केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968 | 17 Jul 2020

प्रीलिम्स के लिये

केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968, पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 

मेन्स के लिये 

पशु क्रूरता और पशु अधिकारों से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968 (Kerala Animals and Bird Sacrifices Prohibition Act, 1968) की संवैधानिकता की जाँच करने पर सहमति व्यक्त की है।

प्रमुख बिंदु 

  • गौरतलब है कि केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968 (Kerala Animals and Bird Sacrifices Prohibition Act,1968) राज्य के अंतर्गत ‘देवता’ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से मंदिर परिसर में जानवरों और पक्षियों की बलि देने पर रोक लगाता है।
  • इस मामले पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने केरल के पशु संरक्षण कानून में ‘विरोधाभास’ को रेखांकित किया, जो कि भोजन के लिये जानवरों को मारने की अनुमति देता है, किंतु देवता के लिये जानवरों की हत्या की अनुमति नहीं देता है।
  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केरल सरकार, केंद्र सरकार और पशु कल्याण बोर्ड (Animal Welfare Board) को नोटिस जारी किया है।

विवाद 

  • सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्त्ता द्वारा दायर अपील के अनुसार, पशु बलि उसकी धार्मिक प्रथा का एक अभिन्न अंग है और इस प्रकार केरल सरकार का अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के तहत उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • गौरतलब है कि इससे पूर्व 16 जून, 2020 को केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने केरल के इस अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया था।
    • इस संबंध में केरल उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा था कि यह सिद्ध करने के लिये कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है कि हिंदू अथवा किसी अन्य धर्म के अंतर्गत किसी समुदाय विशेष के लिये धार्मिक सिद्धि हेतु बलि देना अनिवार्य है।

याचिकाकर्त्ता का पक्ष

  • मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप 
    • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया है कि पशु बलि, शक्ति पूजा (Shakthi Worship) का एक अभिन्न अंग है और चूँकि वह इस प्रथा को पूरा करने में असमर्थ है, इसलिये मान्यताओं के अनुसार उसे ‘देवी के क्रोध’ का सामना करना पड़ सकता है।
    • याचिकाकर्त्ता के मुताबिक, केरल सरकार का यह नियम संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत उसके मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप करता है।

अनुच्छेद 25 (1) 

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है। यह अधिकार समानता के अधिकार से पूरकता रखता है।
  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन
    • याचिकाकर्त्ता के अनुसार, केरल सरकार का यह नियम संविधान के अनुच्छेद-14 (विधि के समक्ष समता) का भी  उल्लंघन करता है।
    • याचिकाकर्त्ता के मुताबिक, यदि केरल के इस कानून का उद्देश्य जानवरों का संरक्षण और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना है तो इसे सभी धर्मों पर एक समान रूप से लागू किया जाना चाहिये।
    • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया है कि यह कानून केवल किसी देवता के लिये जानवरों को मारने पर रोक लगाता है, जबकि मंदिर परिसर में व्यक्तिगत उपभोग के लिये किसी जानवर को मारने के लिये इस अधिनियम में कोई प्रतिबंध नहीं है।
  • केंद्र सरकार के पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के विपरीत है यह नियम
    • याचिकाकर्त्ता ने रेखांकित किया कि, जहाँ एक ओर केंद्र सरकार का पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 धार्मिक उद्देश्य से किसी पशु के वध को अपराध नहीं मानता, वहीं राज्य का कानून इस कृत्य को अपराध मानता है, इस प्रकार राज्य का कानून केंद्रीय कानून के प्रावधानों को खंडित करता है।
    • गौरतलब है कि भारत के संवैधानिक ढाँचे के तहत पशुओं के साथ क्रूरता के संबंध में केंद्र तथा राज्य सरकारें, दोनों ही कानून बना सकती हैं, परंतु यदि किसी कारण दोनों के मतों में भिन्नता उत्पन्न होती है तो ऐसे अधिनियम को राष्ट्रपति की अनुमति के लिये सुरक्षित रख दिया जाता है।

स्रोत: द हिंदू