दिव्यांगजनों का सशक्तीकरण और वास्तविक समावेशन | 01 May 2025

यह एडिटोरियल 21/04/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Enabling legislation: on Tamil Nadu Bills, persons with disabilities” पर आधारित है। इस लेख में दिव्यांगजनों के लिये स्थानीय निकायों में पदों को आरक्षित करने की दिशा में तमिलनाडु के अग्रणी कदम को रेखांकित किया गया है, जो प्रतीकात्मकता-से-वास्तविक समावेशन की ओर बदलाव को उजागर करता है।

प्रिलिम्स के लिये:

दिव्यांगजन, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023, दिव्यांगजन अधिकार (RPwD) अधिनियम, 2016, मानसिक स्वास्थ्य देखरेख अधिनियम, 2017, दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, सलामांका स्टेटमेंट, सुगम्य भारत अभियान  

मेन्स के लिये:

दिव्यांगजनों के सक्रिय विकास के लिये भारत में प्रमुख प्रावधान, भारत में दिव्यांगजनों से जुड़े प्रमुख मुद्दे।

तमिलनाडु का ऐतिहासिक कानून स्थानीय शासन निकायों में दिव्यांगजनों के लिये पदों की गारंटी देता है, जो दिव्यांग नागरिकों को हाशिये की स्थिति से उठाकर सामुदायिक नेतृत्व की भूमिका में लाकर समावेशी शासन में एक क्रांतिकारी कदम का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में यह अब तक की पहली नीति है जो गरिमा और भागीदारी के लिये ऐसे उदाहरण स्थापित कर रही है जो प्रतीकात्मक समावेशन से परे वास्तविकता है। व्यापक भारतीय संदर्भ में, इसने अन्य राज्यों के लिये भी अनुकरण करने की एक प्रगतिशील मिसाल कायम की है, जो समता, सशक्तीकरण और ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र के संवैधानिक दृष्टिकोण को दृढ़ करती है।

भारत में दिव्यांगजनों के सक्रिय विकास के लिये प्रमुख प्रावधान क्या हैं? 

प्रमुख संवैधानिक प्रावधान: 

  • अनुच्छेद 14 - समता का अधिकार: विधि के समक्ष समता का मौलिक अधिकार की गारंटी तथा दिव्यांगजनों सहित सभी के लिये भेदभाव से सुरक्षा, समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 15 - भेदभाव का निषेध: भेदभाव पर रोक लगाता है तथा राज्य को दिव्यांगजनों के कल्याण के लिये विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है।
  • अनुच्छेद 16 - रोज़गार में अवसर की समानता: सार्वजनिक रोज़गार (सरकारी नौकरियों) में समान अवसर प्रदान करता है और सरकारी क्षेत्रों में दिव्यांगजनों के लिये नौकरी में आरक्षण का प्रावधान करता है।
  • अनुच्छेद 41 - श्रम और शिक्षा का अधिकार: राज्य को दिव्यांगजनों के लिये रोज़गार, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता प्रदान करने का निर्देश देता है, जो कल्याणकारी योजनाओं का आधार बनता है।

अन्य प्रावधान:

  • दिव्यांगजन अधिकार (RPwD) अधिनियम, 2016: दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 भारत में दिव्यांगजनों के लिये कानूनी प्रावधानों की आधारशिला है। 
    • इसने दिव्यांगता की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें मानसिक रोग, ऑटिज़्म और सेरेब्रल पाल्सी जैसी 21 श्रेणियों को शामिल किया। 
    • इसमें सरकारी विभागों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों सहित सभी श्रेणियों में दिव्यांगजनों के लिये सरकारी नौकरियों में 4% आरक्षण का प्रावधान है।
      • इसके अतिरिक्त, सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में दिव्यांगजनों के लिये 5% आरक्षण प्रदान किया जाता है। 
  • सुगम्य भारत अभियान: वर्ष 2015 में प्रवर्तित सुगम्य भारत अभियान दिव्यांगजनों के लिये सुलभ बुनियादी अवसंरचना, डिजिटल स्थानों और सेवाओं के निर्माण पर केंद्रित है। 
    • इस अभियान का उद्देश्य सार्वभौमिक डिज़ाइन सिद्धांतों को लागू करके सार्वजनिक परिवहन, भवनों और सरकारी वेबसाइटों को अधिक सुलभ बनाना है। 
  • दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना (DDRS): DDRS सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत एक प्रमुख योजना है जो दिव्यांगता पुनर्वास के क्षेत्र में काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों (NGO) को अनुदान प्रदान करती है। 
    • यह योजना दिव्यांगजनों के पुनर्वास से संबंधित गतिविधियों जैसे कौशल विकास, व्यावसायिक प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रमों को समर्थन देती है।
  • राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999: इसका उद्देश्य ऑटिज़्म, सेरेब्रल पाल्सी, मेंटल रीटार्डेशन और मल्टीपल डिसेबिलिटीज़ के शिकार दिव्यांगजनों के कल्याण के लिये विशिष्ट सेवाएँ प्रदान करना है। 

भारत में दिव्यांगजनों से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • शिक्षा और कौशल विकास में बाधाएँ: राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 जैसी प्रगतिशील नीतियों के बावजूद, दिव्यांगजनों को सुलभ बुनियादी अवसंरचना की कमी, अपर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण और सामाजिक कलंक के कारण शैक्षिक अपवर्जन का सामना करना पड़ रहा है।
    • वर्ष 2019 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 5 से 19 वर्ष की आयु के दिव्यांग बच्चों में से 4 में से 1 या उससे अधिक ने कभी किसी शैक्षणिक संस्थान में भाग नहीं लिया है।
      • शिक्षा में यह अंतर उन्हें कुशल रोज़गार से वंचित रखता है तथा गरीबी और हाशिये पर रहने के चक्र को जारी रखता है।
  • पर्याप्त रोज़गार अवसरों का अभाव: दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 जैसे विधायी प्रावधानों के बावजूद, दिव्यांगजनों के लिये रोज़गार के अवसरों में अभी भी स्पष्ट अंतर है। 
    • भेदभावपूर्ण नियुक्ति प्रथाएँ, कार्यस्थल पर अपर्याप्त सुविधाएँ और सामाजिक कलंक श्रम बाज़ार में उनकी भागीदारी में बाधा डालते हैं। 
    • NSS के हालिया आँकड़ों के अनुसार, केवल 36% दिव्यांगजनों को रोज़गार मिला हुआ है, तथा नौकरी पाने के लिये पुरुषों (47%) के पास महिलाओं (23%) की तुलना में बेहतर अवसर हैं। 
  • अपर्याप्त पहुँच और बुनियादी अवसंरचना: परिवहन से लेकर सार्वजनिक भवनों तक सुलभ बुनियादी अवसंरचना की कमी दिव्यांगजनों की सामाजिक भागीदारी के लिये एक गंभीर बाधा बनी हुई है। 
    • यहाँ तक ​​कि वर्ष 2015 में प्रवर्तित सुगम्य भारत अभियान के बावजूद, बुनियादी अवसंरचना अभी भी काफी हद तक दुर्गम बना हुआ है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। 
    • दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, दिव्यांगजनों के लिये भारत में केवल 3% इमारतें ही पूरी तरह से सुलभ पाई गईं।
      • यहाँ तक ​​कि जहाँ वे न्याय की मांग करते हैं, वहाँ भी दिव्यांगजनों को अपवर्जन का सामना करना पड़ता है, क्योंकि न्यायालयों में प्रायः व्हीलचेयर, उचित रैम्प और सुलभ बुनियादी अवसंरचना का अभाव होता है (जैसा कि सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग ने उल्लेख किया है)।
  • स्वास्थ्य देखभाल और पुनर्वास सेवाएँ: दिव्यांगजनों के लिये पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं और पुनर्वास तक पहुँच एक अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। 
    • यद्यपि दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना जैसी योजनाओं का उद्देश्य सहायता प्रदान करना है, तथापि अनेक दिव्यांगजन (विशेषकर गंभीर दिव्यांगता वाले) अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल प्रावधानों का सामना करते हैं। 
    • हाल के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारत में जिन परिवारों में कोई दिव्यांग सदस्य है, उन्हें अपनी मासिक उपभोग व्यय का लगभग 5वाँ हिस्सा (20.32%) दिव्यांगता से जुड़ी आवश्यकताओं पर अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है।
  • सामाजिक कलंक और भेदभाव: दिव्यांगजनों के प्रति सामाजिक कलंक और नकारात्मक सामाजिक दृष्टिकोण सबसे व्यापक चुनौतियों में से हैं। 
    • ये दृष्टिकोण कार्यस्थलों, शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव के रूप में प्रकट होते हैं।
    • व्यापक सामाजिक मान्यता यह है कि दिव्यांगता, अक्षमता के बराबर है, जो बहिष्कारवादी प्रथाओं को बढ़ावा देती है। 
    • उदाहरण के लिये, दिव्यांग महिलाओं में उच्च बेरोज़गारी दर यह दर्शाती है कि किस प्रकार लैंगिक पूर्वाग्रह, दिव्यांगता के साथ मिलकर, उनके सामाजिक और आर्थिक अपवर्जन को और बदतर बना देते हैं। 
  • असमान सामाजिक सुरक्षा और कल्याण सहायता: राष्ट्रीय दिव्यांगता कल्याण कोष जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के अस्तित्व के बावजूद, अपर्याप्त कार्यान्वयन और जागरूकता की कमी के कारण दिव्यांगजन प्रायः इन कार्यक्रमों से पूरी तरह लाभान्वित नहीं हो पाते हैं। 
    • यद्यपि RPwD अधिनियम में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान है, फिर भी इसका अनुपालन असंगत बना हुआ है, विशेष रूप से निजी क्षेत्र में। 
    • NSS के 76वें चरण के सर्वेक्षण के अनुसार, सरकार से समर्थन/सहायता पाने वाले दिव्यांगजनों का प्रतिशत सिर्फ 21.8% था और 1.8% ने सरकार के अलावा अन्य संगठनों से समर्थन/सहायता प्राप्त की।
  • प्रौद्योगिकी और सहायक उपकरणों तक पहुँच में बाधाएँ: सस्ती और सुलभ सहायक प्रौद्योगिकियों का अभाव दिव्यांगजनों के लिये एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। 
    • यद्यपि तकनीकी नवाचार स्वतंत्रता को बढ़ा सकते हैं, फिर भी उनकी उपलब्धता दुर्लभ है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। 
    • नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, 10% से भी कम दिव्यांगजनों के पास आवश्यक सहायक उपकरणों तक पहुँच है। इसके अलावा, 2.68 करोड़ से अधिक दिव्यांगजनों वाले देश में, इस समूह के लिये दैनिक जीवन में प्रौद्योगिकी के एकीकरण की कमी शिक्षा, रोज़गार और यहाँ तक कि सामाजिक सेवाओं तक उनकी पहुँच को सीमित करती है, जिससे मुख्यधारा के समाज से उनके अपवर्जन की स्थिति और गंभीर हो जाती है।
  • राजनीतिक और नागरिक जीवन में सीमित भागीदारी: राजनीतिक समावेशन में हाल की प्रगति के बावजूद (जैसे: तमिलनाडु सरकार द्वारा स्थानीय निकायों में दिव्यांगजनों को नामांकित करने की पहल) निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में दिव्यांगजनों का प्रतिनिधित्व कम है। 
    • शासन व्यवस्था में पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी का अभाव इस सीमांत समूह की चिंताओं और आवाज़ को कमज़ोर करता है।
    • नागरिक और राजनीतिक क्षेत्रों में उनकी सीमित भागीदारी के परिणामस्वरूप ऐसी नीतियाँ बनती हैं जिनमें प्रायः उनकी आवश्यकताओं की अनदेखी की जाती है।

भारत दिव्यांगजनों के सक्रिय सशक्तीकरण और समावेशन के लिये क्या उपाय अपना सकता है? 

  • उन्नत सुगम्य अवसंरचना: भारत को दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (CRPD) (2006) के आधार पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सुगम्य अवसंरचना के निर्माण के लिये एक व्यापक एवं समान दृष्टिकोण अपनाना चाहिये।
    • इसमें सार्वजनिक परिवहन, स्कूलों, सरकारी भवनों और कार्यस्थलों के लिये सार्वभौमिक डिज़ाइन मानकों का कार्यान्वयन शामिल है।
    • सरकार को सभी सार्वजनिक स्थानों पर रैम्प, लिफ्ट, टैक्टाइल पाथवे और सुलभ शौचालयों का निर्माण अनिवार्य बनाना चाहिये। 
      • इसके अलावा, सुगम्यता कानूनों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिये नियमित रूप से सुगम्यता ऑडिट आयोजित किया जाना चाहिये।
  • समावेशी शिक्षा प्रणाली: यह सुनिश्चित करने के लिये कि दिव्यांग बच्चों को समान शिक्षा के अवसर मिलें, भारत को सलामांका स्टेटमेंट का पालन करते हुए प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी स्तरों पर समावेशी शिक्षा में निवेश करना चाहिये। 
    • इसमें न केवल स्कूलों में भौतिक सुगम्यता बल्कि पाठ्यचर्या अनुकूलन, शिक्षक प्रशिक्षण और सहायता सेवाएँ भी शामिल हैं। 
    • सहायक प्रौद्योगिकियों और विशिष्ट शिक्षण विधियों को एकीकृत करने के लिये स्कूलों को वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करने के लिये एक राष्ट्रीय नीति स्थापित की जानी चाहिये
  • दिव्यांगता समावेशन के लिये निजी क्षेत्र की सहभागिता: भारत को दिव्यांगजनों को नियुक्त करने के लिये निजी क्षेत्र के लिये सख्त अधिदेश स्थापित करने चाहिये, साथ ही दिव्यांगता-समावेशी नियुक्ति प्रथाओं को अपनाने वाली कंपनियों के लिये स्पष्ट प्रोत्साहन भी प्रदान करना चाहिये।
    • यह कर छूट, सब्सिडी और समावेशी कार्यस्थल बनाने के लिये मान्यता कार्यक्रमों के माध्यम से व्यवसायों को प्रोत्साहित करके हासिल किया जा सकता है।
    • इसके अतिरिक्त, सेवा के दौरान दिव्यांग हो चुके कर्मचारियों को नौकरी से नहीं निकाला जाना चाहिये तथा उन्हें वैकल्पिक रोज़गार की पेशकश की जानी चाहिये, जैसा कि PwD अधिनियम की धारा 47 में अनिवार्य है और भगवान दास बनाम पंजाब राज्य विद्युत बोर्ड (वर्ष 2003) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा गया है।
  • व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास: भारत को दिव्यांगजनों को विभिन्न उद्योगों, विशेषकर तेज़ी से बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्था में आवश्यक तकनीकी कौशल से प्रवीण करने के लिये अपने व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विस्तार करना चाहिये। 
    • इन कार्यक्रमों को विभिन्न प्रकार की दिव्यांगताओं की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिये तथा इसमें ऑनलाइन पाठ्यक्रम, प्रशिक्षुता कार्यक्रम और मार्गदर्शन के अवसर शामिल होने चाहिये। 
    • सार्वजनिक-निजी भागीदारी समावेशी व्यावसायिक कार्यक्रमों को डिज़ाइन करने में सहायक हो सकती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि वे सुलभ, प्रासंगिक हों तथा शहरी एवं ग्रामीण दोनों प्रकार के दिव्यांगजनों के लिये उपयुक्त हों। 
  • विधिक और नीतिगत कार्यढाँचे को सुदृढ़ करना: हालाँकि भारत ने दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम के संबंध में प्रगति की है, फिर भी अधिक सख्त प्रवर्तन तंत्र की तत्काल आवश्यकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नीतियों का ज़मीनी स्तर पर प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन हो। 
    • इसमें एक समर्पित दिव्यांगता आयोग का गठन करना शामिल है, जिसे दिव्यांगता कानूनों के कार्यान्वयन की निगरानी करने, जाँच करने और गैर-अनुपालन के लिये दंड लगाने का अधिकार होगा।
    • इसके अतिरिक्त, सरकारी एजेंसियों को नियमित रूप से दिव्यांगजनों से संबंधित डेटा को अद्यतन करना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि नीतियाँ वास्तविक-काल आधारित, व्यापक जानकारी पर आधारित हों।
  • दिव्यांग उद्यमियों के लिये समर्थन: आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिये, भारत को दिव्यांगों के लिये समर्पित उद्यमिता सहायता कार्यक्रम स्थापित करना चाहिये।
    • इन कार्यक्रमों में कम ब्याज दर पर ऋण, व्यवसाय विकास कार्यशालाएँ तथा सफल दिव्यांग उद्यमियों से मार्गदर्शन प्राप्त करना शामिल हो सकता है। 
    • इसके अलावा, दिव्यांग उद्यमियों द्वारा बनाए गए उत्पादों के विपणन के लिये सरकार समर्थित प्लेटफॉर्म बनाए जाने चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनके व्यवसायों को दृश्यता और मान्यता मिले। 
    • दिव्यांग उद्यमियों के लिये स्वयं सहायता समूहों (SHG) को प्रोत्साहित करने से समुदाय-संचालित व्यवसाय उद्यमों को बढ़ावा देने में भी मदद मिलेगी।
      • प्रीति श्रीनिवासन (पूर्व राज्य स्तरीय क्रिकेटर, अब दिव्यांगता अधिकार कार्यकर्त्ता और सोलफ्री की सह-संस्थापक) जैसे और अधिक रोल मॉडल को सुर्खियों में लाने की आवश्यकता है।
      • शार्क टैंक इंडिया का ‘दिव्यांग स्पेशल’ एपिसोड एक महत्त्वपूर्ण कदम था। 
  • सामाजिक जागरूकता और मनोवृत्ति परिवर्तन अभियान: सरकार को दिव्यांगता के प्रति जनता के दृष्टिकोण को बदलने के लिये एक राष्ट्रीय अभियान शुरू करना चाहिये, जिसमें दिव्यांगजनों की क्षमताओं को बढ़ावा देने और रूढ़िवादिता से लड़ने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। 
    • संवेदीकरण प्रशिक्षण को स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जाना चाहिये, जिसमें छोटी उम्र से ही समावेशन पर जोर दिया जाना चाहिये। 
    • सहानुभूति और समझ की संस्कृति को बढ़ावा देकर, भारत दिव्यांगजनों के साथ होने वाले भेदभाव और कलंक (जिसका सामना उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में करना पड़ता है) को समाप्त कर सकता है“तारे ज़मीन पर’ एवं ‘श्रीकांत’ जैसी फ़िल्मों को और बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • बेहतर स्वास्थ्य सेवा और पुनर्वास सेवाएँ: दिव्यांगजनों के जीवन की समग्र गुणवत्ता को बढ़ाने के लिये, भारत को अधिक व्यापक स्वास्थ्य सेवा और पुनर्वास बुनियादी अवसंरचना का निर्माण करना चाहिये, जिसमें विशेष चिकित्सा देखभाल, भौतिक चिकित्सा एवं मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच शामिल हो। 
    • सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि स्वास्थ्य देखभाल के प्राथमिक और तृतीयक दोनों स्तरों पर पुनर्वास सेवाएँ उपलब्ध हों, जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों के लिये मोबाइल पुनर्वास इकाइयाँ भी शामिल हों। 
    • इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों में दिव्यांगजनों को भी शामिल किया जाना चाहिये, जिसमें आवश्यक सहायक उपकरण और उपचार लागत को कवर किया जाना चाहिये, जिससे स्वास्थ्य सेवा तक बेहतर पहुँच हो सके तथा दिव्यांग सदस्य वाले परिवार के जेब से होने वाले खर्च में कमी आए।

निष्कर्ष: 

तमिलनाडु की पहल ज़मीनी स्तर पर दिव्यांगजनों को सशक्त बनाकर समावेशी लोकतंत्र की ओर एक आदर्श बदलाव को दर्शाती है। यह संवैधानिक समता, "Leave no one behind" अर्थात् कोई पीछे न रह जाए की भावना और दिव्यांगजनों की धारणा को विशेष रूप से सक्षम में बदलने की भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इस तरह के कदम सीधे तौर पर भागीदारी शासन और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देकर SDG10 (असमानताएँ कम करना ) एवं SDG16 (शांति एवं न्याय और सशक्त संस्थाएँ) को आगे बढ़ाते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. “प्रगतिशील कानून के बावजूद, भारत में दिव्यांगजनों को अधिकारों और अवसरों तक पहुँचने में प्रणालीगत बाधाओं का सामना करना पड़ता है”। चर्चा कीजिये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न 1. भारत में लाखों दिव्यांगजन निवास करते हैं। कानून के तहत उन्हें क्या लाभ उपलब्ध हैं? (2011)

  1. सरकारी स्कूलों में 18 वर्ष की आयु तक निशुल्क शिक्षा। 
  2. व्यवसाय स्थापित करने के लिये भूमि का अधिमान्य आवंटन। 
  3. सार्वजनिक भवनों में रैम्प। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3 
(c) केवल 1 और 3 
(d) 1, 2 और 3 

उत्तर: (d)