पुराने तापीय विद्युत संयंत्र और आगे की राह | 10 Aug 2021

यह एडिटोरियल 09/08/2021 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Revisit the idea of ‘aging out’ India’s coal plants’’ लेख पर आधारित है। इसमें पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को बंद करने के विचार और भविष्य के लिये इसके निहितार्थों के संबंध में चर्चा की गई है।

वर्ष 2020-21 के केंद्रीय बजट संभाषण में केंद्रीय वित्त मंत्री ने कहा कि कार्बन उत्सर्जन में प्रमुखता से योगदान करने वाले पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को बंद करना भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions) की प्राप्ति में सहायता करेंगे ।  

चूँकि 25 वर्षों से अधिक पुराने ये संयंत्र देश की कुल स्थापित तापीय क्षमता के लगभग 20% की हिस्सेदारी रखते हैं और देश की बिजली आपूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन्हें बंद किये किये जाने के निर्णय पर विवेकपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है कि क्या वाकई उन लाभों को प्राप्त किया जा सकता है जिनका दावा किया जा रहा है।

संयंत्रों को बंद करने के लाभ

  • आर्थिक लाभ: यह तर्क दिया जा है कि अभी तक पूरी क्षमता से अप्रयुक्त नवीन (और संभवतः अधिक कुशल) कोयला-आधारित क्षमता की उपलब्धता का अर्थ यह है कि पुराने अक्षम संयंत्रों को बंद करने से दक्षता में सुधार होगा, कोयले के उपयोग में कमी आएगी और इसलिये लागत की बचत होगी।  
  • प्रदूषण नियंत्रण तंत्र के निर्माण में कठिनाई: माना जाता है कि पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और वन मंत्रालय द्वारा घोषित उत्सर्जन मानकों की पूर्ति हेतु पुराने बिजली संयंत्रों द्वारा आवश्यक प्रदूषण नियंत्रण तंत्र स्थापित करना अलाभकारी होगा और इसलिये उन्हें सेवानिवृत्त करना ही बेहतर विकल्प होगा।   
  • भूमि क्षरण में गिरावट: कोयला बिजली संयंत्रों (विशेषकर पुराने संयंत्र) से अनुपचारित वायु और जल प्रदूषक आस-पास के क्षेत्रों की जल प्रणाली और वनस्पतियों एवं जीवों को प्रभावित करते हैं, और परिवेश को जीवनयापन अथवा आजीविका गतिविधियों के लिये अनुपयुक्त बना देते हैं। 
  • पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को बंद करने और निर्माणाधीन बिजली संयंत्रों पर रोक लगाने से एक ऐसे समय 1.45 लाख करोड़ रुपये की बचत होगी जब कोविड-19 के कारण बिजली की माँग प्रभावित हुई है।   
    • यह बचत पुराने संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन की विषाक्तता को कम करने के लिये ‘रेट्रोफिटिंग’ की आवश्यकता की समाप्ति के कारण होगी।  
  • पुराने कोयला संयंत्रों से प्राप्त बिजली के स्थान पर सस्ते नवीकरणीय स्रोतों का उपयोग बिजली वितरण कंपनियों/डिस्कॉम के लिये आपूर्ति की लागत और राजस्व सृजन के बीच के अंतराल को कम करेगा।

संयंत्रों को बंद करने से संबद्ध जोखिम

  • अधिक बचत नहीं: विश्लेषण से पता चलता है कि 25 वर्ष से पुराने संयंत्रों को बंद करने से उत्पादन लागत में 5,000 करोड़ रुपये वार्षिक से कम की बचत होगी जो कुल बिजली उत्पादन लागत का केवल 2% है।  
    • ये बचतें उन तय लागतों (जैसे कि ऋण चुकौती) के भुगतान के लिये भी अपर्याप्त होंगी, जिनका भुगतान किसी भी स्थिति में करना ही होगा, भले ही पुराने संयंत्र समय-पूर्व सेवानिवृत्त कर दिए जाएँ।
    • इसी प्रकार, 25 वर्ष से पुराने संयंत्रों के बदले नवीन कोयला संयंत्रों के उपयोग से कोयले की खपत में होने वाली बचत महज 1-2% ही होगी।
  • कुछ पुराने संयंत्रों के पर्यावरणीय लाभ: कुछ पुराने संयंत्र, प्रदूषण नियंत्रण तंत्र स्थापित करने का व्यय उठाने के बाद भी आर्थिक रूप से व्यवहार्य बने रह सकते हैं, क्योंकि उनकी वर्तमान तय लागत (जिसमें प्रदूषण नियंत्रण तंत्र की स्थापना के साथ वृद्धि होगी) बहुत कम है।  
    • इसके अलावा, 25 वर्ष से अधिक पुराने संयंत्रों में से लगभग आधे ने प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों की स्थापना के लिये पहले ही निविदाएँ जारी कर रखी हैं।
  • बिजली क्षेत्र की आवश्यकता: भारत में बिजली की उपलब्धता की कमी है और कोयला संयंत्रों की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से संबद्ध सीमित बचत के लिये इससे संबद्ध जोखिम उठाना उपयुक्त नहीं है।  
    • इस क्षेत्र में बढ़ते सविराम नवीकरणीय उत्पादन के समर्थन के लिये ऐसे क्षमता निर्माण की आवश्यकता बढ़ती जा रही है जो लचीलापन, संतुलन और सहायक सेवाएँ प्रदान कर सके। 
    • न्यूनतम तय लागत वाली पुरानी तापीय क्षमता इस भूमिका के निर्वहन के लिये एक प्रमुख उम्मीदवार है जब तक कि अन्य प्रौद्योगिकियाँ (जैसे-भंडारण) उसे बड़े पैमाने पर प्रतिस्थापित नहीं कर देती।
    • इसके अलावा, पुराने संयंत्रों का क्षमता मूल्य तात्कालिक चरम भार (peak load) की पूर्ति के लिये और नवीकरणीय ऊर्जा अनुपलब्ध होने की स्थिति में लोड की पूर्ति के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • राजनीतिक आर्थिक जोखिम: विस्तृत विश्लेषण के बिना कोयला-आधारित संयंत्रों की आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के परिणामस्वरूप कुछ राज्यों में वास्तविक या आंशिक बिजली की कमी की स्थिति बन सकती है, जिससे राज्य के स्वामित्व वाली संस्थाओं द्वारा कोयला आधारित बेस-लोड क्षमता में निवेश की माँग की जा सकती है।  
    • लगभग 65 गीगावाट (GW) तापीय क्षमता का कार्य पहले से ही कार्यान्वित किया जा रहा है, जिसमें से लगभग 35 GW निर्माण के विभिन्न चरणों में है।
    • यह संभवतः देश की आवश्यकता से अतिरिक्त क्षमता ही है, और इसके साथ ही देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के उपायों से प्रेरित होकर संकटबद्ध आस्तियों (stranded assets) और अवरुद्ध संसाधनों (locked-in resources) की स्थिति उत्पन्न करेगी।
  • अंतिम निर्णय से पहले वृहत विश्लेषण और अनुसंधान की आवश्यकता: केवल संयंत्रों के पुराने हो जाने के आधार पर उन्हें बंद कर देने का निर्णय उपयुक्त नहीं है और यह अलाभकारी साबित हो सकता है।  
    • इसके बजाय, अलग-अलग संयंत्रों और इकाइयों की विभिन्न तकनीकी, आर्थिक और परिचालन विशेषताओं पर विचार करते हुए अधिक विकेंद्रित और सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता है। इसके साथ ही, इन संयंत्रों को सेवानिवृत्त करने के किसी भी निर्णय से पहले नवीकरणीय ऊर्जा की सविराम प्रवृत्ति, माँग में वृद्धि और उत्सर्जन मानदंडों को पूरा करने की आवश्यकता जैसे पहलुओं पर विचार करना भी उपयुक्त होगा। 
    • उदाहरण:
      • रिहंद, सिंगरौली (दोनों उत्तर प्रदेश में) और विंध्याचल (मध्य प्रदेश) जैसे संयंत्र 30 वर्ष से अधिक पुराने हैं, फिर भी 1.7 रुपये प्रति kWh का न्यून उत्पादन लागत रखते हैं जो राष्ट्रीय औसत से कम है।    
      • यह दक्षता के बजाय स्थानीय लाभ के कारण हो सकता है, क्योंकि प्रायः पुराने संयंत्रों को कोयला स्रोत के निकट स्थापित किया गया था जिससे कोयला परिवहन लागत कम हो जाती है। यद्यपि ये उदाहरण बस मुद्दे की जटिलता को उजागर करते हैं क्योंकि दक्षता अनिवार्य रूप से बचत का कारण नहीं भी हो सकती है।  

आगे की राह

  • पुराने और अकुशल बिजली संयंत्रों की रणनीतिक समाप्ति: विवेकपूर्ण यह होगा कि विस्तृत विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करते हुए और आगे कार्यान्वित होने वाली अनावश्यक क्षमता की समाप्ति करते हुए पुराने संयंत्रों को समय के साथ समाप्त होने का अवसर दिया जाए और उनमें से जो भी सक्षम और कार्यशील हैं, बनाए रखे जाएँ, ताकि दीर्घकालिक आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ प्राप्त किया जा सके। 
  • लागत प्रभावी सौर संयंत्र: कोयले से संचालित परियोजनाओं की औसत लागत 4 रुपये प्रति यूनिट है और आम तौर पर इसमें वृद्धि की प्रवृत्ति देखी जाती है, जबकि नए सौर ऊर्जा संयंत्रों की बोली 3 रुपये प्रति यूनिट से कम पर लगाई जा रही है।  
  • निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना: नई निजी प्रतिस्पर्द्धा नई पूँजी और अधिक नवाचार ला सकती है।  
    • नए कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को अभी भी सरकार द्वारा वित्तपोषित किया जा रहा है और इसलिये निजी क्षेत्र किसी भी कोयला-आधारित बिजली संयंत्र के निर्माण की ओर उन्मुख नहीं हैं; केवल सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली कंपनियाँ ही ऐसा कर रही हैं। इन सार्वजनिक क्षेत्र के ताप संयंत्रों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा और मुख्यतः करदाताओं के पैसे से वित्तपोषित किया जाता है।
  • उदय 2.0 योजना: सरकार द्वारा उदय 2.0 योजना की घोषणा एक सही दिशा में उठाया गया कदम है जो स्मार्ट प्रीपेड मीटर, डिस्कॉम द्वारा शीघ्र भुगतान, अल्पावधि के लिये कोयले की उपलब्धता और गैस आधारित संयंत्रों को पुनर्जीवित करने की इच्छा रखता है।  
  • लचीले अनुबंध: लंबी अवधि के आपूर्ति अनुबंधों को सार्वजनिक उपयोगिताओं के लिये लचीलेपन की आवश्यकता है ताकि वे माँग में कोविड के कारण गिरावट जैसी अप्रत्याशित परिस्थितियों के अनुकूल बन सकें। 

निष्कर्ष

वर्तमान में हमें  ऊर्जा क्षेत्र में रूपांतरण की आवश्यकता है जिसके माध्यम से हम स्थानीय और वैश्विक उत्सर्जन में कमी के सह-लाभों को साकार कर सकेंगे। हमें सभी के लिये ऊर्जा के अधिकार की पुष्टि भी करनी होगी, क्योंकि ऊर्जा की पहुंच में निर्धनता और असमानता बड़े कारक है। ऐसे में भारत को विविधिकृत ऊर्जा मिश्रण पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सौर और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में बहुत अधिक संभावनाएँ हैं, जबकि हाइड्रोजन भी भारतीय ऊर्जा संक्रमण के क्षेत्र में एक ‘गेम चेंजर’ साबित हो सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत के ऊर्जा संबंधित राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान की प्राप्ति के लिये पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को बंद करने के सरकार के कदमों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये।