वैवाहिक/दांपत्य अधिकारों पर याचिका | 24 Jan 2022

प्रिलिम्स के लिये:

वैवाहिक/दांपत्य अधिकार, वैवाहिक बलात्कार, सर्वोच्च न्यायालय, विवाह से संबंधित अधिनियम/कानून।

मेन्स के लिये:

वैवाहिक अधिकार, वैवाहिक बलात्कार, विवाह से संबंधित अधिनियम/कानून, महिलाओं से संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हिंदू पर्सनल लॉ (हिंदू विवाह अधिनियम 1955) के तहत वैवाहिक/दांपत्य अधिकारों की बहाली की अनुमति देने वाले प्रावधान को चुनौती देने वाली एक याचिका महीनों से सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है।

  • ओजस्वा पाठक बनाम भारत संघ शीर्षक वाली यह याचिका फरवरी 2019 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई थी। इस मामले की आखिरी सुनवाई जुलाई 2021 में हुई थी।

प्रमुख बिंदु

  • वैवाहिक/दांपत्य अधिकार:
    • वैवाहिक अधिकार विवाह द्वारा स्थापित अधिकार हैं, उदाहरण के लिये पति या पत्नी का एक-दूसरे के समाज पर अधिकार।
    • विवाह, तलाक आदि से संबंधित हिंदू पर्सनल लॉ तथा आपराधिक कानून दोनों में ही इन अधिकारों को मान्यता दी गई है, जिसके तहत पति या पत्नी को भरण-पोषण और गुज़ारा भत्ता के भुगतान की आवश्यकता होती है।
      • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 22 पति या पत्नी को स्थानीय ज़िला न्यायालय के समक्ष यह शिकायत करने हेतु सशक्त बनाती हैं कि दूसरा साथी बिना किसी ‘उचित कारण’ के विवाह से अलग हो गया।
    • वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अवधारणा को अब हिंदू पर्सनल लॉ में संहिताबद्ध किया गया है, लेकिन इसकी उत्पत्ति औपनिवेशिक काल में हुई थी। 
    • यहूदी कानून से उत्पन्न, वैवाहिक अधिकारों की बहाली का प्रावधान ब्रिटिश शासन के माध्यम से भारत तथा अन्य समान कानून वाले देशों तक पहुँचा। 
    • ब्रिटिश कानून पत्नियों को पति की निजी संपत्ति/अधिकार मानता था, इसलिये उन्हें अपने पति को छोड़ने की अनुमति नहीं थी।
    • मुस्लिम पर्सनल लॉ के साथ-साथ तलाक अधिनियम, 1869 (जो ईसाई समुदाय के कानून को नियंत्रित करता है) में भी इसी तरह के प्रावधान किये गए हैं।
    • वर्ष 1970 में ब्रिटेन ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के कानून को समाप्त कर दिया था।
  • प्रावधान जिसे चुनौती दी गई है:
    • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9:
      • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है। इसके अनुसार,
        • जब पति और पत्नी दोनों में से कोई एक पक्ष किसी उचित कारण के बिना ही दूसरे के समाज से अलग हो जाता है तब पीड़ित पक्ष ज़िला अदालत में याचिका द्वारा आवेदन कर सकता है। 
        • यदि अदालत याचिका में दिये गए बयानों की सच्चाई से संतुष्ट है और आश्वस्त है कि कोई ऐसा कानूनी आधार नहीं है कि इस तरह के आवेदन को क्यों खारिज किया जाना चाहिये तो वह वैवाहिक अधिकारों की बहाली का आदेश दे सकती है।
  • कानून को चुनौती देने का कारण:
    • अधिकारों का उल्लंघन:
      • कानून को अब इस मुख्य आधार पर चुनौती दी जा रही है कि यह निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
      • वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी थी।
        • निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत जीवन के अधिकार तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत संविधान के भाग III द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रता के रूप में संरक्षित है।
      • वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय ने समलैंगिकता के अपराधीकरण, वैवाहिक बलात्कार, वैवाहिक अधिकारों की बहाली, बलात्कार की जांँच में टू-फिंगर टेस्ट जैसे कई कानूनों की संभावित चुनौतियों के लिये एक आधार निर्मित किया है।
      • याचिका में तर्क दिया गया कि न्यायालय द्वारा दांपत्य अधिकारों की अनिवार्य बहाली राज्य की ओर से एक "जबरन लागू किया गया अधिनियम" (Coercive Act) है, जो किसी की यौन और निर्णयात्मक स्वायत्तता तथा निजता एवं गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है।
    • महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण:
      • यद्यपि यह कानून लैंगिक रुप से तटस्थ है क्योंकि यह पत्नी और पति दोनों को वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अनुमति देता है लेकिन इसके प्रावधान महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करते हैं।
      • प्रावधान के तहत महिलाओं को अक्सर अपने पति के घर वापस आना पड़ता है और यह मानते हुए कि वैवाहिक बलात्कार एक अपराध नहीं है, इच्छा न होने के बावजूद उन्हें पति के साथ रहना होता है।
      • यह भी तर्क दिया गया है कि क्या विवाह को सुरक्षित करने में राज्य की इतनी अधिक रुचि हो सकती है कि राज्य कानून द्वारा पति-पत्नी को एक साथ रहने के लिये बाध्य कर सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के अनुरूप नहीं:
      • वर्ष 2019 के जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (Joseph Shine v Union of India) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया निर्णय में विवाहित महिलाओं की निजता के अधिकार और दैहिक स्वायत्तता पर ज़ोर दिया है जिसमें न्यायालय ने कहा है कि विवाह महिलाओं की यौन स्वतंत्रता और उनकी पसंद के अधिकार को समाप्त नहीं कर सकता है।
      • यदि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक स्वायत्तता, पसंद और निजता का अधिकार है तो न्यायालय दो वयस्कों को एक साथ रहने के लिये कैसे बाध्य कर सकता है यदि उनमें से एक ऐसा नहीं करना चाहता है।
    • प्रावधान का दुरुपयोग:
      • एक अन्य विचारणीय और प्रासंगिक मामला यह है कि तलाक की कार्यवाही तथा गुज़ारा भत्ता भुगतान के खिलाफ ढाल के रूप में इस प्रावधान का दुरुपयोग किया जा सकता है।
      • अक्सर पीड़ित पति या पत्नी अपने निवास स्थान से तलाक के लिये अर्जी देते हैं और मुआवज़े हेतु मांग करते हैं।
  • पूर्व के निर्णय:
    • 1960 के दशक में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने तीरथ कौर मामले में वैवाहिक अधिकारों की बहाली को बरकरार रखा, यह देखते हुए कि "एक पत्नी का अपने पति के प्रति पहला कर्तव्य है कि वह आज्ञाकारितापूर्वक स्वयं को उसके अधिकारों के प्रति प्रस्तुत करे और उसकी शरण एवं आश्रय के अधीन बनी रहे।” 
    • 1980 के दशक के दौरान कई फैसलों में न्यायालयों ने कानून का समर्थन किया है, जिसमें कहा गया है कि पत्नी द्वारा पति को स्थायी रूप से वापस आने से इनकार करके उसे वैवाहिक और यौन जीवन से वंचित करना मानसिक व शारीरिक दोनों तरह की क्रूरता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1984 में सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (Saroj Rani v Sudarshan Kumar Chadha) मामले में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 को बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि यह प्रावधान विवाह को टूटने से रोककर एक सामाजिक उद्देश्य को पूरा करता है।
    • वर्ष 1983 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने इस प्रावधान को पहली बार टी. सरिता बनाम टी. वेंकटसुब्बैया (T. Sareetha vs T. Venkatasubbaiah) मामले में शून्य घोषित कर दिया था।
      • इसने अन्य कारणों के साथ निजता के अधिकार का हवाला दिया। अदालत ने यह भी माना कि "पत्नी या पति से इतने घनिष्ठ रूप से संबंधित मामले में पक्षकारों को राज्य के हस्तक्षेप के बिना अकेला छोड़ दिया जाता है"।
      • न्यायालय ने महत्त्वपूर्ण रूप से यह भी माना था कि "यौनिक संबंधों" के लिये मज़बूर किये जाने से महिलाओं पर गंभीर परिणाम होंगे।
    • पत्नी (धर्मपत्नी, अर्धांगिनी, भार्या या अनुगमिनी) की इस रूढ़िवादी अवधारणा और खुद को पति की इच्छा के अधीन करने की उम्मीदों में महिलाओं में शिक्षा एवं उच्च साक्षरता के साथ, संविधान में महिलाओं के समान अधिकारों की मान्यता के साथ व जीवन के सभी क्षेत्रों में लिंग भेद के उन्मूलन में एक क्रांतिकारी बदलाव आया है।
    • वह पति के साथ समान स्थिति और समान अधिकारों के साथ विवाह में भागीदार है तथा विवाह एक अत्याचार नहीं हो सकता।
    • हालाँकि उसी वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने इस कानून के बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण अपनाया और हरविंदर कौर बनाम हरमंदर सिंह चौधरी (Harvinder Kaur vs Harmander Singh Chaudhary) के मामले में इस प्रावधान को बरकरार रखा।
    • विभा श्रीवास्तव मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा:

आगे की राह

  • वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण पर बहस इस बात पर फिर से विचार करने के लिये मजबूर करती है कि कैसे वैवाहिक अधिकारों की बहाली के प्रावधान लिंग-तटस्थ होने के बावजूद महिलाओं पर एक अतिरिक्त दवाब उत्पन्न करते हैं और उनकी शारीरिक स्वायत्तता, गोपनीयता एवं व्यक्तिगत गरिमा के लिये प्रत्यक्ष खतरा पैदा करते हैं।
  • हम लैंगिक समानता और कानून की लिंग तटस्थ गुणवत्ता के विषय में तो बात करते हैं, लेकिन भारतीय समाज में महिलाएँ अभी भी प्रतिकूल परिस्थिति में हैं जिसे ऐसे प्रावधान बढ़ावा देते हैं।
  • दहेज हत्याएँ समाज पर कलंक हैं, जिसके लिये महिलाओं को भावनात्मक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता रहा है।
  • यह समय भारतीय न्यायपालिका और समाज द्वारा विवाह के प्रगतिशील सिद्धांत के साथ ही अधिक प्रगतिशील विचारों को अपनाने का है। विवाह, समारोहों के आधार पर नहीं बल्कि दो व्यक्तियों की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता पर निर्मित होता है, जिसे नए दंपत्ति एक-दूसरे के साथ साझा करने के लिये सहमत होते हैं।

स्रोत- द हिंदू