भारत में विधायी उत्पादकता | 11 Jul 2025

प्रिलिम्स के लिये:

लोकसभा अध्यक्ष का कार्यालय, लोकसभासंसद की उत्पादकता, स्थगन, संसदीय समितियाँ, राज्यसभा

मेन्स के लिये:

संसद के कामकाज से संबंधित मुद्दे और संसद की उत्पादकता में सुधार के उपाय

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों?

लोकसभा अध्यक्ष ने शहरी स्थानीय निकायों (ULB) के अध्यक्षों के राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए विधायी उत्पादकता में वृद्धि तथा विमर्श की गुणवत्ता को सुधारने की आवश्यकता पर बल दिया।

भारत में विधायी उत्पादकता की स्थिति क्या है?

  • विधायी उत्पादकता से तात्पर्य उस दक्षता और प्रभावशीलता से है जिसके साथ संसद और राज्य विधानमंडल जैसे विधायी निकाय अपने मुख्य कार्यों जैसे- कानून निर्माण, कार्यकारी निरीक्षण, बजट अनुमोदन और राष्ट्रीय/सार्वजनिक महत्त्व के मुद्दों पर बहस करते हैं।

स्थिति:

  • बैठक के दिनों की संख्या: संसद के बैठक दिनों की संख्या घटकर पहले लोकसभा में लगभग 135 दिन प्रतिवर्ष से 17वीं लोकसभा में लगभग 55 दिन प्रतिवर्ष रह गई है।
  • प्रत्येक बैठक की अवधि: गहन विधायी विचार-विमर्श के लिये लंबी बैठकें आवश्यक हैं। हालाँकि वर्ष 2023 के बजट सत्र में, लोकसभा और राज्यसभा क्रमशः निर्धारित समय का केवल 33% तथा 24% ही कार्य कर पाएंगी, जिससे यह वर्ष 1952 के बाद से छठा सबसे छोटा बजट सत्र बन जाएगा । 
  • उपस्थित सदस्यों की संख्या: 17वीं लोकसभा (2019–2024) के दौरान सांसदों की औसत उपस्थिति जहाँ 79% रही, वहीं संसदीय बहसों में उनकी सक्रिय भागीदारी अपेक्षाकृत कम देखी गई; इस अवधि में सांसदों ने औसतन केवल 45 बहसों में भाग लिया।

Average_Sitting_Days_In_Parliament

  • व्यवधान का स्तर:  बार-बार होने वाले व्यवधान, जैसे- नारेबाज़ी और बहिर्गमन, बहस के समय को काफी कम कर देते हैं। 15वीं लोकसभा (2009-14) में व्यवधानों के कारण निर्धारित समय का 30% से अधिक समय बर्बाद हुआ, जिससे विधायी उत्पादकता बुरी तरह प्रभावित हुई।
  • संसदीय समितियों द्वारा जाँच: 17वीं लोकसभा में, केवल 10% विधेयक समितियों को भेजे गए, जो 14वीं लोकसभा (60%), 15वीं (71%) और 16वीं (25%) की तुलना में काफी कम है, जहाँ केवल 14 विधेयकों की समीक्षा की गई थी। इसके अतिरिक्त, हाल के वर्षों में समितियों के भीतर बढ़ते दलीय मतभेदों ने द्विदलीय जाँच को कमज़ोर कर दिया है, जिससे विधायी समीक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई है।
  • विचार-विमर्श की कार्यप्रणाली: कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने के लिये आवश्यक प्रश्नकाल और शून्यकाल जैसे उपकरण या तो अपर्याप्त रूप से उपयोग किये गए या पूरी तरह अनुपस्थित रहे। 17वीं लोकसभा में प्रश्नकाल लोकसभा में केवल 19% और राज्यसभा में मात्र 9% निर्धारित समय में ही संचालित हुआ।

Time_Taken_To_Pass_Bills

  • सांसदों के निजी विधेयकों की प्रस्तुति: स्वतंत्रता के बाद से अब तक 300 से अधिक निजी विधेयक प्रस्तुत किये गए हैं, लेकिन इनमें से केवल 14 ही पारित हुए हैं। अंतिम निजी विधेयक वर्ष 1970 में पारित हुआ था।
  • संविधानिक प्रावधानों में देरी: अनुच्छेद 93 के अंतर्गत उपाध्यक्ष (डिप्टी स्पीकर) का पद 17वीं लोकसभा के पूरे कार्यकाल में रिक्त रहा, जबकि संविधान में इसे "यथाशीघ्र" चुने जाने की आवश्यकता बताई गई है।
  • सहमति-आधारित कानून निर्माण में गिरावट: सरकार और विपक्ष के बीच सहमति बनाने की परंपरा काफी कमज़ोर हो गई है, जिससे महत्त्वपूर्ण विधेयकों को न्यूनतम बहस तथा  निरंतर बाधाओं के बीच पारित किया जा रहा है।
    • वर्ष 1950 से अब तक केवल 3 बार संयुक्त बैठक का उपयोग किया जाना, उन व्यवस्थाओं के क्षरण को दर्शाता है जो विधायी गतिरोधों को सुलझाने के लिये बनाई गई थीं।

विधायिका की कम उत्पादकता के प्रमुख निहितार्थ क्या हैं?

  • निगरानी की कमज़ोरी: बैठक के दिनों की कमी, निरंतर बाधाएँ और प्रश्नकाल का अपर्याप्त उपयोग कार्यपालिका को जवाबदेह ठहराने की विधायिका की क्षमता को कमज़ोर करता है, जिससे संसदीय निगरानी कमज़ोर पड़ती है तथा बिना जाँच के निर्णय लेने की प्रवृत्ति बढ़ती है।
  • कम गुणवत्ता वाला कानून निर्माण: संसदीय समितियों को दरकिनार कर विधेयकों को बिना पर्याप्त बहस के जल्दबाज़ी में पारित करना कानून की गहनता, वैधता और प्रभावशीलता से समझौता करता है, जिससे न्यायिक समीक्षा तथा कार्यान्वयन में चुनौतियों का जोखिम बढ़ जाता है।
  • विपक्ष का हाशिये पर जाना: बहस के लिये सीमित समय, निजी विधेयकों की अनुपस्थिति और विपक्ष की भागीदारी पर रोक समावेशी कानून निर्माण को कमज़ोर करती है, सहमति बनाने की प्रक्रिया को बाधित करती है तथा लोकतंत्र में असहमति की भूमिका को कमज़ोर करती है।
  • लोक विश्वास में गिरावट: विधायी प्रणाली की अक्षमता की धारणा लोकतांत्रिक संस्थानों में नागरिकों के विश्वास को कमज़ोर करती है, जिससे राजनीतिक उदासीनता, मतदान में कमी और संस्थागत वैधता का क्षरण होता है।
  • कार्यपालिका का अतिक्रमण: विधायिका की भागीदारी कम होने से कार्यपालिका को अध्यादेशों, अधीनस्थ कानूनों और कार्यकारी आदेशों के माध्यम से संसद को दरकिनार करने का अवसर मिलता है, जिससे संवैधानिक शक्तियों का संतुलन बिगड़ता है तथा नियंत्रण एवं संतुलन प्रणाली कमज़ोर होती है।

भारत में विधायी उत्पादकता में सुधार के लिये क्या उपाय किये गए हैं?

  • सांसदों के लिये आचार संहिता: सांसदों (संसद सदस्यों) के आचरण को नियंत्रित करने के लिये एक औपचारिक आचार संहिता निर्धारित की गई है, जिसका उद्देश्य संसद की गरिमा बनाए रखना, अवरोधों को कम करना और विधायी कार्य में रचनात्मक भागीदारी को बढ़ावा देना है।
  • प्रौद्योगिकी को अपनाना: संसद ने विधायी कार्यक्षमता बढ़ाने के लिये डिजिटल उपकरणों को अपनाया है। कार्यवाही का सीधा प्रसारण सार्वजनिक निगरानी को बढ़ाता है, जिससे सांसदों की जवाबदेही और अनुशासित व्यवहार को प्रोत्साहन मिलता है।
    • ई-विधान (NeVA) जैसी पहलें सभी राज्य विधानसभाओं को कागज़रहित बनाने की दिशा में कार्य कर रही हैं, जिससे रियल-टाइम अपडेट और विधायी कार्य में पारदर्शिता में सुधार सुनिश्चित होता है।
  • संसदीय समिति प्रणाली को सुदृढ़ करना: एक सशक्त संसदीय समिति प्रणाली, जिसमें विभाग से संबंधित स्थायी समितियाँ शामिल हैं, विधेयकों, नीतियों और कार्यपालिका की गतिविधियों की विस्तृत जाँच के लिये उपयोग की जाती है।
    • यह विशेषज्ञों के सुझावों को शामिल करने की अनुमति देती है तथा विधायी चर्चाओं की गुणवत्ता और गहराई को मज़बूत बनाती है।
  • अनुशासनात्मक तंत्र: अनुशासनहीन व्यवहार से निपटने के लिये संसद नियमों का उल्लंघन करने वाले सांसदों के निलंबन या निष्कासन जैसे अनुशासनात्मक उपाय लागू करती है। इनका उद्देश्य सदन की गरिमा बनाए रखना और कार्यवाही को सुचारु रूप से संचालित करना है।
  • विधायकों के लिये क्षमता निर्माण: लोक सभा सचिवालय, PRS लेजिस्लेटिव रिसर्च और गैर-सरकारी संगठनों (NGO) जैसे निकायों द्वारा आयोजित प्रशिक्षण सत्र, कार्यशालाएँ एवं हैंडबुक, विधायकों को प्रक्रियाओं तथा सर्वोत्तम प्रथाओं का ज्ञान प्रदान करते हैं।

भारत में विधायी उत्पादकता में सुधार के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  • संस्थागत अनुशासन और नियमित कार्यप्रणाली: संसद के लिये न्यूनतम बैठक दिवसों को अनिवार्य बनाया जाए तथा पूर्वानुमान तथा समयबद्ध विचार-विमर्श सुनिश्चित करने हेतु वार्षिक विधायी कैलेंडर प्रकाशित किये जाएं।
    • आचरण को मानकीकृत करने और विधायी शिष्टाचार को बनाए रखने के लिये सभी स्तरों पर प्रक्रिया के आदर्श नियमों को अपनाना।
  • समितियाँ एवं विधायी समीक्षा: सभी स्तरों पर स्थायी एवं विषय समितियों को विधेयकों, बजटों और नीतियों की गहन समीक्षा/जाँच करने के लिये सशक्त बनाना।
    • महत्त्वपूर्ण विधेयकों के लिये समिति के संदर्भ अनिवार्य बनाना। कानून निर्माण प्रक्रिया में आरंभिक चरण में ही विशेषज्ञों और हितधारकों की राय शामिल करने हेतु पूर्व-विधायी परामर्शों को संस्थागत बनाना।
  • जवाबदेही और पारदर्शिता: सांसदों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी तथा मतदान रिकॉर्ड की निगरानी एवं प्रकाशन करना, बेहतर जवाबदेही के लिये सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 का उपयोग करना।
    • अनुशासनात्मक शक्तियों के माध्यम से व्यवधानों को रोकने के लिये पीठासीन अधिकारियों को सशक्त बनाना। पारदर्शिता और जनता का विश्वास बढ़ाने हेतु कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग तथा अभिलेखीकरण अनिवार्य करना।
  • संवाद और क्षमता निर्माण: सरकार और विपक्ष के बीच आम सहमति बनाने को प्रोत्साहित करके व्यवधान से संवाद की ओर बदलाव को बढ़ावा देना।
    • विधायी गुणवत्ता और सूचित भागीदारी में सुधार के लिये पहली बार प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण तथा अभिविन्यास प्रदान करना।
  • नागरिक सहभागिता और मान्यता: ईमानदारी और जनसेवा में निहित युवा नेतृत्व को बढ़ावा देना। पुरस्कारों, अनुदानों और मानेसर सम्मेलन जैसे मंचों के माध्यम से उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले विधायकों को सम्मानित करें ताकि सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा किया जा सके।
  • अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाना: पारदर्शिता, समावेशिता और विधायी जानकारी तक पहुँच को बढ़ावा देने वाले IPU (अंतर-संसदीय संघ) मानकों को अपनाना। 
    • निश्चित बैठक दिवसों और अनिवार्य समिति जाँच के UK और जर्मन मॉडल का अनुकरण करना। 
    • प्रक्रियागत और नैतिक सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिये कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूके जैसे देशों के साथ सांसद/विधायक विनिमय कार्यक्रम शुरू करना।
    • आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (Organisation for Economic Cooperation and Development- OECD) की संसद से प्रेरित बेंचमार्किंग प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना, जिसमें विधायी प्रदर्शन पर सार्वजनिक डैशबोर्ड शामिल हों।

निष्कर्ष

लोकतांत्रिक जवाबदेही, गुणवत्तापूर्ण कानून निर्माण और उत्तरदायी शासन के लिये विधायी उत्पादकता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। डिजिटल एकीकरण और समिति सुधारों में प्रगति के बावजूद, व्यवधान, कम जाँच और कम बैठकें जैसी समस्याएँ प्रभावशीलता में बाधा डालती हैं। संस्थागत अनुशासन को मजबूत करना, द्विदलीय संवाद को बढ़ावा देना और नागरिक भागीदारी को बढ़ाना, विकसित भारत @2047 को साकार करने के लिये सभी स्तरों पर विधायिकाओं को सशक्त बनाने हेतु आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

Q. भारत में विधायी उत्पादकता में गिरावट के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख कारकों का विश्लेषण कीजिये और इसे मजबूत करने हेतु समग्र उपायों का प्रस्ताव करें।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स

प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन-सी लोकसभा की अनन्य शक्ति (याँ) है/हैं? (2022)

  1. आपात की उद्घोषणा का अनुसमर्थन करना। 
  2. मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करना। 
  3. भारत के राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाना। 

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) 1 और 2 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 3 
(d) केवल 3

उत्तर: B 


मेन्स 

Q. आपकी दृष्टि में, भारत में कार्यपालिका की जवाबदेही को निश्चित करने में संसद कहाँ तक समर्थ है? (2021)