निर्वहन-से-स्मार्ट कृषि तक भारत की विकास यात्रा | 04 Nov 2025

यह एडिटोरियल 03/11/2025 को द हिंदू बिज़नेस लाइन में प्रकाशित “Plug the gaps in agriculture sector” पर आधारित है। इस लेख में भारत के कृषि विरोधाभास पर प्रकाश डाला गया है, जो 35% कार्यबल केवल 10% सकल मूल्यवर्द्धन (GVA) को संचालित करता है। लक्षित कौशल विकास के माध्यम से इस अंतर को न्यूनतम करना (विशेष रूप से महिलाओं के लिये) प्रौद्योगिकी का उपयोग करने और कृषि को समावेशी विकास का वाहक बनाने के लिये अत्यंत आवश्यक है।

प्रिलिम्स के लिये: डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना, डिजिटल कृषि मिशन, कृषक उत्पादक संगठन, श्री अन्न (कदन्न), कृषि यंत्रीकरण उप-मिशन, कृषि जनगणना, उच्च उपज वाली किस्में, e-NAM मंच 

मेन्स के लिये: भारतीय कृषि में प्रमुख हालिया विकास, भारतीय कृषि में उत्पादकता और विकास में बाधा डालने वाले प्रमुख मुद्दे।

भारत का कृषि क्षेत्र एक घोर विरोधाभास का सामना कर रहा है: राष्ट्रीय सकल मूल्यवर्द्धन (GVA) में केवल 10% का योगदान करते हुए, यह 35% कार्यबल को रोज़गार देता है, जो उत्पादकता वृद्धि की विशाल अप्रयुक्त क्षमता का संकेत देता है। यह स्थिति कृषि उत्पादकता में अपार संभावनाओं की ओर संकेत करती है। यह क्षेत्र इस समय एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है, जहाँ एक ओर कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) आधारित फसल नियोजन से लेकर ड्रोन-आधारित निगरानी जैसी तीव्र तकनीकी प्रगति हो रही है, वहीं दूसरी ओर 35% कृषि श्रमिक बुनियादी साक्षरता से वंचित हैं और अधिकांश ने कोई औपचारिक तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है। कृषि कार्यबल में महिला कृषि श्रमिकों की हिस्सेदारी 41% है, जो अत्यधिक उपेक्षा और हाशियाकरण का सामना कर रही हैं। आगे की राह अत्यावश्यक, लक्षित कौशल-विकास हस्तक्षेपों की मांग करती है (विशेषतः महिलाओं के लिये और चयनित भौगोलिक समूहों में) ताकि तकनीकी क्षमता और मानवीय दक्षता के बीच बढ़ते अंतराल को समाप्त किया जा सके तथा कृषि को आजीविका मात्र नहीं, बल्कि समावेशी समृद्धि के इंजन में रूपांतरित किया जा सके।

भारतीय कृषि में हाल के प्रमुख विकास क्या हैं?

  • कृषि के लिये डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) का क्रियान्वयन: सरकार पूरे क्षेत्र में शासन और सेवा वितरण को आधुनिक बनाने के लिये रणनीतिक रूप से एक डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI), जिसे एग्रीस्टैक के नाम से जाना जाता है, का निर्माण कर रही है।
    • यह कदम एक अंतर-संचालनीय पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करेगा जो किसानों को व्यक्तिगत एवं समय पर जानकारी प्रदान करेगा, जिससे सरकारी योजनाओं में दक्षता और पारदर्शिता बढ़ेगी।
    • डिजिटल कृषि मिशन का लक्ष्य तीन वर्षों में 11 करोड़ किसानों के लिये डिजिटल पहचान बनाना और सभी ज़िलों में एक राष्ट्रव्यापी डिजिटल फसल सर्वेक्षण (DCS) शुरू करना है, जो पारंपरिक मैनुअल तरीकों से डेटा-संचालित निर्णय लेने की ओर अग्रसर होगा।
  • ड्रोन प्रौद्योगिकी का तीव्र एकीकरण और उदारीकरण: परिशुद्ध कृषि, विशेष रूप से छिड़काव और फसल स्वास्थ्य निगरानी के लिये ड्रोन (UAV) की तैनाती एक क्रांतिकारी कदम है, जो श्रम की कमी को दूर करेगा तथा कृषि आदान उपयोग दक्षता में सुधार करेगा।
    • संशोधित ड्रोन नियम- 2021 और वित्तीय सहायता नीतियाँ इस दिशा में सरकार के उन प्रयासों को रेखांकित करती हैं जिनका उद्देश्य इस तकनीक को सामान्य किसानों एवं कृषक उत्पादक संगठनों (FPO) तक सुलभ बनाना है।
    • ड्रोन के उपयोग से कीटनाशकों का छिड़काव पारंपरिक (मैनुअल) विधियों की तुलना में लगभग पाँच गुना तेज़ी से किया जा सकता है, जिससे कृषि श्रमिकों के लिये रासायनिक पदार्थों के संपर्क में आने की संभावना भी काफी कम हो जाती है। सरकार द्वारा FPOs तथा विशिष्ट श्रेणियों के किसानों को ड्रोन की खरीद पर 40-50 प्रतिशत तक की सब्सिडी प्रदान की जा रही है।
  • एग्री-टेक स्टार्टअप इकोसिस्टम का उदय और परिपक्वता: भारत के एग्री-टेक क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, केवल ई-कॉमर्स तक सीमित न रहकर अब AI/IoT-आधारित परिशुद्ध कृषि (Agri-IoT), गुणवत्ता प्रबंधन और आपूर्ति शृंखला तकनीक जैसे परिष्कृत समाधानों की दिशा में अग्रसर है।  ये स्टार्टअप ज्ञान और बाज़ार के अंतर को समाप्त करते हैं, जिससे छोटे किसानों के लिये कृषि एक अधिक लाभदायक एवं भरोसेमंद उद्यम बन जाती है।
    • दिसंबर 2023 तक, स्टार्टअप इंडिया द्वारा लगभग 2,800 एग्रीटेक स्टार्टअप को मान्यता दी गई, जिन्होंने पिछले चार वर्षों में सामूहिक रूप से लगभग ₹6,600 करोड़ का वित्त पोषण जुटाया, जो निजी क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण निवेश और नवोन्मेषी क्षमता को दर्शाता है।
  • कदन्न (श्री अन्न) और फसल विविधीकरण को बढ़ावा देने पर नीतिगत ध्यान: चावल और गेहूँ जैसी जल-गहन फसलों से हटकर फसल विविधीकरण की ओर एक सक्रिय प्रयास देखा जा रहा है, जिसका मुख्य ध्यान श्री अन्न’ (कदन्न) कहे जाने वाले पोषक अनाजों को बढ़ावा देना है। यह बदलाव जलवायु परिवर्तन के प्रति सहिष्णुता, पोषण में सुधार और भूजल क्षरण को कम करने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष घोषित किया गया है, जो सत्र 2023-24 में कुल पोषक अनाज (श्री अन्न) उत्पादन के 174.08 लाख मीट्रिक टन होने का अनुमान है, जो कदन्न-कृषि में वृद्धि की दिशा में नीति-संचालित गति को दर्शाता है।
  • कृषि मशीनीकरण पर बढ़ा ज़ोर: ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के कारण श्रमिकों की कमी के कारण, उत्पादकता बनाए रखने और कृषि की लागत कम करने के लिये, विशेष रूप से लघु एवं सीमांत किसानों के लिये, कृषि मशीनीकरण महत्त्वपूर्ण है। कस्टम हायरिंग सेंटर (CHC) के लिये नीतिगत समर्थन महॅंगी मशीनों को सुलभ बनाने की कुंजी है।
    • कृषि यंत्रीकरण उप-मिशन (SMAM) के अंतर्गत, सरकार ने वित्तीय सहायता प्रदान की है, जिसके परिणामस्वरूप हज़ारों किसान स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना हुई है और वर्ष 2021-25 के दौरान 57,139 किसानों को मशीनीकरण का प्रशिक्षण दिया गया है।
  • कृषक उत्पादक संगठनों (FPO) की भूमिका को सुदृढ़ बनाना: FPO लघु और सीमांत किसानों को एकजुट करके, उनकी सामूहिक सौदाकारी की शक्ति को बढ़ाकर तथा कृषि आदान, प्रौद्योगिकी और औपचारिक ऋण तक बेहतर अभिगम्यता को सक्षम करके बाज़ार परिदृश्य को मौलिक रूप से बदल रहे हैं।
    • यह संरचना पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं को साकार करने के लिये महत्त्वपूर्ण है। सरकार पूरे देश को कवर करने के लिये 10,000 नए FPO के गठन को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रही है, जिससे बाज़ार संपर्क में सुधार होता है तथा किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
  • बागवानी और गैर-खाद्य फसलों में निरंतर वृद्धि: फलों, सब्जियों और मसालों सहित बागवानी क्षेत्र ने बढ़ती घरेलू एवं निर्यात मांग, विविधीकरण प्रयासों तथा बेहतर कटाई-पश्चात् प्रबंधन के कारण अपनी मज़बूत वृद्धि जारी रखी है।
    • यह कृषि आय और मूल्य संवर्द्धन को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक है। नवीनतम अनुमानों के अनुसार सत्र 2023-24 में बागवानी उत्पादन 352.23 मिलियन टन (द्वितीय अग्रिम अनुमान) रहेगा, जिसमें फलों का उत्पादन विशेष रूप से 112.63 मिलियन टन तक पहुँचने की उम्मीद है, जो उच्च मूल्य वाले विकास क्षेत्र के रूप में इसकी स्थिति की पुष्टि करता है।

भारतीय कृषि में उत्पादकता और विकास में बाधा डालने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

  • भूमि जोतों का अत्यधिक विखंडन और लघु कृष्ट भूमि: भूमि स्वामित्व की अत्यधिक विखंडित प्रकृति पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं को बाधित करती है, जिससे बड़े पैमाने पर मशीनीकरण एवं आधुनिक सिंचाई प्रणालियों को अपनाना अधिकांश किसानों के लिये आर्थिक रूप से अव्यावहारिक हो जाता है।
    • यह संरचनात्मक बाधा पूंजी निवेश को सीमित करती है तथा संसाधनों के अपर्याप्त उपयोग के परिणामस्वरूप समग्र कृषि उत्पादकता पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
    • नवीनतम कृषि जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, भारत में कुल परिचालन जोतों का 86.2% लघु और सीमांत (2 हेक्टेयर से कम) है तथा परिचालन जोतों का औसत आकार घटकर केवल 1.08 हेक्टेयर रह गया है, जिससे दक्षता में गंभीर बाधा आ रही है।
  • कटाई के बाद के बुनियादी अवसंरचना और आपूर्ति शृंखला में कम निवेश: देश भर में कोल्ड स्टोरेज, वेयरहाउसिंग और प्रसंस्करण बुनियादी अवसंरचना में भारी कमी के कारण बड़े पैमाने पर बर्बादी होती है तथा किसानों को फसल कटाई के तुरंत बाद अपनी फसल बेचने के लिये विवश होना पड़ता है।
    • यह कमज़ोर आपूर्ति शृंखला किसानों को बेहतर मूल्य प्राप्त करने से रोकती है, जिससे कृषि कम लाभदायक हो जाती है तथा उत्पादकता बढ़ाने वाली सामग्रियों में निवेश हतोत्साहित होता है।
    • अनुमान बताते हैं कि कटाई के बाद का नुकसान, विशेष रूप से फलों एवं सब्जियों जैसी नाशवान वस्तुओं के लिये, 20% से 40% तक होता है, जो हज़ारों करोड़ रुपये का वार्षिक आर्थिक नुकसान दर्शाता है।
  • अनियमित मानसून और भू-जल क्षरण पर निरंतर निर्भरता: निवल बुवाई क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा वर्षा पर निर्भर रहता है, जिससे व्यापक सिंचाई परियोजनाओं के बावजूद, कृषि उत्पादन जलवायु परिवर्तन से प्रेरित अनियमित और चरम मौसमी घटनाओं के प्रति अत्यधिक सुभेद्य हो जाता है।
    • सिंचित क्षेत्रों में भू-जल का अत्यधिक दोहन, सब्सिडी वाली बिजली और जल-गहन फसल पद्धतियों के कारण एक बड़े जल-तनाव संकट को जन्म दे रहा है।
    • वर्तमान में सकल फसल क्षेत्र का केवल लगभग 55% ही सिंचित है, जिसमें लगभग आधा फसल क्षेत्र मानसून पर निर्भर है, जबकि भारत में वैश्विक स्तर पर भू-जल क्षरण की दर सबसे अधिक बताई गई है।
  • मृदा स्वास्थ्य में व्यापक गिरावट और पोषक तत्त्वों का असंतुलित उपयोग: दशकों से रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित उपयोग, विशेष रूप से फॉस्फोरस (P) और पोटेशियम (K) की तुलना में नाइट्रोजन (N) के असंतुलित उपयोग ने मृदा स्वास्थ्य को गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया है, जिससे पोषक तत्त्वों की कमी और जैविक कार्बन की हानि हुई है।
    • यह क्षरण सीधे फसल की पैदावार को प्रभावित करता है और गहन कृषि पद्धतियों की दीर्घकालिक संवहनीयता को कमज़ोर करता है।
    • आदर्श NPK अनुपात 4:2:1 है, लेकिन भारत में वर्तमान उपयोग अनुपात प्रायः बहुत अधिक विषम है, राष्ट्रीय औसत लगभग 6.7:2.4:1 बताया गया है, जो गंभीर पोषक तत्त्व असंतुलन को दर्शाता है।
  • सीमांत किसानों के लिये समय पर संस्थागत ऋण तक सीमित पहुँच: वित्तीय समावेशन में महत्त्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद, लघु और सीमांत किसानों का एक बड़ा वर्ग अभी भी औपचारिक ऋण के लिये अपर्याप्त संपार्श्विक या जटिल प्रशासनिक प्रक्रियाओं के कारण उच्च-ब्याज वाले अनौपचारिक साहूकारों पर निर्भर है। 
    • किफायती और समय पर ऋण की कमी, गुणवत्तापूर्ण कृषि आदान खरीदने, तकनीक अंगीकरण या आवश्यक कृषि निवेश करने की उनकी क्षमता को सीमित कर देती है।
    • बकाया ऋण वाले ग्रामीण परिवारों का अनुपात सत्र 2016-17 में 47.4% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 52% हो गया, जो संस्थागत वित्तीय अभिगम्यता में निरंतर अंतर को दर्शाता है।
  • अप्रभावी कृषि अनुसंधान और विस्तार सेवाएँ: राज्य और केंद्रीय संस्थानों द्वारा किये गए अत्याधुनिक कृषि अनुसंधान और ज़मीनी स्तर पर इसके प्रभावी हस्तांतरण के बीच संबंध कमज़ोर बना हुआ है, जो प्रायः कम संसाधनों एवं पुरानी विस्तार प्रणालियों के कारण होता है। 
    • यह महत्त्वपूर्ण अंतर औसत किसान द्वारा उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYV), बेहतर तकनीकों और जलवायु-प्रतिरोधी कृषि पद्धतियों को समय पर अपनाने से रोकता है।
    • भारत में कृषि अनुसंधान एवं विकास पर सार्वजनिक व्यय कृषि-GDP का लगभग 0.3-0.4% होने का अनुमान है, जो विकासशील देशों के लिये अनुशंसित 1% से 2% के लक्ष्य से काफी कम है।
  • बाज़ार अभिगम्यता संबंधी बाधाएँ और मूल्य अस्थिरता: किसानों को अपनी उपज का कुशलतापूर्वक विपणन करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें स्थानीय व्यापारियों का प्रभुत्व, पारदर्शी मूल्य निर्धारण तंत्र का अभाव और पारंपरिक बाज़ारों (APMC) में उच्च मध्यस्थता लागत शामिल है।
    • बाज़ार की इस शिथिलता के कारण मूल्य में भारी अस्थिरता और कृषि-द्वार पर कीमतों में कमी आती हैं, जिससे किसानों का उत्पादन बढ़ाने का प्रोत्साहन कम हो जाता है।
    • e-NAM प्लेटफॉर्म, तमाम प्रयासों के बावजूद, केवल लगभग 1,522 मंडियों को ही एकीकृत कर पाया है, जिससे हज़ारों स्थानीय बाज़ार डिजिटल नेटवर्क से बाहर रह गए हैं, जिससे बाज़ार का विखंडन एवं सीमित मूल्य पारदर्शिता हो रही है। 

भारतीय कृषि में उत्पादकता बढ़ाने के लिये कौन-से उपाय लागू किये जा सकते हैं?

  • अनिवार्य मशीनीकरण पूलिंग और डिजिटल रूप से प्रबंधित भूमि पट्टे: सरकार को कस्टम हायरिंग सेंटरों (CHC) को निर्धारित ग्राम समूहों में समयबद्ध, पूल्ड-एसेट मॉडल पर संचालित करने के लिये अनिवार्य करके सामुदायिक भूमि उपयोग को सक्रिय रूप से लागू करना चाहिये।
    • इसे एक डिजिटल रूप से सुरक्षित भूमि पट्टे के कार्यढाँचे के साथ जोड़ा जाना चाहिये जो स्वामित्व बनाए रखने की गारंटी देता है और साथ ही मशीनीकृत कृषि और बड़े पैमाने पर परिशुद्ध कृषि आदान अनुप्रयोग के लिये अस्थायी समेकन की सुविधा प्रदान करता है।
    • यह विखंडन की बाधा को दूर करता है तथा रोपण और कटाई जैसे प्रमुख कार्यों के लिये पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं को प्राप्त करता है।
  • स्मार्ट ग्रिड टैरिफिंग के माध्यम से परिशुद्ध जल-उपयोग को प्रोत्साहित करना: ‘स्मार्ट वाटर ग्रिड’ टैरिफ संरचना शुरू करके निशुल्क या सब्सिडी वाली बिजली/जल से परिणाम-आधारित जल प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
    • यह प्रणाली प्रति फसल वैज्ञानिक रूप से निर्धारित सीमा से अधिक निष्कर्षण के लिये उच्च प्रगतिशील दरें वसूलेगी, साथ ही सूक्ष्म सिंचाई (ड्रिप/स्प्रिंकलर) अंगीकरण और वर्षा जल संचयन संरचनाओं को लागू करने के लिये महत्त्वपूर्ण कार्बन/जल क्रेडिट प्रदान करेगी।
    • यह रणनीति संसाधनों के उपयोग को प्रभावी ढंग से युक्तिसंगत बनाती है और उभरते भूजल संकट से निपटने में सहायता करती है।
  • जलवायु-स्मार्ट फसल-आनुवंशिक केंद्रों (CGH) की स्थापना: क्षेत्रीय जलवायु-स्मार्ट फसल-आनुवंशिक केंद्रों (CGH) की स्थापना करके अनुसंधान एवं विकास-से-कृषि प्रक्रिया में क्रांतिकारी बदलाव लाएँ, जो अनुसंधान, बीज गुणन एवं किसान प्रशिक्षण के लिये एकीकृत केंद्रों के रूप में कार्य करते हैं।
    • इन केंद्रों को स्थानीय कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों (AEZ) के अनुरूप सूखा-सहिष्णु, ताप-सहिष्णु और पोषक तत्त्व-कुशल उच्च उपज देने वाली बीज किस्मों के विकास एवं त्वरित प्रसार को प्राथमिकता देनी चाहिये, जिससे पारंपरिक खाद्यान्नों पर निर्भरता कम होगी तथा विविधीकरण को बढ़ावा मिलेगा।
  • एकीकृत ई-पोस्ट-हार्वेस्ट लॉजिस्टिक्स और कोल्ड-चेन-एज़-ए-सर्विस (CCaaS): एक राष्ट्रीय डिजिटल प्लेटफॉर्म लागू किया जाना चाहिये जो फार्म-गेट इन्वेंट्री, निकटतम मॉड्यूलर कोल्ड स्टोरेज इकाइयों और अंतिम बाज़ार मांग बिंदुओं को सहजता से एकीकृत करे, जिससे वर्तमान खंडित आपूर्ति शृंखला एक संपूर्ण कोल्ड-चेन-एज़-ए-सर्विस (CCaaS) नेटवर्क में परिवर्तित हो जाए।
    • यह प्रणाली, जो इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) और ब्लॉकचेन तकनीक पर आधारित है, भंडारण हानियों को उल्लेखनीय रूप से घटाएगी, जस्ट-इन-टाइम मूल्य संवर्द्धन को सक्षम करेगी तथा दलवई समिति की किसानों की अनुशंसाओं, आय दोगुनी करने संबंधी सिफारिशों के अनुरूप लाभकारी स्पॉट एवं फॉरवर्ड बाज़ारों तक अभिगम्यता प्रदान करेगी।
  • FPO-टेक इंटरफेस के माध्यम से कृषि विस्तार का पुनर्निर्माण: सभी कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) और कृषि विश्वविद्यालयों को किसान उत्पादक संगठनों (FPO) के साथ संरचनात्मक रूप से एकीकृत करके, FPO को प्रौद्योगिकी प्रसार एवं ज्ञान हस्तांतरण के लिये प्राथमिक इंटरफेस में बदलकर, मृतप्राय विस्तार प्रणाली का कायाकल्प किया जाना चाहिये। 
    • इस पुनर्रचना में मृदा स्वास्थ्य, कीट प्रबंधन और बाज़ार की जानकारी पर व्यक्तिगत, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI)-संचालित परामर्श सेवाएँ प्रदान करने के लिये FPO स्तर पर कृषि-तकनीक उद्यमियों को तैनात करना शामिल होना चाहिये, जिससे तकनीक को तेज़ी से अपनाया जा सके।
  • मृदा कार्बन पृथक्करण और पुनर्योजी कृषि सब्सिडी: मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) के स्तर को सक्रिय रूप से बढ़ाने वाले किसानों के लिये प्रत्यक्ष, स्तरीकृत सब्सिडी शुरू करके पुनर्योजी कृषि एवं मृदा स्वास्थ्य सुधार को प्रोत्साहित करने के लिये उर्वरक सब्सिडी को केंद्रित किया जाना चाहिये।
    • यह उपाय कवर क्रॉपिंग, ज़ीरो-टिलेज और फसल चक्र जैसी प्रथाओं को प्रोत्साहित करके मृदा क्षरण का सीधा समाधान करता है, जिससे स्थायी गहनता को बढ़ावा मिलता है तथा मध्यम अवधि में रासायनिक आदानों पर निर्भरता कम होती है।
  • ऋण वृद्धि के लिये भविष्य के कृषि उत्पादन का प्रतिभूतिकरण: FPO को अपने सदस्यों की अनुमानित भविष्य की फसलों (ऐतिहासिक उत्पादन और अग्रिम अनुबंधों के आधार पर) को प्रतिभूतिकृत करने की अनुमति देकर एक नया वित्तीय साधन बनाया जाना चाहिये, ताकि पारंपरिक भूमि संपार्श्विक की आवश्यकता को दरकिनार करते हुए, अनुकूल संस्थागत दरों पर ऋण प्राप्त किया जा सके।
    • यह उपाय छोटे किसानों के लिये ऋण की बाधा को सीधे तौर पर दूर करता है, जिससे वे उच्च-मूल्य वाली कृषि आदान और तकनीक में निवेश कर पाते हैं और इस प्रकार उत्पादन क्षमता को पूंजी तक अभिगम्यता से मौलिक रूप से जोड़ पाते हैं।

निष्कर्ष:

भारत की कृषि एक परिवर्तनकारी चौराहे पर खड़ी है— जहाँ इसकी वास्तविक क्षमता को उजागर करने के लिये तकनीक, नवाचार और मानव पूंजी का समन्वय आवश्यक है। कौशल, बुनियादी अवसंरचना और ऋण में अंतर को समाप्त करने से किसानों, विशेषकर महिलाओं को समावेशी एवं सतत् विकास को गति देने के लिये सशक्त बनाया जा सकेगा। कृषि-मूल्य शृंखलाओं को सुदृढ़ करना, जलवायु-अनुकूल प्रथाओं को बढ़ावा देना और संसाधनों तक समान अभिगम्यता सुनिश्चित करना, SDG 1 (गरीबी उन्मूलन), SDG 2 (भूखमरी से मुक्ति), SDG 5 (लैंगिक समानता), SDG 8 (उत्कृष्ट श्रम और आर्थिक विकास) एवं SDG 12 (उत्तरदायित्वपूर्ण खपत और उत्पादन) के साथ सीधे तौर पर संरेखित हैं, जिससे एक समुत्थानशील और समृद्ध ग्रामीण भारत का मार्ग प्रशस्त होता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. उच्च कृषि रोज़गार लेकिन कम उत्पादकता का विरोधाभास संसाधनों की कमी नहीं, बल्कि संरचनात्मक और संस्थागत जड़ता को दर्शाता है। विवेचना कीजिये।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. जलवायु-अनुकूल कृषि (क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर) के लिये भारत की तैयारी के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:  (2021) 

  1. भारत में ‘जलवायु-स्मार्ट ग्राम (क्लाइमेट-स्मार्ट विलेज)’ दृष्टिकोण, अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान कार्यक्रम-जलवायु परिवर्तन, कृषि एवं खाद्य सुरक्षा (सी.सी.ए.एफ.एस.) द्वारा संचालित परियोजना का एक भाग है। 
  2. सी.सी.ए.एफ.एस. परियोजना, अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान हेतु परामर्शदात्री समूह (सी.जी.आई.ए.आर.) के अधीन संचालित किया जाता है, जिसका मुख्यालय फ्राँस में है। 
  3. भारत में स्थित अंतर्राष्ट्रीय अर्धशुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (आई.सी.आर.आई.एस.ए.टी.), सी.जी.आई.ए.आर. के अनुसंधान केंद्रों में से एक है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

(a) केवल 1 और 2             

(b)  केवल 2 और 3

(c) केवल 1 और 3  

(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


प्रश्न 2. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2014)

कार्यक्रम/परियोजना

मंत्रालय

1. सूखा-प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम

: कृषि मंत्रालय

2. मरुस्थल विकास कार्यक्रम

: पर्यावरण एवं वन मंत्रालय

3. वर्षापूरित क्षेत्रों हेतु राष्ट्रीय जलसम्भर विकास परियोजना

: ग्रामीण विकास मंत्रालय

 उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल 1 और 2

(b) केवल 3

(c) 1, 2 और 3

(d) कोई नहीं

उत्तर: (d)


प्रश्न 3. भारत में, निम्नलिखित में से किन्हें कृषि में सार्वजनिक निवेश माना जा सकता है। (2020)

  1. सभी फसलों के कृषि उत्पाद के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करना 
  2. प्राथमिक कृषि साख समितियों का कंप्यूटरीकरण  
  3. सामाजिक पूंजी विकास 
  4. कृषकों को नि:शुल्क बिजली की आपूर्ति 
  5. बैंकिंग प्रणाली द्वारा कृषि ऋण की माफी 
  6. सरकारों द्वारा शीतागार सुविधाओं को स्थापित करना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये-

(a) केवल 1, 2 और 5
(b) केवल 1, 3, 4 और 5
(c) केवल 2, 3 और 6
(d) 1, 2, 3, 4, 5 और 6

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न 1. भारतीय कृषि की प्रकृति की अनिश्चितताओं पर निर्भरता के मद्देनज़र, फसल बीमा की आवश्यकता की विवेचना कीजिये और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पी.एम.एफ.बी.वाई.) की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिये। (2016)

प्रश्न 2. भारत में स्वतंत्रता के बाद कृषि में आई विभिन्न प्रकारों की क्रांतियों को स्पष्ट कीजिये। इन क्रांतियों ने भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार सहायता प्रदान की है ? (2017)