-CVC) में सतर्कता आयुक्त के रूप में शपथ ग्रहण की है। ध्यातव्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने इस वर्ष फरवरी माह में सुरेश एन. पटेल को इस पद पर नियुक्त करने की सिफारिश की थी। इस संबंध में कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय (Ministry of Personnel, Public Grievances & Pensions) द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, सुरेश एन. पटेल को बैंकिंग क्षेत्र में कार्य करने का 3 दशक लंबा अनुभव है। इससे पूर्व सुरेश एन. पटेल CVC के बैंकिंग एवं वित्तीय धोखाधड़ी मामलों के सलाहकार बोर्ड के सदस्य थे। सुरेश एन पटेल का CVC में कार्यकाल दिसंबर 2022 तक होगा। केंद्रीय सतर्कता आयोग केंद्र सरकार में भ्रष्टाचार निरोध हेतु एक प्रमुख संस्था है। सतर्कता को लेकर केंद्र सरकार को सलाह तथा मार्गदर्शन देने के लिये के. संथानम की अध्यक्षता में गठित भ्रष्टाचार निवारण समिति की सिफारिशों के आधार पर फरवरी, 1964 में केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन किया था। केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) में एक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और दो सतर्कता आयुक्त होते हैं।

कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण

कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (Cauvery Water Management Authority-CWMA) को अब आधिकारिक तौर पर जल शक्ति मंत्रालय के अधीन लाया गया है। ध्यातव्य है कि CWMA पहले जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के अधीन था। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने जल से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने के लिये जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय का विलय करके जल शक्ति मंत्रालय का गठन किया था और जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण इस मंत्रालय के अधीन एक विभाग का रूप में शामिल किया था। हालाँकि यह निर्णय महज एक औपचारिकता है जो कार्य के आवंटन को निर्दिष्ट करता है, जिसका अर्थ है कि प्राधिकरण को अब जल शक्ति मंत्रालय को रिपोर्ट करना होगा। तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल एवं पुद्दुचेरी के बीच जल के बँटवारे संबंधी विवाद को निपटाने हेतु 1 जून, 2018 को केंद्र सरकार ने कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (CWMA) का गठन किया था। इस प्राधिकरण के गठन का निर्देश सर्वोच्च न्यायालय ने 16 फरवरी, 2018 को दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार, केंद्र सरकार को 6 सप्ताह के भीतर इस प्राधिकरण का गठन करना था।

टी.एस. तिरुमूर्ति

अनुभवी राजनयिक टी. एस. तिरुमूर्ति को संयुक्त राष्ट्र में भारत का स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त किया गया है। वर्तमान में वे विदेश मंत्रालय में सचिव पद पर कार्यरत हैं। भारतीय विदेश सेवा के 1985 बैच के अधिकारी तिरुमूर्ति न्यूयॉर्क में सैयद अकबरुद्दीन की जगह लेंगे। टी एस. तिरुमूर्ति का जन्म 7 मार्च, 1962 को चेन्नई में हुआ था और राजनयिक होने के अतिरिक्त वे एक लेखक भी हैं। वर्ष 1985 में विदेश सेवा ज्वाइन करने के पश्चात् उन्होंने काहिरा, जिनेवा, गाजा, वॉशिंगटन डी.सी. और जकार्ता में भारतीय राजनयिक मिशनों में कार्य किया। इसके अतिरिक्त वे नई दिल्ली स्थित विदेश मंत्रालय में अवर सचिव (भूटान), निदेशक (विदेश सचिव कार्यालय), संयुक्त सचिव (बांग्लादेश, श्रीलंका, म्याँमार और मालदीव) और संयुक्त सचिव (संयुक्त राष्ट्र) की ज़िम्मेदारी संभाल चुके हैं।