मताधिकार एवं मतदान की स्वतंत्रता में अंतर | 10 Nov 2025

प्रिलिम्स के लिये: मताधिकार, NOTA (इनमें से कोई नहीं), अनुच्छेद 19, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार

मेन्स के लिये: मतदान के अधिकार की प्रकृति, अभिव्यक्ति के रूप में मतदान की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक भागीदारी और चुनावी दक्षता में संतुलन

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

भारत सरकार ने हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) को बताया कि मताधिकार और मतदान की स्वतंत्रता दो अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।

मताधिकार एवं मतदान की स्वतंत्रता में क्या अंतर है?

  • प्रकृति: 
    • मताधिकार: यह RPA, 1951 के तहत प्रदत्त एक वैधानिक अधिकार है, न कि एक मौलिक अधिकार
    • मतदान की स्वतंत्रता: यह अनुच्छेद 19(1)(a) का हिस्सा मानी जाती है, जो प्रत्येक नागरिक को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
      • यह मतदाता की पसंद को व्यक्त करने की स्वतंत्रता को शामिल करता है चाहे वह किसी उम्मीदवार को चुनना हो या NOTA (इनमें से कोई नहीं) का चयन करना हो। हालाँकि, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल तब लागू होती है जब वास्तविक मतदान कराया जाता है।
  • निर्विरोध चुनावों का मुद्दा: RPA, 1951 की धारा 53(2) के तहत, यदि प्रतियोगिता में शामिल उम्मीदवारों की संख्या भरे जाने वाले सीटों की संख्या के बराबर है तो कोई मतदान नहीं कराया जाता। इसके बजाय, रिटर्निंग ऑफिसर उम्मीदवारों को बिना प्रतियोगिता के निर्वाचित घोषित करता है, सामान्य चुनावों के लिये  फॉर्म 21 या उपचुनावों के लिए फॉर्म 21B का उपयोग करते हुए।
    • जब मतदान नहीं होता तो मतदाता मतदान की स्वतंत्रता का उपयोग नहीं कर पाते और न ही NOTA का चयन कर सकते हैं। याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि यह स्थिति मतदाताओं को NOTA के माध्यम से असंतोष व्यक्त करने के अवसर से वंचित करती है, जिससे उनका अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत दिया गया अभिव्यक्ति का अधिकार उल्लंघित होता है।
    • केंद्र सरकार ने कहा कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 79(b) के तहत NOTA को उम्मीदवार नहीं माना गया है। इसलिये निर्विरोध चुनावों में मतदान कराने की मांग के लिये NOTA का उपयोग नहीं किया जा सकता।
  • भारत निर्वाचन आयोग का दृष्टिकोण: भारत निर्वाचन आयोग (ECI) का कहना है कि यदि NOTA को एक प्रतिस्पर्द्धी उम्मीदवार के रूप में माना जाए तो इसके लिये RPA 1951 और निर्वाचन आचरण नियम, 1961 में संशोधन करना आवश्यक होगा।
    • निर्वाचन आयोग (EC) ने उल्लेख किया कि निर्विरोध चुनाव अत्यंत दुर्लभ हैं (वर्ष 1951 से 2024 के बीच हुए 20 आम चुनावों में केवल नौ बार हुए हैं और वर्ष 1991 के बाद से मात्र एक बार ही ऐसे चुनाव हुए हैं)।
    • निर्वाचन आयोग (ECI) ने कहा कि जैसे-जैसे लोकतंत्र विकसित हुआ है, अधिक राजनीतिक दल और उम्मीदवार चुनाव लड़ने लगे हैं, जिसके परिणामस्वरूप निर्विरोध विजय अब अत्यंत दुर्लभ हो गई है।
  • न्यायिक व्याख्या: सिविल लिबर्टीज (PUCL) बनाम संघ (2003) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मताधिकार मूल अधिकार नहीं है, लेकिन एक बार जब मतदाता अपना मत देता है तो वह उसकी अभिव्यक्ति का कार्य बन जाता है, जो उसके विचार और वरीयता को प्रतिबिंबित करता है।

मताधिकार क्या है?

  • परिचय: मताधिकार पात्र नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों के चयन में भाग लेने की अनुमति देता है।
    • भारत में यह प्रतिनिधिक लोकतंत्र का केंद्रीय तत्त्व है, जो जवाबदेही और जन-भागीदारी को सक्षम बनाता है।
    • यद्यपि यह सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के माध्यम से सुनिश्चित किया गया है, परंतु इसकी प्रकृति को मुख्यतः मूल अधिकार के रूप में नहीं बल्कि वैधानिक माना गया है।
  • संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 326 यह प्रावधान करता है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक, जिसकी आयु 18 वर्ष से कम न हो, उसे लोकसभा और प्रत्येक राज्य की विधानसभा के चुनावों के लिये वयस्क मताधिकार के आधार पर मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का अधिकार है।
    • 61वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1988) के माध्यम से मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
  • वैधानिक ढाँचा: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1950 की धारा 16 गैर-नागरिकों को मतदाता सूची में शामिल होने से रोकती है, जबकि धारा 19 के अनुसार मतदाता की आयु 18 वर्ष या उससे अधिक होनी चाहिये और वह संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में सामान्य रूप से निवासरत होना चाहिये।
    • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 की धारा 62 के तहत प्रत्येक पंजीकृत व्यक्ति को मताधिकार है, जब तक कि उसे किसी अयोग्यता (जैसे कारावास) के आधार पर प्रतिबंधित न किया गया हो।
    • इन प्रावधानों के माध्यम से मतदाता पात्रता परिभाषित की गई है, जिससे मताधिकार वैधानिक बनता है और यह विधिक विनियमन के अधीन रहता है।
  • मताधिकार की न्यायिक व्याख्या:

मामला

न्यायिक व्याख्या

एन.पी. पोन्नुस्वामी (1952)

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मताधिकार एक वैधानिक अधिकार है और यह उसी के द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन है।

ज्योति बसु (1982)

सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि मतदान न तो मूल अधिकार है और न ही सामान्य विधिक अधिकार, बल्कि मात्र एक वैधानिक अधिकार है।

कुलदीप नायर (2006)

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मताधिकार वैधानिक है।

राज बाला (2015)

सर्वोच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि मताधिकार संवैधानिक स्वरूप रखता है।

अधिकार क्या हैं?

  • अधिकार: अधिकार वह न्यायोचित दावा या विशेषाधिकार है जो व्यक्तियों को संविधान, वैधानिक कानून या न्यायिक व्याख्या के अंतर्गत प्राप्त होता है।
    • यह व्यक्ति को कुछ स्वतंत्रताओं या संरक्षणों का अधिकार देता है, जिन्हें न्यायालयों सहित विधिक संस्थानों के माध्यम से लागू या संरक्षित किया जा सकता है।
  • अधिकारों के प्रकार:
    • प्राकृतिक अधिकार: ये जन्मसिद्ध और अविच्छेद्य अधिकार हैं जो राज्य से पूर्व अस्तित्व में रहते हैं, जैसे जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार।
      • ये सीधे न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं होते, परंतु इन्हें मूल अधिकारों के माध्यम से मान्यता दी जा सकती है।
    • नैतिक अधिकार: ये विधिक प्रावधानों के बजाय नैतिक सिद्धांतों पर आधारित अधिकार होते हैं, जो यह निर्धारित करते हैं कि क्या नैतिक रूप से सही या गलत है।
    • मौलिक अधिकार: ये संविधान के भाग III में निहित हैं, जो समानता और स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं। 
      • राज्य इनका उल्लंघन नहीं कर सकता और ये अनुच्छेद 32 के अंतर्गत प्रत्यक्ष रूप से सर्वोच्च न्यायालय में प्रवर्तनीय हैं।
    • संवैधानिक अधिकार: ये वे अधिकार हैं जो संविधान में भाग III के बाहर निहित हैं, जैसे संपत्ति का अधिकार, मुक्त व्यापार का अधिकार तथा कानून के अधिकार के बिना कराधान न करने का अधिकार।
      • इनका प्रवर्तन विधि (legislation) के माध्यम से किया जाता है और इन्हें अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों के समक्ष चुनौती दी जा सकती है।
    • वैधानिक (कानूनी) अधिकार: ये अधिकार सामान्य कानूनों से उत्पन्न होते हैं, जैसे मनरेगा (MGNREGA) या वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act)
      • इनका प्रवर्तन संबंधित कानूनों में निर्धारित कानूनी प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है।

निष्कर्ष

भारत में मताधिकार संविधान के अनुच्छेद 326 के अंतर्गत सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के सिद्धांत पर आधारित है, परंतु इसका वास्तविक क्रियान्वयन सांविधिक (statutory) कानूनों के माध्यम से नियंत्रित होता है। न्यायालयों ने प्रायः इसे वैधानिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि विकसित होती लोकतांत्रिक परंपराएँ और न्यायिक विमर्श यह विचार जारी रखे हुए हैं कि क्या इस अधिकार को अधिक सशक्त संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिये।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. अनुच्छेद 326 के अंतर्गत सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार एक संवैधानिक आदेश है, फिर भी मतदान की क्रिया सांविधिक है। इस वर्गीकरण के निर्वाचन लोकतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ते हैं, चर्चा कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. अनुच्छेद 326 क्या प्रावधान करता है?
यह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर कराने का निर्देश देता है। 61वें संविधान संशोधन (1988) द्वारा मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई थी।

2. भारत में मतदान के अधिकार की कानूनी स्थिति क्या है?
सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि यह एक वैधानिक अधिकार है, न कि मूल अधिकार (पोन्नुस्वामी 1952; ज्योति बसु 1982; कुलदीप नायर 2006; अनूप बरनवाल 2023)।

3. RPA, 1951 की धारा 53(2) क्या प्रावधान करती है?
यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवारों की संख्या सीटों की संख्या के बराबर हो तो मतदान नहीं कराया जाता और रिटर्निंग ऑफिसर उन्हें निर्वाचित घोषित कर देता है। इसके लिये सामान्य चुनावों में फॉर्म 21 तथा उपचुनावों में फॉर्म 21B का उपयोग किया जाता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारत में मताधिकार और निर्वाचित होने का अधिकार (2017)

(a) मूल अधिकार है

(b) नैसर्गिक अधिकार है

(c) संवैधानिक अधिकार है

(d) विधिक अधिकार है

उत्तर: C


मेन्स 

प्रश्न. भारत में लोकतंत्र की गुणता को बढ़ाने के लिये भारत के चुनाव आयोग ने 2016 में चुनावी सुधारों का प्रस्ताव दिया है। सुझाए गए सुधार क्या हैं और लोकतंत्र को सफल बनाने में वे किस सीमा तक महत्त्वपूर्ण हैं? (2017)