भारत के खिलाफ चीन की ‘जल बम’ की रणनीति | 23 Nov 2020

प्रिलिम्स के लिये:

 ‘जल बम’ की अवधारणा

मेन्स के लिये:

भारत के खिलाफ चीन की ‘जल बम’ की रणनीति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत-चीन संबंधों में वर्ष 1962 के युद्ध के बाद से सबसे अधिक टकराव देखने को मिला है, जिसने दोनों देशों के सीमावर्ती क्षेत्रों में आधारभूत अवसंरचना के निर्माण के रणनीतिक महत्त्व को फिर से उजागर किया है। यारलुंग (ब्रह्मपुत्र) नदी पर चीन द्वारा निर्मित बड़े बाँधों ने भारतीय अधिकारियों और स्थानीय लोगों की चिंता को और अधिक बढ़ा दिया है।

प्रमुख बिंदु:

  • चीन द्वारा जल-ऊर्जा के दोहन के लिये चलाए जा रहे इन त्वरित कार्यक्रमों ने न केवल हिमालयन क्षेत्र में गंभीर पारिस्थितिक समस्याओं को बढ़ा दिया है, अपितु स्थानीय लोगों के समक्ष आजीविका संबंधी अनेक चुनौतियाँ उत्पन्न कर दी हैं।
  • चीन द्वारा 'जल बम' की रणनीति न केवल भारत के खिलाफ अपनाई जा रही है अपितु मेकांग नदी पर अनेक जलविद्युत योजनाओं का निर्माण करके पूर्व में थाईलैंड, लाओस, वियतनाम और कंबोडिया के खिलाफ भी इस रणनीति को अपनाया गया था। मेकांग नदी को इन देशों की जीवन रेखा माना जाता है।

Western-china

  ‘जल बम’ की अवधारणा:

  • 'जल बम' (Water Bomb) की अवधारण के तहत किसी देश द्वारा अपने पड़ोसी देश पर हमला करने या प्रहार करने के उद्देश्य से अत्यधिक मात्रा में जल को बाँधों में संग्रहीत किया जाता है तथा युद्द के समय इसे छोड़ दिया या रोक दिया जाता है ताकि नदी के बहाव द्वारा निचले क्षेत्रों में व्यापक आर्थिक, सामाजिक तथा पर्यावरणीय नुकसान किया जा सके।
  • तिब्बत से  उद्गमित आठ प्रमुख नदियों पर चीन ने पिछले दो दशकों में 20 से अधिक बाँधों का निर्माण किया है और उनमें से कुछ को वास्तव में 'मेगा बाँध' कहा जा सकता है।
  • इसके अलावा चीन की तेरहवीं पंचवर्षीय योजना के अनुसार, तिब्बत से उद्गमित नदियों पर चीन और अधिक पनविद्युत परियोजनाओं के निर्माण की योजना बना रहा है। चीनी मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, (अधिकारिक आँकड़े उपलब्ध नहीं) चीन इन नदियों पर विभिन्न आकार के 40 और बाँधों का निर्माण करेगा।

भारत के लिये चिंतनीय क्यों?

कृषि उत्पादकता पर प्रभाव: 

  • बड़े बाँधों के निर्माण से संपूर्ण नदी बेसिन क्षेत्र प्रभावित होगा, जो ब्रह्मपुत्र बेसिन के व्यापक अवनयन का कारण बन सकता है। नदी द्वारा प्रवाहित अवसादों को बाँधों द्वारा अवरुद्ध कर दिया जाएगा, जिससे मृदा की गुणवत्ता और कृषि उत्पादकता में गिरावट आएगी।

पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता: 

  • दूसरा, ब्रह्मपुत्र बेसिन दुनिया के सबसे अधिक पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। यह विश्व के 34 जैविक हॉटस्पॉटों में से एक है। इस क्षेत्र में फ्लोरा और फौना की अनेक प्रजातियों सहित अनेक स्थानिक प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। उदाहरण के लिये काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में 35 स्तनधारी प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 15 को IUCN की रेड सूची में संकटापन्न प्रजातियों के रूप सूचीबद्ध किया गया है।'गंभीर रूप से लुप्तप्राय' गंगा नदी डॉल्फिन भी ब्रह्मपुत्र नदी में पाई जाती है।

बाँधों की भूकंप के प्रति सुभेद्यता:

  • भूकंप-विज्ञान के अनुसार, हिमालय को भूकंपीय गतिविधियों के लिये सबसे अधिक संवेदनशील माना जाता है। भूकंप-जनित भूस्खलन क्षेत्र के लिये प्रमुख खतरा है। उदाहरण के लिये वर्ष 2015 में नेपाल में आए भूकंप के कारण कई बाँध और अन्य अवसंरचनाएँ नष्ट हो गई थीं।

डाउन-स्ट्रीम में रहने वाले लोगों की आजीविका:  

  • चीन द्वारा निर्मित व्यापक अवसंरचना परियोजनाओं (विशेषकर बाँधों से) का आकार बहुत बड़ा है। यह नदी के डाउन-स्ट्रीम में रहने वाली आबादी के लिये एक प्रमुख खतरा है। भारत क्षेत्र के ब्रह्मपुत्र के बेसिन में लगभग दस लाख के करीब लोग रहते हैं। हिमालय पर चलाई जा रही इन मेगा बाँध परियोजनाओं के कारण सैकड़ों लोगों के अस्तित्त्व को खतरा उत्पन्न हो गया है।
  • अगर चीन बिना किसी चेतावनी के इन नदियों का जल छोड़ता है, तो इससे क्षेत्र में विनाशकारी बाढ़ आएगी। संपूर्ण उत्तर भारत (सतलज के भाखड़ा-नांगल बाँध पर निर्भर), पूर्वी भारत (कोसी नदी प्रणाली पर बिहार और पश्चिम बंगाल की निर्भरता) और संपूर्ण उत्तर-पूर्व (ब्रह्मपुत्र नदी) अब गंभीर खतरे में है।

आगे की राह:

  • जल संकट के समाधान के लिये भारत-चीन को वैकल्पिक उपाय अपनाने को आवश्यकता है। दोनों पक्षों को नदी पर नवीन निर्माण रोकने की दिशा में तत्काल कदम उठाने चाहिये।  विकेंद्रीकृत नेटवर्क पर आधारित अपेक्षाकृत लघु चेकडैम, वर्षा-जल संग्राहक झीलों के निर्माण और परंपरागत जल संग्रहण पद्धतियों को अपनाए जाने की आवश्यकता है।
  • भारत को हिमालय से निकलने वाली नदियों में अपने हिस्से के जलग्रहण क्षेत्र में  इष्टतम जल के उपयोग की आवश्यकता है। इसके लिये भारत को अपनी नदी जोड़ो परियोजना पर तीव्र गति से कार्य करना होगा। भारत इन नदियों से संबंधित अपने स्वयं के हिस्से का भी पूरा उपयोग नहीं कर रहा है (उदाहरण के लिये पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty)। 
  • नदी के डाउन-स्ट्रीम क्षेत्रों में भारत को अपनी आपदा प्रबंधन प्रणाली को भी मज़बूत करना चाहिये, ताकि भविष्य में किसी संभावित खतरे पर शीघ्र तथा ठोस प्रतिक्रिया दी जा सके।  

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस