सेक्शन 124A कितना प्रासंगिक? | 18 May 2022

यह एडिटोरियल 17/05/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “In abeyance of Section 124A, a provisional relief” लेख पर आधारित है। इसमें आधुनिक भारत में देशद्रोह कानून और इसके गुण-दोषों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामले में में दिये गए एक संक्षिप्त आदेश में सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के कार्यान्वयन को प्रभावी ढंग से निलंबित कर दिया। देशद्रोह (Sedition) को अपराध घोषित करने वाले इस प्रावधान का इस्तेमाल आज़ादी के बाद के क्रमिक शासनों द्वारा लोकतांत्रिक असंतोष के दमन के लिये किया गया है।

  • इससे पूर्व मौखिक सुनवाई के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने संकेत दिया था कि वह इस कानून को कालदोष या औपनिवेशिक युग के अवशेष के रूप में देखती है।
  • अब हाल ही के एक आदेश के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्यों दोनों स्तर पर सरकारों को निर्देश दिया है कि वे धारा 124A के तहत लगाए गए आरोप से उत्पन्न ‘‘सभी लंबित परीक्षण, अपील और कार्यवाही’’ को ‘स्थगित’ रखें।
  • इस संदर्भ में देशद्रोह कानून (IPC की धारा 124A) की गहराई से जाँच करना और उसके गुण-दोषों को सामने लाना अनिवार्य है।

देशद्रोह कानून क्या है?

  • धारा 124A देशद्रोह को ऐसे कृत्य रूप में परिभाषित करता है जो "बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा, भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असंतोष (Disaffection) उत्पन्न करेगा या करने का प्रयत्न करेगा।
  • प्रावधान के अनुसार असंतोष (Disaffection) शब्द में निष्ठाहीनता और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल हैं। हालाँकि घृणा, अवमानना या असंतोष उत्पन्न करने का प्रयास किये बिना की गई टिप्पणी इस धारा के तहत अपराध नहीं होगी।

देशद्रोह कानून पर विचार का आधार क्या है?

  • देशद्रोह कानून पर विचार करने का निर्देश तब जारी हुआ जब केंद्र सरकार द्वारा एक हलफनामा दायर कर सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया गया कि उसने कानून की पुनः जाँच करने का फैसला किया है।
  • इस वक्तव्य ने स्वयं में इस बात की कोई दृढ़ प्रतिबद्धता नहीं जताई कि सरकार संसद को धारा 124A को पूरी तरह से हटाने की सिफारिश करेगी।
  • लेकिन खंडपीठ ने माना कि सरकार द्वारा प्रावधान पर पुनर्विचार करने की पेशकश कम से कम यह दर्शाती है कि सरकार इस मामले पर न्यायालय की प्रथम दृष्टया राय के साथ व्यापक रूप से सहमत है कि यह खंड ‘‘वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है और उस समय के लिये अभिप्रेत था जब देश औपनिवेशिक शासन के अधीन था।’’

संविधान सभा में देशद्रोह कानून को लेकर क्या बहस हुई थी?

  • के.एम. मुंशी ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर अनुमत प्रतिबंध के रूप में द्वयर्थक शब्द ‘देशद्रोह’ (sedition) के उपयोग को हटाने के लिये संविधान सभा में ज़ोरदार बहस की।
    • के.एम. मुंशी के अनुसार यदि इस शब्द को संविधान के प्रारूप से नहीं हटाया गया तो एक ग़लत धारणा बनेगी कि हम IPC के 124A को कायम रखना चाहते हैं।
    • जैसा कि बेहद स्पष्ट है, इस कानून का उपयोग हमेशा असहमति पर नियंत्रण के रूप में किया जाना था ताकि सरकार के विरुद्ध किसी भी प्रकार के विरोध का दमन किया जा सके।
  • मुंशीजी का संशोधन पारित हो गया। अंगीकृत संविधान देशद्रोह के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध की अनुमति नहीं देता है।
    • लेकिन इसके बावजूद, देश भर की सरकारों ने लोगों पर इस अपराध का आरोप लगाना जारी रखा।
    • 1950 के दशक में दो अलग-अलग उच्च न्यायालयों ने धारा 124A को स्वतंत्रता का उल्लंघन मानते हुए निरस्त कर दिया था। लेकिन वर्ष 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने इन फैसलों को उलट दिया।
    • न्यायालय ने पाया कि धारा 124A लोक व्यवस्था के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक वैध प्रतिबंध के रूप में बचाव-योग्य है।
    • हालाँकि इस खंड को बरकरार रखते हुए न्यायालय ने इसके अनुप्रयोग को ‘‘अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या विधि-व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिये उकसाने वाले कृत्यों’’ तक सीमित कर दिया।
  • न्यायालय का निर्णय ‘सरकार के प्रति असंतोष’ जैसे शब्दों को चिह्नित करने में विफल रहा, जो बुनियादी से अस्पष्ट हैं, इनका दंडात्मक संविधि में कोई स्थान नहीं होना चाहिये, और यह कि इन सभी बातों के साथ देशद्रोह को अपराध घोषित करने के पीछे का इरादा असहमति के अधिकार को समाप्त करना था।

देशद्रोह कानून की अंतर्निहित चुनौतियाँ

  • मूल संरचना के विरुद्ध: जैसा कि मुंशीजी ने संविधान सभा में कहा था, ‘लोकतंत्र का सार सरकार की आलोचना है।’ देशद्रोह कानून इस मूल भावना की अवहेलना करता है। यह निंदा और विरोध का अपराधीकरण करता है और एक लोकतांत्रिक गणराज्य की मूल संरचना को इसकी ऊर्जाविहीनता की स्थिति तक निष्क्रिय कर देता है।
  • हाशिये पर स्थित लोगों पर सर्वाधिक प्रभाव: कानून प्रवर्तन द्वारा इसके अनुप्रयोग में केदारनाथ सिंह मामले में आरोपित सीमाओं का शायद ही कभी पालन किया जाता है। हाल के वर्षों में इस कानून के दुरुपयोग में वृद्धि की प्रवृत्ति नज़र आई है जहाँ विपक्ष के सबसे सौम्य कृत्यों पर भी देशद्रोह का आरोप लगा दिया गया।
    • जैसा कि प्रायः इस तरह के दुरुपयोगों के मामले में होता है, समाज के सबसे हाशिये पर स्थित तबकों को अधिक हानि उठानी पड़ी है।
  • धारा 124A औपनिवेशिक विरासत का अवशेष है और एक लोकतंत्र में अनुपयुक्त है। यह वाक् और अभिव्यक्ति की संवैधानिक गारंटीकृत स्वतंत्रता के वैध अभ्यास में एक अवरोध है।
  • सरकार से असहमति और उसकी आलोचना एक जीवंत लोकतंत्र में मज़बूत सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्व हैं। उन्हें देशद्रोह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये।
    • प्रश्न करने, आलोचना करने और शासकों को बदलने का अधिकार लोकतंत्र के विचार के लिये अत्यंत आधारभूत है।
  • भारतीयों के दमन के लिये देशद्रोह कानून लाने वाले अंग्रेजों ने स्वयं अपने देश में इस कानून को समाप्त कर दिया है। ऐसा कोई कारण नहीं मौजूद नहीं है कि भारत को इस धारा को निरस्त क्यों नहीं करना चाहिये।
  • धारा 124A में मौजूद ‘असंतोष’ जैसे शब्द अस्पष्ट है और जाँच अधिकारियों की अपनी मनमर्ज़ी की व्याख्याओं के अधीन हैं।
  • IPC और गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA), 2019 में ऐसे प्रावधान मौजूद हैं जो ‘लोक व्यवस्था को बाधित करने’ या ‘हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने’ के लिये दंडित करते हैं। राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिये ये पर्याप्त हैं; इस प्रकार, धारा 124A की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
  • देशद्रोह कानून का दुरुपयोग राजनीतिक असंतोष के दमन के लिये एक उपकरण के रूप में किया जा रहा है। इसमें एक व्यापक और केंद्रित कार्यकारी विवेक अंतर्निहित है जो खुले तौर पर दुरुपयोग की अनुमति देता है।
  • वर्ष 1979 में भारत ने ‘नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध’ (International Covenant on Civil and Political Rights- ICCPR) की पुष्टि की, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानकों को निर्धारित करता है। देशद्रोह कानून का दुरुपयोग और मनमाने ढंग से आरोप लगाना भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के अनुरूप नहीं है।

देशद्रोह कानून के पक्ष में तर्क

  • IPC की धारा 124A राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से निपटने हेतु एक उपयोगिता रखती है।
  • यह चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाता है। विधि द्वारा स्थापित सरकार का निरंतर अस्तित्व राज्य की स्थिरता के लिये एक अनिवार्य शर्त है।
  • यदि न्यायालय की अवमानना दंडात्मक कार्रवाई को आमंत्रित करती है तो सरकार की अवमानना पर भी दंड की व्यवस्था उपयुक्त है।
  • विभिन्न राज्यों के कई ज़िले माओवादी विद्रोह का सामना कर रहे हैं और विद्रोही समूह वस्तुतः एक समानांतर प्रशासन चला रहे हैं। ये समूह खुले तौर पर क्रांति द्वारा राज्य सरकार को उखाड़ फेंकने की वकालत करते हैं।
  • इस पृष्ठभूमि में धारा 124A को समाप्त करना केवल इस आधार पर विवेकपूर्ण नहीं होगा कि कुछ अत्यधिक प्रचारित मामलों में इसे गलत तरीके से लागू किया गया।

आगे की राह

  • देशद्रोह कानून में सुधार: इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी कानून को केवल इसलिये अमान्य नहीं किया जा सकता क्योंकि उसका दुरुपयोग किया गया है। लेकिन देशद्रोह के मामले में केदारनाथ सिंह निर्णय का औचित्य और धारा 124A का अस्तित्व दोनों ही समय के साथ असमर्थनीय हो गए हैं।
    • वर्ष 1962 में इस निर्णय के बाद से सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक अधिकारों के पठन में एक परिवर्तनकारी बदलाव आ चुका है।
    • उदाहरण के लिये, हाल के समय में न्यायालय ने अन्य बातों के अलावा भाषा में अशुद्धि के आधार पर और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों के भारी प्रभाव के आधार पर कई दंडात्मक कानूनों को रद्द किया है।
  • भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक है। जो अभिव्यक्ति या विचार वर्तमान सरकार की नीति के अनुरूप नहीं है उसे देशद्रोह नहीं माना जाना चाहिये।
  • धारा 124A का दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिये एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिये। इस कानून के तहत अभियोजन में केदारनाथ सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई चेतावनी इसके दुरुपयोग को नियंत्रित कर सकती है। इसे बदले हुए तथ्यों एवं परिस्थितियों के तहत और आवश्यकता, आनुपातिकता एवं मनमानी के निरंतर विकसित होते परीक्षणों की कसौटी पर कसने की आवश्यकता है।
  • उच्च न्यायपालिका को अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का उपयोग मजिस्ट्रेट और पुलिस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिये करना चाहिये।
  • देशद्रोह की परिभाषा को संकुचित किया जाना चाहिये, जिसमें केवल भारत की क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ देश की संप्रभुता से संबंधित मुद्दों को ही शामिल किया जाए।
  • ‘देशद्रोह’ अत्यंत सूक्ष्म शब्द है और इसे सावधानी के साथ लागू करने की आवश्यकता है। यह एक तोप की तरह है जिसका उपयोग चूहे को मारने के लिये नहीं किया जाना चाहिये। निश्चय ही शस्त्रागार में तोप भी होने चाहिये लेकिन वे प्रायः निवारक के रूप में हों और कभी-कभी उनका इस्तेमाल गोले दागने के लिये किया जाए।
  • लोकतंत्र की रक्षा के लिये हमें यह सुनिश्चित करना चाहिये कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी व्यर्थ न जाए। इसके लिये हमारे प्रत्येक दंडात्मक कानून को समानता, न्याय और निष्पक्षता की चिंता से प्रेरित होना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: ‘‘हमारे दंडात्मक कानूनों को समानता, न्याय और निष्पक्षता की चिंता से प्रेरित होना चाहिये।’’ आधुनिक भारत में देशद्रोह अधिनियम के आलोक में इस कथन की चर्चा कीजिये।