न्यायालय की अवमानना | 07 Jun 2025
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मई 2025 में निर्णय दिया था कि न्यायालय के आदेश के बाद संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानून को न्यायालय की अवमानना नहीं माना जा सकता।
- यह निर्णय सलवा जुडूम के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद छत्तीसगढ़ में सहायक बल के गठन पर वर्ष 2012 की अवमानना याचिका को खारिज करते हुए आया।
मुख्य बिंदु
- मामले की पृष्ठभूमि:
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय 2011: छत्तीसगढ़ सरकार को सलवा जुडूम को समर्थन बंद करने और माओवादियों से लड़ने के लिये सशस्त्र विशेष पुलिस अधिकारियों (SPO) को भंग करने का निर्देश दिया गया।
- कथित अवमानना: राज्य ने निर्णय के बाद छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 पारित किया, जिससे SPO को वैधानिकता और पुनर्गठन मिला।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
- विधायी शक्तियाँ और अवमानना: न्यायालय ने माना कि न्यायालय के आदेश के बाद कानून बनाना अवमानना नहीं है, जब तक कि संवैधानिक न्यायालय द्वारा उसे असंवैधानिक घोषित न कर दिया जाए।
न्यायालय की अवमानना
- न्यायालय की अवमानना एक कानूनी तंत्र है, जिसका उपयोग न्यायपालिका के अधिकार, गरिमा और स्वतंत्रता को प्रेरित हमलों या अनुचित आलोचना से बचाने के लिये किया जाता है।
- यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक संस्थाओं का सम्मान किया जाए और उनके आदेशों का पालन किया जाए।
वैधानिक आधार:
- अनुच्छेद 19(2): न्यायालय की अवमानना सहित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाता है।
- अनुच्छेद 129: सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं की अवमानना के लिये दंडित करने की शक्ति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 215: उच्च न्यायालयों को समान शक्ति प्रदान करता है।
- न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 अवमानना कार्यवाही के लिये वैधानिक ढाँचा प्रदान करता है।
अवमानना के प्रकार:
- सिविल अवमानना: न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश या निर्देश की जानबूझकर अवज्ञा करना। इसमें न्यायालय को दिये गए निर्देशों का उल्लंघन भी शामिल है।
- आपराधिक अवमानना: न्यायालय को बदनाम करना, उसके अधिकार को कम करना या न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करना। इसमें न्याय प्रशासन में बाधा डालने वाला कोई भी कार्य भी शामिल है।
- नोट: न्यायालय की कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग तथा निपटारे के बाद निर्णयों की निष्पक्ष आलोचना को अवमानना नहीं माना जाएगा।
सज़ा
- न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत सज़ा में 6 महीने तक की कैद, 2,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों शामिल हो सकते हैं।
- 2006 का संशोधन सत्य और सद्भाव की रक्षा की अनुमति देता है।
- दंड केवल तभी दिया जाना चाहिये जब न्याय में पर्याप्त हस्तक्षेप हो।