न्यायिक जवाबदेही और के. वीरास्वामी निर्णय, 1991 | 23 May 2025

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

उपराष्ट्रपति ने आंतरिक जाँच/इन-हाउस इन्क्वायरी के संवैधानिक आधार को चुनौती दी और न्यायमूर्ति वर्मा के आवास पर नकदी जब्त होने के बाद के. वीरास्वामी निर्णय, 1991 की समीक्षा की मांग की, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ FIR याचिकाओं को खारिज कर दिया था तथा आंतरिक जाँच जारी रखने की अनुमति दी थी।

  • आंतरिक जाँच: भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों के एक पैनल द्वारा आंतरिक जाँच की जाती है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि किसी न्यायाधीश के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला है या नहीं।
    • दोषी न्यायाधीशों के संबंध में मुख्य न्यायाधीश की शक्तियाँ उन्हें सौंपे गए कार्य को स्थानांतरित करने या वापस लेने तथा संबंधित न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की सिफारिश करने तक सीमित हैं।
    • संविधान के तहत, अनुच्छेद 124 के तहत महाभियोग एकमात्र संवैधानिक निष्कासन प्रक्रिया है, लेकिन 75 वर्षों में यह कभी सफल नहीं हुई।
    • वर्ष 2019 में तत्कालीन CJI रंजन गोगोई ने CBI को जस्टिस एस. एन. शुक्ला के खिलाफ FIR दर्ज करने की अनुमति दी थी, जबकि CJI दीपक मिश्रा ने महाभियोग की सिफारिश की थी जिसे सरकार ने नज़रअंदाज कर दिया था।
  • के. वीरास्वामी निर्णय, 1991: इसने न्यायाधीशों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत लोक सेवकों के रूप में वर्गीकृत किया, लेकिन अभियोजन (FIR दर्ज करना) के लिये मुख्य न्यायाधीश की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है, जिससे न्यायपालिका को अंतर्निहित प्रतिरक्षा के साथ कार्यपालिका के हस्तक्षेप से सुरक्षा मिलती है।
  • संविधान के तहत उन्मुक्ति: राष्ट्रपति और राज्यपालों (अनुच्छेद 361) के विपरीत, संविधान के तहत न्यायाधीशों को कोई उन्मुक्ति नहीं है।
    • उपराष्ट्रपति का तर्क है कि अभियोजन की मंज़ूरी उस प्राधिकारी से मिलनी चाहिये जो लोक सेवक को नियुक्त करता है, अर्थात् भारत के राष्ट्रपति, जिन्हें अनुच्छेद 53 के तहत कार्यकारी शक्तियाँ प्राप्त हैं।

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