संवैधानिक लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पुनः पुष्टि | 27 Dec 2025

यह एडिटोरियल 15/12/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Courts must protect, not regulate free speech” शीर्षक वाले लेख पर आधारित है। यह लेख इस बात पर प्रकाश डालता है कि न्यायालयों को अनुच्छेद 19(1) के तहत प्रदत्त अधिकार की रक्षा क्यों करनी चाहिये। इसके अलावा, यह डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को विनियमित करने के लिये बरती जाने वाली सावधानियों पर भी विस्तार से चर्चा करता है।

प्रिलिम्स के लिये: अनुच्छेद 19(1)(a), वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश एवं डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021, निजता का अधिकार, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000, BNS 2023, शक्तियों का पृथक्करण

मेन्स के लिये: भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्यायिक अतिचार, डिजिटल अभिव्यक्ति विनियमन, शक्तियों का पृथक्करण, संवैधानिक नैतिकता और मूल अधिकार

ऑनलाइन कंटेंट के नियमन पर हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय में हुई चर्चाओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को निर्धारित करने में न्यायपालिका की भूमिका पर बहस को फिर से बढ़ा दिया है। यद्यपि अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के लोकतंत्र की आधारशिला है, फिर भी चिंता तब उत्पन्न होती है जब न्यायिक टिप्पणियाँ संवैधानिक सीमाओं से परे नियामक नियंत्रण का विस्तार करती प्रतीत होती हैं। एक संवैधानिक कार्यढाँचे में, कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा लगाया गया कोई भी प्रतिबंध अनुच्छेद 19(2) के दायरे में ही रहना चाहिये, अन्यथा व्यवस्था के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मूल गारंटी धीरे-धीरे कमज़ोर हो जाएगी।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को विनियमित करने वाले वर्तमान प्रावधान क्या हैं?

अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत संवैधानिक गारंटी: सभी भारतीय नागरिकों को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल अधिकार है, जिसमें शब्दों, लेखन, प्रिंट, चित्रों, फिल्मों, डिजिटल मीडिया एवं प्रेस द्वारा विचार व्यक्त करना शामिल है।

इस अधिकार में सूचना की अभिगम्यता और उसके प्रसार की स्वतंत्रता तथा सार्वजनिक चर्चा के एक अनिवार्य हिस्से के रूप में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है।

अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंध: वाक् की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है; राज्य संप्रभुता, राज्य की सुरक्षा, मैत्रीपूर्ण विदेश संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि और अपराध के लिये उकसाने के हित में उचित प्रतिबंध लगा सकता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला कोई भी कानून विधिक रूप से समर्थित, तर्कसंगत और इन आधारों से जुड़ा होना चाहिये।

भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023– धारा 296: सार्वजनिक स्थानों पर अश्लील कृत्यों या गीतों से असुविधा उत्पन्न करने पर दंड का प्रावधान करती है, सार्वजनिक शालीनता के मानकों को सुदृढ़ करती है।

धारा 299: धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से जानबूझकर किये गए और दुर्भावनापूर्ण कृत्यों को दंडित करती है, सामाजिक सद्भाव की रक्षा करती है।

धारा 300: धार्मिक सभाओं या पूजा में बाधा उत्पन्न करना अपराध घोषित करती है, सार्वजनिक व्यवस्था और सांप्रदायिक शांति की रक्षा करती है।

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 – ऑनलाइन अभिव्यक्ति का विनियमन: IT अधिनियम डिजिटल स्पेस में अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है, जहाँ संचार तीव्र और व्यापक होता है।

धारा 66 कंप्यूटर से संबंधित अपराधों जैसे हैकिंग और अनधिकृत अभिगम्यता से संबंधित है, जबकि धारा 66E निजी छवियों को अनधिकृत रूप से साझा करने के माध्यम से निजता के उल्लंघन से व्यक्तियों की रक्षा करती है। 

धारा 67 ऑनलाइन अश्लील या यौन रूप से स्पष्ट कंटेंट के प्रकाशन या प्रसारण को दंडनीय बनाती है। ये प्रावधान सुनिश्चित करते हैं कि डिजिटल स्वतंत्रता का दुरुपयोग, शोषण या हानि न हो।

धारा 69A केंद्र और राज्य सरकारों को किसी भी कंप्यूटर संसाधन में उत्पन्न, प्रेषित, प्राप्त या संग्रहीत किसी भी सूचना के प्रसार को रोकने, निगरानी करने या डिक्रिप्ट करने के निर्देश जारी करने का अधिकार देती है।

सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 – मध्यस्थ और डिजिटल मीडिया विनियमन: सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021, ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों के लिये जवाबदेही निर्धारित करते हैं। ये नियम सोशल मीडिया मध्यस्थों और डिजिटल समाचार प्रकाशकों को उचित सावधानी के मानदंडों का पालन करने, निर्देश मिलने पर गैर-कानूनी कंटेंट को हटाने तथा उपयोगकर्त्ता शिकायतों के निवारण के लिये शिकायत अधिकारी नियुक्त करने के लिये बाध्य करते हैं।

इन नियमों में एक आचार संहिता और स्वनियमन, निगरानी निकायों एवं सरकारी पर्यवेक्षण से युक्त त्रिस्तरीय शिकायत निवारण तंत्र को भी अनिवार्य किया गया है, जो जिम्मेदार डिजिटल संचार सुनिश्चित करता है।

न्यायिक व्याख्या 

  • रमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950) मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने एक पत्रिका पर लगे प्रतिबंध को रद्द करते हुए कहा कि प्रतिबंधों को संकीर्ण रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये तथा कमज़ोर आधारों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिये इनका उपयोग नहीं किया जा सकता है। इस मामले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के सशक्त संरक्षण की नींव रखी।
  • बृज भूषण शर्मा बनाम दिल्ली राज्य (1950) मामला: न्यायालय ने एक समाचार पत्र पर पूर्व सेंसरशिप को अमान्य घोषित कर दिया, यह रेखांकित करते हुए कि प्रकाशन से पहले के प्रतिबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं, जब तक कि सार्वजनिक व्यवस्था के लिये स्पष्ट खतरा न हो। 
  • सकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1961) मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने समाचार पत्रों के मूल्य निर्धारण और विज्ञापन पर लगे प्रतिबंधों को रद्द कर दिया, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि प्रेस पर लगाए गए आर्थिक बोझ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अनुचित हस्तक्षेप के बराबर हो सकते हैं।
  • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने IT अधिनियम की धारा 66A को अस्पष्ट और अत्यधिक व्यापक होने के कारण निरस्त कर दिया, यह मानते हुए कि ऑनलाइन वाक्-अभिव्यक्ति के लिये गिरफ्तारी अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करती है तथा अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित नहीं ठहराई जा सकती है।
  • अनुराधा भसिन बनाम भारत संघ (2020) मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इंटरनेट के माध्यम से अभिव्यक्ति और व्यापार की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(a) एवं 19(1)(d) के तहत संरक्षित है। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अनिश्चितकालीन इंटरनेट बंद करना असंवैधानिक है तथा इसके लिये आवश्यकता और आनुपातिकता की कसौटी पर खरा उतरना आवश्यक है। फैसले में निलंबन आदेशों की आवधिक समीक्षा का भी आदेश दिया गया, जिससे मनमानी पाबंदियों के खिलाफ सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ किया जा सके।

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघनों में वृद्धि और असहमति पर ‘चिलिंग इफेक्ट’: भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघन के मामलों में तीव्र वृद्धि देखी गई है, फ्री स्पीच कलेक्टिव ने वर्ष 2025 में 14,875 घटनाओं को दर्ज किया है, जिनमें अभिव्यक्ति से संबंधित गतिविधियों से जुड़ी 117 गिरफ्तारियाँ और 9 मौतें शामिल हैं।
    • इससे यह बात उजागर होती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये खतरे ऑनलाइन सेंसरशिप से परे जाकर शारीरिक सुरक्षा तक भी हैं, जिससे भय का माहौल बनता है, जो असहमति और लोकतांत्रिक भागीदारी को हतोत्साहित करता है।
  • बार-बार इंटरनेट बंद होने से सूचना तक अभिगम्यता का सीमित होना: एक्सेस नाउ के अनुसार, भारत ने वर्ष 2024 में 84 बार इंटरनेट बंद किया, जो लोकतांत्रिक देशों में सबसे अधिक है। 
    • इस तरह की बाधाएँ सूचना, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आजीविका तक अभिगम्यता को गंभीर रूप से प्रभावित करती हैं, जबकि डिजिटल शासन में आनुपातिकता, पारदर्शिता एवं उचित प्रक्रिया को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न करती हैं।
  • ऑनलाइन अभिव्यक्ति पर व्यापक नियंत्रण और कार्यकारी नियंत्रण: मई 2025 में, रिपोर्टों से पता चला कि सरकारी निर्देशों के तहत 8,000 से अधिक सोशल मीडिया खातों को ब्लॉक करने का आदेश दिया गया था। कार्यकारी आदेशों के माध्यम से प्रयोग की जाने वाली व्यापक नियंत्रण शक्तियाँ दर्शाती हैं कि किस प्रकार राज्य का अधिकार डिजिटल संवाद को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है, प्रायः सीमित न्यायिक निगरानी के साथ।
  • अपारदर्शी टेकडाउन तंत्र और विस्तारित प्रवर्तन अवसंरचना: सरकार के सहयोग पोर्टल ने अक्तूबर 2024 और जून 2025 के दौरान 3,276 URL को कवर करते हुए 294 टेकडाउन अनुरोध दर्ज किये। 
    • समन्वय तंत्र के रूप में प्रस्तुत किये जाने के बावजूद, पारदर्शिता, स्वतंत्र समीक्षा और स्पष्ट अपील प्रक्रियाओं की कमी ने अतिचार एवं प्रक्रियात्मक निष्पक्षता के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
  • समाचारों तक पहुँच और मीडिया की स्वतंत्रता पर प्रभाव: जुलाई 2025 में, एक कानूनी मांग के बाद X पर रॉयटर्स न्यूज़ खाते को अस्थायी रूप से अवरुद्ध कर दिया गया था, जिसे बाद में बहाल कर दिया गया। इसने इस बात को उजागर किया कि किस प्रकार की कार्रवाई विश्वसनीय पत्रकारिता तक अभिगम्यता को बाधित कर सकती है।
    • इस तरह की घटनाएँ मीडिया प्लेटफॉर्मों के लिये अनिश्चितता को बढ़ाती हैं तथा संपादकीय स्वतंत्रता और सत्यापित जानकारी तक जनता की पहुँच के बारे में सवाल खड़े करती हैं।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करने में नैतिक उत्तरदायित्व: रणवीर इलाहाबादिया विवाद जैसे मामले इस बात को उजागर करते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानूनी सीमाओं से परे नैतिक उत्तरदायित्वों को भी साथ लेकर चलती है। बड़ी संख्या में श्रोताओं वाले प्रभावशाली व्यक्ति सार्वजनिक चर्चा को आकार देते हैं, इसलिये संयम और संवेदनशीलता आवश्यक हो जाती है।
    • अभिव्यक्ति वैध होने पर भी, गैर-जिम्मेदाराना अभिव्यक्ति सामाजिक सद्भाव और जनविश्वास को नुकसान पहुँचा सकती है। ऐसे मामले डिजिटल युग में कानूनी सुरक्षा उपायों के साथ-साथ स्व-नियमन और नैतिक जवाबदेही की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।
  • सख्त कंटेंट विनियमन का न्यायिक समर्थन: एक्स कॉर्प बनाम यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला, जिसमें सरकार की विस्तारित कंटेंट हटाने की शक्तियों को बरकरार रखा गया है।
    • अदालत ने प्लेटफॉर्मों के लिये राज्य के निर्देशों का शीघ्र पालन करने के कानूनी दायित्व को सशक्त किया और फैसला सुनाया कि ऐसा करने में विफलता के परिणामस्वरूप सेफ हार्बर संरक्षण समाप्त हो जाता है।
    • संप्रभुता और सार्वजनिक व्यवस्था की पुष्टि करते हुए, इस फैसले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये संवैधानिक सुरक्षा के साथ नियामक प्राधिकरण को संतुलित करने पर बहस को तीव्र कर दिया।
  • निगरानी और डेटा अनुरोधों से स्व-सेंसरशिप में तेज़ी: मेटा तथा अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की पारदर्शिता रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि भारत सरकार द्वारा डेटा अनुरोधों की संख्या अत्यधिक है, जिससे निजता के क्षरण की आशंकाएँ बढ़ी हैं।
    • वर्ष 2024 की पहली छमाही के दौरान Google को भेजे गए उपयोगकर्त्ता सूचना प्रकटीकरण अनुरोधों की संख्या के मामले में भारत विश्व स्तर पर दूसरे स्थान (केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के पीछे) पर रहा।
    • व्यापक निगरानी क्षमताएँ चिलिंग इफेक्ट उत्पन्न कर सकती हैं, जहाँ उपयोगकर्ता पहचान, निगरानी या विधिक परिणामों के भय से स्वयं को प्रतिबंधित कर लेते हैं।

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा किस-प्रकार की जा सकती है?

  • न्यायिक निरीक्षण और आनुपातिकता परीक्षणों को मज़बूत करना: न्यायालयों को श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) और अनुराधा भसिन बनाम भारत संघ (2020) जैसे निर्णयों में निर्धारित वैधता, आवश्यकता एवं आनुपातिकता के परीक्षणों को सख्ती से लागू करना चाहिये।
    • इन निर्णयों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध न्यूनतम प्रतिबंधात्मक होने चाहिये और स्पष्ट कानूनी अधिकार द्वारा समर्थित होने चाहिये। अभिव्यक्ति से संबंधित कार्यकारी कार्रवाइयों की नियमित न्यायिक समीक्षा अस्पष्ट या अत्यधिक प्रतिबंधों के दुरुपयोग को रोक सकती है।
  • अभिव्यक्ति संबंधी कानूनों में सुधार और स्पष्टीकरण: सार्वजनिक व्यवस्था, अश्लीलता और ऑनलाइन अभिव्यक्ति से संबंधित कानून— जैसे: भारतीय न्याय संहिता की धारा 296, 299 और 300 तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के प्रावधान के दुरुपयोग को रोकने के लिये इन्हें स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये। स्पष्ट वैधानिक परिभाषाएँ और मनमाने व्याख्याओं के विरुद्ध सुरक्षा-प्रावधान, वैध अभिव्यक्ति पर पड़ने वाले ‘चिलिंग इफेक्ट’ को कम कर सकते हैं।
    • उदाहरण के लिये, जर्मनी का नेटवर्क प्रवर्तन अधिनियम (NetzDG) कंटेंट नियंत्रण में प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के लिये एक आदर्श प्रस्तुत करता है। राष्ट्र-विरोधी जैसे अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग करने के बजाय, यह कानून 22 विशिष्ट आपराधिक अपराधों (जैसे: घृणा-उत्तेजना, मानहानि, असंवैधानिक संगठनों के प्रतीकों का प्रयोग) को सूचीबद्ध करता है जो कंटेंट को हटाने का औचित्य सिद्ध करते हैं।
  • कंटेंट हटाने और अवरोध आदेशों में पारदर्शिता सुनिश्चित करना: सूचना प्रौद्योगिकी नियमों के अंतर्गत सरकार द्वारा जारी कंटेंट-हटाने के अनुरोधों में पारदर्शी प्रक्रियाएँ अपनाई जानी चाहिये जिनमें लिखित कारण, सार्वजनिक प्रकटीकरण (संवेदनशील मामलों को छोड़कर) तथा अपील का अधिकार सम्मिलित हो।
    • यूनाइटेड किंगडम और यूरोपीय संघ प्रकटीकरण-आधारित मॉडलों का पालन करते हैं, जो सुरक्षा एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करते हैं; भारत इस दृष्टिकोण से सीख ले सकता है।
  • मीडिया की स्वतंत्रता के लिये संस्थागत सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ करना: प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी जैसे स्वतंत्र नियामक निकायों को अधिक स्वायत्तता एवं प्रवर्तन क्षमता प्रदान की जानी चाहिये। 
    • इससे एक ओर प्रशासनिक अतिक्रमण में कमी आएगी और दूसरी ओर नैतिक पत्रकारिता तथा उत्तरदायित्व सुनिश्चित होगा।
  • पत्रकारों और मुखबिरों की सुरक्षा: पत्रकारों और मुखबिरों के उत्पीड़न, मनमानी गिरफ्तारी या धमकी को रोकने के लिये विधिक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता है। 
    • व्हिसल ब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम का अक्षरशः और भावार्थतः क्रियान्वयन तथा सुदृढ़ साक्षी-सुरक्षा ढाँचे, खोजी पत्रकारिता के लिये सुरक्षित वातावरण निर्मित कर सकते हैं।
  • अतिचार के बिना डिजिटल प्लेटफॉर्मों का विनियमन: सोशल मीडिया का विनियमन करते समय हानि-निवारण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन साधना आवश्यक है। समग्र प्रतिबंधों के बजाय चरणबद्ध उपाय— जैसे: कंटेंट-लेबलिंग, तथ्य-जाँच तथा एल्गोरिद्मिक पारदर्शिता को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
    • यूरोपीय संघ का डिजिटल सेवा अधिनियम एक उपयोगी संदर्भ मॉडल प्रदान करता है।
  • इंटरनेट शटडाउन पर स्पष्ट मानक लागू करना: इंटरनेट शटडाउन का उपयोग केवल अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिये, जो कि आवश्यकता, आनुपातिकता और अस्थायीता के सिद्धांतों का पालन करता हो, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अनुराधा भसीन मामले में निर्धारित किया था। 
    • अनिवार्य आवधिक समीक्षा और न्यायिक निगरानी इसके दुरुपयोग को रोक सकती है।
  • मीडिया साक्षरता और नागरिक जागरूकता को बढ़ावा देना: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिये नागरिकों को सूचनाओं का समालोचनात्मक मूल्यांकन करने में सक्षम बनाना आवश्यक है। शिक्षा पाठ्यक्रम में मीडिया साक्षरता को शामिल करने से गलत सूचनाओं को कम किया जा सकता है तथा लोकतांत्रिक विमर्श को सुदृढ़ किया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिये, फिनलैंड मीडिया साक्षरता के प्रभावी और दीर्घकालिक कार्यान्वयन का एक अग्रणी उदाहरण प्रस्तुत करता है। मीडिया साक्षरता को एक अलग विषय के रूप में नहीं पढ़ाया जाता है, बल्कि इसे पूर्व-प्राथमिक स्तर से ही सभी स्कूली विषयों में अंतःसमाहित किया गया है।
  • स्वतंत्र निगरानी तंत्र सुनिश्चित करना: एक स्वतंत्र डिजिटल अधिकार या मीडिया लोकपाल की स्थापना विवादों के निपटारे, सरकारी कार्रवाइयों की निगरानी तथा नागरिकों की अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता के संरक्षण में सहायक हो सकती है और राजनीतिकरण से भी बचा सकती है।
    • उदाहरण के लिये, फ्राँस जैसे देश तटस्थ ARCOM अथॉरिटी (ऑडियोविजुअल एंड डिजिटल कम्युनिकेशन रेगुलेटरी अथॉरिटी) का उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिये करते हैं कि सभी निर्णय निष्पक्ष रूप से लिये जाएं, न कि राजनीतिक रूप से, जिससे नागरिकों के स्वतंत्र रूप से वाक् एवं अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा हो सके।

निष्कर्ष: 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के लोकतंत्र का मूल आधार है, जो असहमति, जवाबदेही और सूचित सार्वजनिक बहस को संभव बनाती है। संवैधानिक सुरक्षा उपायों के बावजूद, डिजिटल विनियमन और सुरक्षा संबंधी चिंताओं जैसी उभरती चुनौतियों के लिये सावधानीपूर्वक संतुलन आवश्यक है। सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखते हुए इस मूल अधिकार की रक्षा के लिये पारदर्शी कानूनों, न्यायिक निगरानी एवं आनुपातिक प्रतिबंधों को सुनिश्चित करना अनिवार्य है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

डिजिटल युग में, भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कार्यपालिका की कार्रवाई और न्यायिक व्याख्या से तेज़ी से प्रभावित हो रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक कार्यढाँचे की विवेचना कीजिये तथा न्यायिक हस्तक्षेप एवं डिजिटल विनियमन जैसी हालिया चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये और सार्वजनिक व्यवस्था को भंग किये बिना इस अधिकार की रक्षा हेतु प्रावधान प्रस्तावित कीजिये।

 

प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न

1. अनुच्छेद 19(1)(a) क्या गारंटी देता है? 
यह वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें मत व्यक्त करने का अधिकार, सूचना का प्रसार तथा कलात्मक, राजनीतिक और डिजिटल अभिव्यक्ति में सहभागिता शामिल है।

2. क्या भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जा सकता है? 
हाँ, लेकिन केवल अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित विशिष्ट आधारों पर ही, जैसे लोक व्यवस्था, शालीनता, मानहानि अथवा अपराध के लिये उकसाना।

3. अभिव्यक्ति के नियमन में न्यायिक हस्तक्षेप चिंता का विषय क्यों है? 
क्योंकि न्यायालय निर्णयात्मक भूमिका से आगे बढ़कर नीतिनिर्माण में प्रवेश कर सकते हैं, जिससे शक्तियों के पृथक्करण और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व को क्षति पहुँचती है।

4. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव क्या है? 
यह व्यक्तियों द्वारा विधिक कार्रवाई, FIR अथवा निगरानी के भय से स्वयं पर लगाए गए प्रतिबंध की प्रवृत्ति को संदर्भित करता है।

5. भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विनियमन के बीच संतुलन कैसे बना सकता है? 
प्रकाशन के पश्चात उपचारों को प्राथमिकता देकर, न्यायिक संयम अपनाकर, सटीक कानूनों का निर्माण करके तथा अधिकार-केंद्रित डिजिटल शासन ढाँचे को सुदृढ़ करके।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. भारत के संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत ‘निजता का अधिकार’ संरक्षित है? (2021) 

(a) अनुच्छेद 15

(b) अनुच्छेद 19

(c) अनुच्छेद 21

(d) अनुच्छेद 29

उत्तर: (c)


मेन्स 

प्रश्न 1. आप 'वाक् और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य' संकल्पना से क्या समझते हैं? क्या इसकी परिधि में घृणा वाक् भी आता है? भारत में फिल्में अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से तनिक भिन्न स्तर पर क्यों हैं? चर्चा कीजिये। (2014)