जलवायु संकट को लैंगिक रूप से तटस्थ बनाना | 12 Apr 2024

यह एडिटोरियल 10/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The climate crisis is not gender neutral” लेख पर आधारित है। इसमें जलवायु संकट के असमान प्रभाव पर, विशेष रूप से महिलाओं की बढ़ती भेद्यता पर प्रकाश डालते हुए, विचार किया गया है। लेख में प्रभावी जलवायु कार्रवाई के लिये संपूर्ण आबादी की पूर्ण भागीदारी की आवश्यकता बताई गई है जहाँ बलपूर्वक कहा गया है कि महिलाओं के सशक्तीकरण से अधिक प्रभावशील जलवायु समाधान प्राप्त होंगे।

प्रिलिम्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP), भारत का सर्वोच्च न्यायालय, जलवायु सम्मेलन (COP 28), लिंग आधारित हिंसा, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) 4 और 5, ऊर्जा।

मेन्स के लिये:

महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, महिलाओं पर प्रभाव डालने वाले जलवायु परिवर्तन संबंधी मुद्दों को हल करना।

जलवायु संकट उत्पन्न हो चुका है और इसका प्रभाव सभी पर एकसमान रूप से नहीं पड़ता है। महिलाओं एवं बालिकाओं को विशेष रूप से गरीबी की स्थितियों में और मौजूदा भूमिकाओं, उत्तरदायित्वों एवं सांस्कृतिक मानदंडों के कारण विषम रूप से उच्च स्वास्थ्य जोखिमों का अनुभव होता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, किसी आपदा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं और बच्चों की मृत्यु की संभावना 14 गुना अधिक होती है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल के एक निर्णय में कहा है कि लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार है, जबकि स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को पहले से ही जीवन के अधिकार के दायरे में एक मूल अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है।

विभिन्न आयामों में महिलाओं के साथ जलवायु परिवर्तन का संबंध:

  • स्वास्थ्य:
    • प्राथमिक देखभालकर्ता के रूप में उनकी भूमिका और उनकी जैविक संवेदनशीलता के कारण महिलाएँ प्रायः जलवायु संबंधी स्वास्थ्य जोखिमों का अधिक सामना करती हैं। वे लू (ग्रीष्म लहर), चरम मौसमी घटनाओं और मलेरिया एवं डेंगू बुखार जैसी वेक्टर-जनित बीमारियों के संक्रमण से स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का अधिक सामना कर सकती हैं।

  • गर्भवती महिलाएँ और नव माताएँ विशेष रूप से भेद्य या असुरक्षित हैं, जिन्हें कुपोषण, प्रसव अवधि की जटिलताओं और जलवायु आपदाओं के बाद के परिदृश्य में मातृ स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुँच के जोखिम का सामना करना पड़ता है।
  • आजीविका और आय:
    • महिलाएँ, विशेष रूप से विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में, अपनी आजीविका के लिये कृषि एवं वानिकी जैसे जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भर हैं।
    • जलवायु परिवर्तन से प्रेरित कारक, जैसे अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, सूखा, बाढ़ एवं मृदा क्षरण कृषि उत्पादकता को बाधित कर सकते हैं, जिससे महिला किसानों के लिये आय की कमी और खाद्य असुरक्षा की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
      • इसके अतिरिक्त, महिलाओं को प्रायः ऐसी अनौपचारिक और निम्न वेतन वाली नौकरियों में नियोजित किया जाता है जो कम रोज़गार सुरक्षा प्रदान करती हैं और जलवायु-संबंधी व्यवधानों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती हैं।
  • शिक्षा और साक्षरता:
    • बाढ़ और तूफ़ान जैसी जलवायु संबंधी आपदाएँ आधारभूत संरचना को क्षति पहुँचाने और स्कूलों के बंद होने के रूप में बच्चों की शिक्षा को बाधित कर सकती हैं। कई समाजों में ऐसे संकटों के दौरान सुरक्षा चिंताओं या बढ़ती देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारियों के कारण बालिकाओं को स्कूल से निकाले जाने की संभावना अधिक होती है।
  • जल और स्वच्छता व्यवस्था:
    • महिलाएँ और बालिकाएँ, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, प्रायः घरों में जल संग्रहण एवं प्रबंधन के लिये ज़िम्मेदार होती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण जल की कमी एवं उनके प्रदूषण से जल लाने में लगने वाला समय एवं श्रम बढ़ सकता है, जिससे महिलाओं के लिये शिक्षा, आय सृजन और सामुदायिक भागीदारी के अवसर सीमित हो सकते हैं।
      • इसके अलावा, स्वच्छ जल और स्वच्छता सुविधाओं तक अपर्याप्त पहुँच महिलाओं के स्वास्थ्य एवं साफ-सफाई पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, जिससे जलजनित बीमारियों और मातृ मृत्यु दर में वृद्धि होती है।

जलवायु परिवर्तन का महिलाओं पर प्रभाव:

  • लिंग आधारित हिंसा से प्रत्यक्ष संबंध:
    • ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (CEEW) की वर्ष 2021 की एक रिपोर्ट से उजागर हुआ है कि 75% भारतीय ज़िले बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी जल संबंधी आपदाओं की चपेट में हैं। NFHS 5 के आँकड़े से संकेत मिलता है कि इन ज़िलों में आधे से अधिक महिलाएँ और बच्चे इन जोखिमों के संपर्क में हैं।
      • हाल के अध्ययनों से इन प्राकृतिक आपदाओं और महिलाओं के विरुद्ध लिंग आधारित हिंसा के बीच प्रत्यक्ष संबंध की लगातार पुष्टि होती है।
    • संघर्ष-प्रभावित क्षेत्रों में, जहाँ चरम मौसमी घटनाओं का खतरा भी अधिक होता है, लिंग-आधारित हिंसा व्यापक रूप से मौजूद होती है।
      • उदाहरण के लिये, ‘जिनेवा सेंटर फॉर सिक्यूरिटी सेक्टर गवर्नेंस’ के एक सबमिशन में दर्ज किया गया है कि कोलंबिया, माली और यमन जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय क्षरण और संघर्ष के संयुक्त प्रभावों के कारण महिलाएँ एवं बालिकाएँ विशेष रूप से लिंग आधारित हिंसा के प्रति असुरक्षित हैं।
  • दीर्घकालिक ग्रीष्म लहरों का प्रभाव:
    • पिछला दशक मानव इतिहास में अब तक का सबसे गर्म दशक रहा है और भविष्य में भारत जैसे देशों को अभूतपूर्व ग्रीष्म लहरों (Heat Waves) का सामना करना पड़ सकता है। दीर्घावधिक ग्रीष्म लहरें गर्भवती महिलाओं के लिये विशेष रूप से खतरनाक होती हैं जो शिशुओं के समय-पूर्व जन्म और एक्लेम्पसिया (eclampsia) का खतरा बढ़ा देती हैं।
    • इसी तरह, हवा में मौजूद प्रदूषकों (घर में और बाहर) के संपर्क में आने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है और उनमें श्वसन एवं हृदय संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इससे अजन्मे बच्चे का शारीरिक एवं संज्ञानात्मक विकास भी प्रभावित होता है।
    • भारत में समूह अध्ययनों से सामने आए आँकड़ों से पता चलता है कि PM2.5 में प्रत्येक 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि से फेफड़ों के कैंसर का खतरा 9% बढ़ जाता है, उसी दिन हृदय संबंधी मौतों का खतरा 3% और स्ट्रोक का खतरा 8% बढ़ जाता है। मनोभ्रंश (dementia) के लिये, वार्षिक PM2.5 में 2 माइक्रोग्राम की वृद्धि से जोखिम 4% बढ़ जाता है।
  • बाल विवाह की दरों में वृद्धि:
    • विभिन्न देशों और भूभागों में विभिन्न समुदायों में आपदा की स्थिति से निपटने के एक साधन के रूप में बाल विवाह के मामलों में वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिये बांग्लादेश, इथियोपिया और केन्या में इसे धन या संपत्ति सुरक्षित करने के एक साधन के रूप में देखा गया है।
    • ऐसे समुदायों में आमतौर पर संकट का सामना करने के एक तंत्र के रूप में बालिकाओं को स्कूल से बाहर निकालने का रास्ता भी अपनाया गया है ताकि वे घरेलू कार्यों में मदद कर सकें। संकट का सामना करने के ऐसे उपाय लैंगिक समानता की दिशा में हुई प्रगति को दशकों पीछे ले जाते हैं और समुदायों की दीर्घकालिक प्रत्यास्थता एवं अनुकूलन क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं।
  • असंगत बोझ का योग:
    • देखा गया है कि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित चरम मौसमी घटनाएँ महिलाओं एवं बालिकाओं और उनके रोज़मर्रा के कार्यों को करने की क्षमता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। यह भी एक कारण है जिससे बालिकाओं को स्कूल छोड़ने के लिये विवश होना पड़ता है।
    • कुछ देशों में जलावन लकड़ी और जल संग्रहण का कार्य (जो पारंपरिक रूप से महिलाओं एवं बालिकाओं को सौंपा जाता रहा है) जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से व्यापक रूप से प्रभावित हुआ है। इससे महिलाओं एवं बालिकाओं को कार्य पूरा करने और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिये अपने घरों से दूर यात्रा करने के लिये विवश होना पड़ता है।
  • ग्राम से शहर प्रवासन का प्रभाव:
    • यह भी देखा गया है कि चरम मौसमी घटनाओं के परिणामस्वरूप कुछ देशों में पुरुषों के बीच ग्राम से शहर प्रवासन (Rural to Urban Migration) की वृद्धि हुई है, जिससे महिलाओं पर भूमि संबंधी, घरेलू और ऐसे अन्य कार्यों का भी बोझ आ गया है जो पारंपरिक रूप से पुरुषों द्वारा किये जाते हैं।
    • इसके परिणामस्वरूप महिलाओं के लिये काम का बोझ बढ़ जाता है, जबकि उनकी आय में कमी आती है क्योंकि आय अर्जित करने के उनके अवसर लैंगिक मानदंडों (जो भूमि स्वामित्व तक उनकी पहुँच को प्रभावित करते हैं) के कारण सीमित होते हैं। इससे जलवायु प्रभावों के प्रति उनकी वर्तमान और भविष्य की संवेदनशीलता बढ़ जाती है।
  • अनुकूलन क्षमता में कमी:
    • औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं के कम एकीकृत होने के कारण महिलाओं और पुरुषों की अनुकूलन क्षमता भिन्न होती है, जो फिर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में महिलाओं की स्थिति को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिये, एंटीगुआ और बारबुडा में पुरुषों की तुलना में महिलाएँ अनौपचारिक पर्यटन-संबंधी गतिविधियों से आय उत्पन्न करने की अधिक संभावना रखती हैं, लेकिन तूफ़ान जैसी चरम मौसमी घटनाओं में उनकी अनुकूलन क्षमता कम हो जाती है।
      • अपने एक सबमिशन में ILO ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि अनौपचारिक रोज़गार कार्यस्थल पर स्वास्थ्य एवं सुरक्षा तंत्र तक पहुँच को प्रभावित करता है, जिससे जलवायु संबंधी आपदा की स्थिति में अनौपचारिक कामगारों के लिये जोखिम बढ़ जाता है।
  • विभिन्न विभेदक कारकों की ‘इंटरसेक्शनालिटी’:
    • LGBTQIA समुदाय और आदिवासियों जैसे अधिकांश हाशिए पर स्थित समूहों के मामलों में, सामाजिक कारकों के बहुआयामी ‘इंटरसेक्शन’ के कारण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल होने की उनकी क्षमता कम हो जाती है, जो उन्हें ऐसे प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है। यह स्थिति तब है जबकि महिलाओं और आदिवासी लोगों को पारंपरिक एवं स्वदेशी ज्ञान के संरक्षक के रूप में चिह्नित किया जाता है।
  • कृषि क्षेत्र में महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
    • खाद्य असुरक्षा की वृद्धि:
      • महिलाएँ घरों और समुदायों में खाद्य उत्पादन, प्रसंस्करण एवं वितरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जलवायु परिवर्तन के विभिन्न प्रभाव (जैसे कि फसल की विफलता, जल की कमी और वर्षा के पैटर्न में बदलाव) महिलाओं की अपने परिवारों के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की क्षमता को प्रत्यक्षतः प्रभावित कर सकते हैं।
        • लघु और सीमांत भूमिधारक परिवारों में, जबकि पुरुषों को नहीं चुकाए गए ऋण के कारण सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है (जिसके कारण फिर प्रवासन, भावनात्मक संकट और कभी-कभी आत्महत्या की स्थिति बनती है), महिलाओं को घरेलू कार्य के अधिक बोझ, खराब स्वास्थ्य और अंतरंग साथी द्वारा वृहत हिंसा का सामना करना पड़ता है।
    • चरम मौसमी घटनाओं से खेती कार्यों को बाधा:
      • मौसम के बदलते पैटर्न और चरम घटनाओं का कृषि कार्य में महिलाओं की भूमिका पर गहरा प्रभाव पड़ता है। परिवर्तनशील वर्षा और लंबे समय तक सूखे के कारण फसल की पैदावार कम हो जाती है, जिससे खेती पर निर्भर परिवारों के लिये खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है।
      • महिलाएँ परंपरागत रूप से खेत में होने वाले कामकाज में अभिन्न भूमिका निभाती रही हैं और प्रायः फसलों की देखभाल एवं घरेलू खाद्य आपूर्ति के प्रबंधन के लिये ज़िम्मेदार होती हैं। इसके परिणामस्वरूप इन व्यवधानों का उन्हें अधिक खामियाजा भुगतना पड़ता है।
    • आर्थिक निहितार्थ:
      • कृषि में संलग्न महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन के पर्याप्त आर्थिक प्रभाव पड़ते हैं। बाढ़ एवं चरम मौसमी घटनाएँ फसलों और अवसंरचना को तबाह कर सकती हैं, जिससे महिलाओं को परिवार की देखभाल और वैकल्पिक आय सृजन को प्राथमिकता देने के लिये विवश होना पड़ता है। चरम मौसमी घटनाओं के कारण फसल की पैदावार में कमी से आय में कमी आती है, जिससे मौजूदा लैंगिक असमानताएँ और बढ़ जाती हैं।
    • संसाधनों की कमी के कारण भेद्यता/असुरक्षा की वृद्धि:
      • सांस्कृतिक मानदंड और भेदभावपूर्ण प्रथाएँ महिलाओं की भूमि स्वामित्व (जो कृषि में एक महत्त्वपूर्ण संपत्ति है) तक पहुँच में बाधा डालती हैं। संपत्ति पर महिलाओं के नियंत्रण की कमी के कारण साख, ऋण और बीमा तक उनकी पहुँच सीमित हो जाती है, जिससे वे जलवायु-प्रेरित हानियों के प्रति भेद्य हो जाती हैं।
        • UN FAO के अनुसार, यदि महिलाओं को पुरुषों के समान उत्पादक संसाधनों तक पहुँच प्राप्त हो तो वे अपने खेतों में पैदावार को 20-30% तक बढ़ा सकती हैं।
          • चरम मौसमी घटनाओं और उसके बाद जल चक्र पैटर्न में बदलाव से सुरक्षित पेयजल तक पहुँच गंभीर रूप से प्रभावित होती है, जिससे महिलाओं एवं बालिकाओं के लिये जल संग्रहण का श्रम बढ़ जाता है और उनके पास उत्पादक कार्य एवं स्वास्थ्य देखभाल के लिये समय कम हो जाता है।

जलवायु संकट को लिंग-तटस्थ बनाने के लिये कौन-से कदम उठाए जाने की आवश्यकता है?

  • महिलाओं के बहुआयामी सशक्तीकरण को बढ़ावा देना:
    • यदि हम वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो जलवायु कार्रवाई के लिये शत प्रतिशत आबादी की संलग्नता की आवश्यकता है। इसके साथ ही, महिलाओं को सशक्त बनाने का अर्थ होगा बेहतर जलवायु समाधान जहाँ देखा गया है कि जब महिलाओं को पुरुषों के समान संसाधनों तक पहुँच प्रदान की गई तो उन्होंने अपनी कृषि उपज में 20% से 30% की वृद्धि दर्ज की।
  • स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से स्थानीय समाधानों को प्रोत्साहित करना:
    • आदिवासी और ग्रामीण महिलाएँ विशेष रूप से पर्यावरण संरक्षण में सबसे आगे रही हैं। महिलाओं और महिला समूहों (स्वयं सहायता समूहों और किसान उत्पादक संगठनों ) को ज्ञान, उपकरण एवं संसाधनों तक पहुँच प्रदान करने से स्थानीय समाधानों का उभार प्रेरित होगा। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अनुकूलन के उपाय आवश्यक रूप से अलग-अलग होंगे क्योंकि गर्मी, वायु प्रदूषण और जल एवं खाद्य तक पहुँच संदर्भ के अनुसार अलग-अलग होगी।
  • लिंग-विभाजित डेटा एकत्र करना:
    • परिवर्तन की एजेंट के रूप में महिलाओं की भूमिका को उनकी समस्त विविधता में बेहतर रूप से समझने के लिये अधिक व्यापक एवं आमतौर पर प्रयोज्य लिंग-विभाजित डेटा संग्रह करने की आवश्यकता है। वर्तमान में परिवर्तन के एजेंट के रूप में महिलाओं और पुरुषों की विभिन्न भूमिकाओं के उदाहरण संदर्भ-विशिष्ट हैं।
    • इस प्रकार, इन आँकड़ों से आमतौर पर प्रयोज्य निष्कर्ष निकालने में महिलाओं के अनुभव और व्यवहार को समरूप बनाना शामिल होगा, जो कि महिलाओं की विविधता और परिवर्तन के एजेंटों के रूप में उनकी भूमिका को प्रभावित करने वाले सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट संदर्भों की अधिकता को देखते हुए समस्याजनक है।
  • दीर्घावधिक ग्रीष्म लहरों के प्रभाव को कम करना:
    • आउटडोर कामगारों, गर्भवती महिलाओं, नवजात शिशु और वृद्ध जनों जैसे कमज़ोर समूहों पर दीर्घावधिक ग्रीष्म लहर के प्रभाव को कम करने के प्रयास किये जाने चाहिये। कई भारतीय शहरों के आँकड़े से संकेत मिलता है कि ग्रीष्म लहरों के दौरान मृत्यु के मामलों में वृद्धि हुई है, भले ही उन्हें आधिकारिक तौर पर दर्ज नहीं किया जाता हो। उल्लेखनीय है कि उत्पादकता में कमी का असर छोटे और बड़े व्यवसायों के साथ-साथ व्यापक रूप से अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है।
    • ग्रीष्म लहर की चेतावनी जारी करना (स्थानीय तापमान एवं आर्द्रता के आधार पर), आउटडोर काम एवं स्कूल के समय को समायोजित करना, स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों में शीतलन कक्ष प्रदान करना, सार्वजनिक पेयजल सुविधाएँ सुनिश्चित करना और हीट स्ट्रोक से पीड़ित लोगों का तुरंत इलाज करना आदि मौतों को कम करने में मदद कर सकते हैं।
  • शहरी स्थानीय निकायों और नगरपालिकाओं को शामिल करना:
    • संवेदनशील ज़िलों में शहरी स्थानीय निकायों, नगर निगमों और ज़िला अधिकारियों को एक योजना का निर्माण करने और प्रमुख कार्यान्वयनकर्ताओं को प्रशिक्षण एवं संसाधन प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके अलावा, शहरों में वृक्ष आवरण बढ़ाना, कंक्रीट को कम करना, हरित-नील स्थानों को बढ़ाना और प्रतिकूल मौसमी प्रभावों को बेहतर ढंग से झेलने में सक्षम आवासों को डिज़ाइन करना शहरी योजना में शामिल दीर्घकालिक कार्य होंगे।
      • उदयपुर में महिला हाउसिंग ट्रस्ट ने दिखाया कि निम्न आय वाले घरों की छतों को परावर्तक सफेद रंग से रंगने से घर के अंदर का तापमान 3-4 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया और जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ।
  • प्रमुख जल संसाधनों का मानचित्रण:
    • जल की कमी हमारे अस्तित्व के लिये संभवतः सबसे बड़ा खतरा है और इसके लिये ठोस सामाजिक कार्रवाई की ज़रूरत है। भारत में परंपरागत रूप से वर्षा जल संचयन एवं भंडारण के लिये तालाबों और नहरों की प्रणाली के रूप में सबसे उन्नत प्रणालियों में से एक मौजूद थी।
    • तमिलनाडु के कुछ ज़िलों में एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन द्वारा किये गए कार्य से परिलक्षित हुआ है कि पंचायतें भौगोलिक सूचना प्रणालियों का उपयोग कर प्रमुख जल स्रोतों का मानचित्रण कर सकती हैं, भेद्यताओं एवं जलवायु खतरों की पहचान कर सकती है और सरकारी योजनाओं एवं संसाधनों को निर्देशित कर जल तक पहुँच में सुधार के लिये एक स्थानीय योजना विकसित कर सकती हैं। 
  • स्थानीय स्तर पर क्षेत्रों और सेवाओं का अभिसरण:
    • क्षेत्रों एवं सेवाओं का अभिसरण और कार्यों का प्राथमिकताकरण गाँव या पंचायत स्तर पर सबसे प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। शक्तियों एवं वित्त का हस्तांतरण और पंचायत एवं स्व सहायता समूह के सदस्यों की क्षमता निर्माण में निवेश करना भारत का यह प्रदर्शित करने का तरीका हो सकता है कि सामुदायिक नेतृत्व में और भागीदारीपूर्ण तरीके से प्रत्यास्थता का निर्माण कैसे किया जाए।
  • NAPCC और SAPCC के दायरे का विस्तार करना:
    • जलवायु परिवर्तन पर सभी राज्य-कार्य योजनाओं में एक लैंगिक दृष्टिकोण लागू करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC) और जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्ययोजना (SAPCC) महिलाओं पर पड़ने वाले प्रभावों को उजागर करती है, लेकिन प्रायः उन्हें पीड़ितों के रूप में चित्रित करने की भूल करती है, जिसमें वृहत लैंगिक गतिशीलता की समक्ष का अभाव होता है।
    • SAPCC के जारी पुनरीक्षण के लिये अनुशंसाओं में रूढ़िवादिता से आगे बढ़ने, सभी लिंगों की भेद्यताओं को चिह्नित करने और लिंग-रूपांतरणकारी रणनीतियों को लागू करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है ताकि जलवायु अनुकूलन के लिये एक व्यापक एवं समतामूलक दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जा सके।

निष्कर्ष:

महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बहुआयामी एवं असंगत है, जो मौजूदा लैंगिक असमानताओं और भेद्यताओं को बढ़ा रहा है। आजीविका से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा और विस्थापन तक, महिलाओं को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अनुकूलन एवं शमन में गंभीर बोझ उठाना पड़ता है। इन लैंगिक प्रभावों को संबोधित करने के लिये एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो महिला सशक्तीकरण, संसाधनों तक पहुँच और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सार्थक भागीदारी को प्राथमिकता दे। महिलाओं के समक्ष विद्यमान अनूठी चुनौतियों को चिह्नित कर और उनका समाधान कर, हम प्रत्यास्थता को बढ़ावा दे सकते हैं, लैंगिक समानता को प्रोत्साहित कर हैं तथा सभी के लिये अधिक संवहनीय एवं समतामूलक भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।

अभ्यास प्रश्न: महिलाओं की आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और जलवायु परिवर्तन शमन एवं अनुकूलन को संबोधित करने में लिंग-संवेदनशील नीतियों की भूमिका की चर्चा कीजिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा/से भारत सरकार के 'हरित भारत मिशन' के उद्देश्य का सर्वोत्तम रूप से वर्णन करता है/करते हैं? (2016) 

  1. पर्यावरणीय लाभों एवं लागतों को केंद्र और राज्य के बजट में सम्मिलित करते हुए 'हरित लेखाकरण (ग्रीन एकाउंटिंग) को अमल में लाना।
  2. कृषि उत्पादन के संवर्द्धन हेतु द्वितीय हरित क्रांति आरंभ करना जिससे भविष्य में सभी के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो।
  3. वन आच्छादन की पुनर्प्राप्ति और संवर्द्धन तथा अनुकूलन एवं न्यूनीकरण के संयुक्त उपायों से जलवायु परिवर्तन का प्रत्युतर देना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3 
(d) 1, 2 और 3 

उत्तर: (c) 


प्रश्न.‘भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन संधि (ग्लोबल क्लाइमेट, चेंज एलाएन्स)’ के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)

  1. यह यूरोपीय संघ की पहल है।\
  2. यह लक्ष्याधीन विकासशील देशों को उनकी विकास नीतियों और बजटों में जलवायु परिवर्तन के एकीकरण हेतु तकनीकी एवं वित्तीय सहायता प्रदान करना है।
  3. इसका समन्वय विश्व संसाधन संस्थान (WRI) और धारणीय विकास हेतु विश्व व्यापार परिषद् (WBCSD) द्वारा किया जाता है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)


मेन्स 

प्रश्न 1. संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के सी.ओ.पी. के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गईं वचनबद्धताएँ क्या हैं? (2021)

प्रश्न 2. 'जलवायु परिवर्तन' एक वैश्विक समस्या है। जलवायु परिवर्तन से भारत किस प्रकार प्रभावित होगा? जलवायु परिवर्तन के द्वारा भारत के हिमालयी और समुद्रतटीय राज्य किस प्रकार प्रभावित होंगे? (2017)