सिंचाई और फसल का समन्वय | 06 Jun 2025

प्रिलिम्स के लिये:

कदन्न (मिलेट्स), डिजिटल कृषि मिशन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, जल शक्ति अभियान, कृषि विज्ञान केंद्र

मेन्स के लिये:

सिंचाई अवसंरचना और फसल पैटर्न, जल-उपयोग दक्षता तथा सतत् कृषि, फसल पैटर्न को आकार देने में सब्सिडी एवं एमएसपी की भूमिका

स्रोत: फाइनेंसियल एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

भारत में कृषि में लंबे समय से यह माना जाता रहा है कि सिंचाई के विस्तार से स्वतः जल-गहन फसलों (जैसे- धान, गन्ना) की ओर रुझान बढ़ता है, लेकिन वित्त वर्ष 2011-12 से 2022-23 के आँकड़ों से पता चलता है कि सिंचाई और फसल संबंधी निर्णय एक साथ लिये जाते हैं, जो वर्षा तथा बाज़ार की स्थितियों जैसे तात्कालिक कारकों से प्रेरित होते हैं। 

  • सिंचाई निवेश को अधिक प्रभावी और सतत् बनाने के लिये इस गतिशीलता को समझना महत्त्वपूर्ण है।

सिंचाई और फसल के बीच क्या संबंध है?

  • सिंचाई और फसल पद्धति: विश्वसनीय सिंचाई किसानों को पारंपरिक निर्वाह फसलों (जैसे- कदन्न (मिलेट्स)) से उच्च मूल्य वाली फसलों (जैसे- फल, सब्ज़ियाँ और नकदी फसलें जैसे गन्ना और कपास ) की ओर स्थानांतरित करने में सक्षम बनाती है।
    • सिंचाई मानसून पर निर्भरता कम कर डबल या ट्रिपल क्रॉपिंग (एक वर्ष में दो/तीन फसलें) को संभव बनाती है, जिससे भूमि उपयोग दक्षता बढ़ती है।
    • बेहतर सिंचाई अवसंरचना वाले क्षेत्र (जैसे- पंजाब, हरियाणा) नहरों और ट्यूबवेलों में हरित क्रांति निवेश द्वारा समर्थित, समतल भू-भाग तथा उपजाऊ मिट्टी से लाभान्वित होते हैं। 
      • ये क्षेत्र मध्य और पूर्वी भारत के बड़े पैमाने पर वर्षा आधारित क्षेत्रों की तुलना में अधिक गहन तथा व्यावसायिक फसल पैटर्न को प्रदर्शित करते हैं।
    • उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYV) को सुनिश्चित जल आपूर्ति की आवश्यकता होती है। सिंचाई ऐसी किस्मों को अपनाने में सहायक है, खासकर हरित क्रांति वाले क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में।
  • सिंचाई का समय: सिंचाई तब सबसे प्रभावी होती है जब यह बुवाई के मौसम के साथ संरेखित होती है। जब बुनियादी ढाँचा एक या दो वर्ष की देरी से उपलब्ध होता है, तो इसका प्रभाव कमज़ोर या नकारात्मक हो जाता है।
    • किसान क्या और कब बोना है, यह तय करते समय वर्तमान वर्षा, कीमतों, बीज तथा उर्वरक की उपलब्धता एवं नीतिगत संकेतों पर विचार करते हैं। ऐसे परिदृश्यों में देरी से सिंचाई करने से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती।
  • सिंचाई अवसंरचना से परे फसल विकल्प: यद्यपि सिंचाई महत्त्वपूर्ण है, लेकिन किसानों का फसल विकल्प अक्सर केवल सिंचाई अवसंरचना पर ही नहीं, बल्कि जल उपलब्धता, मौसम, इनपुट पहुँच और बाज़ार मूल्य जैसे वास्तविक समय कारकों पर निर्भर करता है।

भारत में सिंचाई और फसल उत्पादन के रुझान क्या हैं?

  • सकल सिंचित क्षेत्र (GIA): इसे वर्ष 2011-12 में 91.8 मिलियन हेक्टेयर से बढ़ाकर वर्ष 2022-23 में 122.3 मिलियन हेक्टेयर किया गया।
    • GIA कृषि वर्ष में विभिन्न मौसमों में सभी फसलों के तहत सिंचित क्षेत्रों का कुल योग है, GIA के तहत, एक ही वर्ष में दो/तीन बार सिंचित क्षेत्र को दो/तीन बार गिना जाता है।
  • सकल बोया गया क्षेत्र (GSA): इसी अवधि के दौरान यह 195.8 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 219.4 मिलियन हेक्टेयर हो गया।
    • सिंचित क्षेत्र का हिस्सा 46.9% से बढ़कर 55.8% हो गया।
    • GSA एक कृषि वर्ष में विभिन्न मौसमों में सभी फसलों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों का कुल योग है, GSA के तहत, एक ही वर्ष में दो/तीन बार बोए गए क्षेत्र को दो/तीन गुना के रूप में गिना जाता है।
  • फसल उपज: 841 किग्रा./एकड़ से बढ़कर 1,009 किग्रा./एकड़ हुई, औसत वार्षिक वृद्धि दर 1.67% रही।

विभिन्न सिंचाई प्रणालियाँ क्या हैं?

और पढ़ें: विभिन्न सिंचाई प्रणालियाँ

सिंचाई और फसल को समन्वित करने की क्या आवश्यकता है?

  • कुशल जल उपयोग: सिंचाई को वास्तविक फसल चक्रों के साथ संरेखित करने से जल की हानि को कम करने में मदद मिलती है और अति-सिंचाई को रोका जा सकता है
    • पंजाब में किसान कपास और मक्का के लिये मृदा नमी सेंसर के साथ ड्रिप सिंचाई का उपयोग करते हैं, जिससे जल का उपयोग 30% तक कम हो जाता है तथा प्रमुख फसल चरणों को लक्षित करके पैदावार बढ़ जाती है।
  • उच्च उत्पादकता: समय पर सिंचाई से फसल की इष्टतम वृद्धि को बढ़ावा मिलता है, विशेष रूप से उच्च उपज देने वाली और जल के प्रति संवेदनशील किस्मों के लिये।
  • जलवायु जोखिमों के प्रति अनुकूलन: अनियमित मानसून और बढ़ती चरम मौसम की घटनाओं के साथ, समन्वित योजना यह सुनिश्चित करती है कि सिंचाई सूखे के दौरान फसल की विफलता को रोकती है।
  • लागत प्रभावी अवसंरचना: नहरों, सूक्ष्म सिंचाई या भूजल प्रणालियों में निवेश से बेहतर लाभ मिलता है, जब वे किसानों की वास्तविक समय की फसल संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
  • पर्यावरणीय स्थिरता: गलत समय पर सिंचाई के कारण होने वाले जलभराव, लवणीकरण और भूजल की कमी के जोखिम को कम करता है।

पारंपरिक सिंचाई योजना में क्या खामियाँ हैं?

  • बुवाई चक्रों के साथ बेमेल: लंबे समय तक चलने वाली बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ (जैसे महाराष्ट्र की लंबे समय से विलंबित गोसीखुर्द सिंचाई परियोजना) अक्सर बुवाई के अधिकतम समय से पीछे हो जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रणालियों का कम उपयोग होता है।
    • केंद्र द्वारा प्रबंधित योजनाओं के अंतर्गत नहरों की मरम्मत या गाद निकालने का कार्य प्रायः मानसून के बाद पूरा किया जाता है, जिससे खरीफ मौसम के लिये यह अनावश्यक हो जाता है।
  • टॉप डाउन एप्रोच स्थानीय संदर्भ की उपेक्षा करती है: केंद्रीकृत सिंचाई योजना स्थानीय कृषि-जलवायु स्थितियों या फसल वरीयताओं को प्रतिबिंबित नहीं करती है।
    • पंजाब और हरियाणा में, जल-गहन धान को सरकारी समर्थन जारी रहने तथा नहर सिंचाई के संयुक्त प्रभाव से भूजल स्तर में भारी गिरावट आई है (भारत में कुल अनुमानित भूजल दोहन 122 से 199 बिलियन क्यूबिक मीटर के बीच है)। यह कठोर योजना की पारिस्थितिक कीमत को दर्शाता है।
      • मुफ्त विद्युत के कारण अत्यधिक बोरवेल के उपयोग से जलभृत में गंभीर कमी आई है, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में।
    • इसके अतिरिक्त, अपर्याप्त देख-रेख, सीपेज (जल रिसाव) और चोरी के कारण नहर-आधारित क्षेत्रों में जल की लगभग 40% तक हानि हो जाती है। पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं को औपचारिक सिंचाई योजना में बहुत कम शामिल किया जाता है।
  • इनपुट कन्वर्जेंस का अभाव: केवल सिंचाई से उत्पादकता नहीं बढ़ती, जब तक कि उसे गुणवत्तापूर्ण बीज, उर्वरक, कृषि ऋण और कृषि विस्तार सेवाओं के साथ जोड़ा न जाए।
    • उत्तर प्रदेश में, सिंचाई के विस्तार से उपज में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई क्योंकि प्रमाणित बीजों और मृदा स्वास्थ्य इनपुट तक किसानों की पहुँच सीमित रही।
  • वास्तविक समय के डेटा का अभाव: सिंचाई योजना में शायद ही कभी मौसम पूर्वानुमान, मृदा आर्द्रता मानचित्र या फसल प्रारूप जैसे तात्कालिक डेटा को शामिल किया जाता है, जिससे जल आवंटन की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
    • आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने सिंचाई को अधिक प्रभावी बनाने के लिये रिमोट सेंसिंग और फसल की जल आवश्यकता पर आधारित डेटा को अपनाना शुरू किया है, हालाँकि  ऐसे मॉडल अब भी सीमित स्तर पर ही लागू हैं।
    • प्रौद्योगिकी और वित्तीय बाधाएँ: पारंपरिक सिंचाई योजनाओं में आधुनिक सूक्ष्म सिंचाई (माइक्रो-इरिगेशन) या नवीकरणीय ऊर्जा चालित प्रणाली को एकीकृत नहीं किया जाता। उच्च लागत के कारण गरीब किसान ड्रिप सिंचाई जैसी तकनीकों से वंचित रह जाते हैं।
  • मृदा लवणता: अप्रभावी जल निकासी योजना के कारण सिंचित क्षेत्रों में जलभराव और मृदा लवणता की समस्या उत्पन्न होती है। 
    • वर्ष 2025 तक, भारत में लगभग 13 मिलियन हेक्टेयर सिंचित भूमि जलभराव तथा लवणता से प्रभावित हो सकती है, जो लवणीय भूजल के उपयोग तथा जलवायु परिवर्तन से और अधिक गंभीर हो जाएगी।
    • ये परिस्थितियाँ फसल उत्पादन में 80% तक की गिरावट ला सकती हैं और भूमि को छोड़ने की नौबत आ सकती है।
    • सिर्फ हरियाणा में ही, जलभराव वाली लवणीय मृदा प्रतिवर्ष 2 मिलियन टन से अधिक फसलों की हानि का कारण बनती हैं।

नोट: सिंचाई राज्य का विषय है और सिंचाई परियोजनाओं की योजना, क्रियान्वयन, वित्तपोषण तथा क्रियान्वयन एवं पूर्णता की प्राथमिकता संबंधित राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में है।

  • तथापि, केंद्र सरकार कार्यक्रम के दिशा-निर्देशों के अनुसार चयनित परियोजनाओं को शीघ्र पूरा करने के लिये प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) के अंतर्गत राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
  • PMKSY विभिन्न योजनाओं का एकीकरण है, जैसे- त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP), PMKSY - हर खेत को पानी (HKKP), PMKSY - प्रति बूँद अधिक फसल (PDMC) (कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित) और PMKSY - वाटरशेड विकास (WD) (भूमि संसाधन विभाग द्वारा कार्यान्वित)।

सतत् फसल प्रणाली सुनिश्चित करने हेतु सिंचाई योजना में किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • कृषि-परिस्थितिकी आधारित, क्षेत्र-विशिष्ट सिंचाई रणनीति अपनाना: व्यापक सिंचाई विस्तार की बजाय, मृदा प्रकार, वर्षा प्रारूप और जल उपलब्धता पर आधारित क्षेत्र-विशिष्ट योजना को प्राथमिकता दी जाए।
    • शुष्क क्षेत्रों में मिलेट मिशन जैसी योजनाओं के अंतर्गत मोटे अनाज, दालें और तिलहन को बढ़ावा देना चाहिये, ताकि जल संसाधनों पर दबाव कम हो।
  • सिंचाई को इनपुट सेवाओं के साथ एकीकृत करना: डिजिटल कृषि मिशन और इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (e-NAM) के माध्यम से सिंचाई निवेश को बीज, ऋण, उर्वरक तथा मौसम आधारित सलाह तक समय पर पहुँच के साथ जोड़ना।
    • आंध्र प्रदेश की रियल-टाइम गवर्नेंस सोसाइटी (RTGS) जैसे मॉडल को प्रोत्साहित करें, जो सटीक सिंचाई अनुसूची के लिये उपग्रह डेटा, मृदा आर्द्रता सेंसर और फसल मानचित्रों का उपयोग करता है।
  • सूक्ष्म सिंचाई और लघु-स्तरीय नवाचारों का विस्तार: प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) के प्रति बूँद अधिक फसल (PDMC) घटक को क्लस्टर आधारित, मांग-आधारित सब्सिडी और सूक्ष्म सिंचाई उपकरणों के लिये कस्टम हायरिंग केंद्रों की सुविधा देकर विस्तार दिया जाए।
    • सौर ऊर्जा चालित पंप, स्मार्ट ड्रिप किट्स और मोबाइल आधारित सिंचाई अलर्ट जैसी कम लागत वाली, किसान-मित्र नवाचारों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। 
  • इनपुट सब्सिडी का सुधार करना: अत्यधिक दोहन को हतोत्साहित करने और जल के कुशल उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिये मुफ्त या एक समान दर पर दी जाने वाली विद्युत और जल की सब्सिडी को लक्षित प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) से प्रतिस्थापित किया जाए।
    • पंजाब की “पानी बचाओ, पैसे कमाओ” योजना को अन्य भूजल-संकटग्रस्त राज्यों तक विस्तारित किया जाए, जिसमें कम जल उपयोग करने पर वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है।
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को सतत् फसल चक्रों से जोड़ा जाए, ताकि कम जल-आधारित फसलों की कृषि को प्रोत्साहन मिल सके।
  • पारंपरिक जल संचयन को बहाल करना: परंपरागत प्रणालियों (जैसे- तमिलनाडु में टैंक, राजस्थान के जोहड़) को आधुनिक सिंचाई ग्रिड से जोड़ते हुए मनरेगा और जल शक्ति अभियान के तहत एकीकृत किया जाए।
  • जल निकासी, लवणता और जलभराव की समस्याओं का सक्रिय रूप से समाधान: जल शक्ति मंत्रालय के तहत एक राष्ट्रीय ड्रेनेज मिशन प्रारंभ किया जाए, ताकि विशेष रूप से सिंधु-गंगा मैदानों में जलभराव और मृदा लवणता की समस्याओं का समाधान किया जा सके।
  • लवण-सहिष्णु फसल किस्मों (जैसे- ज्वार, जई और जौ) को प्रोत्साहित किया जाए और लवणता नियंत्रण हेतु सतही जल एवं भूजल के संयुक्त उपयोग को बढ़ावा दिया जाए।
  • क्षमता निर्माण और जागरूकता: कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) और गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से किसानों को जल संरक्षण की प्रथाओं, जलवायु जोखिमों तथा कुशल सिंचाई विधियों के बारे में शिक्षित किया जाए।

निष्कर्ष

भारत की सिंचाई योजना को अवसंरचना-केंद्रित दृष्टिकोण से आगे बढ़ते हुए जलवायु-स्मार्ट, किसानोन्मुखी और पारिस्थितिक रूप से सतत् प्रणालियों की ओर विकसित होना चाहिये। इस परिवर्तन के लिये नीतिगत समन्वय, व्यवहार में बदलाव और प्रौद्योगिकी का एकीकरण आवश्यक है, जिसे मज़बूत सामुदायिक भागीदारी तथा  संस्थागत सुधारों का समर्थन मिलना चाहिये। केवल तभी सिंचाई वास्तव में सतत् फसल प्रणाली को सक्षम बना सकेगी और भविष्य के लिये जल, खाद्य तथा आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगी।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: "सिंचाई में सुधार, भारत के भविष्य का पुनर्रूपांकन: सतत् कृषि की ओर मार्ग" – चर्चा कीजिये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राचीन नगर अपने उन्नत जल संचयन और प्रबंधन प्रणाली के लिए सुप्रसिद्ध है, जहाँ बाँधों की शृंखला का निर्माण किया गया था और संबद्ध जलाशयों में नहर के माध्यम से जल को प्रवाहित किया जाता था? (2021)

  1. धौलावीरा
  2. कालीबंगा 
  3. राखीगढ़ी
  4. रोपड़ 

उत्तर: a

प्रश्न 2. 'वॉटरक्रेडिट' के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. यह जल एवं स्वच्छता क्षेत्र में कार्य के लिये सूक्ष्म वित्त साधनों (माइक्रोफाइनेंस टूल्स) को लागू करता है।
  2. यह एक वैश्विक पहल है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक के तत्त्वावधान में प्रारंभ किया गया है।
  3. इसका उद्देश्य निर्धन व्यक्तियों को सहायिकी के बिना अपनी जल-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये समर्थ बनाना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

  1. केवल 1 और 2
  2. केवल 2 और 3
  3. केवल 1 और 3
  4. 1, 2 और 3

उत्तर: c


मेन्स: 

प्रश्न 1. जल संरक्षण एवं जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020)

प्रश्न 2. रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइए। (2020)