भारत में पर्यावरणीय न्याय का विकास | 11 Oct 2025
यह एडिटोरियल 09/10/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “A verdict that misses the fine print,” पर आधारित है। इस लेख वर्ष 2025 में सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय पर चर्चा की गई है, जिसमें पश्च-तथ्य पर्यावरणीय स्वीकृतियों (Post-facto environmental clearances) को अवैध घोषित किया गया है। इस निर्णय के परिणामस्वरूप विधिक तथा सामाजिक-आर्थिक भ्रम और उस संतुलित अनुपालन दृष्टिकोण की आवश्यकता पर भी लेख प्रकाश डालता है जो पर्यावरण की रक्षा करे परंतु आजीविकाओं को हानि न पहुँचाये।
प्रिलिम्स के लिये:
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972, पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना (EIA), 2006, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT), एमसी मेहता बनाम भारत संघ, PM-KUSUM
मेन्स के लिये:
भारत में पर्यावरण न्याय और उसका कार्यढाँचा, भारत में पर्यावरण न्याय के विकास को प्रेरित करने वाले प्रमुख कारक, भारत में पर्यावरण न्याय को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ
भारत का पर्यावरणीय न्याय कार्यढाँचा सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2025 के उस ऐतिहासिक निर्णय के पश्चात् एक निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया है, जिसमें पूर्व-स्वीकृति के बिना निर्मित परियोजनाओं के लिये पोस्ट-फैक्टो (बाद में दी गई) स्वीकृतियों को अवैध ठहराया गया। यद्यपि इस निर्णय ने पारिस्थितिकीय उत्तरदायित्व को सशक्त किया है, परंतु इसके परिणामस्वरूप अनिश्चितता, बड़े पैमाने पर विध्वंस की आशंका तथा आर्थिक अव्यवस्था जैसी परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हुई हैं। तटीय विनियमन से जुड़ी अस्पष्टताओं से लेकर आजीविका पर पड़ते संकट तक, चुनौती इस बात की है कि कठोर पर्यावरणीय अनुपालन और सतत् विकास के बीच ऐसा संतुलन किस प्रकार स्थापित किया जाये जिससे प्रकृति की रक्षा समाजिक एवं आर्थिक संवहनीयता की कीमत पर न हो।
भारत में पर्यावरणीय न्याय और उसका कार्यढाँचा क्या है?
- विषय: पर्यावरणीय न्याय उस सिद्धांत को संदर्भित करता है जिसके अनुसार सभी व्यक्तियों और समुदायों को, चाहे उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, जाति या स्थान कुछ भी हो, एक स्वस्थ, सुरक्षित एवं स्थायी पर्यावरण का अधिकार है।
- यह पर्यावरणीय लाभों और भारों का समान वितरण सुनिश्चित करता है।
- यह प्रदूषकों की उत्तरदायित्व, पर्यावरणीय निर्णय लेने की प्रक्रिया तक अभिगम्यता एवं असुरक्षित आबादी की सुरक्षा को बढ़ावा देता है।
- यह सतत् विकास के साथ संरेखित है, पारिस्थितिक संरक्षण को मानवीय और आर्थिक कल्याण के साथ संतुलित करता है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 21 - जीवन का अधिकार: इसमें स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार शामिल है; न्यायालयों ने इसे पर्यावरण संरक्षण तक विस्तारित किया है।
- अनुच्छेद 48A - नीति निर्देशक सिद्धांत: राज्य को पर्यावरण की रक्षा व् सुधार तथा वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 51A(g) - मूल कर्त्तव्य: नागरिकों को पर्यावरण की रक्षा करने के लिये बाध्य करता है।
- प्रमुख पर्यावरणीय कानून:
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986: पर्यावरण की गुणवत्ता की रक्षा एवं सुधार के लिये केंद्र सरकार को व्यापक शक्तियाँ प्रदान करता है।
- जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974: जल प्रदूषण को नियंत्रित करता है तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की स्थापना करता है।
- वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981: वायु प्रदूषण से निपटता है और नियामक प्राधिकरणों को सशक्त बनाता है।
- वन संरक्षण अधिनियम, 1980: गैर-वनीय उद्देश्यों के लिये वन भूमि के उपयोग को नियंत्रित करता है।
- वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972: वन्यजीवों और प्राकृतिक आवासों की रक्षा करता है।
- तटीय विनियमन क्षेत्र (CRZ) अधिसूचना, 2011: तटीय क्षेत्रों में विकास को नियंत्रित करता है।
- EIA अधिसूचना, 2006: विकास परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय मंज़ूरी (EC) अनिवार्य करता है।
- नियामक और संस्थागत तंत्र:
- पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC): नीतियाँ तैयार करता है, पर्यावरणीय मंज़ूरी प्रदान करता है तथा पर्यावरण अनुपालन की निगरानी करता है।
- केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड: वायु और जल प्रदूषण की निगरानी करते हैं, नियमों को लागू करते हैं।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT): पर्यावरणीय विवादों के त्वरित समाधान और पर्यावरणीय कानूनों के प्रवर्तन हेतु विशिष्ट न्यायिक निकाय।
- न्यायिक हस्तक्षेप:
- जनहित याचिका (PIL): नागरिक पर्यावरण संरक्षण के लिये न्यायालयों का रुख कर सकते हैं।
- ऐतिहासिक मामले:
- एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (1986 और उसके बाद के फैसले) - सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के प्रमुख सिद्धांतों के रूप में ‘प्रदूषक भुगतान सिद्धांत’ और ‘अनुकरणीय क्षति के सिद्धांत’ को स्पष्ट रूप से मान्यता दी।
- टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ (1995) - सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों और केंद्रीय एजेंसियों को वनों के संरक्षण, जैवविविधता की रक्षा एवं पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने का निर्देश दिया।
- एस.पी. मुथुरमन बनाम भारत संघ (2025) - इस हालिया सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में, न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कार्योत्तर पर्यावरणीय मंजूरी पर प्रतिबंध लगा दिया और इस बात पर बल दिया कि कोई भी विकासात्मक परियोजना पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों को दरकिनार करने के लिये पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त नहीं कर सकती है।
भारत में पर्यावरणीय न्याय के विकास को गति देने वाले प्रमुख कारक क्या हैं?
- कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा उपाय: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) की व्यापक व्याख्या की है तथा इसमें स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को भी शामिल किया है।
- इसी प्रकार, वर्ष 2025 का निर्णय, जो कार्योत्तर पर्यावरणीय मंज़ूरियों को गैर-कानूनी घोषित करता है, पर्यावरणीय उत्तरदायित्व को बरकरार रखता है।
- NGT ने पर्यावरणीय कानूनों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित किया है और यह सुनिश्चित किया है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना (EIA) का पालन किया जाए।
- वर्ष 2010 और 2021 के दौरान, NGT ने संसाधनों की कमी के बावजूद 35,963 मामलों में से 33,619 का निपटारा किया तथा दक्षता का प्रदर्शन किया।
- भारत में 12,615 पर्यावरणीय न्यायालयों के मामलों के विश्लेषण से पता चलता है कि लगभग 35% निर्णय पर्यावरण के अनुकूल हैं और विभिन्न न्यायालयों एवं मामलों के प्रकारों में महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ हैं।
- पर्यावरणीय जनहित याचिकाओं (PIL) के कारण दिल्ली जैसे शहरों में प्रदूषण नियंत्रण को अनिवार्य बनाने वाले ऐतिहासिक फैसले सामने आए हैं।
- जलवायु न्याय और भारत कीग्लोबल एडवॉकेसी: COP 28 में भारत का नेतृत्व और इसका ‘साझा लेकिन विभेदित उत्तरदायित्व’ सिद्धांत जलवायु न्याय पर ध्यान केंद्रित करने पर प्रकाश डालता है।
- भारत ने गैर-जीवाश्म स्थापित क्षमता का 50% पार कर लिया है और अपने सशर्त NDC लक्ष्य (2030 तक 50%) को निर्धारित समय से काफी पहले प्राप्त कर लिया है तथा वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लिये प्रतिबद्ध है, जिससे उत्सर्जन उत्तरदायित्वों में निष्पक्षता सुनिश्चित होती है।
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन में भागीदारी विकासशील देशों में नवीकरणीय ऊर्जा के अंगीकरण में सहायता करती है।
- भारत विकसित देशों से UNFCCC के तहत वार्षिक जलवायु वित्त प्रतिबद्धता को पूरा करने और संवेदनशील क्षेत्रों का समर्थन करने का आग्रह करता है।
- वर्ष 2025 तक बाकू, अज़रबैजान में UNFCCC COP29 में, विकसित देशों ने जलवायु वित्त के लिये एक नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) पर सहमति व्यक्त की, जिसमें विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई का समर्थन करने के लिये वर्ष 2035 तक प्रति वर्ष कम से कम 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
- आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन जैसे गठबंधनों के माध्यम से दक्षिण-दक्षिण सहयोग, हरित प्रौद्योगिकियों के समान हस्तांतरण में सहायता करता है।
- कमज़ोर और सीमांत समुदायों पर ध्यान: पर्यावरणीय क्षरण उपेक्षित समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है।
- भारतीय संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूची के प्रावधान जनजातीय आबादी को स्वायत्तता प्रदान करके तथा उनकी भूमि, वन संसाधनों एवं सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करके उनकी सुरक्षा करते हैं।
- वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 जनजातीय समुदायों और वनवासियों की भूमि, वन संसाधनों एवं सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करता है, उनके पारंपरिक क्षेत्रों पर विधिक मान्यता व स्वायत्तता सुनिश्चित करता है।
- मध्य प्रदेश में महान बचाओ अभियान जैसे स्वदेशी समुदायों के प्रयासों ने विनाशकारी कोयला खनन के खिलाफ प्रतिरोध को संगठित करने के लिये रेडियो का उपयोग किया, जिससे जमीनी स्तर पर पर्यावरण न्याय सक्रियता प्रदर्शित हुई।
- जनभागीदारी और समावेशी शासन: सरकार के LiFE (पर्यावरण के लिये जीवनशैली) अभियान जैसी पहल पर्यावरण-अनुकूल व्यक्तिगत व्यवहार को प्रोत्साहित करती हैं, जबकि बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियानों ने वर्ष 2023 से दिल्ली में 70 लाख पेड़ लगाए हैं।
- वन परिषदों में महिलाओं के पर्यावरण नेतृत्व ने प्राकृतिक संसाधनों की पुनर्स्थापना को बढ़ावा दिया है, उदाहरण के लिये, उत्तराखंड के सरमोली-जैंती वन पंचायत में महिलाओं द्वारा वर्ष 2003 में मेसर कुंड जलाशय का पुनरुद्धार।
- समतापूर्ण नीति निर्माण और कार्यान्वयन: PM-KUSUM (किसानों के लिये सौर पंप) और जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय अनुकूलन कोष जैसी नीतियाँ सीमांत समूहों के लिये स्थायी प्रौद्योगिकी एवं वित्तीय सहायता तक अभिगम्यता सुनिश्चित करती हैं।
- राज्य कार्य योजनाओं का सहभागी डिज़ाइन सामाजिक न्याय के साथ जलवायु अनुकूलन को मुख्यधारा में लाता है।
- उत्तरदायित्व के लिये तकनीकी और विश्लेषणात्मक प्रगति: पर्यावरण न्यायालय के निर्णयों का AI-सहायता प्राप्त विश्लेषण अधिक प्रभावी निगरानी का समर्थन करता है, विभिन्न क्षेत्रों में विविध न्यायिक समर्थन दर्शाता है, नीति एवं जन अनुशंसा को सूचित करता है।
- GIS और डिजिटल पर्यावरण ऑडिट के उपयोग से पारदर्शिता एवं त्वरित प्रतिक्रिया में सुधार हो रहा है, जैसा कि पर्यावरण ऑडिट नियम (2025) के माध्यम से देखा जा सकता है, जिसके लिये तृतीय पक्ष के सत्यापन की आवश्यकता होती है।
भारत में पर्यावरणीय न्याय को आगे बढ़ाने में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- कमज़ोर प्रवर्तन और नियामक क्षमता: कई परियोजनाएँ उचित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) के बिना आगे बढ़ती हैं या राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों (SPCB) और निगरानी निकायों की कमज़ोरी के कारण मंज़ूरी की शर्तों की अवहेलना करती हैं।
- एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (2024) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ SPCB में 60% से अधिक रिक्तियों का उल्लेख किया, जिससे प्रवर्तन कमज़ोर हो गया।
- जनभागीदारी और पारदर्शिता का कमज़ोर होना: वर्ष 2020 के EIA प्रारूप अधिसूचना ने महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को जन सुनवाई से छूट दी तथा कार्योत्तर मंज़ूरी की अनुमति दी, जिससे पर्यावरणीय लोकतंत्र कमज़ोर हुआ।
- न्यायिक निर्णयों ने ऐसी कार्योत्तर मंज़ूरियों को पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के लिये ‘अभिशाप’ बताया है।
- इसी प्रकार, वन संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 ने वन भूमि पर अवसंरचना एवं रक्षा परियोजनाओं के लिये छूट का विस्तार किया, जिससे वन और जनजातीय अधिकारों पर चिंताएँ उत्पन्न हुईं; सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपूरक वनीकरण एवं सुरक्षा उपायों के बिना इसके कार्यान्वयन पर रोक लगा दी।
- संस्थागत अधिदेशों का अतिव्यापन और न्यायिक विलंब: NGT, CPCB, SPCB और पर्यावरण प्राधिकरणों की अतिव्यापन भूमिकाओं के कारण क्षेत्राधिकार संबंधी भ्रम एवं विलंब होता है।
- NGT निर्धारित संख्या से कम न्यायिक और विशेषज्ञ सदस्यों के साथ कार्य करता है, जिससे मामलों के समाधान में विलंब होता है।
- असंवहनीय विकास से पर्यावरणीय क्षरण में वृद्धि: तीव्र शहरीकरण और औद्योगीकरण ने वायु एवं जल प्रदूषण को बदतर बना दिया है; दिल्ली, मुंबई और कोलकाता वाहनों के उत्सर्जन, निर्माण धूल एवं पराली दहन के कारण खतरनाक वायु गुणवत्ता से ग्रस्त हैं।
- CPCB की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 279 नदियों के 311 प्रदूषित नदी खंड हैं।
- जलवायु भेद्यता और पारिस्थितिक नाजुकता: लीड्स विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया है कि पिछले 400-700 वर्षों में हिमालय के ग्लेशियरों ने अपने लगभग 40% क्षेत्र को खो दिया है, हाल के दशकों में बर्फ का पिघलना ऐतिहासिक औसत से दस गुना तेज़ी से हुआ है, जिससे ताज़े जल की उपलब्धता को खतरा है।
- भारत में जलवायु संबंधी आपदाओं ने वर्ष 2000 से अब तक लाखों लोगों को प्रभावित किया है और 120 अरब डॉलर से अधिक का नुकसान पहुँचाया है, जिससे सुदृढ़ जलवायु अनुकूलन एवं शमन रणनीतियों की तत्काल आवश्यकता उजागर होती है।
- सामाजिक और पर्यावरणीय असमानताएँ: आदिवासी, छोटे किसान और शहरी गरीब जैसे उपेक्षित समूह पर्यावरणीय नुकसान का असमान रूप से खामियाज़ा भुगतते हैं, लेकिन प्रायः निर्णय लेने में उनकी सार्थक भागीदारी नहीं होती।
- भूमि अधिग्रहण विवाद और विकास परियोजनाओं से विस्थापन, विशेष रूप से जनजातीय बहुल क्षेत्रों में, सामाजिक अशांति को बढ़ावा देते हैं।
- उदाहरण के लिये, ओडिशा की नियमगिरि पहाड़ियों में, वेदांता की बॉक्साइट खनन योजनाओं ने उन आदिवासी समुदायों को विस्थापित कर दिया, जिन्होंने अपनी पवित्र भूमि की रक्षा के लिये कड़ा प्रतिरोध किया था।
- सरदार सरोवर एवं पोलावरम जैसी बड़ी बाँध परियोजनाओं ने हज़ारों जनजातीय बहुल गाँवों को जलमग्न कर दिया है, जबकि अवसंरचना के गलियारे जनजातीय बहुल क्षेत्रों को पार करते हैं, जिससे बेदखली और बढ़ गई है।
- व्यापक जलवायु-समावेशी पर्यावरणीय नीतियों का अभाव: EIA प्रक्रियाएँ प्रायः जलवायु परिवर्तन संबंधी उद्देश्यों (कार्बन फूटप्रिंट, समुत्थानशीलता) को एकीकृत करने में विफल रहती हैं, जिससे सतत् विकास की दूरदर्शिता सीमित हो जाती है।
- नवीकरणीय ऊर्जा के अंगीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है, लेकिन भारत में अभी भी लगभग 70% बिजली उत्पादन कोयले से होता है, जिससे उत्सर्जन कम करने के प्रयास जटिल हो रहे हैं।
- भारत में कार्बन बाज़ार अभी पूरी तरह से चालू नहीं हुआ है और वह भी केवल विशिष्ट क्षेत्रों तक ही।
भारत में पर्यावरणीय न्याय को सुदृढ़ करने के लिये कौन-से व्यापक उपाय किये जा सकते हैं?
- पर्यावरणीय अधिकारों को मौलिक और प्रवर्तनीय बनाना: राज्यों को स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता देनी चाहिये तथा उसे लागू करना चाहिये, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है।
- जलवायु न्याय के सिद्धांतों जैसे: अंतर-पीढ़ीगत समता और प्रदूषक उत्तरदायित्व को विधि में संहिताबद्ध करने के लिये विधायी कार्रवाई की आवश्यकता है।
- केन्या और UK जैसे समर्पित जलवायु कानूनों वाले देशों से प्रेरणा लेते हुए, भारत के राष्ट्रीय जलवायु कानून का मार्गदर्शन किया जा सकता है।
- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) का पुनर्गठन और सख्त प्रवर्तन: EIA की प्रक्रिया अपरिहार्य और सहभागितापूर्ण होनी चाहिये, जिससे प्रत्येक परियोजना — औद्योगिक, शैक्षणिक या अवसंरचनात्मक का पूर्ण प्रभाव मूल्यांकन किया जा सके तथा सार्वजनिक परामर्श अनिवार्य रूप से सुनिश्चित किया जाये।
- खामियों और पूर्वव्यापी मंज़ूरियों को रोकने के लिये बेहतर ग्रामीण इंटरनेट कनेक्टिविटी और पारदर्शिता के साथ PARIVESH जैसी प्रणालियों को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
- संस्थागत समन्वय और शासन को बढ़ावा देना: भारत को पर्यावरण, ऊर्जा, शहरी और उद्योग मंत्रालयों के प्रयासों में सामंजस्य स्थापित करने के लिये एक उच्च-स्तरीय, अंतर-मंत्रालयी जलवायु प्राधिकरण की आवश्यकता है, जिससे विखंडन कम हो तथा सुसंगत जलवायु न्याय नीतियों को बढ़ावा मिले।
- यह निकाय, जो संभवतः प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन होगा, नीति निर्माण, कार्यान्वयन और अनुपालन निगरानी की देखरेख करेगा।
- उन्नत प्रौद्योगिकी और पर्यावरण अंकेक्षण का उपयोग करना: उल्लंघनों का शीघ्र पता लगाने के लिये पर्यावरण ऑडिट नियम, 2025 द्वारा अनिवार्य AI, IoT सेंसर, उपग्रह निगरानी और तृतीय-पक्ष लेखा परीक्षा को एकीकृत किया जाना चाहिये।
- AI-समर्थित विश्लेषण न्यायालयों और नीति निर्माताओं को प्रवर्तन कमियों की पहचान करने तथा संसाधनों को प्रभावी ढंग से निर्देशित करने में सहायता करते हैं।
- वायु, जल और मृदा गुणवत्ता के लिये रीयल-टाइम डेटा डैशबोर्ड नियामकों और समुदायों दोनों को सशक्त बनाएंगे।
- समावेशी और सहभागी दृष्टिकोणों को संस्थागत बनाना: उपेक्षित समुदायों— जनजातीय समुदाय, किसान, शहरी गरीबों को औपचारिक तंत्र और सशक्तीकरण कार्यक्रमों के माध्यम से निर्णय लेने में प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- वन धन विकास केंद्र जैसी पहल आजीविका और संरक्षण उद्देश्यों को एकीकृत करने का उदाहरण हैं।
- पर्यावरणीय लोकतंत्र को सुदृढ़ करने से सामाजिक-पर्यावरणीय असमानताओं को दूर करने और समुत्थानशीलता को बढ़ावा देने में सहायता मिलती है।
- नवीकरणीय ऊर्जा और न्यायसंगत परिवर्तन कार्यढाँचों में तेज़ी लाना: भारत को विकेंद्रीकृत स्वच्छ ऊर्जा— सौर पंप, बायोमास, माइक्रोग्रिड के लिये वित्तीय एवं नीतिगत प्रोत्साहनों का विस्तार करना चाहिये, विशेषकर कमज़ोर ग्रामीण क्षेत्रों में।
- झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में कोयला श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा संजाल, पुनर्प्रशिक्षण एवं रोज़गार सृजन के साथ-साथ कोयले पर निर्भरता को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना होगा ताकि न्यायसंगत परिवर्तन सुनिश्चित हो सके।
- घरेलू नीतियों को अंतर्राष्ट्रीय जलवायु मानदंडों के अनुरूप बनाना: भारत को पेरिस समझौते के तहत प्रतिबद्धताओं को पूरी तरह से लागू करना चाहिये और जलवायु वित्त, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण एवं सहयोगात्मक अनुकूलन रणनीतियों को सुरक्षित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसे वैश्विक मंचों का लाभ उठाना चाहिये।
- ग्रीन मैंडेट- 2025 एजेंडा को वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं को प्रतिबिंबित करते हुए पर्यावरण, सामाजिक और शासन (ESG) सिद्धांतों को संस्थागत बनाना चाहिये।
निष्कर्ष:
पर्यावरणीय न्याय के प्रति भारत का प्रयास कई सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है, जो पारिस्थितिक संधारणीयता और सामाजिक समानता के एकीकरण पर बल देता है। भारत का विकसित होता पर्यावरणीय शासन SDG 6 (स्वच्छ जल और साफ-सफाई), SDG 11 (सतत् शहर एवं संतुलित समुदाय), SDG 13 (जलवायु परिवर्तन कार्रवाई), और SDG 16 (शांति एवं न्याय और सशक्त संस्थाएँ) को पूरा करने का प्रयास करता है। आगे बढ़ते हुए, समावेशी शासन, कड़े प्रवर्तन उपाय और जलवायु-अनुकूल नीतियाँ एक न्यायसंगत तथा सतत् भविष्य की प्राप्ति के लिये आवश्यक हैं, जिससे कोई भी पीछे न रह जाये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. “पर्यावरणीय न्याय वह नाजुक संतुलन है जहाँ विकास और गरिमा का मेल होता है।" भारत में तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के बीच पर्यावरणीय न्याय प्राप्त करने की चुनौतियों वन संभावनाओं की चर्चा कीजिये। |
प्रायः पूछे गए प्रश्न (FAQ)
प्रश्न 1. भारत में पर्यावरणीय न्याय क्या है?
उत्तर: स्वस्थ पर्यावरण तक समान अभिगम्यता, प्रदूषणकर्त्ताओं की उत्तरदायित्व और कमज़ोर आबादी की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
प्रश्न 2. कौन से संवैधानिक प्रावधान पर्यावरणीय न्याय का समर्थन करते हैं?
उत्तर: अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 48A और अनुच्छेद 51A(g) पर्यावरणीय अधिकारों और कर्त्तव्यों को कायम रखते हैं।
प्रश्न 3. भारत में पर्यावरण संरक्षण को कौन से कानून नियंत्रित करते हैं?
उत्तर: प्रमुख कानूनों में EPA 1986, जल अधिनियम 1974, वायु अधिनियम 1981, वन संरक्षण अधिनियम 1980, वन्यजीव अधिनियम 1972, CRZ 2011 और EIA 2006 शामिल हैं।
प्रश्न 4. कौन से निकाय पर्यावरणीय न्याय को लागू करते हैं?
उत्तर: MoEFCC, CPCB/SPCB और NGT अनुपालन, मंज़ूरी एवं विवाद समाधान की देखरेख करते हैं।
प्रश्न 5. भारत में पर्यावरणीय न्याय में कौन सी चुनौतियाँ बाधा डालती हैं?
उत्तर: कमज़ोर प्रवर्तन, न्यायिक विलंब, सीमित जन भागीदारी, असंवहनीय विकास, जलवायु भेद्यता और सामाजिक असमानताएँ।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न 1. हरित अर्थव्यवस्था पर कार्रवाई के लिये भागीदारी (पी.ए.जी.ई.), जो अपेक्षाकृत हरित एवं और अधिक समावेशी अर्थव्यवस्था की ओर देशों के संक्रमण में सहायता देने के लिये संयुत्त राष्ट्र की एक क्रियाविधि है, आविर्भूत हुई – (2018)
(a) जोहांसबर्ग में 2002 के संधारणीय विकास के पृथ्वी शिखर-सम्मेलन में
(b) रियो डी जेनीरो में 2012 के संधारणीय विकास पर संयुत्त राष्ट्र सम्मेलन में
(c) पेरिस में 2015 में जलवायु परिवर्तन पर संयुत्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन में
(d) नई दिल्ली में 2016 के विश्व संधारणीय विकास शिखर-सम्मेलन में
उत्तर: (b)
प्रश्न 2. सतत् विकास को उस विकास के रूप में वर्णित किया जाता है जो भविष्य की पीढ़ियों की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता से समझौता किये बिना वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करता है। इस परिप्रेक्ष्य में, सतत् विकास की अवधारणा स्वाभाविक रूप से निम्नलिखित में से किस अवधारणा से जुड़ी हुई है? (2010)
(a) सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण
(b) समावेशी विकास
(c) वैश्वीकरण
(d) वहन क्षमता
उत्तर: (d)
मेन्स
प्रश्न 1. "वहनीय (ऐफोर्डेबल), विश्वसनीय, धारणीय तथा आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच संधारणीय (सस्टेनबल) विकास लक्ष्यों (एस० डी० जी०) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।" भारत में इस संबंध में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018)