भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली को पुनर्जीवित करना | 01 Nov 2022

यह एडिटोरियल 29/10/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The death penalty and humanising criminal justice” लेख पर आधारित है। इसमें भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

समय के साथ आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में आया परिवर्तन उल्लेखनीय रहा है। अपरिपक्व, आदिम और प्रथागत कानूनी व्यवस्था से लेकर वर्तमान, आधुनिक जटिल न्यायिक ढाँचा तक की इसकी यात्रा अपराधों और प्रशासन की लगातार उभरती एवं बदलती प्रकृति का परिणाम रही है।

  • उपर्युक्त कारकों के संश्लेषण ने भारतीय न्याय वितरण प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता बढ़ा दी है। यह वहनीय एवं प्रभावी विवाद समाधान तंत्रों और प्रौद्योगिकी-संचालित त्वरित परीक्षण (speedy trials) की मांगों को रेखांकित करती है, ताकि न्याय वितरण ढाँचे में सक्षम ‘गेम-चेंजिंग’ परिवर्तन के लिये भारत को तैयार किया जा सके।

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली की संरचना

  • भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली उन सरकारी एजेंसियों से मिलकर बनी है जो कानून का प्रवर्तन करती हैं, अपराधों का अधिनिर्णय करती हैं और आपराधिक व्यवहार में सुधार लाती हैं।
  • इसमें चार उप-प्रणालियाँ शामिल हैं:
    • विधायिका (संसद)
    • प्रवर्तन (पुलिस तंत्र)
    • अधिनिर्णय (न्यायालय)
    • सुधार (कारावास, सामुदायिक सुविधाएँ)

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली का विकास

  • भारतीय इतिहास के पूरे कालक्रम में विभिन्न शासकों के अधीन विभिन्न भूभागों में विभिन्न आपराधिक न्याय प्रणालियों का विकास हुआ और उन्होंने प्रमुखता प्राप्त की।
  • ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में आपराधिक कानूनों को संहिताबद्ध किया गया था, जो अभी तक प्रायः अपरिवर्तित रूप में बनी हुई हैं।
  • भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code- IPC) भारत की आधिकारिक आपराधिक संहिता है जिसे वर्ष 1833 के चार्टर अधिनियम के तहत वर्ष 1834 में स्थापित पहले विधि आयोग की अनुशंसा के अनुरूप वर्ष 1860 में तैयार किया गया था।
  • इसी क्रम में, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- CrPC) भारत में आपराधिक कानून के प्रशासन हेतु प्रक्रियाएँ प्रदान करती है। इसे वर्ष 1973 में अधिनियमित किया गया था और यह 1 अप्रैल 1974 से प्रभावी हुआ।

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली से संबंधित वर्तमान समस्याएँ

  • लंबित मामले: वर्ष 2022 के आँकड़ों के अनुसार, न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर भारतीय न्यायालयों में 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। मुकदमेबाजी की बढ़ती प्रवृत्ति के बीच अधिकाधिक लोग और संगठन अदालतों का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं। लेकिन मुकदमों की संख्या में इस तेज़ वृद्धि के साथ इनकी सुनवाई के लिये उपलब्ध न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त कम है।
    • इसके अलावा, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau- NCRB) के भारतीय कारावास आँकड़े (Prison Statistics India) के अनुसार भारतीय कारावास में बंद लोगों में से 67.2% विचाराधीन कैदी (trial prisoners) हैं।
  • औपनिवेशिक प्रकृति: आपराधिक न्याय प्रणाली के सारभूत एवं प्रक्रियात्मक—दोनों ही पहलुओं को ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में देश पर शासन करने के उद्देश्य से अभिकल्पित किया गया था।
    • इस परिदृश्य में 19वीं सदी के इन कानूनों 21वीं सदी में प्रासंगिकता निश्चय ही बहस का विषय है।
  • न्यायिक आदेशों का सुस्त प्रवर्तन: न्यायपालिका और पुलिस के बीच समन्वय की कमी के परिणामस्वरूप न्यायालय के निर्णय प्रायः वास्तविक धरातल पर उतरने के बजाय कागजों पर ही बने रहते हैं।
    • उदाहरण के लिये, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (Information Technology Act 2000) की धारा 66A कंप्यूटर या किसी अन्य संचार उपकरण के माध्यम से आपत्तिजनक संदेश भेजने के लिये दंड का निर्धारण करती है।
      • लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 66A को निरस्त किये जाने के बाद भी पुलिस द्वारा इसके तहत गिरफ्तारियाँ की जाती रहीं। यह समन्वय की कमी और निर्णयों को धरातल पर लागू करने की विफलता को प्रकट करता है।
  • कारावास में अमानवीय व्यवहार: वर्षों से आलोचकों द्वारा बंदियों के प्रति जेल कर्मचारियों के उदासीन और यहाँ तक कि अमानवीय व्यवहार के बारे में बार-बार शिकायत की जाती रही है। इसके साथ ही, हिरासत में बलात्कार और मौतों के विभिन्न मामले सामने आते रहे हैं जो कैदियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन की पुष्टि करते हैं।
  • भाषाई बाधाएँ: वर्तमान संवैधानिक योजना के अनुसार भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के लिये आधिकारिक भाषा अंग्रेज़ी है (जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे- अनुच्छेद 348(1))।
    • विभिन्न भाषाई पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के लिये सांविधिक भाषा की जटिलता कानूनी व्यवस्था को समझना कठिन बना देती है।
    • यह भाषाई अवरोध अपने अधिकारों के बारे में उनकी समझ को सीमित करता है, उनकी जागरूकता की कमी को सघन करता है और उन्हें न्याय तक पहुँच सकने से प्रभावी रूप से अवरुद्ध करता है।

आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिये हाल की प्रमुख पहलें

आगे की राह

  • पुनर्स्थापनात्मक न्याय (Restorative Justice): कानून में सुधार लाने के प्रयासों में अपराध पीड़ितों (crime victims) के अधिकारों की पहचान पर विशेष बल दिया जाना चाहिये। पीड़ित एवं साक्षी संरक्षण योजनाओं (victim and witness protection schemes) की शुरुआत करना, पीड़ित प्रभाव बयानों (victim impact statements) का उपयोग करना और पीड़ित के मुआवजे एवं बहाली के अधिकारों (victim compensation and restitution rights) को सुदृढ़ करना न्याय बहाल करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम होगा।
    • वी.एस. मलीमथ समिति (वर्ष 2003) और 268वीं भारतीय विधि आयोग रिपोर्ट (वर्ष 2017) ने आरोपित को जमानत देने या जमानत रद्द करने में पीड़ित की भागीदारी के अधिकार का समर्थन किया और जमानत के मामलों में ‘पीड़ित प्रभाव मूल्यांकन’ रिपोर्ट का सुझाव दिया।
  • न्यायिक सेवा की शक्ति बढ़ाना: इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (वर्ष 2020) ने उजागर किया है कि भारत में प्रत्येक 50,000 नागरिकों पर मात्र एक न्यायाधीश की सेवा उपलब्ध है। अधीनस्थ स्तर पर अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर न्यायिक सेवाओं की संख्या में पर्याप्त वृद्धि करने की आवश्यकता है। सुधार की शुरुआत पिरामिड के निचले स्तर से होनी चाहिये।
    • अधीनस्थ न्यायपालिका को सुदृढ़ करने के एक उपाय के रूप में इसे दस्तावेजों के डिजिटलीकरण सहित तकनीकी और प्रशासनिक सहायता प्रदान की जानी चाहिये ताकि जाँच एवं परीक्षण में तेज़ी लाने में मदद मिल सके।
    • इसके अलावा, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का संस्थानीकरण सही दिशा में बढ़ाया गया कदम हो सकता है।
  • पुलिस बल में सुधार: एक प्रगतिशील, आधुनिक भारत में एक ऐसा पुलिस बल होना चाहिये जो लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की पूर्ति करे। इस क्रम में 21वीं सदी के साइबर एवं आर्थिक अपराधों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये पुलिस अधिनियम में सुधार लाने और हमारे पुलिस बल के कौशल को उन्नत करने की आवश्यकता है।
    • ‘प्रताप सिंह बनाम भारत संघ’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस प्रणाली में सुधार का सुझाव देते हुए दिशानिर्देश जारी किये हैं, जिसमें विधि-व्यवस्था बनाए रखने और जाँच कार्य करने के पुलिस के दायित्वों को पृथक करने की भी बात कही गई है।
  • न्यायिक ‘बैकलॉग’ से निपटना: त्वरित सुनवाई का अधिकार आपराधिक न्याय के लिये मूलभूत है। मामलों के बैकलॉग को दूर करने के लिये न्यायपालिका को अदालती प्रक्रिया में कई सुधारों को अपनाने की ज़रूरत है। इसके साथ ही, यह मामूली अपराधों के मध्यस्थता (Mediation, Arbitration) जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र और उचित केस प्रबंधन के लिये प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग जैसे उपायों पर बल दे सकती है।
  • न्यायिक भाषा की समता (Judicial Language Parity): न्याय का संचार उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि न्याय का निर्धारण। आम नागरिक के भरोसे को जीवंत करने के लिये कानूनी प्रणाली का लक्ष्य होना चाहिये कि भाषाई अवरोधों को दूर करे ताकि गैर-अंग्रेज़ी भाषियों के लिये न्यायालयों में प्रवेश की प्रक्रिया कम बोझिल बने।
    • भाषाई अवरोधों को दूर करना देश की कानूनी व्यवस्था के ‘भारतीयकरण’ की दिशा में एक कदम होगा।
  • मृत्युदंड के मामले में मानकों को बढ़ाना: सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि मृत्युदंड का निर्णय लेते समय दोषी की सामाजिक पृष्ठभूमि, आयु, शैक्षिक स्तर आदि का भी ध्यान रखा जाना चाहिये।
    • हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने मृत्युदंड का निर्णय लेते समय संभावित शमनकारी परिस्थितियों (mitigating circumstances) पर विचार करने हेतु दिशानिर्देश तैयार करने पर भी बल दिया है।

अभ्यास प्रश्न: आपराधिक कृत्यों के उभार ने भारतीय न्याय व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता की वृद्धि कर दी है। टिप्पणी कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मुख्य परीक्षा

Q.1 मौत की सजा को कम करने में राष्ट्रपति की देरी सार्वजनिक पटल पर न्याय से इनकार के रूप में सामने आए हैं। क्या ऐसी याचिकाओं को स्वीकार/अस्वीकार करने के लिए राष्ट्रपति के लिए कोई समय निर्दिष्ट किया जाना चाहिये?  विश्लेषण कीजिये  (वर्ष 2014)

Q.2 भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) बेहतर ढंग से तभी प्रभावी हो सकता है जब इसके कार्यों को अन्य तंत्रों द्वारा पर्याप्त रूप से समर्थित किया जाता है जो सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।  उपर्युक्त अवलोकन के आलोक में मानवाधिकार मानकों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने में न्यायपालिका और अन्य संस्थानों के प्रभावी पूरक के रूप में NHRC की भूमिका का आकलन करें।  (वर्ष 2014)