सार्वभौमिक बुनियादी आय के माध्यम से कल्याण पर पुनर्विचार | 07 Nov 2025
यह एडिटोरियल 07/11/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Redraw welfare architecture, place a universal basic income in the centre” पर आधारित है। इस लेख में बढ़ती असमानता और रोज़गार की असुरक्षा के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) के विचार को सामने लाया गया है, साथ ही इस बात पर बल देता है कि इसकी सफलता विवेकपूर्ण डिज़ाइन और राजकोषीय संवहनीयता पर निर्भर करती है।
प्रिलिम्स के लिये: सार्वभौमिक बुनियादी आय, आर्थिक सर्वेक्षण, JAM (जन धन-आधार-मोबाइल) ट्रिनिटी, NITI आयोग, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, श्रमिक-जनसंख्या अनुपात, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) मुद्रास्फीति, सार्वजनिक वितरण प्रणाली
मेन्स के लिये: भारत में सार्वभौमिक बुनियादी आय के पक्ष में प्रमुख तर्क, भारत में सार्वभौमिक बुनियादी आय के विपक्ष में प्रमुख तर्क।
जब भारत औपनिवेशिक काल के बाद पहली बार इतनी व्यापक आय-असमानता, स्वचालन से उत्पन्न रोज़गार-विहीनता तथा रिसाव एवं अपवर्जन से जूझती विखंडित कल्याण प्रणाली का सामना कर रहा है, तब सार्वभौमिक बुनियादी आय (Universal Basic Income - UBI) कोई काल्पनिक आदर्श नहीं, बल्कि एक तात्कालिक नीतिगत आवश्यकता के रूप में उभरती है। आय या रोज़गार की स्थिति की परवाह किये बिना प्रत्येक नागरिक को बिना शर्त नकद अंतरण की पेशकश करके, UBI बेरोज़गारी आघात को कम करने, अदृश्य देखभाल-श्रम को मान्यता देने और गिग इकॉनमी की अनिश्चितता में फँसे लाखों लोगों की गरिमा लौटाने का वादा करती है। हालाँकि, आलोचक आगाह करते हैं कि अगर UBI को सावधानीपूर्वक तैयार नहीं किया गया, तो यह सार्वजनिक वित्त पर दबाव डाल सकता है, मुद्रास्फीति के दबाव को बढ़ा सकता है और कार्य करने के प्रोत्साहन को कमज़ोर कर सकता है। यह स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी आवश्यक सार्वजनिक वस्तुओं से संसाधनों को भी हटा सकता है। यद्यपि UBI का नैतिक और सामाजिक पक्ष अत्यंत प्रभावशाली है, फिर भी भारत को इसके कार्यान्वयन में विवेकपूर्ण संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है।
सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) क्या है?
- विषय: सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) एक सामाजिक कल्याण प्रस्ताव है जिसके तहत किसी निश्चित जनसंख्या के सभी नागरिकों को बिना शर्त नकद अंतरण के रूप में नियमित रूप से न्यूनतम आय प्राप्त होती है।
- विशेषताएँ:
- सार्वभौमिक: यह किसी विशिष्ट क्षेत्राधिकार के सभी नागरिकों या निवासियों को, उनकी रोज़गार स्थिति, आय या संपत्ति की परवाह किये बिना, प्रदान किया जाता है।
- निर्विवाद (या बिना शर्त): यह किसी कार्य-शर्त या साधन-परीक्षण (आर्थिक स्थिति सिद्ध करने की प्रक्रिया) के बिना प्रदान किया जाता है।
- आवधिक: भुगतान नियमित आधार पर (जैसे: मासिक) किया जाता है, न कि किसी एकमुश्त अनुदान के रूप में।
- नकद भुगतान: यह नकद के रूप में दिया जाता है, जिससे प्राप्तकर्त्ताओं को इसे अपनी इच्छानुसार (वाउचर अथवा वस्तु-रूप लाभों के स्थान पर) व्यय करने की स्वतंत्रता मिलती है।
भारत में सार्वभौमिक बुनियादी आय के पक्ष में प्रमुख तर्क क्या हैं?
- खंडित कल्याणकारी योजनाओं का बेहतर विकल्प: UBI एक स्वच्छ, पारदर्शी और प्रत्यक्ष नकद अंतरण प्रदान करता है, जो भारत की 950 से अधिक केंद्र प्रायोजित योजनाओं के वर्तमान जटिल जाल में व्याप्त व्यापक अपवर्जन त्रुटियों और भ्रष्टाचार को प्रभावी ढंग से समाप्त करता है।
- यह वस्तु-आधारित अंतरण प्रणाली (जैसे PDS) से जुड़े अपव्यय और प्रशासनिक व्यय को कम करता है, यह सुनिश्चित करता है कि इच्छित लाभ डिजिटल बुनियादी अवसंरचना के माध्यम से सीधे गरीबों तक पहुँचे।
- आर्थिक सर्वेक्षण (2016-17) के अनुमान के अनुसार, केवल खाद्य और ईंधन सब्सिडी पर ही सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3% व्यय होता है।
- JAM (जन धन-आधार-मोबाइल) ट्रिनिटी के माध्यम से प्रदान किया गया UBI एक डिजिटल रूप से सत्यापन योग्य समाधान प्रदान करता है, जो प्रशासनिक अपव्यय को प्रत्यक्ष सामाजिक लाभांश में परिवर्तित करता है।
- आर्थिक आघातों और संकटों के प्रति आवश्यक बीमा: UBI एक स्थायी, स्वचालित स्थिरता प्रदान करने वाले साधन के रूप में कार्य करता है, जो कोविड-19 महामारी या जलवायु आपदाओं जैसे अप्रत्याशित संकटों के दौरान कमज़ोर आबादी को तत्काल वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
- यह व्यवस्था आकस्मिक राहत उपायों से जुड़े प्रशासनिक विलंब और राजनीतिक पक्षपात जैसी बहसों से बचाती है, जो तदर्थ राहत उपायों की विशेषता होती हैं तथा औपचारिक अर्थव्यवस्था के ठप होने पर त्वरित सहायता सुनिश्चित करटी है।
- कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान, एक सुरक्षा संजाल की आवश्यकता उजागर हुई, NITI आयोग ने पाया कि महामारी ने अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों (कार्यबल का 90% से अधिक) को असमान रूप से प्रभावित किया।
- एक आधारभूत UBI प्रवासी श्रमिकों और स्व-नियोजित लोगों को अचानक आय हानि से उबरने के लिये आवश्यक आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है।
- उन्नत लैंगिक समानता और महिला आर्थिक एजेंसी: प्रत्येक वयस्क, विशेषकर महिलाओं को बिना शर्त, व्यक्तिगत नकद अंतरण प्रदान करने से घर के भीतर उनकी वित्तीय स्वायत्तता और सौदाकारी शक्ति में उल्लेखनीय वृद्धि होती है।
- यह अप्रत्यक्ष रूप से अवैतनिक देखभाल कार्य के विशाल, फिर भी अप्रतिपूरित मूल्य को मान्यता देता है, जो भारत में महिला श्रम बल की कम भागीदारी का एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
- राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (NSS) के आँकड़े बताते हैं कि महिलाएँ प्रतिदिन औसतन 299 मिनट अवैतनिक घरेलू सेवाओं पर बिताती हैं, जबकि पुरुष केवल 97 मिनट ही बिता पाते हैं।
- SEWA-UNICEF मध्य प्रदेश अध्ययन जैसे पायलट प्रोजेक्टों से पता चला है कि नकद अंतरण ने महिलाओं को पशुधन में निवेश करने और सूक्ष्म उद्यम शुरू करने के लिये सशक्त बनाया है, जिससे आर्थिक निर्णयों में उनकी भूमिका बढ़ी है।
- ज़मीनी स्तर पर उद्यमिता और नवाचार को प्रोत्साहन: एक बुनियादी आय सीमा सुनिश्चित करके, UBI गरीबों को सोच-समझकर आर्थिक जोखिम उठाने की अनुमति देता है, जिससे उत्पादक परिसंपत्तियों, कौशल विकास और लघु-स्तरीय व्यावसायिक उपक्रमों में अधिक निवेश को बढ़ावा मिलता है।
- यह एक वास्तविक आधारभूत पूँजी के रूप में कार्य करता है, जो लोगों को जीविका के निरंतर संघर्ष और शोषणकारी कार्य स्वीकार करने की आवश्यकता से मुक्ति दिलाता है।
- इसके अलावा, एक गारंटीकृत आय प्रवाह के साथ, उन व्यक्तियों को रचनात्मक और उद्यमशील विचारों को आगे बढ़ाने की स्वतंत्रता मिलती है, जो तत्काल लाभ नहीं दे सकते हैं, लेकिन दीर्घकालिक सामुदायिक विकास एवं नवाचार में योगदान करते हैं।
- मानव पूँजी-स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश: बिना शर्त नकदी प्रवाह गरीब परिवारों को अपने बच्चों और स्वयं के दीर्घकालिक कल्याण में सक्रिय निवेश करने में सक्षम बनाता है, जिससे खर्च तत्काल उपभोग से हटकर स्वास्थ्य, पोषण एवं स्कूली शिक्षा पर केंद्रित हो जाता है।
- यह पहल निर्धनता से उपजी चिंता को ‘चयन की गरिमा’ में रूपांतरित करती है, जिसका मानसिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव सिद्ध हुआ है।
- मध्य प्रदेश के पायलट प्रोजेक्ट ने स्वास्थ्य और शिक्षा पर पारिवारिक खर्च में उल्लेखनीय वृद्धि दिखाई।
- इसके अतिरिक्त, प्रायोगिक गाँवों में आयु के अनुपात में सामान्य वज़न वाले बच्चों का अनुपात 39% से बढ़कर 59% हो गया, जो पोषण एवं स्वास्थ्य परिणामों में सुधार का संकेत देता है।
- स्वचालन और AI से रोज़गार विस्थापन में कमी: जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था आधुनिक होती जा रही है, विनिर्माण, लॉजिस्टिक्स और IT-सक्षम सेवाओं जैसे क्षेत्रों में तकनीकी बेरोज़गारी का खतरा, जो नियमित कार्यों पर बहुत अधिक निर्भर हैं, बड़े पैमाने पर रोज़गार के लिये एक बड़ा जोखिम उत्पन्न करता है।
- UBI एक नागरिक लाभांश के रूप में काम कर सकता है, जो स्वचालन से उत्पादकता लाभ को जनता तक पहुँचा सकता है।
- NITI आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, गिग इकॉनमी के कर्मचारी, जिनके पास पारंपरिक लाभों का अभाव है, वर्ष 2029-30 तक बढ़कर 23.5 मिलियन हो जाएँगे और औपचारिक नौकरियों के लिये स्वचालन का खतरा स्वाभाविक है।
- UBI को इस ‘बेरोज़गारी वृद्धि’ को प्रबंधित करने के लिये एक भविष्योन्मुखी तंत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो आय को काम से अलग करके, व्यापक अनिश्चितता को रोकेगा।
भारत में सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) के विपक्ष में प्रमुख तर्क क्या हैं?
- राजकोषीय अस्थिरता और आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं का अभाव: गरीबी उन्मूलन के लिये पर्याप्त सार्थक स्तर पर निर्धारित UBI सरकारी निधि पर अत्यधिक और असह्य वित्तीय बोझ डालेगा, जिसके लिये करों में भारी वृद्धि या अन्य महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक व्यय में भारी कटौती की आवश्यकता होगी।
- भारत पहले से ही उच्च संयुक्त ऋण (केंद्र और राज्य) से जूझ रहा है, जो सत्र 2022-23 में सकल घरेलू उत्पाद के 81% से अधिक था, जिससे उधार लेने की संभावना सीमित हो गई।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के अनुमान के अनुसार गरीबी रेखा के स्तर पर UBI की लागत सकल घरेलू उत्पाद (2016 की कीमतों पर) का लगभग 4.9% होगी।
- बजट के इतने बड़े हिस्से को अन्यत्र निर्देशित करने से शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और भौतिक बुनियादी अवसंरचना में महत्त्वपूर्ण दीर्घकालिक सार्वजनिक निवेश बुरी तरह से प्रभावित होगा।
- काम करने के प्रति हतोत्साहन और श्रम बाज़ार को नुकसान: बिना शर्त आय का एक न्यूनतम स्तर प्रदान करने से श्रम भागीदारी दर में उल्लेखनीय कमी आ सकती है, विशेष रूप से कृषि एवं निर्माण क्षेत्रों में सीमांत या कम वेतन वाले श्रमिकों के बीच, जिससे निर्भरता की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।
- यह प्रभाव अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक स्पष्ट होगा, जो भारत के 90% से अधिक कार्यबल के लिये ज़िम्मेदार है, जिससे संभावित रूप से श्रम की कमी और वेतन में विकृति उत्पन्न हो सकती है।
- वैश्विक परीक्षणों, जैसे कि अमेरिका में नेगेटिव इनकम टैक्स (NIT) प्रयोगों से प्राप्त साक्ष्यों से पता चला है कि कार्य की अवधि में कमी आई है, विशेष रूप से माध्यमिक आय अर्जित करने वालों और माताओं के बीच।
- 15 वर्ष से अधिक आयु के लोगों के लिये भारत का शहरी श्रमिक-जनसंख्या अनुपात (WPR) पहले से ही 46.8% (अप्रैल-जून 2024) पर कम था; ऐसे में सुनिश्चित आय की व्यवस्था औपचारिक या स्थायी रोज़गार की तलाश के प्रोत्साहन को और कमज़ोर कर सकती है।
- माँग-उत्प्रेरित मुद्रास्फीति और वास्तविक मूल्य क्षरण का जोखिम: अर्थव्यवस्था में बिना शर्त नकदी के एक विशाल, निरंतर प्रवाह, विशेष रूप से वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति में समान वृद्धि के बिना, से माँग-उत्प्रेरित मुद्रास्फीति का गंभीर जोखिम उत्पन्न होता है।
- यह मुद्रास्फीतिकारी दबाव भोजन और आवास जैसी आवश्यक वस्तुओं को असमान रूप से प्रभावित करेगा, जिससे गरीबों के लिये UBI की वास्तविक क्रय शक्ति समाप्त हो जाएगी।
- भारत का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) मुद्रास्फीति पहले ही उच्च हो चुकी थी, जो सितंबर 2024 में 5.49% तक पहुँच गई, जो मौजूदा आपूर्ति पक्ष की कठोरता को दर्शाती है।
- यदि सार्वभौमिक मूल आय (UBI) से ग्रामीण क्षेत्रों के सीमित और अपर्याप्त रूप से जुड़े बाज़ारों में किराये व खाद्य सामग्री जैसी वस्तुओं की प्रभावी मांग बढ़ती है, तो इससे मूल्य-वृद्धि का एक कुचक्र आरंभ हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक दृष्टि से गरीब वर्ग की स्थिति में कोई ठोस सुधार नहीं हो सकेगा।
- वास्तविक सार्वभौमिकता पर नैतिक और समानता संबंधी चिंताएँ: UBI की 'सार्वभौमिक' प्रकृति का अर्थ है कि सीमित सार्वजनिक संसाधनों का वितरण निर्धनों के साथ-साथ समृद्ध वर्ग तक भी पहुँचेगा। इससे अत्यधिक असमान समाज में इन संसाधनों के उपयोग की एक महत्त्वपूर्ण अवसर-लागत उत्पन्न होती है।
- आलोचकों का तर्क है कि यह गैर-लक्षित दृष्टिकोण उन निधियों का अकुशल और अनैतिक उपयोग है जिनका ध्यान सबसे कमज़ोर समूहों पर केंद्रित होना चाहिये।
- भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है, जहाँ कुछ अनुमानों के अनुसार, शीर्ष 10% लोगों के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% से अधिक हिस्सा है।
- इस समूह को एक गरीब भूमिहीन मज़दूर के समान नकद अंतरण प्रदान करना मूल रूप से प्रतिगामी है तथा यह उन संसाधनों की बर्बादी है जिन्हें महत्त्वपूर्ण विकास कार्यों या लक्षित गरीबी उन्मूलन योजनाओं में लगाया जा सकता था।
- मौजूदा, लक्षित कल्याणकारी योजनाओं को कमज़ोर करना: UBI को प्रायः मौजूदा खंडित सब्सिडी और कल्याणकारी योजनाओं के प्रतिस्थापन के रूप में प्रस्तावित किया जाता है, लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) या MGNREGA जैसी योजनाओं को समाप्त करने से विशिष्ट, अत्यधिक कमज़ोर आबादी को गंभीर नुकसान हो सकता है।
- ये वस्तु-आधारित एवं कार्य-आधारित योजनाएँ प्रायः मूल अधिकारों को सुनिश्चित करने और न्यूनतम मज़दूरी को स्थिर करने के लिये बेहतर होती हैं।
- MGNREGA रोज़गार का वैधानिक अधिकार प्रदान करता है, ग्रामीण मजदूरी को स्थिर करता है तथा आर्थिक मंदी के दौरान लाखों पंजीकृत श्रमिकों के लिये एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा सेतु के रूप में कार्य करता है।
- इस रोज़गार-गारंटी योजना को सीमित नगद अंतरण (UBI) से प्रतिस्थापित करने पर समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग अपने मौजूदा, अपरिहार्य अधिकारों, जैसे: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से भोजन की सुरक्षा एवं मनरेगा (MGNREGA) के अंतर्गत रोज़गार की गारंटी से वंचित हो सकते हैं।
- कार्यान्वयन चुनौतियाँ और अंतिम चरण में अपवर्जन: JAM (जन धन-आधार-मोबाइल) ट्रिनिटी बुनियादी अवसंरचना के उदय के बावजूद, दूरदराज़ के क्षेत्रों में कम डिजिटल साक्षरता और कमज़ोर बैंकिंग अभिगम्यता सहित अंतिम चरण की परिचालन बाधाएँ बनी हुई हैं।
- आकस्मिक राष्ट्रीय UBI लागू होने से बड़ी संख्या में अपवर्जन त्रुटियों का सामना करना पड़ेगा, जिससे प्रशासनिक भ्रष्टाचार की एक नई लहर उत्पन्न होगी तथा सबसे अधिक ज़रूरतमंद लोगों को लाभ से वंचित किया जाएगा।
- विभिन्न रिपोर्टों से यह स्पष्ट हुआ है कि आधार-लिंक्ड भुगतान विफलताएँ और निष्क्रिय जन-धन खाते अब भी प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) योजनाओं के लिये गंभीर चुनौती बने हुए हैं; 'द्वार रिसर्च' के अनुसार प्रमाणीकरण विफलता की दर कुछ मामलों में 51 प्रतिशत तक पाई गई है।
- ये तकनीकी और अभिगम्यता संबंधी अंतर भारत की विशाल एवं विविध आबादी के लिये UBI के सुचारू व सार्वभौमिक वितरण को बेहद चुनौतीपूर्ण बना देते हैं।
- अनुचित आवंटन और ‘प्रलोभनकारी वस्तुओं (Temptation Goods)’ पर व्यय: बिना शर्त नकद अंतरण के विरुद्ध एक प्रमुख तर्क यह है कि लाभार्थी, विशेषतः परिवार के पुरुष सदस्य, सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) की राशि को पोषण, शिक्षा या उत्पादक निवेशों पर व्यय करने के बजाय शराब, तंबाकू या जुए जैसी अनावश्यक अथवा हानिकारक ‘प्रलोभनकारी वस्तुओं (Temptation Goods)’ पर व्यय कर सकते हैं।
- यदि UBI सीधे महिलाओं के खातों में जमा नहीं की जाती है, तो यह जोखिम और भी बढ़ जाता है।
- हालाँकि कई प्रायोगिक अध्ययनों में पाया गया है कि अधिकांश नकदी का उपयोग तर्कसंगत तरीके से किया गया था, फिर भी इस चिंता के आधार पर जनता की धारणा और राजनीतिक विरोध प्रबल बना हुआ है।
- तंबाकू के सेवन से होने वाली मौतों और बीमारियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को पहले से ही अनुमानित 1773.4 मिलियन रुपये प्रति वर्ष का नुकसान हो रहा है, जो कि सकल घरेलू उत्पाद का 1% से भी अधिक है। आलोचकों का तर्क है कि UBI के कारण यह स्थिति और भी बदतर हो सकती है।
सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) को भविष्य के लिये एक व्यवहार्य नीति बनाने के लिये भारत क्या कदम उठा सकता है?
- वृद्धिशील 'कल्याणकारी आधार' दृष्टिकोण (MPBI): तुरंत पूर्ण UBI लागू करने के बजाय, भारत को एक संशोधित और चरणबद्ध बुनियादी आय (MPBI) रणनीति अपनानी चाहिये, जिसकी शुरुआत गरीबी रेखा से बाहर के सार्वभौमिक बुनियादी आधार से हो।
- यह अंतरण, जो राजकोषीय रूप से प्रबंधनीय GDP के 1-1.5% पर निर्धारित है, एक संरचनात्मक आधार के रूप में कार्य करेगा, जो सभी नागरिकों के लिये एक न्यूनतम साझा सुरक्षा संजाल प्रदान करेगा, जबकि PDS और MGNREGA जैसी मौजूदा महत्त्वपूर्ण योजनाओं को शुरू में बरकरार रखेगा।
- यह कम लागत वाला, सार्वभौमिक आधार अपवर्जन त्रुटियों को कम करता है और साथ ही राजकोषीय युक्तिकरण के लिये समय देता है ताकि उत्तरोत्तर वृद्धि के लिये संसाधनों का संग्रह किया जा सके।
- अर्द्ध-सार्वभौमिक कमज़ोर जनसांख्यिकी पर ध्यान केंद्रित करना: गरीबी कम करने के लक्ष्य के साथ वास्तविक सार्वभौमिकता की उच्च लागत को संतुलित करने के लिये, प्रारंभिक MPBI रोलआउट में सबसे कमज़ोर, पहचान योग्य समूहों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये जिनके सामाजिक लाभ सबसे अधिक हैं।
- इसका अर्थ है 'एक श्रेणी में सार्वभौमिक' दृष्टिकोण अपनाना, जिससे सभी महिलाओं, वृद्धों (60+) और दिव्यांग जनों को बुनियादी आय की गारंटी मिल सके।
- यह लक्षित सार्वभौमिकता राजनीतिक रूप से व्यवहार्य, वित्तीय रूप से नियंत्रित है, और लैंगिक समानता एवं सामाजिक सुरक्षा पर अधिकतम प्रभाव डालती है।
- अनिवार्य, पारदर्शी सब्सिडी युक्तिकरण निधि: UBI के लिये वित्तीय सहायता सुनिश्चित करने के लिये, सरकार को एक समर्पित UBI निधि स्थापित करना चाहिये, जिसे केवल उन अप्रमाणिक, अप्रभावी तथा गैर-आवश्यक सब्सिडियों (जैसे कुछ कर-छूट, विद्युत सब्सिडी या उच्च-आय वर्ग के लिये ईंधन सब्सिडी) को समेकित रूप से समाप्त कर, पारदर्शी ढंग से प्राप्त धनराशि से पोषित किया जाये।
- इस निधि का संचालन विधायी सुरक्षा (Legislative ring-fencing) के साथ किया जाना चाहिये ताकि इसकी आय अन्य बजटीय उपयोगों के लिये डायवर्ट न की जा सके और इसकी वार्षिक पुनःपूर्ति एवं वृद्धि के लिये एक स्पष्ट तंत्र का गठन किया जा सके।
- अकुशल योजनाओं के लिये एक सशर्त प्रतिस्थापन के रूप में UBI: मौजूदा योजनाओं का प्रतिस्थापन क्रमिक, सशर्त और साक्ष्य-आधारित होना चाहिये, न कि तत्काल राजनीतिक आदेश।
- UBI को केवल उन केंद्र प्रायोजित योजनाओं से प्रतिस्थापित करना चाहिये जिनकी पहचान सख्त, तृतीय-पक्ष सामाजिक अंकेक्षण द्वारा उच्च अपव्यय, भ्रष्टाचार और कम परिणाम-प्रभावकारिता के रूप में की गई है। साथ ही, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (PDS) व MGNREGA जैसे उच्च-प्रभाव वाले कार्यक्रमों को तब तक बनाए रखना तथा सुदृढ़ करना चाहिये जब तक कि UBI एक व्यवहार्य, गरीबी रेखा के समतुल्य मूल्य तक नहीं पहुँच जाता।
- त्रुटि-मुक्त वितरण के लिये JAM+ अवसंरचना को सुदृढ़ करना: इसकी व्यवहार्यता पूरी तरह से डिजिटल वितरण अवसंरचना में सुधार पर निर्भर करती है, जो वर्तमान JAM (जन धन-आधार-मोबाइल) ट्रिनिटी से आगे बढ़कर एक सुदृढ़ JAM+ प्रणाली तक विस्तारित होती है।
- इसमें दूरस्थ और जनजातीय बहुल क्षेत्रों में डिजिटल साक्षरता और बैंकिंग अवसंरचना का अनिवार्य विस्तार तथा डिजिटल रूप से उपेक्षित समुदाय के लोगों के लिये अंतिम-स्तरीय अपवर्जन त्रुटियों को समाप्त करने हेतु वैकल्पिक (जैसे: OTP या मैन्युअल) निकासी विकल्पों के साथ एक वास्तविक काल आधार/बायोमेट्रिक विफलता शिकायत निवारण तंत्र को लागू करना शामिल है।
- राजकोषीय संघवाद और सहकारी वित्त पोषण तंत्र: यह देखते हुए कि केंद्र और राज्य सरकारें दोनों कल्याणकारी योजनाओं का संचालन करती हैं, UBI कार्यान्वयन हेतु राजकोषीय भार एवं राजनीतिक जोखिम को साझा करने के लिये एक सहकारी संघीय तंत्र की आवश्यकता है।
- केंद्र और राज्यों के बीच एक स्पष्ट लागत-साझाकरण सूत्र (जैसे, 60:40 या 50:50) को अनिवार्य बनाने के लिये एक संयुक्त UBI आयोग की स्थापना की जानी चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य-स्तरीय योजनाओं को राज्य के वित्त को बाधित किये बिना या राजस्व आवंटन पर राजनीतिक संघर्ष उत्पन्न किये बिना एकीकृत किया जाए।
- UBI को नागरिकों के सामाजिक अधिकार के रूप में कानूनी रूप से स्थापित करना: राजनीतिक प्रतिबद्धता सुनिश्चित करने और भविष्य में इस योजना को समाप्त किये जाने से रोकने के लिये, MPBI को एक नये सामाजिक सुरक्षा अधिनियम के माध्यम से विधिक अधिकार के रूप में स्थापित किया जाना चाहिये, न कि इसे सरकार की स्वैच्छिक अनुदान नीति के रूप में रखा जाना चाहिये।
- इस विधिक स्थिति से यह योजना अस्थायी राजनीतिक चक्रों से ऊपर उठकर स्थायित्व प्राप्त करेगी, जिससे नागरिकों को अंतरण की नियमितता और पर्याप्तता के लिये सरकार को उत्तरदायी ठहराने का अधिकार मिलेगा।
निष्कर्ष:
सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) में भारत के सामाजिक अनुबंध को पुनर्परिभाषित करने की रूपांतरणकारी क्षमता है, जो प्रत्येक नागरिक को गरिमा, सुरक्षा और अवसर का आश्वासन प्रदान कर सकती है। किंतु इसकी सफलता विवेकपूर्ण राजकोषीय योजना, सुदृढ़ डिजिटल अवसंरचना और चरणबद्ध क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। यदि सावधानीपूर्वक और समावेशी रूप में लागू किया जाये तो UBI मौजूदा कल्याणकारी गारंटियों का पूरक बन सकती है, प्रतिस्थापन नहीं। विवेकपूर्ण रूप से अपनाये जाने पर यह एक न्यायसंगत और समुत्थानशील भारत की दिशा में निर्णायक कदम सिद्ध हो सकती है। चूँकि भारत विकास और विषमता के दोराहे पर खड़ा है, ऐसे में UBI यह स्मरण कराती है कि वास्तविक प्रगति धन की वृद्धि में नहीं, बल्कि गरिमा के सार्वभौमिक हो जाने में निहित है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. “चूँकि भारत विकास और असमानता के चौराहे पर खड़ा है, ऐसे में सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) आर्थिक गरिमा और सामाजिक न्याय को पुनर्स्थापित करने का मार्ग प्रदान करती है, लेकिन इसका कार्यान्वयन गंभीर राजकोषीय एवं संरचनात्मक चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है।” विवेचना कीजिये। |