डिजिटल युग में PC&PNDT अधिनियम | 17 Dec 2025
प्रिलिम्स के लिये: गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994, लिंगानुपात, 2011 जनगणना, नमूना पंजीकरण प्रणाली (SRS) 2023, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-2021), संयुक्त राष्ट्र पॉपुलेशन फंड।
मेन्स के लिये: गर्भाधान-पूर्व एवं प्रसवपूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (PC&PNDT अधिनियम) से संबंधित प्रमुख तथ्य, पुत्र की अभिमत प्राथमिकता एवं उसके कारण, PC&PNDT अधिनियम, 1994 के शिथिल कार्यान्वयन के कारण एवं समतापूर्ण लिंगानुपात हेतु इस अधिनियम को मज़बूत करने के उपाय।
चर्चा में क्यों?
भारत में लिंग-चयनात्मक गर्भपात के विरुद्ध संघर्ष अब ऑनलाइन मंच पर स्थानांतरित हो गया है, जहाँ प्रभावशाली व्यक्ति और स्वघोषित चिकित्सक गर्भाधान-पूर्व एवं प्रसवपूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (PC&PNDT अधिनियम) का उल्लंघन करते हुए असैद्धांतिक लिंग-पूर्वानुमान मिथकों को विशाल श्रोताओं तक प्रचारित कर रहे हैं।
- पुत्र के प्रति आंतरिक पक्षपात ने लैंगिक पूर्वाग्रह, डिजिटल विनियमन और प्रजनन अधिकारों पर पुनः ध्यान केंद्रित कर दिया है।
सारांश
- भारत का विषम लिंगानुपात गहराई तक जड़ें जमाए पुत्र पक्षपात से उत्पन्न होता है, जो विधिक प्रतिबंध के बावजूद सांस्कृतिक एवं आर्थिक मानदंडों द्वारा सुदृढ़ होता रहता है।
- PC&PNDT अधिनियम, 1994 का प्रवर्तन संस्थागत कमियों, कम दोषसिद्धि और अवैध प्रचार के डिजिटल मंचों पर स्थानांतरण के कारण कमज़ोर हो गया है।
- प्रभावी परिवर्तन हेतु एक समग्र रणनीति आवश्यक है, अर्थात प्रौद्योगिकी-सक्षम निगरानी, शीघ्र न्याय, ऑनलाइन विनियमन और बालिका को महत्त्व देने हेतु सामाजिक अभियान।
गर्भाधान-पूर्व एवं प्रसवपूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (PC&PNDT अधिनियम) क्या है?
- परिचय: इस अधिनियम को वर्ष 1994 में कन्या भ्रूण हत्या की समस्या तथा लिंग चयन हेतु नैदानिक प्रौद्योगिकियों के दुरुपयोग से उत्पन्न हुए बाल लिंगानुपात में गिरावट के समाधान के लिये अधिनियमित किया गया था। (वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार भारत का लिंगानुपात - प्रति 1,000 पुरुषों पर 929 महिलाएँ)।
- इस अधिनियम में वर्ष 2003 में महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गए, ताकि इसके प्रावधानों को मज़बूत किया जा सके, गर्भाधान-पूर्व तकनीकों को स्पष्ट रूप से शामिल किया जा सके और लिंग चयन पर अधिक व्यापक रूप से प्रतिबंध लगाया जा सके।
- प्रमुख प्रावधान:
- लिंग चयन पर प्रतिबंध: भ्रूण के लिंग का निर्धारण या चयन करने के उद्देश्य से अल्ट्रासाउंड जैसी किसी भी प्रक्रिया, तकनीक या परीक्षण पर प्रतिबंध (धारा 3A)।

- अनुमत उपयोग:
- सुविधाओं का विनियमन: आनुवंशिक परामर्श केंद्र, प्रयोगशालाएँ और क्लीनिक इस अधिनियम के तहत पंजीकृत होने अनिवार्य हैं। गैर-पंजीकृत सुविधाओं को ऐसी प्रक्रियाएँ संचालित करने से प्रतिबंधित किया गया है (धारा 18)।
- विज्ञापन पर प्रतिबंध: गर्भाधान-पूर्व या प्रसवपूर्व लिंग निर्धारण से संबंधित विज्ञापनों पर प्रतिबंध (धारा 22)।
- पर्यवेक्षी निकाय: कार्यान्वयन एवं निगरानी हेतु केंद्रीय पर्यवेक्षण बोर्ड, राज्य पर्यवेक्षण बोर्ड तथा उपयुक्त प्राधिकारियों की स्थापना।
- वर्ष 2003 का संशोधन: गर्भाधान-पूर्व लिंग चयन तकनीकों को भी इसके दायरे में लाया गया।
- अल्ट्रासाउंड और इमेजिंग प्रौद्योगिकियों को स्पष्ट रूप से विनियामक परिधि में शामिल किया गया।
- पर्यवेक्षण बोर्डों और प्राधिकारियों को खोज एवं ज़ब्ती सहित अधिक प्रवर्तन शक्तियाँ प्रदान की गईं।
- अपराध एवं दंड: इस अधिनियम के तहत प्रत्येक अपराध संज्ञेय, अज़मानतीय और समझौता-रहित होगा।
- दंड में 3-5 वर्ष तक का कारावास और अपराध एवं पुनरावृत्ति के आधार पर 10,000 रुपए से 1,00,000 रुपए या अधिक तक के जुर्माने शामिल हैं।
सन मेटा-प्रिफरेंस और विकृत लिंगानुपात
- सन मेटा-प्रिफरेंस/पुत्र प्राथमिकता की मानसिकता (Son Meta Preference): यह पुत्र प्राथमिकता का एक सूक्ष्म रूप है, जिसमें माता-पिता तब तक संतान पैदा करते रहते हैं जब तक उन्हें पुत्रों की वांछित संख्या (आमतौर पर कम से कम एक पुत्र) प्राप्त न हो जाए।
- यह व्यवहार प्रजनन-समापन नियमों का पालन करता है, जिसमें पुत्र के जन्म के बाद परिवारों द्वारा आगे संतान पैदा करना रोक देने की प्रवृत्ति अधिक होती है। इसके परिणामस्वरूप अंतिम संतान के लिंगानुपात में असंतुलन उत्पन्न होता है, जहाँ अंतिम जन्म में पुरुषों का अनुपात अधिक होता है।
- इसके चलते 21 मिलियन ‘“अवांछित’ लड़कियाँ पैदा हुईं, जिन्हें संसाधनों और देखभाल की उपेक्षा का सामना करना पड़ सकता है।
- लापता महिलाओं का पैमाना: अमर्त्य सेन की कार्यप्रणाली का उपयोग करते हुए, भारत में लापता महिलाओं की अनुमानित संख्या वर्ष 2014 तक लगभग 63 मिलियन तक पहुँच गई थी, जिसमें प्रतिवर्ष 2 मिलियन से अधिक महिलाएँ लैंगिक-चयनात्मक गर्भपात, बीमारियों और उपेक्षा के कारण ‘लापता’ हो रही थीं।
- लापता महिलाएँ (Missing Females) उस कमी को दर्शाती हैं, जिसमें किसी आबादी में महिलाओं और लड़कियों की संख्या अपेक्षित स्तर से कम होती है। यह कमी लैंगिक-चयनात्मक प्रथाओं, कन्या भ्रूणहत्या, शिशुहत्या या उपेक्षा के कारण उत्पन्न होती है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं की संख्या अपेक्षा से कम रह जाती है। इस शब्द को अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने वर्ष 1990 में लोकप्रिय बनाया था।
- विकास के बावजूद असंतुलित लिंग अनुपात: भारत में जन्म पर लिंग अनुपात (Sex Ratio at Birth - SRB) वर्ष 1970 से 2014 के बीच 1,060 से बढ़कर 1,108 पुरुष प्रति 1,000 महिलाएँ हो गया, जो वैश्विक प्रवृत्तियों के विपरीत है, जहाँ उच्च आय आमतौर पर अनुपात को बेहतर बनाती है। यह लैंगिक-चयनित गर्भपात के माध्यम से मानव हस्तक्षेप की मज़बूत मौजूदगी को दर्शाता है।
पुत्र प्राथमिकता के मुख्य कारण
- आर्थिक कारण: संतान के रूप में पुत्रों को विशेष रूप से उस जगह आर्थिक प्रदाता और वृद्धावस्था में देखभाल करने वाला माना जाता है, जहाँ सामाजिक सुरक्षा कमज़ोर हो।
- पितृसत्तात्मक व्यवस्था में, पुत्र संपत्ति विरासत में प्राप्त करते हैं और परिवार की संपत्ति बढ़ाते हैं, जबकि कन्याओं को आर्थिक बोझ माना जाता है, विशेषकर दहेज प्रथाओं के कारण, भले ही यह कानूनी रूप से निषिद्ध हो।
- सांस्कृतिक और सामाजिक कारण: पितृस्थानिकता (Patrilocality) के अनुसार, कन्याएँ विवाह के बाद पति के घर चली जाती हैं, जिससे यह धारणा विकसित होती है कि ‘कन्या को पालना ऐसा है जैसे पड़ोसी के बगीचे में पानी देना’।
- पुत्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार की वंशावली, नाम और सामाजिक स्थिति को जारी रखें।
- धार्मिक कारण: कुछ परंपराओं, विशेष रूप से हिंदू समाज में, पुत्र महत्त्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान जैसे अंतिम संस्कार और पूर्वजों की पूजा करते हैं, जिन्हें आध्यात्मिक पुण्य तथा माता-पिता के मोक्ष के लिये आवश्यक माना जाता है।
भारत में लिंग अनुपात
- भारत की वर्ष 2011 जनगणना के अनुसार, कुल लिंग अनुपात 943 महिलाएँ प्रति 1,000 पुरुष था, जो वर्ष 2001 में 933 था।
- सरकारी नमूने पंजीकरण प्रणाली (SRS) 2023 के आँकड़ों के अनुसार, भारत में जन्म पर लिंग अनुपात (महिलाएँ प्रति 1,000 पुरुष) वर्ष 2019 में 904 से बढ़कर वर्ष 2023 में 917 हो गया।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-2021) के अनुसार, भारत में 1,020 महिलाएँ प्रति 1,000 पुरुष हैं।
- वर्ष 2020 में, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) ने बताया कि विश्व की 142.6 मिलियन ‘लापता महिलाओं’ में से 45.8 मिलियन भारत की थीं।
PC&PNDT अधिनियम, 1994 के कमज़ोर क्रियान्वयन के कारण क्या हैं?
- सहमति और शिकायत न होने की स्थिति: लिंग चयन इसलिये जारी रहता है क्योंकि परिवारों की मांग और सेवा प्रदाताओं की आपूर्ति दोनों ही इसमें समान रूप से शामिल हैं। इसके परिणामस्वरूप ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग दुर्लभ होती है और सक्रिय खुफिया तंत्र एवं मज़बूत प्रवर्तन प्रणाली के अभाव में कानून का प्रभावी क्रियान्वयन कठिन हो जाता है।
- अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा: ज़िला/राज्य उपयुक्त प्राधिकरणों के पास कर्मचारी की कमी, सीमित बजट और अपर्याप्त प्रशिक्षण है, जिससे निरीक्षण, फॉलो-अप तथा मामलों का सृजन कम हो जाता है।
- कम दोषसिद्धि दर: दोषसिद्धि दर बेहद कम बनी हुई है (उदाहरण के लिये, एक संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 25 वर्षों में केवल 617 दोषसिद्धियाँ) और कई राज्यों में मामले दर्ज ही नहीं किये जाते या बहुत कम दर्ज होते हैं।
- डिजिटल और ऑनलाइन चुनौतियाँ: यह अधिनियम पहले से ही बनाया गया था और आधुनिक चुनौतियों से निपटने के लिये अपर्याप्त है, विशेष रूप से सोशल मीडिया के माध्यम से पुत्र प्राथमिकता को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देना, जहाँ इन्फ्लुएंसर्स, आत्म-घोषित विशेषज्ञ और धार्मिक व्यक्तित्व बड़े ऑनलाइन दर्शकों तक अवैज्ञानिक दावे, अनुष्ठान तथा कथाएँ प्रसारित करते हैं।
- गहरी स्थापित सामाजिक अपेक्षाएँ: पितृसत्तात्मक मान्यताओं, सांस्कृतिक अपेक्षाओं और आर्थिक कारणों से प्रेरित पुत्र प्राथमिकता लिंग चयन की मांग को बनाए रखती है तथा कानून से बचने के अवैध तरीकों को प्रोत्साहित करती है।
- पेशेवर कदाचार: लिंग निर्धारण आज भी एक अत्यधिक लाभदायक अवैध कारोबार बना हुआ है, जिसमें चिकित्सक कोडित भाषा, असामान्य समय पर किये जाने वाले स्कैन और पोर्टेबल मशीनों के माध्यम से निगरानी तथा पहचान से बचने की कोशिश करते हैं।
PC&PNDT अधिनियम, 1994 के कार्यान्वयन को किस प्रकार मज़बूत किया जा सकता है?
- संस्थागत ढाँचे को मज़बूत करना: समय पर पंजीकरण, निरीक्षण और अपील सुनिश्चित करने के लिये राज्य और ज़िला स्तर पर समर्पित उपयुक्त प्राधिकारियों (जैसे, सिविल सर्जन, चिकित्सा अधीक्षक) और अपीलीय प्राधिकारियों की नियुक्ति कीजिये, जिनकी भूमिका स्पष्ट हो।
- प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: वास्तविक समय में निगरानी के लिये फॉर्म F (पूर्व-परीक्षा घोषणाएँ) को ऑनलाइन जमा करना अनिवार्य करना तथा अवैध गतिविधियों की रिपोर्ट करने के लिये हेल्पलाइन और समर्पित वेबसाइटों के माध्यम से गुमनाम शिकायत निवारण प्रदान करना।
- ऑनलाइन पारिस्थितिकी तंत्र को संबोधित करना: प्रौद्योगिकी प्लेटफार्मों (जैसे गूगल, मेटा, अमेज़ॅन आदि) को लिंग-चयन से संबंधित सामग्री को सक्रिय रूप से हटाने के लिये कानूनी रूप से उत्तरदायी बनाना तथा विश्वसनीय स्वास्थ्य प्रभावकों को प्रोत्साहित करना ताकि वे भ्रांतियों का खंडन कर सकें और ऑनलाइन माध्यमों पर बालिकाओं के महत्त्व को बढ़ावा दे सकें।
- कानूनी और प्रक्रियात्मक सुधार: PC&PNDT मामलों के त्वरित निपटारे और प्रभावी प्रतिरोध के लिये फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की जाए तथा अधिनियम में ‘विज्ञापन’ की परिभाषा का विस्तार कर सभी प्रकार के अप्रत्यक्ष प्रचार और ऑनलाइन लिंग-पूर्वानुमान सेवाओं को शामिल किया जाए।
- जागरूकता और व्यवहार में बदलाव: आधिकारिक समीक्षाओं में यह रेखांकित किया गया है कि गहराई से विद्यमान पुत्र-प्राथमिकता को संबोधित किये बिना केवल प्रवर्तन के माध्यम से लिंग चयन को रोका नहीं जा सकता।
- इसलिये निरंतर जन-जागरूकता, सामुदायिक सहभागिता और अप्रत्यक्ष प्रचार—विशेषकर विज्ञापनों तथा डिजिटल/सोशल मीडिया के माध्यम से, के प्रभावी विनियमन की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है, जहाँ प्रवर्तन रणनीतियों को तत्काल अद्यतन करना आवश्यक है।
निष्कर्ष:
PC&PNDT अधिनियम के सामने सबसे बड़ी चुनौती समाज में गहराई से विद्यमान पुत्र-प्राथमिकता है, जिसे डिजिटल माध्यमों ने और अधिक तीव्र कर दिया है। इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिये कानून को डिजिटल युग के अनुरूप अद्यतन करना, त्वरित और प्रभावी दंडात्मक कार्रवाई सुनिश्चित करना तथा कन्या शिशु के महत्त्व को स्थापित करने के लिये सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना आवश्यक है, ताकि क्लिनिक-आधारित निगरानी से आगे बढ़कर समग्र पारिस्थितिकी दृष्टिकोण अपनाया जा सके।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: भारत में लिंग-चयनात्मक तकनीकों की मांग को बनाए रखने वाले सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों पर चर्चा कीजिये। इन निर्धारकों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये एक बहु-आयामी रणनीति किस प्रकार अपनाई जा सकती है? |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. PC&PNDT अधिनियम, 1994 क्या है?
यह एक ऐसा कानून है, जिसे लिंग चयन पर रोक लगाने और गर्भधारण-पूर्व एवं प्रसव-पूर्व निदान तकनीकों को विनियमित करने के लिये बनाया गया है, ताकि भारत में कन्या भ्रूण हत्या को रोका जा सके।
2. जनसांख्यिकीय अध्ययनों में “लापता महिलाएँ” (Missing Females) शब्द का क्या अर्थ है?
यह जनसंख्या में महिलाओं और लड़कियों की संख्या में होने वाली बड़ी कमी को दर्शाता है, जो मुख्यतः लिंग-पक्षपाती प्रथाओं जैसे लिंग-चयनात्मक गर्भपात और जन्मोत्तर भेदभाव के कारण होती है, जैसा कि अमर्त्य सेन ने रेखांकित किया है।
3. हालिया आँकड़ों के अनुसार भारत के लिंगानुपात में क्या प्रमुख प्रवृत्तियाँ देखी गई हैं?
नमूना पंजीकरण प्रणाली (SRS) 2023 के अनुसार, भारत में जन्म के समय लिंगानुपात वर्ष 2019 के 904 से बढ़कर 917 हो गया है। वहीं, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019–21) में कुल लिंगानुपात 1,000 पुरुषों पर 1,020 महिलाओं का दर्ज किया गया है, जो अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति को दर्शाता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:
प्रश्न. जनांकिकीय लाभांश के पूर्ण लाभ को प्राप्त करने के लिये भारत को क्या करना चाहिये? (2023)
(a) कुशलता विकास का प्रोत्साहन
(b) और अधिक सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का प्रारम्भ
(c) शिशु मृत्यु दर में कमी
(d) उच्च शिक्षा का निजीकरण
उत्तर: (a)
मेन्स
प्रश्न. आप उन आँकड़ों को किस प्रकार स्पष्ट करते हैं, जो दर्शाते हैं कि भारत में जनजातीय लिंगानुपात, अनुसूचित जातियों के बीच लिंगानुपात के मुकाबले, महिलाओं के अधिक अनुकूल हैं। (2015)
