स्वदेशी हींग की कृषि में महत्त्वपूर्ण सफलता | 11 Jun 2025

स्रोत: द हिंदू 

लगभग 5 वर्षों की निरंतर प्रयासों के बाद, पालमपुर स्थित IHBT में हींग (Asafoetida) के पहले पुष्पन और बीज रोपण की सफलतापूर्वक रिपोर्ट की गई। यह उपलब्धि हींग की कृषि में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, जो यह दर्शाती है कि इस पौधे को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जा सकता है।

  • वर्ष 2020 में, पालमपुर स्थित CSIR-हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान (IHBT) ने हींग की कृषि को शुरू करने के लिये एक राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत की। इसके तहत लाहौल घाटी (हिमाचल प्रदेश) के क्वारिंग गाँव  में हींग का रोपण किया गया, जिसमें ईरान और अफगानिस्तान से प्राप्त बीजों का उपयोग किया गया। 

हींग

  • परिचय: यह पौधा एक बारहमासी जड़ी-बूटी है, जो अम्बेलीफेरिया (Apiaceae) से संबंधित है।
    • पौधे की मोटी जड़ से, लगभग 5 वर्षों की परिपक्वता के बाद निकाला गया ओलियो-गम रेज़िन ही वह खाद्य हींग होती है जिसका उपयोग पाक कला और औषधीय प्रयोजनों में किया जाता है।
  • आदर्श पर्यावरणीय परिस्थितियाँ: हींग शीत और शुष्क जलवायु क्षेत्रों में अच्छी तरह पनपती है, जैसे कि ईरान, अफगानिस्तान एवं मध्य एशिया में पाया जाता है।
    • इस पौधे के लिये रेतीली, अच्छी जल निकासी वाली मृदा अनुकूल होती है, जिसमें आर्द्रता बहुत कम हो। इसकी वृद्धि के लिये तापमान 10 से 20 डिग्री सेल्सियस के बीच उपयुक्त होता है, लेकिन यह 40 डिग्री सेल्सियस तक की गर्मी और -4 डिग्री सेल्सियस की ठंड भी सहन कर सकता है।
    • इसके इष्टतम विकास के लिये बहुत कम वर्षा (वार्षिक 300 मिमी. से कम) की भी आवश्यकता होती है ।  
    • भारत में लाहौल-स्पीति और उत्तरकाशी जैसे क्षेत्र हींग की कृषि के लिये उपयुक्त हैं, क्योंकि यहाँ की जलवायु अर्ध-शुष्क तथा उच्च हिमालयी है।
  • महत्त्व: यह प्राचीन आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी महाभारत, चरक संहिता और पाणिनी के ग्रंथों में उल्लिखित है। इसे पाचन लाभों के लिये अत्यंत मूल्यवान माना जाता है — यह पेट दर्द को दूर करती है, स्वाद बढ़ाती है और पाचन में सहायक होती है।  
    • विश्व का सबसे बड़ा उपभोक्ता होने के बावजूद, भारत पिछले दशक के प्रारंभ तक पूरी तरह से अफगानिस्तान, ईरान और उज़्बेकिस्तान से आयात पर निर्भर था।

और पढ़ें: भारत में हींग कृषि परियोजना