डेली न्यूज़ (05 Nov, 2020)



विदेशज जानवरों के स्वैच्छिक प्रकटन संबंधी योजना

प्रिलिम्स के लिये:

विदेशज प्रजातियाँ, विदेशज जानवरों के आयात का नियमन

मेन्स के लिये:

विदेशज  जानवरों के आयात का नियमन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार द्वारा विदेशज  जानवरों के आयात तथा स्टॉक पर जारी एडवाइज़री को चुनौती देने वाली याचिका पर निर्णय दिया। 

प्रमुख बिंदु:

  • ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ (Union Ministry of Environment, Forest and Climate Change-  MoEF&CC) द्वारा जून 2020 में विदेशज  जानवरों के भारत में आयात तथा इस तरह के जीवों के स्टॉक की घोषणा के संबंध में एक एडवाइज़री जारी की गई थी।
  • COVID-19 महामारी ने ‘वन्यजीवों के माध्यम से ज़ूनोटिक रोगों के प्रसार’ को पुन: चर्चा का मुद्दा बना दिया है। अत: वन्यजीवों के व्यापार को विनियमित करने के उद्देश्य से सरकार ने यह एडवाइज़री जारी की थी।

विदेशज  प्रजातियाँ (Exotic Species):

  • विदेशज  प्रजातियों को सामान्यत: गैर-स्थानिक, बाहरी (Alien) प्रजातियों के रूप में जाना जाता है। ये प्रजातियाँ सामान्य तौर पर उनकी प्राकृतिक भौगोलिक सीमा के बाहर के क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
  • विदेशज  प्रजातियों (Exotic Species) की सूची में जानवरों की वे प्रजातियाँ शामिल हैं जो भारत के विभिन्न हिस्सों में पाई जाती हैं तथा जिनको CITES के परिशिष्टों में शामिल किया गया है लेकिन ‘वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972‘ (Wild Life (Protection) Act, 1972) के तहत शामिल नहीं किया गया है।

एडवाइज़री के प्रमुख बिंदु:

  • एडवाइज़री में विदेशज  जानवरों के आयात तथा प्रकटीकरण संबंधी प्रावधान शामिल किये गए हैं।  ये प्रावधान उन जानवरों पर भी लागू होंगे जिनकी आयातित प्रजातियाँ भारत में पहले से ही मौजूद हैं। 
  • किसी भी विदेशज  जानवर का आयात करने से पूर्व व्यक्ति को ‘विदेश व्यापार महानिदेशक’ (Director General of Foreign Trade- DGFT) से लाइसेंस प्राप्ति के लिये एक आवेदन प्रस्तुत करना होगा। आयातक को आवेदन के साथ संबंधित राज्य के ‘मुख्य वन्यजीव वार्डन’ का 'अनापत्ति प्रमाण पत्र' (No Objection Certificate- NOC) भी संलग्न करना होगा। 
  • वे लोग जो पहले से ही विदेशी जानवरों का आयात कर चुके हैं, उन्हें 6 माह के भीतर जानवर के मूल आयातित स्थान की जानकारी देनी होगी। अगर आयातक 6 माह में यह जानकारी देने तथा घोषणा करने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें आवश्यक दस्तावेज़ जमा कराने होंगे।

 उच्च न्यायालय का स्पष्टीकरण:

  • उच्च न्यायालय ने याचिका के तहत उठाए गए दो प्रमुख नियमों पर निर्णय दिया है।
  • प्रथम, विदेशी पक्षियों या जानवरों के स्वैच्छिक प्रकटीकरण के बाद भी ऐसे व्यक्तियों की जाँच से संबंधित है, इसमें उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है यदि कोई व्यक्ति ऐसे जानवरों को रखने के बारे स्वैच्छिक रूप से जानकारी देता है, तो उसे स्वामित्व, व्यापार और प्रजनन आदि के संबंध में जाँच से उन्मुक्ति मिलेगी।
  • द्वितीय, ऐसे विदेशी जानवर और पक्षी जिन्हें ‘वन्यजीवों तथा वनस्पतियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन’ (CITES) के तीनों परिशिष्टों के तहत शामिल नहीं किया गया है, उन्हें भी योजना के तहत संरक्षण प्रदान किया जाए। उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को एडवाइज़री के तहत सभी विदेशी जीवित प्रजातियों को शामिल करने पर विचार करने को कहा है।  

उच्च न्यायालय के निर्णय का महत्त्व:

  • भारत में वर्तमान में विदेशज  प्रजातियों के घरेलू व्यापार में लगातार वृद्धि हो रही है। अनेक प्रजातियों यथा- 'शुगर ग्लाइडर्स' (Sugar Gliders) मकई सर्प (Corn Snakes) आदि को CITES के तहत सूचीबद्ध नहीं किया गया है। केंद्र सरकार अन्य विदेशज जानवरों को शामिल करते हुए एक व्यापक तथा नवीन एडवाइज़री जारी कर सकती है। 
  • भारत में विदेशज जानवरों के व्यापार के उचित नियमन का अभाव है। एडवाइज़री देश में मौजूद सभी विदेशज जानवरों की जानकारी जुटाने में मदद करेगी। 

निष्कर्ष:

  • विदेशज जानवरों के भारत में आयात तथा ऐसे जानवरों को रखने हेतु स्वैच्छिक प्रकटीकरण के मामले में उच्च न्यायालय के निर्णय से इन प्रजातियों के स्वैच्छिक प्रकटीकरण को बढ़ावा मिलेगा, साथ ही विदेशज  प्रजातियों की सूची में CITES परिशिष्ट में उल्लिखित प्रजातियों के अलावा अन्य को शामिल करने से अन्य सुभेद्य विदेशज प्रजातियों के संरक्षण में मदद मिलेगी।

स्रोत: द हिंदू


सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना पर केंद्र का पक्ष

प्रिलिम्स के लिये:

सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना, सेंट्रल विस्टा

मेन्स के लिये:

सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय में हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित 'सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना' के तहत एक नए संसद भवन के निर्माण के अपने निर्णय को सही ठहराने के पक्ष में दलीलें पेश की गईं।

प्रमुख बिंदु:

  • याचिकाकर्त्ताओं द्वारा नवीन संसद भवन के निर्माण के केंद्र सरकार के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी।
  • याचिका में उठाए गए मुद्दों में से एक यह भी था कि क्या संसद के मौजूदा भवन का नवीनीकरण और उपयोग संभव है?

सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना (Central Vista Redevelopment Project):

  • वर्ष 2019 में आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा ‘सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना’ की परिकल्पना की गई थी।
  • परियोजना की परिकल्पना:
    • इस पुनर्विकास परियोजना में एक नए संसद भवन का निर्माण प्रस्तावित है। इसके साथ ही एक केंद्रीय सचिवालय का भी निर्माण किया जाएगा।
    • इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक 3 किमी. लंबे ‘राजपथ’ में भी परिवर्तन प्रस्तावित है।
    • सेंट्रल विस्टा क्षेत्र में नॉर्थ व साउथ ब्लॉक को संग्रहालय में बदल दिया जाएगा और इनके स्थान पर नए भवनों का निर्माण किया जाएगा।
    • इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में स्थित ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र’ (Indira Gandhi National Centre for the Arts) को भी स्थानांतरित करने का प्रस्ताव है।
    • इस क्षेत्र में विभिन्न मंत्रालयों व उनके विभागों के लिये कार्यालयों का भी निर्माण किया जाएगा।
  • परियोजना लागत:
    • इस पुनर्विकास परियोजना में लगभग 20,000 करोड़ रुपए व्यय होने की संभावना है।
  • सेंट्रल विस्टा:
    • वर्तमान में नई दिल्ली के सेंट्रल विस्टा में राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, उत्तर और दक्षिण ब्लॉक, इंडिया गेट, राष्ट्रीय अभिलेखागार शामिल हैं।
    • दिसंबर 1911 में किंग जॉर्ज पंचम ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की। इसके उपरांत ही राजपथ के आस-पास के क्षेत्र में इन भवनों का निर्माण किया गया।
    • इन भवनों के निर्माण का उत्तरदायित्व एडविन लुटियंस (Edwin Lutyens) व हर्बर्ट बेकर (Herbert Baker) को दिया गया।

केंद्र का पक्ष:

  • प्रस्तावित परियोजना की लागत और बुनियादी ढाँचे के लाभों को रेखांकित करते हुए केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि नए संसद भवन के बारे में नीतिगत निर्णय लेने के लिये केंद्र सरकार हकदार है।
  • भारत सरकार ने संसद परिसर और केंद्रीय सचिवालय के निर्माण संबंधी निर्णय मौज़ूदा व्यवस्था में व्याप्त दबाव को ध्यान में रखकर किया है। इसके अलावा वर्तमान परियोजना को नोएडा या अन्य जगहों पर नहीं बल्कि सेंट्रल विस्टा में ही स्थापित किया जा सकता है।

नए संसद भवन की आवश्यकता पर केंद्र के तर्क:

  • स्वतंत्रता पूर्व की इमारत:
    • वर्तमान संसद भवन का निर्माण वर्ष 1927 में हुआ था, जिसका निर्माण वर्तमान द्विसदनीय व्यवस्था के अनुकूल नहीं किया गया था।
  • स्थान की कमी:
    • भविष्य में लोकसभा और राज्यसभा की सीटों की संख्या में वृद्धि किये जाने की संभावना है, जिससे संसद में सदस्यों के बैठने के लिये पर्याप्त स्थान नहीं होगा। वर्तमान सदन संसद की संयुक्त बैठक के अनुकूल नहीं है। संयुक्त बैठक के दौरान अनेक सदस्यों को प्लास्टिक की कुर्सियों पर बैठना पड़ता है।
  • सुरक्षा चिंताएँ:
    • मौजूदा इमारत अग्नि सुरक्षा मानदंडों के अनुरूप नहीं है। पानी और सीवर लाइनें भी बेतरतीब हैं और यह अपनी विरासत की प्रकृति को नुकसान पहुँचा रही है।
    • वर्ष 2001 के संसद पर हमले के मद्देनज़र सुरक्षा की चिंता इसकी कमज़ोर प्रकृति को दर्शाती है।
    • यह भवन भूकंप-रोधी भी नहीं है।
  • लागत लाभ:
    • कई केंद्रीय मंत्रालयों के भवनों के लिये किराये का भुगतान करना पड़ता है। नया भवन तथा एक नया केंद्रीय सचिवालय बनने से इस लागत में कमी आएगी।
  • पर्यावरणीय लाभ:
    • विभिन्न मंत्रालयों तक आने-जाने के लिये लोगों और अधिकारियों को शहर के विभिन्न हिस्सों का चक्कर लगाना पड़ता है, इससे यातायात और प्रदूषण भी बढ़ता है।
    • इस परियोजना में मेट्रो स्टेशनों के इंटरलिंकिंग का भी प्रस्ताव है जो वाहनों के उपयोग को कम करेगा।

आलोचना:

  • इस पुनर्विकास परियोजना में बहुत बड़ी धनराशि की आवश्यकता पड़ेगी। वैश्विक महामारी के दौरान इतनी बड़ी राशि व्यय करना उचित निर्णय नहीं है। इससे परियोजना में पारदर्शिता की कमी का आरोप लगाया जा रहा है।
  • अनेक पर्यावरणविदों ने परियोजना की आवश्यकता और पर्यावरण, यातायात तथा प्रदूषण पर इसके प्रभाव का पता लगाने के लिये अध्ययन की कमी को लेकर सवाल उठाया है। व्यापक पैमाने पर भवन निर्माण से क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण बढ़ने की संभावना है।
  • मंत्रालयों व विभागों के कार्यालय स्थापित होने से इस क्षेत्र को आम जनता के लिये प्रतिबंधित किया जा सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भविष्य की महामारियाँ और उनकी रोकथाम

प्रिलिम्स के लिये

स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा, ह्यूमन इम्यूनो डिफिशिएंसी वायरस

मेन्स के लिये

महामारियों का कारण और उन्हें रोकने के उपाय

चर्चा में क्यों?

जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति मंच (IPBES) द्वारा भविष्य की महामारियों के संबंध में एक रिपोर्ट जारी की गई है।

प्रमुख बिंदु

  • इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि किसी प्रकार का कोई महत्त्वपूर्ण उपाय नहीं किया जाता है, तो भविष्य में होने वाली महामारियाँ और भी खतरनाक हो सकती हैं और इनसे संक्रमित लोगों की संख्या भी काफी अधिक हो सकती है।
  • पिछली एक सदी में महामारी की स्थिति


    • उपलब्ध आँकड़ों की मानें तो कोरोना वायरस महामारी, वर्ष 1918 की स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा महामारी के बाद पिछली एक सदी में आने वाली छठवीं महामारी है।
      • विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मार्च 2020 में COVID-19 को महामारी घोषित किया था।
    • पिछली एक सदी में आई कुछ प्रमुख महामारियों के कारण-
    • रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान महामारी की उत्पत्ति का प्रमुख स्रोत जानवर है, जबकि अन्य महामारियों की तरह यह भी पूर्णतः मानवीय गतिविधियों से प्रसारित हो रही है।

  • कारण

    • रिपोर्ट के अनुसार, अब तक की लगभग सभी महामारियाँ ज़ूनोसिस (Zoonoses) रोग के कारण हुई हैं, यानी ये सभी महामारियाँ ऐसी हैं जो जानवरों में मौजूद रोगाणुओं से उत्पन्न हुई और मनुष्यों में फैल रही हैं।
    • 70 प्रतिशत से अधिक बीमारियाँ जैसे कि इबोला, ज़िका और निपा आदि जानवरों में पाए जाने वाले रोगाणुओं के कारण होती हैं और वन्यजीवों, पशुधन तथा लोगों के संपर्क में आने से फैलती हैं।
      • आँकड़ों की मानें तो वर्ष 2019 में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कानूनी तरीके से होने वाले वन्यजीव व्यापार का अनुमानित मूल्य लगभग 107 बिलियन डॉलर था, जिसका अर्थ है कि वर्ष 2005 से अब तक इसमें कुल 500 प्रतिशत और 1980 के दशक से अब तक इसमें कुल 2000 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
    • वहीं दूसरी ओर शेष 30 प्रतिशत बीमारियों के लिये भूमि-उपयोग परिवर्तन, कृषि विस्तार और शहरीकरण जैसे कारकों को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
  • भविष्य की संभावना

    • रिपोर्ट के मुताबिक, वर्तमान में स्तनधारियों और पक्षियों में मौजूद तकरीबन 1.7 मिलियन वायरस ऐसे हैं, जिन्हें अब तक खोजा नहीं जा सका है। इसमें से लगभग 827,000 वायरस ऐसे हैं, जिनमें मनुष्यों को संक्रमित करने की क्षमता हो सकती है।
  • उपाय

    • महामारी के जोखिम को कम करने के लिये जैव विविधता के नुकसान को बढ़ावा देने वाली मानवीय गतिविधियों को कम करने, संरक्षित क्षेत्रों (Protected Areas) का अधिक-से-अधिक संरक्षण करने और ऐसे उपाय अपनाने की आवश्यकता है, जिनके माध्यम से उच्च जैव विविधता वाले क्षेत्रों के अरक्षणीय दोहन को कम किया जा सके।
    • ये उपाय वन्यजीव-पशुधन और मनुष्यों के बीच संपर्क को कम करने में मदद करेंगे, जिससे नई बीमारियों के प्रसार को रोकने में मदद मिलेगी।
    • इसके अलावा विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा कुछ नीतिगत उपाय भी किये जा सकते हैं, जिसमें महामारी की रोकथाम के लिये एक उच्च स्तरीय अंतर-सरकारी परिषद का गठन करना; पर्यावरण, जानवरों और मनुष्यों के संबंध में पारस्परिक रूप से सहमत लक्ष्य स्थापित करना और स्वास्थ्य तथा व्यापार के क्षेत्र में अंतर-सरकारी साझेदारी स्थापित कर अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव व्यापार को नियंत्रित करना है ताकि ज़ूनोसिस रोग के जोखिम को कम किया जा सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


गुज़ारे भत्ते के निर्धारण हेतु दिशा-निर्देश

प्रिलिम्स के लिये

विशेष विवाह अधिनियम (1954), हिंदू विवाह अधिनियम (1955) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125

मेन्स के लिये

गुज़ारे भत्ते के निर्धारण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश और इनकी आवश्यकता

चर्चा में क्यों?

एक ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने वैवाहिक मामलों में गुज़ारे भत्ते के भुगतान से संबंधित दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

प्रमुख बिंदु

  • जस्टिस 0इंदु मल्होत्रा ​​और आर. सुभाष रेड्डी की दो सदस्यीय खंडपीठ ने कहा कि सभी मामलों में गुज़ारे भत्ते का निर्धारण आवेदन दाखिल करने की तारीख के आधार पर किया जाएगा।

न्यायालय के दिशा-निर्देश

  • खंडपीठ ने गुज़ारे भत्ते की मात्रा निर्धारित करने के लिये निम्नलिखित मापदंड सूचीबद्ध किये हैं-

अतिव्यापी अधिकार क्षेत्र का मुद्दे

  • यदि किसी एक पक्ष द्वारा अलग-अलग कानूनों के तहत गुज़ारे भत्ते के भुगतान का दावा किया गया हो तो न्यायालय सर्वप्रथम पिछली कार्यवाही में दिये गए निर्णय और राशि पर विचार करेगा, साथ ही इसी आधार पर यह तय किया जाएगा कि और राशि दी जानी चाहिये अथवा नहीं।
  • न्यायालय में आवेदकों को पिछली कार्यवाही और उसके बाद पारित किये गए आदेशों का खुलासा करना अनिवार्य है।
  • यदि पिछली कार्यवाही/आदेश में किसी संशोधन या भिन्नता की आवश्यकता है, तो इसे उसी कार्यवाही में किया जाना आवश्यक है।

गुज़ारे भत्ते का निर्धारण

  • दोनों पक्षों की आयु और रोज़गार
    • ऐसे मामले में जहाँ दोनों पक्ष काफी समय से एक साथ रह रहे हों, विवाह के समय को भत्ते का निर्धारण करने का एक महत्त्वपूर्ण कारक होगा।
    • दोनों पक्षों के मध्य संबंधों की समाप्ति के मामले में यदि महिला शिक्षित और पेशेवर रूप से योग्य हो, फिर भी उसे अपनी पारिवारिक ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए रोज़गार के अवसरों का त्याग करने पड़े तो इस कारक को भी भत्ते का निर्धारण करते समय न्यायालय द्वारा ध्यान में रखा जाएगा।
  • महिला की आय
    • खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि पत्नी की आय, पति द्वारा दिये जाने वाले गुज़ारे भत्ते के भुगतान के बीच एक अवरोध के रूप में कार्य नहीं कर सकती है।
  • नाबालिग बच्चों का गुज़ारा भत्ता
    • न्यायालय ने कहा कि नाबालिग बच्चों पर होने वाले खर्च में भोजन, कपड़े, निवास, चिकित्सा व्यय और बच्चों की शिक्षा के लिये किये जाने वाला खर्च शामिल होगा। इसके अलावा बच्चों के समग्र विकास के लिये अतिरिक्त कोचिंग क्लासेस या किसी भी अन्य व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का खर्च भी भत्ते के भुगतान के निर्धारण में एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में कार्य करेगा।
    • हालाँकि न्यायालय ने कहा कि बच्चों की शिक्षा का खर्च सामान्यतः पिता द्वारा वहन किया जाना चाहिये, किंतु यदि पत्नी भी कार्य कर रही है, तो खर्च को दोनों पक्षों के बीच आनुपातिक रूप से साझा किया जा सकता है।
  • गंभीर विकलांगता अथवा बीमारी
    • जीवनसाथी, बच्चों अथवा आश्रित रिश्तेदारों की गंभीर विकलांगता अथवा बीमारी, जिसके कारण उन्हें निरंतर देखभाल की आवश्यकता होती है, को भी भत्ते का निर्धारण करते समय एक प्रासंगिक कारक माना जाएगा।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ये मानदंड स्वयं में संपूर्ण नहीं हैं और संबंधित न्यायालय अपने विवेक का उपयोग कर किसी अन्य ऐसे कारक पर भी विचार कर सकते हैं, जो किसी मामले के संबंध में प्रासंगिक हो।

इन दिशा-निर्देशों की आवश्यकता

  • प्रायः आश्रित पत्नी और बच्चों को आर्थिक सहायता प्रदान कर सहारा देने हेतु सामाजिक न्याय के उपाय के रूप में कानूनी तौर पर गुज़ारा भत्ता प्रदान किया जाना आवश्यक है, ताकि उन्हें किसी भी संकट की स्थिति से बचाया जा सके।
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन दिशा-निर्देशों को जारी करने का एकमात्र उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी को एक निश्चित समय-सीमा में न्याय मिल सके।
    • गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में जिस मामले की सुनवाई करते हुए ये दिशा-निर्देश जारी किये हैं, वह मामला बीते सात वर्षों से लंबित था।
  • इसके अलावा न्यायालय के लिये अतिव्यापी अधिकार क्षेत्र के मुद्दे को संबोधित करना भी काफी आवश्यक है। नियमों के अनुसार, एक वैवाहिक संबंध में किसी भी पक्ष द्वारा अलग-अलग कानूनों जैसे- विशेष विवाह अधिनियम (1954), हिंदू विवाह अधिनियम (1955) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 आदि के तहत संबंध को समाप्त करने और गुज़ारे भत्ते के भुगतान के लिये अर्ज़ी दी जा सकती है।
    • यद्यपि कानूनी रूप से यह प्रक्रिया पूर्णतः वैध है, किंतु यह न्यायालय के आदेशों के बीच असंगतता को बढ़ावा देती है, जिससे अतिव्यापी अधिकार क्षेत्र का मुद्दा उत्पन्न होता है।
  • इसलिये इस प्रक्रिया को सुव्यवस्थित किये जाने की आवश्यकता थी, ताकि किसी एक पक्ष को अलग-अलग कानूनों के तहत पारित किये गए आदेशों का पालन करने के लिये बाध्य न किया जा सके।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों से यह सुनिश्चित करने को कहा है कि गुज़ारे भत्ते के निर्धारण से संबंधित मामलों का जल्द-से-जल्द निपटान किया जाए।

स्रोत: द हिंदू


आर्कटिक क्षेत्र में मीथेन रिसाव

प्रिलिम्स के लिये:

हाइड्रेट्स, लापतेव सागर

मेन्स के लिये:

ध्रुवीय क्षेत्रों में पिघलती बर्फ का कारण, प्रभाव तथा इससे निपटने के प्रयास

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रूस और स्वीडन के साझा नेतृत्त्व में बने वैज्ञानिकों के एक दल ने आर्कटिक क्षेत्र में पूर्वी साइबेरियाई सागर के तट के निकट मीथेन गैस रिसाव के प्रमाण मिलने की पुष्टि की है।

प्रमुख बिंदु:

  • गौरतलब है कि आर्कटिक क्षेत्र की ढलानों की तलछट में बड़ी मात्रा में जमी हुई मीथेन और कुछ अन्य गैसें भी पाई जाती हैं, जिन्हें हाइड्रेट्स (Hydrates) के रूप में जाना जाता है।
  • इस शोध में शामिल वैज्ञानिकों के अनुसार, वर्तमान में गैस के अधिकांश बुलबुले पानी में घुले हुए थे, परंतु सतह पर मीथेन का स्तर सामान्य स्थिति की तुलना में 4 से आठ गुना अधिक पाया गया, जो कि धीरे-धीरे वायुमंडल में फैल रहा है।
  • वैज्ञानिकों ने रूस के निकट ‘लापतेव सागर’ (Laptev Sea) में भी 350 मीटर की गहराई में उच्च स्तर पर मीथेन के मिलने की पुष्टि की है।
  • इस क्षेत्र में मीथेन की सांद्रता लगभग 1600 नैनोमोल्स प्रति लीटर बताई गई।

मीथन रिसाव के दुष्प्रभाव:

  • वैज्ञानिकों के अनुसार, मीथेन में वायुमंडल को गर्म करने की क्षमता कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में बहुत अधिक होती है (20 वर्षों में 80 गुना)।
  • इससे पहले ‘द यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे’’ (The United States Geological Survey) ने अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन के लिये आर्कटिक के हाइड्रेट्स की अस्थिरता को चार सबसे गंभीर स्थितियों में से एक बताया था।
  • वैज्ञानिकों के अनुसार, वर्तमान में इस रिसाव के कारण जलवायु परिवर्तन पर कोई बड़ा प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है परंतु पूर्वी साइबेरिया में मीथेन हाइड्रेट्स की अस्थिरता लगातार जारी रहेगी, आगे चलकर जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
  • जमी हुई मीथेन की सुभेद्यता के मामलों में आर्कटिक क्षेत्र का मुद्दा सबसे अहम है, इस क्षेत्र को ‘स्लीपिंग जायंट्स ऑफ द कार्बन सायकल’ (Sleeping Giants of the Carbon Cycle) के नाम से भी जाना जाता है।

अन्य चुनौतियाँ:

  • वर्तमान में आर्कटिक क्षेत्र का तापमान में वैश्विक औसत की तुलना में दोगुनी गति से बढ़ रहा है, ऐसे में मीथेन के वायुमंडल में पहुँचने को लेकर चिंताए और भी बढ़ गई हैं।
  • इस वर्ष जनवरी से जून के बीच साइबेरिया के तापमान में सामान्य से 5°C की वृद्धि दर्ज की गई, इस क्षेत्र के तापमान में हुई वृद्धि के लिये मानवीय गतिविधियों के कारण मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड के अत्यधिक उत्सर्जन को उत्तरदायी बताया गया है।
  • पिछले वर्ष सर्दियों में समुद्री बर्फ असामान्य रूप से जल्दी ही पिघल गई और इस वर्ष की सर्दियों में बर्फ जमने की शुरुआत अभी तक नहीं हुई है, जिसमें पहले से ज्ञात किसी भी समय की तुलना में काफी देरी हो चुकी है।

कारण:

  • इस क्षेत्र में उत्पन्न अस्थिरता के लिये सबसे संभावित कारण पूर्वी आर्कटिक में गर्म अटलांटिक धाराओं के प्रवेश को माना जा रहा है।
  • इस भौगोलिक घटना के लिये भी मानवीय गतिविधियों को उत्तरदायी बताया गया है।

जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने हेतु प्रयास:

  • जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिये विश्व के अधिकांश देशों द्वारा पेरिस समझौते (Paris Agreement) के तहत वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर (Pre-Industrial level) से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखने की प्रतिबद्धता पर सहमति व्यक्त की गई।
  • कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये यूरोपीय संघ (European Union) द्वारा ग्रीन डील की अवधारणा के तहत कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।

स्रोत: द हिंदू


शीत लहर

प्रिलिम्स के लिये:

शीत लहर, भारतीय मौसम विभाग, ला नीना

मेन्स के लिये:

भारत के कुछ क्षेत्रों में शीतलहर का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

भारतीय मौसम विभाग (India Meteorological Department-IMD) के अनुसार, दिल्ली में शीत लहर की स्थिति है।

प्रमुख बिंदु:

  • शीत लहर (Cold Wave):
    • 24 घंटे के भीतर तापमान में तेज़ी से गिरावट अर्थात् कृषि, उद्योग, वाणिज्य एवं सामाजिक गतिविधियों के लिये सुरक्षा की आवश्यकता वाले स्तर को दर्शाती है।
  • शीत लहर की स्थिति:
    • मैदानी इलाकों के लिये शीत लहर की घोषणा तब की जाती है जब न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस या उससे नीचे हो और लगातार दो दिनों तक सामान्य से 4.5 डिग्री सेल्सियस कम तापमान हो।
    • तटीय क्षेत्रों में तापमान 10 डिग्री सेल्सियस के न्यूनतम तापमान की सीमा तक शायद ही कभी पहुँच पाता है। हालाँकि स्थानीय लोगों को ‘विंड चिल फैक्टर’ (Wind Chill Factor) या वायु शीतलन प्रभाव के कारण असुविधा महसूस होती है जो हवा की गति के आधार पर न्यूनतम तापमान को कुछ डिग्री कम कर देता है।
    • ‘विंड चिल फैक्टर’ (Wind Chill Factor) के आधार पर किसी भी बॉडी या वस्तु द्वारा ऊष्मा उत्सर्जित करने की दर की माप की जाती है।
  • भारत का मुख्य शीत लहर क्षेत्र:
    • 'मुख्य शीतलहर' क्षेत्र में पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना आदि आते हैं।
    • वर्ष 2019 में दिल्ली एवं इसके आस-पास के क्षेत्रों ने सदी की सबसे सर्द शीत ऋतु का अनुभव किया था।

दिल्ली में शीत लहर की स्थिति:

  • 3 नवंबर, 2020 को दिल्ली में न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया जो सामान्य से 5 डिग्री सेल्सियस कम था।
  • यदि तापमान एक दिन और इसी तरह रहता है तो IMD ‘शीत लहर’ की घोषणा करने पर विचार कर सकता है।

न्यूनतम तापमान में गिरावट का कारण:

  • इस क्षेत्र में बादलों के आवरण की अनुपस्थिति: बादलों की उपस्थिति से पृथ्वी द्वारा उत्सर्जित अवरक्त विकिरण में से कुछ विकिरणों को रोक दिया जाता है, ये विकिरण वापस पृथ्वी की तरफ आकर पृथ्वी को गर्म करते हैं किंतु बादलों की अनुपस्थिति से इस क्षेत्र का गर्म न हो पाना।
  • ऊपरी हिमालय में बर्फबारी से क्षेत्र की ओर ठंडी हवाओं का चलना।
  • इस क्षेत्र में ठंडी हवा का अधोगमन (Subsidence)।
    • ठंडी एवं शुष्क हवा का पृथ्वी की सतह के पास नीचे की ओर गति हवाओं का अधोगमन (Subsidence of Air) कहलाता है।
  • प्रशांत महासागर में कमज़ोर ला नीना (La Nina) की स्थिति।
    • ला नीना प्रशांत महासागर के ऊपर होने वाली एक जटिल मौसमी घटना है जिसका दुनिया भर के मौसम पर व्यापक असर होता है।
    • ला नीना वर्षों के दौरान ठंड की स्थिति अत्यंत तीव्र हो जाती है और शीत लहर की आवृत्ति एवं क्षेत्र बढ़ जाता है।
  • शीत ऋतु 2020: नवंबर 2020 में औसत न्यूनतम तापमान 17.2 डिग्री सेल्सियस [वर्ष 1962 के बाद सबसे कम] होने के बाद मौसम वैज्ञानिकों ने नवंबर महीना सामान्य से अधिक ठंडा होने की उम्मीद जताई है।

स्रोत: द हिंदू