न्यायपालिका का भारतीयकरण | 27 Sep 2021

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) एन.वी. रमन्ना ने देश की कानूनी व्यवस्था के भारतीयकरण को समय की मांग बताया। उन्होंने यह भी कहा कि न्याय वितरण प्रणाली को अधिक सुलभ और प्रभावी बनाना आवश्यक है।

प्रमुख बिंदु

  • भारतीयकृत न्यायपालिका:
    • CJI के अनुसार, न्यायालयों को वादी-केंद्रित होने की आवश्यकता है, जबकि न्याय वितरण का सरलीकरण प्रमुख लक्ष्य होना चाहिये।
    • CJI ने कहा कि न्यायपालिका के भारतीयकरण का अर्थ है न्याय वितरण प्रणाली का स्थानीयकरण।
  • भारत की सदियों पुरानी न्यायपालिका प्रणाली:
    • भारत में दुनिया की सबसे पुरानी न्यायपालिका प्रणाली है, जो 5000 साल पुरानी है।
    • भारत के इतिहास में एक बहुत प्रभावी, भरोसेमंद और लोकतांत्रिक न्यायिक प्रणाली रही है, लेकिन वर्तमान निर्णयों में अधिकांश उद्धरण पश्चिमी न्यायशास्त्र से लिये गए हैं।
    • न्याय प्रदान करने की भारत की अपनी प्राचीन प्रणाली को बहुत कम मान्यता दी जाती है।
  • संबंधित सिफारिशें:
    • मलीमथ समिति की रिपोर्ट: भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System of India-CJS) में सुधारों पर मलीमथ समिति (वर्ष 2000) ने वर्ष 2003 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
      • समिति ने सुझाव दिया कि सभी क्षेत्रीय भाषाओं में संहिता की एक अनुसूची तैयार की जाए ताकि अभियुक्त को अपने अधिकारों के बारे में पता हो, साथ ही उन्हें कैसे लागू किया जाए और उन अधिकारों से वंचित होने पर किससे संपर्क किया जाए, इस संबंध में जानकारी मिल सके।
    • विधि आयोग, 1958: अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (The All India Judicial Services- AIJS) को पहली बार वर्ष 1958 में विधि आयोग की 14वीं रिपोर्ट द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
      • विधि आयोग की एक रिपोर्ट (वर्ष 1987) ने सिफारिश की थी कि भारत में 10.50 न्यायाधीशों (तत्कालीन) की तुलना में प्रति मिलियन जनसंख्या पर 50 न्यायाधीश होने चाहिये।

न्यायिक प्रणाली में सुधार के लिये की गई पहलें

  • न्यायिक अवसंरचना:
    • कोर्ट हॉल की संख्या वर्ष 2014 के 15,818 से बढ़कर वर्ष 2021 में 20,218 हो गई है और आवासीय इकाइयाँ भी वर्ष 2014 में 10,211 से बढ़कर वर्ष 2021 में 17,815 हो गई हैं।
    • वर्तमान में 2,693 कोर्ट हॉल और 1,852 आवासीय इकाइयाँ निर्माणाधीन हैं।
    • न्यायपालिका के लिये बुनियादी सुविधाओं के विकास हेतु केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) को वित्त वर्ष 2025-26 तक बढ़ा दिया गया है।
    • अदालतों में वकील हॉल, शौचालय, कंप्यूटर रूम भी बढ़ाए गए हैं।
  • ई-कोर्ट परियोजना और कम्प्यूटरीकृत न्यायालय:
    • सरकार ई-कोर्ट प्रोजेक्ट को मिशन मोड में लागू कर रही है।
    • ट्रैफिक से जुड़े अपराधों की सुनवाई के लिये 12 शहरों में वर्चुअल कोर्ट स्थापित किये गए हैं।
    • कम्प्यूटरीकृत अदालतें भी वर्ष 2014 के 13,000 से बढ़कर वर्ष 2021 में 18,000 हो गई हैं।
    • कम्प्यूटरीकृत अदालतों और ई-कोर्ट में न्यायिक सेवा केंद्रों में भी वृद्धि हुई है; वादी अब 18,000 से अधिक मामलों की स्थिति जान सकते हैं।
  • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग:
    • लॉकडाउन के दौरान वीडियो कांफ्रेंसिंग सुनवाई का मुख्य माध्यम रहा है। सुप्रीम कोर्ट में एक साल की अवधि में 96,000 से अधिक मामलों की सुनवाई आभासी माध्यम से हुई है।
    • 3,240 कोर्ट परिसरों और 1,272 जेलों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग व्यवस्था लागू की गई है।
  • AI आधारित SUPACE पोर्टल:
    • मई 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक प्रणाली में एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित पोर्टल 'SUPACE' लॉन्च किया, जिसका उद्देश्य न्यायाधीशों को कानूनी रिसर्च में सहायता करना है।
    • CJI रमन्ना ने एक ऐसी प्रणाली का उद्घाटन किया जिसके तहत बॉम्बे और दिल्ली उच्च न्यायालय में आपराधिक अपीलों को SUPACE की मदद से हल किया जाएगा।

संबंधित मुद्दे

  • लंबित मामले:
    • उपर्युक्त उपायों की शुरुआत के बावजूद लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है।
    • अब तक न्यायपालिका में 4.5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
    • अकेले सर्वोच्च न्यायालय में 65,000 से अधिक मामले लंबित हैं और विभिन्न उच्च न्यायालयों में लगभग 60 लाख मामले लंबित हैं।
    • यहाँ तक ​​कि अगर कोई नया मामला दर्ज नहीं किया जाता है तो भी मौजूदा रिक्तियों और बैकलॉग को समाप्त करने में न्यायपालिका को लगभग 100 साल लगेंगे।
  • न्यायाधीशों की अनुपलब्धता:
    • न्यायाधीशों की संख्या बढ़ती जा रही है लेकिन यह संख्या वांछित स्तर तक नहीं है जैसा कि यूरोपीय देशों में है।
    • वर्तमान में भारत में प्रति मिलियन जनसंख्या पर न्यायाधीशों का अनुपात केवल 19.78 हैं।
  • उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का बेहद कम प्रतिनिधित्व: 
    • सर्वोच्च न्यायालय के अस्तित्व में आने के 39 साल बाद वर्ष 1989 में पहली बार महिला न्यायाधीश, जस्टिस फातिमा बीवी नियुक्त हुई थीं।
    • तब से अब तक सिर्फ 10 महिलाएँ ही शीर्ष अदालत में न्यायाधीश बनी हैं।
    • उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की संख्या केवल 11% है।
    • पाँच उच्च न्यायालयों (पटना, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा और उत्तराखंड) में किसी भी महिला ने न्यायाधीश के रूप में कार्य नहीं किया।
  • विदेशी भाषा में लंबे निर्णय:
    • ग्रामीण इलाकों से आने वाले विवादों में शामिल होने वाले पक्षों को आमतौर पर न्यायालय में बाहरी महसूस कराया जाता है।
    • अंग्रेज़ी में निर्णय और दलीलें (ग्रामीणों के लिये एक विदेशी भाषा) समझना उनके लिये काफी कठिन हो जाता है। उन्हें यह समझ नही आ पाता है कि याचिकाओं में क्या लिखा गया है और अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता कैसे हासिल करें।
    • लंबे निर्णयों ने निर्णय के निहितार्थ को समझना वादियों और पक्षकारों के लिये और अधिक जटिल बना दिया है।
  • भारतीय न्यायपालिका का ब्रिटिश मूल:
    • भारत की वर्तमान न्यायिक प्रणाली की उत्पत्ति का स्रोत एक प्रकार से न्यायपालिका की औपनिवेशिक प्रणाली में देखा जा सकता है जो कमोबेश स्वामी-सेवक के दृष्टिकोण से स्थापित की गई थी, न कि जनता के दृष्टिकोण से।
    • इसके अलावा न्यायालयों की कार्यप्रणाली और शैली भारत की जटिलताओं के साथ मेल नहीं खाती है।
    • औपनिवेशिक मूल के होने के कारण यह व्यवस्था, प्रथा और नियम भारतीय आबादी की ज़रूरतों के लिये बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं हैं।

आगे की राह

  • पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका: पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाना होगा और सभी छोटे-छोटे मामलों को पंचायती राज संस्थाओं को दी जानी चाहिये।
  • त्वरित सुधार: जो भी सुधार हुए हैं, उनमें तेज़ी लाने की ज़रूरत है।
    • न्यायाधीश उस समयसीमा को निर्धारित करेंगे जिसके भीतर दलील समाप्त की जानी चाहिये।
  • अधिवक्ताओं की भूमिका: न्याय वितरण प्रणाली में अधिवक्ताओं से एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है क्योंकि वे अदालतों के अधिकारी होते हैं।
    • उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिये कि अनावश्यक स्थगन की मांग न की जाए ताकि न्याय वितरण प्रणाली और प्राकृतिक न्याय के बुनियादी सिद्धांतों से समझौता किये बिना मामलों का जल्द-से-जल्द फैसला किया जा सके।
  • ज़मीनी स्तर पर भारतीयकरण: भारत जैसे देश के लिये एक मज़बूत न्यायिक प्रणाली हेतु ज़मीनी स्तर पर न्यायालयोंं में भारतीय/क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग किया जाना अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
    • न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति है लेकिन अधिकांश न्यायाधीशों द्वारा इनका प्रयोग नहीं किया जाता है।
    • कार्यवाही और निर्णयों की जटिलताओं को दूर किया जाना चाहिये तथा प्रक्रिया को यथासंभव सरल बनाया जाना चाहिये।
    • स्थानीय परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा, जैसे किस विशेष प्रकार के मामले एक निश्चित क्षेत्र से आ रहे हैं। ये सभी उपाय स्थानीय परिस्थितियों को उचित महत्त्व देंगे।
  • मध्यस्थता: मध्यस्थता प्रक्रियात्मक देरी, सीपीसी और सीआरपीसी की जटिल प्रक्रियाओं से बचने तथा एक अपरिवर्तनीय समाधान तक पहुँचने में मदद कर सकती है। यह एक किफायती तरीका भी है।
    • सीपीसी की धारा 89 के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने चार प्रकार के विवाद समाधान तंत्रों की स्थापना की; आर्बिट्रेशन, सुलह, न्यायिक समझौता और मध्यस्थता।
    • मध्यस्थता एक बेहतर स्थिति है क्योंकि यह न केवल लंबित मामलों को कम करती है बल्कि इसमें दोनों पक्षों की संतुष्टि भी शामिल होती है क्योंकि निर्णय वे ही लेते हैं।
  • पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलना समय की मांग है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में पदोन्नत होने वालों के नामों की सिफारिश और अनुमोदन में पितृसत्तात्मक मानसिकता को न आने दिया जाए एवं योग्य महिला वकीलों तथा ज़िला न्यायाधीशों को पदोन्नति के ज़रिये अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाए।
    • न्यायपालिका में कोई भी सुधार तब तक प्रभावी नहीं हो सकता जब तक कि इसमें महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता है।

निष्कर्ष

न्यायपालिका का भारतीयकरण समय की मांग है। न्याय के प्रभावी वितरण के लिये एक सुपरिचित भाषा में संक्षिप्त निर्णय समय पर देना आवश्यक है।