कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु दिशा-निर्देश

प्रिलिम्स के लिये

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग

मेन्स के लिये

कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु उपाय और दिशा-निर्देश

चर्चा में क्यों?

गृह मंत्रालय के अनुरोध पर कार्रवाई करते हुए ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस’ (निमहांस) ने कैदियों और जेल कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के प्रबंधन के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

प्रमुख बिंदु

दिशा-निर्देश

  • मानसिक स्वास्थ्य संबंधी रोग की पहचान के लिये ‘गेटकीपर मॉडल’:
    • इस मॉडल के तहत आत्महत्या के जोखिम वाले कैदियों की पहचान करने हेतु विशेष रूप से प्रशिक्षित चयनित कैदी, अन्य कैदियों को उपचार एवं सहायक सेवा प्रदान करेंगे।
    • यह देश भर की जेलों में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से प्रेरित आत्महत्याओं को रोकने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
    • जेल कैदियों में से लगभग 80% लोगों में मानसिक बीमारी और मादक पदार्थों के सेवन संबंधी विकार की व्यापकता देखी गई है।
  • मानसिक स्वास्थ्य उपचार के लिये:
    • मानसिक विकारों वाले कैदियों को आत्महत्या के जोखिम से बचाने के लिये उनका नियमित रूप से मूल्यांकन एवं पर्यवेक्षण करना आवश्यक होता है और नियमित रूप से दवा दी जानी भी महत्त्वपूर्ण होती है।
    • कैदियों की मानसिक स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये सुधार सुविधाओं में ‘ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम’ जैसे समुदाय आधारित पहलों के लिंक किया जाना चाहिये।
  • सामाजिक हस्तक्षेप के लिये ‘बडी सिस्टम’ (Buddy System):
    • यह प्रशिक्षित कैदियों के माध्यम से एक प्रकार का सामाजिक समर्थन कार्यक्रम है, जिसे ‘बडी’ या ‘श्रोता’ के रूप में जाना जाता है।
    • आत्महत्या की इच्छा से पीड़ित कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य पर इस पहल का बेहतर प्रभाव पाया गया है। इसके अलावा मित्रों और परिवार के साथ समय-समय पर टेलीफोन पर बातचीत करना भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
      • ई-मुलाकात एक ऑनलाइन प्लेटफाॅर्म है, जो कैदियों के रिश्तेदारों/ दोस्तों/अधिवक्ताओं को राष्ट्रीय कारागार सूचना पोर्टल के माध्यम से कैदियों के साक्षात्कार हेतु बुकिंग करने में सक्षम बनाता है।

आवश्यकता: 

  • भारतीय जेलों में लंबे समय से चली आ रही तीन संरचनात्मक बाधाएँ:  भीड़भाड़, कर्मचारी एवं  धन की कमी तथा  हिंसक झड़पें।
  • वर्ष 2019 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( National Crime Records Bureau- NCRB) द्वारा प्रकाशित प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया 2016, रिपोर्ट भारत की जेलों में बंद कैदियों की दयनीय स्थिति पर प्रकाश डालती है।
  • अंडर-ट्रायल पापुलेशन/जनसंख्या: भारत की अंडर-ट्रायल पापुलेशन विश्व में सर्वाधिक है। वर्ष 2016 के अंत में 4,33,033 लोग जेल में थे, जिनमें से 68% अंडर-ट्रायल थे। 
    • रिमांड की सुनवाई के दौरान गैर-ज़रूरी गिरफ्तारियों और अप्रभावी कानूनी सहायता का परिणाम समग्र रूप से जेलों में विचाराधीन कैदियों का उच्च अनुपात हो सकता है। 
    • कोविड-19 भी एक कारण है जिसने ट्रायल को स्थगित करने तथा अदालती सुनवाई में देरी को और अधिक बढ़ाया है।
  • निवारक निरोध के तहत रखे गए लोग: जम्मू और कश्मीर में प्रशासनिक (या 'रोकथाम') निरोध कानूनों के तहत पकड़े गए लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है।
    • वर्ष 2015 में जहाँ बंदियों की कुल संख्या 90 थी वहीँ वर्ष 2016 में 431 बंदियों के  चलते तुलनात्मक रुप से 300% की वृद्धि हुई है।
    • प्रशासनिक या 'निवारक' निरोध का उपयोग अधिकारियों द्वारा बिना किसी आरोप या मुकदमे के व्यक्तियों को हिरासत में लेने एवं नियमित आपराधिक न्याय प्रक्रियाओं को दरकिनार करने हेतु  किया जाता है।
    • सी.आर.पी.सी की धारा 436ए विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत मुचलके पर रिहा करने की अनुमति देती है यदि वे दोषी पाए जाने पर उनके द्वारा झेली जाने वाली कारावास की अधिकतम अवधि का आधा हिस्सा पूरा कर  चुके हों।
  • जेल में अप्राकृतिक मौतें: जेलों में "अप्राकृतिक" मौतों की संख्या वर्ष 2015 और वर्ष 2016 के बीच बढ़कर 115 से 231 तक यानी दोगुनी हो गई है।
    • कैदियों के बीच आत्महत्या की दर में भी 28% की वृद्धि हुई। वर्ष 2015 में आत्महत्याओं के 77 मामले थे, वहीँ वर्ष 2016 में यह संख्या बढ़कर 102 हो गई।
    • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने वर्ष 2014 में कहा था कि जेल से बाहर रहने वाले एक व्यक्ति की तुलना में जेल में आत्महत्या करने की संभावना डेढ़ गुना अधिक होती है। यह भारतीय जेलों के भीतर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं की भयावहता का एक संभावित संकेतक है।
  • मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी: वर्ष 2016 में प्रत्येक 21,650 कैदियों पर केवल एक मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ मौजूद था, वहीं केवल छह राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में मनोवैज्ञानिक/मनोचिकित्सक मौजूद थे।
    • साथ ही NCRB ने कहा था कि वर्ष 2016 में मानसिक बीमारी से ग्रसित लगभग 6,013 व्यक्ति जेल में थे।
    • जेल अधिनियम, 1894 और कैदी अधिनियम, 1900 के अनुसार, प्रत्येक जेल में एक कल्याण अधिकारी तथा एक कानून अधिकारी होना चाहिये लेकिन इन अधिकारियों की भर्ती अभी भी लंबित है। यह पिछली शताब्दी के दौरान जेलों को मिली राज्य की कम राजनीतिक और बजटीय प्राथमिकता की व्याख्या करता है।

आगे की राह

  • जेल या पुलिस लॉक-अप में आत्महत्या को रोकना प्राथमिक रूप से एक चिकित्सा मामला नहीं है, बल्कि इसके लिये विभिन्न एजेंसियों के सहयोग और समन्वय की आवश्यकता है।
  • सभी पुलिसकर्मियों के लिये यह आवश्यक है कि वे हिरासत में आत्महत्या के व्यवहार को एक गंभीर मामले के रूप में तथा इसे रोके जा सकने वाले विकार के रूप में लें, जैसा कि किसी भी अन्य परिस्थिति में होता है। 
  • व्यक्तियों को जेल में रखने से पूर्व उनकी जाँच करना, नशीली दवाओं और शराब के दुरुपयोग या मानसिक बीमारी जैसे महत्त्वपूर्ण जोखिम कारकों की पहचान करना  आवश्यक है तथा इस संबंध में उचित चिकित्सा सहायता प्राप्त करने से ऐसी घटनाओं की संख्या में काफी कमी आ सकती है।
  • इस तरह की घटनाएँ, जेल या पुलिस लॉक-अप के वातावरण पर ही निर्भर करती हैं  क्योंकि इनकी अनदेखी आत्महत्या के जोखिम को बढ़ा सकता है। इसलिये जेल के वातावरण में क्रमिक परिवर्तन व्यक्ति को स्थिति के अनुकूल होने और समस्याओं से निपटने के लिये सीखने में मदद कर सकता है।

स्रोत :द हिंदू